प्रश्नकर्ता: सर, मैं ऐसा क्यों हूँ?
आचार्य प्रशांत: हम यह बोलें भी कि यह सब जो है, यह सत्य का प्रस्फुटन (*मैनीफेस्टेशन() है, तो यह जो तुम अपने आस-पास देख रहे हो; गिनो, इसमें कितने रंग हैं? कितने हैं? उठ कर जाने की ज़रूरत नहीं। बस अभी जो हैं, परितः, आस-पास, इनको ही देखो। कितने रंग हैं?
प्र: हरा है, सफ़ेद है, काला है, लाल है, नीला है, भूरा है।
आचार्य: कितने तरह के पौधे हैं?
प्र२: सर, बहुत सारे हैं।
आचार्य: बीस, पचास, सौ, शायद पाँच सौ! सिर्फ़ यहाँ बैठे-बैठे ही कितनी तरह की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं। बहुत होंगी, है न? तो एक बात तो पकड़ में आती है कि वो, जो अपने-आप को व्यक्त कर रहा है, वो अपनी व्यक्त करने की आज़ादी पर किसी तरह की बंदिश नहीं रखता। कि “मैं तो सिर्फ़ सफ़ेद में व्यक्त होऊँगा, मैं तो सिर्फ़ काले में व्यक्त होऊँगा, मैं तो सिर्फ़ फूल बनूँगा जी, मैं तो सिर्फ़ मीठा-मीठा बनूँगा जी”। ऐसा तो कुछ नहीं है न?
परमात्मा भी, अपने-आप को, जितने भी तरीके संभव हो सकते हैं, उन सब में व्यक्त करता है। अनुचित नहीं होगा कहना कि उसको विविधता पसंद है। क्योंकि जिधर देखो, उधर क्या है? सब अलग-अलग ही है मामला! जो अलग-अलग है, उसे ही तो संसार कहते हैं। ऐसा है कि नहीं है? और जितने तरीकों से वो अपने-आप को व्यक्त कर रहा है, हर तरीका बिलकुल अनूठा! वो और कुछ हो नहीं सकता, उसे और कुछ होना नहीं चाहिए। वो अपने-आप में पूरा है, ठीक है? उसको ना दाएँ होना है, ना बाएँ होना है, उसको वैसे ही होना है जैसा वो है।
तो जब मैं कोई बात कहता हूँ, तो इसलिए नहीं कहता हूँ कि सब एकरूप हो जाएँ। ध्यान का कोई विशिष्ट अर्थ नहीं होता कि ध्यान मतलब सब किसी एक जैसे मौन में चले गये हैं। 'प्रेम' कहता हूँ तो प्रेम का भी कोई एक अर्थ नहीं होता है। समझ में आ रही है बात? तुम जितने हो, तुम सब के लिये प्रेम अपना-अपना ही होगा। और उस चीज़ को काट-कूट कर, बिलकुल एक समान करने की कोशिश पागलपन है, बिलकुल पागलपन है।
तो अभिषेक को ‘अभिषेक’ होना है, रोहित को ‘रोहित’ होना है। परम भीतर है, केंद्र में है, हृदय में है, बाहर तो वैविध्य ही रहेगा। बाहर ये थोड़े ही है कि सब एक-जैसे दिखने लग गये, एक-जैसी बातें कर रहे हैं। कोई सवाल पूछा गया तो सब एक-से जवाब दे रहे हैं, कोई स्थिति आयी, तो उसमें सब एक-सा रिस्पान्स दे रहे हैं। मतलब सुनने में ही ऐसा लग रहा है कि उल्टी ही हो जाये।
(सभी हँसते हैं)
चाय आयी, चाय पीते ही सब बोल रहे हैं – “वाह!” वो भी सब एक साथ! मतलब चल क्या रहा है? शुभांकर प्रिया जैसा हो गया। हो क्या रहा है ये? प्रिया अमनदीप जैसी! कुछ जमेगी नहीं न बात? और ऐसा नहीं है कि हमारा अहंकार बोल रहा है कि हमें नहीं जमेगी, ‘उसको’ भी नहीं जमेगी। उसको जमती होती तो वो सबकुछ एक जैसा बनाता। और अगर एक-जैसा ही होना है, तो उससे पूछो कि, "अलग-अलग बनाया ही क्यों?"
कोई कहीं पैदा हुआ, कोई कहीं पैदा हुआ, सबकी परिस्थितियाँ अलग हैं, सबका पूरा ढाँचा अलग है और वही ‘तुम’ हो। तो इस बात को ध्यान में रखना कि अगर तुमसे कुछ कहता हूँ, तो मेरे मन में पूरा सम्मान है तुम्हारे अनूठेपन के लिये, तुम्हारी विशिष्टता के लिए। बिलकुल ही कोई इरादा नहीं है कि तुमको किसी साँचे में ढाल दूँ कि “यह अभिषेक ठीक नहीं है। मुझे कोई और चाहिए”। बिलकुल भी नहीं भाई! तुम जैसे हो, तुमसे एक नाता है, मोहब्बत है, इसलिए तुमसे कोई बात कही जाती है। तुम इतने ही गड़बड़ होते तो तुमसे कुछ कहता ही क्यों? समझ में आ रही है न बात?
