जैसे आप, वैसा आपका संसार - दूसरों की शिकायत करना बंद करें || आचार्य प्रशांत (2024)

Acharya Prashant

37 min
115 reads
जैसे आप, वैसा आपका संसार - दूसरों की शिकायत करना बंद करें || आचार्य प्रशांत (2024)

आचार्य प्रशांत: एक स्कूल था बच्चों का, छोटे बच्चे आते थे वहाँ एकदम। छोटे बच्चे आये वहाँ, खड़े हो और बड़े अपनेपन से और बड़े नाज़ से बोले, 'ये हमारा स्कूल है।' एक दिन वहाँ कुछ जंगली जानवर आ गये। उनको खबर मिल गयी थी कि यहाँ छोटे-छोटे बच्चे रहते हैं। छोटे, माँसल और असुरक्षित तो उन हिंसक जानवरों ने कहा कि ये भोजनालय है। यहाँ बढ़िया खाने-पीने का माल परोसा जाता है, स्वादिष्ट माँस, नर्म माँस बच्चों का।

वो जो स्कूल था उसकी इमारत एक ठेकेदार ने बनवायी थी और इमारत को आगे और बड़ा करने का, खड़ा करने का ठेका भी उसी ठेकेदार को मिला हुआ था। तो वो जब भी उस स्कूल के सामने से निकले तो बोले कि ये, ये जो है न, ये मेरा क्लाइंट है। क्या है? क्लाइंट।

सरकारी आँकड़ों के अनुसार वो उस जिले में छोटे बच्चों के लिए खुलने वाला बयालीसवाँ स्कूल था। तो शिक्षा विभाग के अधिकारी, कर्मचारी उस स्कूल को कहा करें,'ये नम्बर बयालीस है, नम्बर बयालीस।' क्या है? नम्बर बयालीस है।

वो स्कूल क्या है? क्या वो स्कूल ही है जैसे छोटे बच्चे उसको देख रहे थे? या वो दावत का अड्डा है जहाँ नर्म माँस मिलने की सम्भावना है अगर हिंसक जानवर सही दाँव लगाकर, घात लगाकर, हमला कर पाएँ? या वो एक इमारत है? या वो एक क्लाइंट है? या वो नम्बर बयालीस है? वो क्या है? आप और भी तरीके से अनुमान लगा सकते हैं कि उस स्कूल को कैसे और लोग अलग-अलग तरीकों से देखते होंगे।

उस स्कूल में बिजली और पानी की भी आपूर्ति होती होगी तो बिजली विभाग और जल विभाग के रिकॉर्ड्स में, उनकी फ़ाइलों में, वो जो स्कूल है, ये एक नम्बर के तौर पर दर्ज़ होगा, ठीक वैसे जैसे शिक्षा विभाग के लिए ये नम्बर बयालीस है। उनके लिए भी ये कोई नम्बर होगा। ये सरकारी है स्कूल, इसके पास ही एक निजी, प्राइवेट स्कूल खुला। उनके लिए ये क्या है स्कूल? वो कहते हैं — ये हमारे लिए एक प्रतिद्वन्द्वी है, कॉम्पिटिटर है।

और सैकड़ों हज़ारों लोग थे जो उस स्कूल के सामने की सड़क से रोज़ गुज़र जाते थे। लेकिन उन्हें उस स्कूल से कोई मतलब नहीं होता था। न वो बच्चे थे, न उनके बच्चे थे। न वो ठेकेदार थे, न सरकार थे। न उनका बिजली से कोई लेना देना था, न पानी से। उनके लिए वो स्कूल क्या था? उनके लिए वो स्कूल था ही नहीं, गैर मौजूद था, अनुपस्थित था। उन लोगों से आप पूछते कि आप आते हो रास्ते में एक स्कूल पड़ता है? वो कहते, 'हमें नहीं पता, हमने देखा नहीं।' वो उस स्कूल के सामने से रोज़ गुज़रते थे। उस स्कूल के सामने से शायद सैकड़ों बार गुज़रे होंगे, उन्होंने उसे स्कूल को कभी देखा ही नहीं। उनके लिए वो स्कूल था ही नहीं।

एक जगह, जो उन बच्चों के माँ-बाप के लिए नन्हें पौधों की क्यारी जैसी है, वो जंगली, हिंस्र जानवरों के लिए नर्म माँस का अड्डा है। उन बच्चों के माँ-बाप और उन बच्चों के अन्य जो शुभेच्छु लोग हैं, वो देख रहे हैं कि यहाँ बच्चे बड़े होंगे। वो देख रहे हैं कि यहाँ बच्चों को जीवन मिलेगा। और जंगली जानवर के लिए वो जगह है जहाँ बच्चों का जीवन समाप्त होगा।

उसी जगह की ओर इशारा करके आप किसी भेड़िये से पूछें, ‘वो जगह क्या है?’ वो भेड़िया कहेगा, 'वो जगह है जहाँ छोटे बच्चों को मौत दी जाती है।' उसी जगह की ओर इशारा करके आप किसी शिक्षक से पूछें, ‘वो जगह क्या है?’ शिक्षक कहेगा,'वो जगह है जहाँ छोटे बच्चों को ज़िन्दगी दी जाती है।' उसी जगह की इशारा करके आप ईंट के किसी सौदागर से, सीमेंट या बालू वाले से, स्कूल के किसी ठेकेदार से पूछें, ‘वो जगह क्या है?’ वो कहेगा, 'वो जगह है जहाँ से मेरे घर की रोज़ी-रोटी आती है। न वहाँ ज़िन्दगी दी जाती है, न ली जाती है, वहाँ से तो बस मेरी रोज़ी-रोटी आती है।'

उस स्कूल के जो अध्यापक और प्रबन्धक हैं, उनसे आप पूछेंगे — ये जगह क्या है? वो कहेंगे, 'ये वो जगह है जिसे हमें और आगे बढ़ाना है।' उसी स्कूल के प्रतिद्वन्द्वियों से आप पूछेंगे — ये जगह क्या है, वो कहेंगे, 'ये वो जगह है, हमें जिसे जड़ से मिटाना है।' कैसे आप किसी जगह का कोई एक तयशुदा नाम रख सकते हैं? सम्भव नहीं है। कैसे आप कह सकते हैं कि कोई एक जगह बस ऐसी है? सम्भव नहीं है।

आपकी दृष्टि में जो कामना बसी है — हर जगह, हर वस्तु, हर चीज़, बस वैसी है। दुनिया के सब विषय, विषेयता का प्रक्षेपण मात्र है। आपके ही अपने विकार आपके सामने संसार बनकर प्रकट हो जाते हैं। प्रकट लेकिन विकार ही होते हैं। आपके विकार ही संसार को आपके लिए अर्थपूर्ण बनाते हैं। अर्थ अगर न हो तो जो कुछ आपके सामने है, वो होकर भी नहीं रहेगा, आपके लिए नहीं रहेगा। रहेगा तो, पर चूँकि आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखेगा इसीलिए वो आपके मन की सामग्री नहीं बनेगा।

आपने आज सुबह से जो कुछ देखा है, क्या वो आपके मन में मौजूद है? आप आज सुबह से अभी तक जो कुछ देखते आये हैं, वो सब क्या आपके मन में प्रविष्ट हो गया, अंकित हो गया? नहीं न। पर उसका कुछ हिस्सा है जो आपके मन पर छप गया है। ये वो हिस्सा है जिससे आप कोई सम्बन्ध रखते हैं माने अर्थ रखते हैं। अर्थ माने स्वार्थ।

आपके मन में वही मौजूद रहता है जिससे अहम् कोई रिश्ता बनाता है। और अहम् रिश्ता बनाता है सिर्फ़ एक दृष्टि से, किसी तरीके से मेरी बिगड़ी तबीयत ठीक हो जाए, किसी तरीके से मुझे जो कमी, बेचैनी इत्यादि-इत्यादि तकलीफ़ों का भाव है, वो भाव मिट जाए। तो वो भाव कैसे मिटेगा, इसके लिए अहम् जो उसके गुलाम हैं ये बुद्धि, ये स्मृति आदि इनका सहारा लेता है।

स्मृति से पूछता है — बताना राहत अतीत में कैसे मिली थी, भले तात्कालिक हो, थोड़ी देर को मिली हो, थोड़ी सी मिली हो पर बताना कैसे मिली थी? तो स्मृति से ये पूछता है। और बुद्धि से कहता है — जैसे अतीत में मिली थी, जिस विषय से अतीत में मिली थी राहत, उसी विषय को या उससे मिलते-जुलते विषय को बताओ, आज कैसे हासिल करूँ?