अब फिर सवाल यह उठता है कि अगर तुम अपने-आप में अनूठे हो, पूरे हो, जैसे हो, वैसे हो तो फिर मैं तुमसे कुछ कहूँ ही क्यों? कहना ज़रूरी हो जाता है। इसको ऐसे समझेंगे कि घास है और अच्छा नहीं लगता कि घास के ऊपर कोई पेंट डाल दे। नहीं अच्छा लगता है न? मैं घास से बिलकुल नहीं कह रहा कि तू अपना हरा रंग छोड़ दे। और याद रखना हरा रंग उसकी कन्डिशनिंग ही है, उसका जैविक संस्कार है। पर घास को यह कहना कि, “तू अपना हरा रंग ही छोड़ दे क्योंकि ये तेरी कन्डिशनिंग है”, यह पागलपन है। घास है, तो ऐसी ही रहेगी। कौवे से कहना कि, “तू काँव-काँव छोड़ दे क्योंकि कर्कश है”, ये पागलपन की बात है भाई। वो ऐसा ही रहेगा। तुम उसे ऐसे स्वीकार कर सकते हो तो करो, नहीं तो अपने रास्ते चलो। कौवा, कौवा ही रहेगा, अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम्हें उससे कितना प्रेम है। जैसा वो है, वैसे ही प्रेम अगर कर सकते हो तो करो। नहीं तो उसको उपदेश मत दो।
तो मैं अगर तुमसे कुछ बोलता हूँ, तो इतना ही कहता हूँ कि घास हो, तुम्हारे ऊपर रंग गिर गया है, वो साफ़ करो। फूल हो, तुम्हारे ऊपर धूल जम गयी है, उसको साफ़ करो। मैं यह नहीं कहता कि फूल रहो ही मत। मेरा ये कहने का बिलकुल भी कोई आशय नहीं है कि “देखो, सिर्फ़ मूल ही सत्य है। और बाकी तना, टहनियाँ, पत्ते, काँटे और फूल, ये सब व्यर्थ हैं। तो बाकी जितनी चीज़ें हैं, उन सब को हट जाना चाहिए और मात्र जो एक सत्य है, उसको शेष रहना चाहिए।” ये कह कर तो फिर आप जीवन को ही नष्ट कर दोगे।
धूल साफ़ करनी है, यह नहीं कि अपने होने पर ही तुम्हें शंका हो गयी कि “मैं कुछ हूँ ही गड़बड़”। ये कुछ गड़बड़-वड़बड़ नहीं है। तुमसे जो भी चीज़ उठती है, वही तुम्हारा रास्ता बनेगी; बस जो उठे, वो ईमानदारी से उठे। तुम जैसे हो तुम्हारा रास्ता तुमसे ही हो कर निकलेगा। और टोका-टाकी भी किसी का रास्ता हो सकता है। तुम्हें वही पसंद है न? वो भी हो सकता है कि दूसरों को टोकते-टाकते, एक दिन तुम अपनी ओर ही मुड़ जाओ। बात समझ रहे हो न? जो जैसा होता है, उसका रास्ता वैसे ही होने से निकलता है।
अब सब लोग नाच रहे हैं, और कोई जाकर चुप-चाप खड़े हो जाए क्योंकि बोल दिया कि निरुद्देश्य ऊर्जा है, तो ये अब कहाँ की समझदारी है! ऐसा नहीं है। तुम जैसे हो, तुम्हारा रास्ता तुमसे ही निकलेगा। जो अभिषेक का रास्ता है, वो प्रिया का रास्ता नहीं हो सकता। प्रिया का रास्ता, पंकज का रास्ता नहीं हो सकता। अपने-अपने होने के प्रति कुंठित मत हो जाना कि “हममें कुछ ग़लत है”। और एक का रास्ता दूसरे को हमेशा थोड़ा अजीब लगेगा, हमेशा। नारियल का पेड़, घास को देखता होगा तो समझ ही नहीं पता होगा। कौवा, हंस को देखता होगा तो बोलता होगा, “क्या है मामला, समझ में ही नहीं आ रहा, चक्कर क्या है?” तितली, कीड़े को देखती होगी तो सोचती होगी, “पता नहीं क्या है?”
तो आपको ना तो अपने-आप को दमित करने की ज़रूरत है, ना किसी दूसरे को आदर्श बनाकर उसकी नकल करने की। मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ, मैं तुम्हारी तरह हो सकता हूँ क्या? मैं लाख कोशिश कर लूँ, मैं कुणाल की तरह नहीं नाच सकता। मैं इसकी (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) तरह हँस नहीं सकता। समझ रहे हो बात को?