तो जो मस्तिष्क है पूरा, ब्रेन, उसकी जितनी क्षमताएँ हैं, तुलना कर पाना, युक्ति निकाल पाना, तर्क कर पाना, इन सबका इस्तेमाल करता है अहम् आज कोई ऐसा विषय ढूँढ़ने के लिए जिससे अर्थ जोड़ा जा सके, अर्थ। और जिसके साथ अर्थ का टाँका लग जाता है, उसको अहम् कहता है, ‘आओ–आओ मेरे घर के द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं।‘ और अहम् के घर का क्या नाम है? मन।

तो अहम् मन में सब विषयों को जगह नहीं देता। इतना दरियादिल, इतना उदारमना नहीं है अहम् कि जो दिखे उसी को बैठा ले। सबको बैठा लिया होता तो आज सुबह से आपने जो कुछ देखा है, सबकुछ आपके मन में मौजूद होता। देखा तो सभी कुछ था न? हज़ारों विषय आपने देखे होंगे और देखना माने आँख से ही देखना नहीं होता, जो कान से सुना, वो भी दृष्टव्य विषय ही माना जाएगा।

तो इतना सुना, देखा, स्पर्श किया, चखा, सब याद है क्या? सब याद नहीं है न? क्योंकि सारे विषय अहम् की दृष्टि में पात्र नहीं बन पाये, अपनी अर्हता स्थापित नहीं कर पाये, क्वालीफ़ाई नहीं कर पाये। क्वालीफ़िकेशन क्या होती है, पात्रता? कि भाई, वही अन्दर आएगा जो मेरी तकलीफ़, बेचैनी, अपूर्णता, छटपटाहट, रोग, जो बोल लो, उसको दूर करता हो।

तो अहम् हर विषय को जाँचता है। जाँचता कैसे है? अतीत की कसौटी लगा करके और उसके पास कोई कसौटी नहीं होती, अतीत। आप कहेंगे, अतीत के अलावा वो दूसरों से सुनकर भी तो चलता है। कुछ उसके अपने अनुभव होते हैं, कुछ दूसरों के अनुभवों से भी तो सुनता न। दूसरों में भी वो किस की बात सुनता है? जिनसे अतीत का रिश्ता होता है। अगर आप किसी की बात सुनते हो आमतौर पर, तो किसकी सुनते हो? जिससे आपने अतीत के माध्यम से ही भरोसा बैठा रखा होता है कि ये आदमी ठीक है तो उसकी बात सुन लेते हो।

तो ले–देकर के रहता तो अतीत है। तो इस तरीके से अहम् अपने आस-पास ऐसी चीज़ों का एक जमावड़ा इकट्ठा करता जाता है जिनसे उसे अपेक्षा होती है कि कुछ राहत, कुछ सुख मिल जाएगा, कुछ पूर्णता मिल जाएगी। जो गड़बड़ चलती रहती है उसमें, वो थोड़ा ठीक हो जाएगी, ऐसी चीज़ों को अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा कर लेता है।

और जो कुछ भी उसने इकट्ठा कर रखा है, उससे निश्चित जानिए कि अहम् क्या माँग रहा है? हाँ! कि भाई, ज़रा कुछ हमें अब चीज़ भी तो दो ऐसे ही थोड़ी तुम्हें घर में बैठा लिया है। कोई प्रेम के नाते तो घर में बैठाया नहीं है। घर में बैठाया है तो कुछ किराया-विराया मिलेगा कि नहीं मिलेगा? ऐसे ही तुम घर में आकर बैठ गये। तो आपके मन में जो कोई बैठा होता है तो आप उससे किराया वसूलते हो।

किराया तरीके-तरीके से वसूला जाता है। कई बार जो बैठा होता है, वो आज नहीं किराया दे सकता तो उससे उम्मीद होती है कि भविष्य में दे देगा कुछ किराया। कई बार जो बैठा होता है, वो खुद नहीं दे सकता किराया तो उससे उम्मीद होती है कि ये दो–चार दूसरों की बाँहें मरोड़ कर उनसे निकलवा देगा। ये खुद तो किसी काम का नहीं है पर ये गुंडागर्दी के काम आएगा, दूसरों से कुछ दिलवा देगा। तो ऐसे करके मन की जितनी सामग्री होती है, वो स्वार्थ की सामग्री होती है, ले-देकर बात ये है। मन की जितनी सामग्री होती है, वो स्वार्थ की सामग्री होती है। जिससे कोई स्वार्थ नहीं निकलता, वो मन में घुसता ही नहीं है।

तो हमने सैकड़ों कैसे लोगों की बात करी? जो उस स्कूल के सामने से निकला करते थे, एक बार सुबह कहीं को जाएँ, शाम को कहीं से लौटकर के आएँ, निकले उसी स्कूल के सामने से लेकिन उनका चूँकि उस स्कूल से कोई स्वार्थ नहीं था। न उनके बच्चे थे, न वो ठेकेदार थे, न वो जानवर थे, न वो सरकार थे तो उन्हें उस स्कूल का पता ही नहीं लगा। वो सालों से उस स्कूल के सामने से आ-जा रहे थे, उन्हें पता ही नहीं लगा। क्यों नहीं पता लगा? क्योंकि मन में घुसेगा वही जिससे कुछ मिल रहा हो। जिससे कोई मिल नहीं रहा, वो आँखों के सामने भी हो तो दिखाई नहीं देता।

याद करिए उन क्षणों को जब आप किसी भीड़ में किसी को तलाश रहे थे। हुआ है कि नहीं हुआ है? आपने और आपके दोस्त ने तय करा है कि आप किसी जगह जाकर के मिलोगे, किसी बाज़ार में, किसी लॉन में, किसी पार्क में, कहीं जाकर आप मिलोगे। कोई पब्लिक पार्क है, कोई शॉपिंग मॉल है, आपने तय करा है कि वहाँ मिलेंगे भाई। और आप वहाँ जाते हो तो वहाँ पार्क में या मॉल में भीड़ काफ़ी है, बहुत भीड़ है। आपको क्या सब लोग दिख रहे होते हैं? आपकी आँखें क्या कर रही होती है? जिससे आपको लेना-देना नहीं, उसको आप मन में घुसने ही नहीं देते, भले वो आँखों के सामने हो, वो मन में नहीं घुसेगा।

तो ये सोचना कि जो कुछ दिख रहा है, वही मन में आ जाता है, गलत बात है, ऐसा नहीं होता। याद आ रहा है? आप भीड़ को काटते-छाँटते आगे बढ़ते जा रहे है बस अपने उस दोस्त की तलाश में, बाकी सब लोग दिख रहे हैं पर फिर भी दिख नहीं रहे।

आपको कोई व्यक्ति दिख जाए, कोई बोले कि एक बहुत लम्बा व्यक्ति था और उसने लाल रंग की कमीज़ पहन रखी थी। और एक उसने काले रंग की टोपी लगा रखी थी, आपने उसको देखा क्या? बोले, ‘वो व्यक्ति ऐसा इतना लम्बा है और उसने एक भारी तिलक भी लगा रखा था माथे पर। जो उसे एक बार देख ले, वो उसको भूल नहीं सकता क्योंकि उसका चेहरा और उसका कद असाधारण है।‘ आप कहोगे — हमने नहीं देखा, नहीं देखा।

क्योंकि मन ने अर्थ किसके साथ लगा रखा है? वो दोस्त के साथ। तो बाकी सब जितने हैं, उन्हें मन प्रवेश देगा ही नहीं। तो मन में कुछ भी यूँही नहीं होता, उससे कुछ पाने की आशा होती है। मैं नहीं कह रहा हूँ उससे कुछ मिल रहा होता है, उससे कुछ मिलने की उम्मीद होती है। मिलता तो किसी से कुछ नहीं है। कुछ मिल ही जाए तो मन ही न मिट जाए। मिल कुछ नहीं रहा पर उम्मीद है।

तो जिससे उम्मीद होती है, वो मन में मौजूद होता है। इनको हम कहते हैं न मन का मीत, मन का मीत, अरे! मीत-वीत नहीं, उम्मीद। उम्मीद है इसलिए वो मन में मौजूद है। जिस दिन उम्मीद मिट गयी, उस दिन वो मन से भी बिल्कुल दफ़ा हो जाएगा, नहीं दिखाई देगा। आप कहेंगे — नहीं ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो जो कुछ आप देखा करिए, सबको मन में बैठाया करिए। क्यों नहीं सबको मन में बैठाते? जैसे आप सबको मन में बैठाते नहीं, वैसे ही आप सबको मन में बैठाए रहेंगे नहीं।