अब कोई आ कर पाबंदी लगा दे कि “ये जो तुम जिन तरीकों से चल रहे हो न, यह तुम्हारी कन्डिशनिंग है और यह ठीक नहीं है।" तो कहो कि “बात तो आपने बिलकुल सही कही जनाब कि कन्डिशनिंग है और ये भी बिलकुल ठीक कहा कि कोई भी कन्डिशनिंग ठीक नहीं होती। लेकिन यह भी तो बताइए न कि मैं जैसा हूँ, उसके अतिरिक्त मेरे पास रास्ता क्या है? मैं तो ऐसा ही हूँ और यहीं पर खड़ा हुआ हूँ। तो मुझे कुछ ऐसा बताओ, जो मेरे होने से ही निकलता हो।”
बस ज़रा ध्यान रखो। उसी को मैं बोल रहा था, 'जाँचना'। ज़रा ध्यान रखो कि यह मामला ऐसा तो नहीं कि धूल वाला, गन्दगी वाला और रंग और पेंट वाला रास्ता तो नहीं है कहीं? उसका ख्याल रख लो, बाकी ठीक है। मतलब ठीक क्या है, उसके अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। तुम जैसे हो उसके अलावा कुछ हो थोड़े ही सकते हो। कितनी देर तक करोगे अभिनय?
पर अब जो बोला, उसमें थोड़ा डिस्क्लेमर लगा रहा हूँ कि यह नहीं कहा कि तुम अपना सारा उल्टा-पुल्टा हिसाब-किताब सुरक्षित कर रख लो अपने पास। कि “हम तो ऐसे ही हैं! अब तो सर ने बोल दिया कि जो जैसा होता है उसका रास्ता उसी से निकलता है। हम तो ऐसे ही हैं। या तो ऐंवें ही चालेगी।” यह एक महीन बात है।
जिसे शान्ति से बोलना है, वो शान्ति से बोले, बस ज़रा-सा होश रख ले कि, "शान्ति ही है न? कहीं ऐसा तो नहीं कि डर रहा हूँ? कि डर के मारे आवाज़ ऊँची नहीं कर पा रहा, इसलिए शान्त हूँ?” जिसे ज़रा तुनक-मजाज़ी की आदत हो, लाल-पीला होकर बोलता हो, वो बेशक डाँटकर बोले। लेकिन ज़रा जाँच ले, “ऐसा तो नहीं कि दूसरे पर हावी होना चाहता हूँ, इसलिए डाँट रहा हूँ? ऐसा तो नहीं कि मेरी कोई व्यक्तिगत कुंठा है? कोई भड़ास निकाल रहा हूँ?” जिन्हें नाचना पसंद हो, वो बेशक़ नाचें, खूब नाचें, पर ज़रा होश रखें। “कहीं ऐसा तो नहीं कि ध्यान से बचने के लिए यूँ ही उछल-कूद कर रहा हूँ? कि शान्त होकर ध्यान में ना बैठना पड़े, तो इसलिए नाचना-गाना शुरू कर दिया?” जिन्हें शान्त होकर के बैठना पसंद है, वो बेशक़ शान्त बैठें। पर ज़रा जाँच लें और जाँचने से मेरा अर्थ विचार नहीं है, ध्यान है। जरा जाँच लें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ढर्रा ही बन गया है कि नाचेंगे नहीं? तो अपने-आप को ध्यानी कहलाने लगे हैं कि "यह तो ध्यानी हैं, यह ज़रा हिलते–डुलते कम हैं।"
सब इतने अलग-अलग तरीके के लोग हैं, (दो श्रोताओं को इंगित करते हुए) अब एक छोर पर बैठे हैं आशुतोष और दूसरे छोर पर बैठा है शुभांकर।
(सभी हँसते हैं)
और ये इतने ही दूर हैं, एक-दुसरे से। पागलपन होगा कि अगर शुभांकर को ट्रेनिंग दी जाए आशुतोष बनाने की। (हँसते हुए) पहले तो बताओ होगा क्या ऐसी ट्रेनिंग में?
(सभी हँसते हैं)
(हँसते हुए) या कि उनको कहा जाए कि वैसा बन जाओ। नहीं हो सकता है। और उसकी कोई कोशिश भी नहीं है।
फिर से कह रहा हूँ, देखो सब कितना अलग-अलग है। तो वैसे ही हम भी अलग-अलग हैं, इसमें कोई शर्माने की या अफ़सोस की बात नहीं है।
प्र३: कुछ भी छिपाना नहीं है।
आचार्य: कुछ भी छिपाने की ज़रूरत नहीं है। छिपाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। तुम जो हो उसको खुलेआम घोषित करो, और बस जो हो विशुद्ध वही रहना, गंदगी झाड़ते चलना।
मीरा का रास्ता, कबीर का रास्ता थोड़े ही हो सकता है। लेकिन मिलता दोनों को है। बुद्ध और रूमी कितने अलग-अलग! जहाँ से हो, जैसे हो, वहीं से आगे बढ़ो और अपने-अपने तरीकों से आगे बढ़ो।