मन में भी बैठाया उसी को जाता है, नियम है ये स्वार्थ का, जिससे कुछ पाने की उम्मीद होती है। और उसे सिर्फ़ तब तक बैठाए रखा जाता है जब तक उम्मीद शेष रहती है। जिस दिन एकदम स्पष्ट हो गया कि इससे कुछ नहीं मिल सकता, वो आदमी मन से गायब हो जाता है। जीवन से गायब हो जाएगा, मन से गया तो अब जीवन में भी क्या रहेगा। और जीवन में अगर किसी तरह वो टँगा भी हुआ है किसी वजह से, तो जीवन में रहते हुए भी मन में नहीं रहेगा।

तो इसलिए ज्ञानियों ने कहा कि ये जो हमारा पूरा संसार है, हमारा पूरा संसार, हमारा, हमारा पूरा संसार है, वो हमारे स्वार्थ का ही विस्तार है। जो आपके स्वार्थ में नहीं है, वो आपको न दिखाई देगा, न सुनाई देगा। आप उसको देखेंगे और देख कर अनदेखा कर देंगे। आप उसको सुनेंगे और सुन कर अनसुना कर देंगे। वो आपके लिए होते हुए भी नहीं होगा। तो आपके लिए होगा कौन? सिर्फ़ वही जिससे कुछ उम्मीद है स्वार्थ की। समझ रहे हो?

आपकी ही जो वासनाएँ हैं, वो आपका संसार बन जाती है। आपकी वासनाएँ ही आपका संसार बन जाती हैं। स्पष्ट हो रही यहाँ तक बात? अब वासनाएँ दो दिशा में जा सकती है। जो वासनाओं की प्राकृतिक दिशा है, वो तो यही है कि संसार से और-और विषयों की माँग करते रहो, उनसे नाता जोड़ते रहो, उनको आज़माते रहो, उम्मीद बैठाए रखो।

तो जो प्राकृतिक दिशा है वासनाओं की वो तो यही है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो। अनन्त ब्रह्मांड है, अनन्त विषय हैं, एक के बाद एक प्रयोग करते रहो, आज़माते रहो, कोई तो मिल ही जाएगा जो राहत दे जाएगा। ये प्राकृतिक दिशा है इच्छा की, कामना की, स्वार्थ की। ये प्राकृतिक दिशा है। और एक प्रेम की दिशा होती है।

प्रेम की दिशा कहती है कि मिटना है, सचमुच अपनी तकलीफ़ का असली इलाज चाहिए। ये बड़ी मुश्किल दिशा होती है। इसमें हज़ार विषयों के लिए जगह नहीं होती। “प्रेम गली अति साँकरी”, इसमें ये नहीं होता कि पचास, साठ, सौ, पचास, कितने विषय लेकर के बैठ गये। इसमें वो विरल विषय पकड़ा जाता है, जो हमारी तकलीफ़ है अस्तित्वगत, हमारा होना, उसको सचमुच हटा सकता है और फिर उसी को मन में जगह दी जाती है। पर ऐसा होता नहीं है। ऐसा हज़ारों-लाखों में किसी एक किस्से में होता है कि मन में उन विषयों को नहीं रखा गया जो वासना को और फैलाते और फुलाते थे, बल्कि उस एक विषय को रखा गया जो वासना को मिटाता है। वो हो पाये इसकी सम्भावना एकदम न्यून होती है।

इसी को जो हमारे सन्त थे गाने वाले, वो चुटकी लेकर के, विनोद में, ऐसे भी कहते हैं कि वो जो है न जो, आकर के सचमुच तुम्हारी तकलीफ़ मिटा देगा, वो इतना ज़बरदस्त है कि जब उसको तुम मन में नहीं रखते तो इतना भारी एक रिक्त स्थान पैदा हो जाता है, ऐसी एक ज़बरदस्त रिक्तता, खालीपन, एक वैक्यूम (निर्वात) पैदा हो जाता है कि उसको भरने के लिए तुम पूरा ब्रह्मांड ले आते हो मन में, तो भी मन और की माँग करता रहता है।

कहता है — उसका दम इतना होता है कि या तो उस एक अकेले को रख लो मन में या पूरे ब्रह्मांड को रख लो मन में। पूरे ब्रह्मांड को रख लोगे तो भी मन अभी रिक्त ही रह जाएगा और, और, और, और की रटन लगाता रहेगा।

अरे! तुमने अपने मन में ये जो इतने सारे विषय भर लिये हैं, ये भर ही इसलिए लिये हैं क्योंकि उस एक को न रखने की भारी कीमत चुका रहे हो तुम। उसको रख लिया होता तो इतने सारों की ज़रूरत नहीं पड़ती और उसको रख नहीं रहे तो इतने सारे रख कर भी काम बन नहीं रहा है। उस एक को रख लिया होता तो इतनों की ज़रूरत पड़ती नहीं और वो एक नहीं है इतने सारे हैं तो भी उसे एक की भरपाई नहीं हो पा रही है।

नुकसान इतना ज़्यादा है कि क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती, चाहे पूरी दुनिया मिल जाए मुआवज़े के तौर पर। ये जो हमारी ज़िन्दगी है, उस ज़िन्दगी में जितने सब विषय मौजूद हैं, ये मुआवज़ा है। क्या है? मुआवज़ा। यार, तुम्हारे पास असली चीज़ तो है नहीं तो एक काम करो तुम, एक प्लॉट ले लो बढ़िया।

अब क्या है! कोई हो अपना बहुत जिगरी और वो न रहे, और उसके न रहने पर आपको सरकार कहे कि ये ले लो, दस लाख रुपये ले लो और नौकरी ले लो तो जो चला गया है, उसकी कमी पूरी हो जाती है? हो जाती है क्या? और कोई चला जाए तो उसके जाने पर कुछ-न-कुछ तो मिलता ही है। इंश्योरेंस वाले आ जाते हैं। इंश्योरेंस करा कर गया था — लो, इंश्योरेंस का पैसा ले लो।

कहीं वो नौकरी करता था, वो लोग आ जाते हैं। कहते हैं, ‘अरे, बड़ा बुरा हुआ वो चला गया। लो, हमारी ओर से कुछ मदद ले लो।‘ दोस्त-यार, गली-मोहल्ले वाले भी, सब लोग कुछ-न-कुछ आ ही जाते हैं कि वो अब नहीं रहा तो उसके बदले में लो, हमसे कुछ ले लो। पर उसके बदले में कोई कितना भी दे दे, वो जो नहीं है, उसकी कमी मिट जाती है क्या?

तो जो असली चीज़ है जब ज़िन्दगी में नहीं होती तो बहुत सारी चीज़ें भरनी पड़ती हैं।

अब कैसे पता लगाएँ कि किसकी ज़िन्दगी में कमी कितनी भारी है? कैसे पता लगाएँ कि किसकी ज़िन्दगी में असली चीज़ की कमी कितनी ज़बरदस्त है? जिसकी ज़िन्दगी में दूसरी चीज़ें जितनी ज़्यादा हों, समझ लो उसकी ज़िन्दगी में असली चीज़ की कमी उतनी ज़बरदस्त है। क्यों भई?

दो-तीन उदाहरण समझ लो। दो लोग थे, दोनों की ज़मीनें सरकार ने ले ली। और दोनों को ज़मीनों से अपनी प्यार बहुत था। दोनों को अपनी ज़मीनों से प्यार बहुत था। उनकी दोनों की ज़मीनें सरकार ने आकर ले लीं। सरकार को हक होता है। एक को मुआवज़ा मिला दस लाख और एक को मिला पचास लाख। बताओ, ज़्यादा रो कौन रहा होगा?

श्रोतागण: दस लाख वाला।

आचार्य: ज़िन्दगी समझ ही नहीं रहे हो फिर तुम। कह रहे हो, दस लाख वाला ज़्यादा रो रहा होगा। ज़्यादा ज़मीन किसकी छिनी होगी? वो ज़्यादा रो रहा है। जिसको ये संसार जितना ज़्यादा मुआवज़ा दे रहा है, समझ लो वो उतना ज़्यादा रो रहा है। क्योंकि उसका उतना भारी नुकसान हुआ है बाबा। तो इस दुनिया में जिसके पास जितना ज़्यादा है, जिसको जितना ज़्यादा इकट्ठा करना पड़ रहा है, वो उतना ज़्यादा रो रहा है न। क्योंकि वो उतना भारी नुकसान झेले हुए है। तभी तो उसको मुआवज़े के तौर पर उतना ज़्यादा मिल रहा है। और मुआवज़ा जो मिलता है, वो जो नुकसान हुआ है, उसके अंश बराबर होता है।

एक बात बताओ, अगर मैं आपसे कहूँ एक साधारण तौर पर कि जो मुआवज़ा मिलता है, वो नुकसान के मात्र बीस प्रतिशत बराबर होता है। ठीक है? जितना नुकसान हुआ है उसके बीस प्रतिशत का मुआवज़ा मिल पाता है। बीस प्रतिशत भी ज़्यादा माने ले रहे हैं। क्योंकि जो असली चीज़ है, उसका मूल्य अनन्त कहा गया है। और जो संसार मुआवज़ा देता है, वो कितना भी बड़ा हो, वो अनन्त का बीस प्रतिशत भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि अनन्त का बीस प्रतिशत भी अनन्त हो जाता है तो। लेकिन हम बीस प्रतिशत माने ले रहे हैं उदाहरण से समझाने के लिए।

हम कह रहे हैं कि जो नुकसान होता है, मुआवज़े के तौर पर उसका बीस प्रतिशत मिलता है। तो अगर आपको ‘एक्स’ राशि मिल रही है मुआवज़े के तौर पर तो आपका नुकसान कितना हुआ होगा? अगर आपको ‘एक्स’ राशि मुआवज़े के तौर पर मिल रही है तो आपका नुकसान कितना हुआ होगा? फ़ाइव एक्स न। फ़ाइव एक्स हुआ होगा। तो जितनी ज़्यादा आपको राशि मिली हुई है मुआवज़े के तौर पर, आपका नुकसान उतना ज़्यादा है। ये इस दुनिया का नियम है, समझ लो।

जो जितना इकट्ठा करे बैठा है, वो उतना ज़्यादा उस नुकसान को महसूस कर रहा है। उसके पास होता तो उसे इतना इकट्ठा करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। नहीं है तभी तो इतना करके इकट्ठा बैठे हो। और जितना इकट्ठा करके बैठे हो, यही प्रमाणित कर रहे हो कि उससे पाँच गुना ज़्यादा गँवा चुके हो।

तो आपके संसार में दो चीज़ें होती हैं, एक वो जिससे आपका भुक्ति का रिश्ता है और एक वो जिससे आपका मुक्ति का रिश्ता है। इन्हीं दो से अर्थ बैठता है, इन्हीं दो से कुछ लेना-देना बैठेगा। या तो उससे आप कुछ लेना-देना बैठाओगे, उसे मन में जगह दोगे जिसको आप भोग सकते हो। या उसको मन में बैठाओगे जो आपको भोग से मुक्त कर सकता है। और किसी तीसरे को आप मन में जगह दोगे ही नहीं।

तो जो हमें मुक्त कर सकते हैं, उनसे भी हमारा स्वार्थ ही होता है। बिना स्वार्थ के हम उन्हें मन में जगह देते नहीं। उनसे भी हमारा स्वार्थ ही होता है। पर एक विशेष किस्म का स्वार्थ होता है। उनसे हमारा स्वार्थ होता है मुक्ति का। और जिससे मुक्ति का स्वार्थ होता है, उसे परमार्थ कहते हैं।

मुक्त पुरुष कैसा हो जाता है? इसके विषय में अष्टावक्र आज के श्लोक में थोड़ा इशारा देते हैं। वो कहते हैं कि संसार, शरीर और मन अपनी ही हस्ती के ये तीन कोष हैं, तीन परतें हैं। सबसे भीतर वाली हो गयी मन। उसके आगे वाली हो गयी तन। और उसके आगे वाला हो गया संसार। और ये तीनों किसके इर्द-गिर्द होते हैं? अहम् के। और अहम् किसके इर्द-गिर्द होता है? आत्मा के। आत्मा को किसने घेर रखा होता है? अहम् ने। और अहम् अपने ज़िन्दा रहने के लिए अपने आसपास क्या तैयार करता है? एक के बाद एक लोक।

अहम् से बिलकुल निकट जो लोक होता है, वो कौनसा होता है? मन। मन के आगे जो लोक है? तन। और तन के आगे जो लोक है? संसार। तो मुक्त पुरुष के बारे में कह रहे हैं कि उसे फिर इनसे किसी अर्थ का सम्बन्ध बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। अब वो इनसे रिश्ता इसलिए नहीं बनाता कि कुछ मिल जाएगा।

तो अगर साधारण भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि वो रिश्ता बनता ही नहीं है। क्योंकि हमारे लिए तो सम्बन्ध का अर्थ ही स्वार्थ होता है न। और जो मुक्त हो गया उसके लिए स्वार्थ बचता नहीं। तो उस अर्थ में उसके लिए फिर कोई सम्बन्ध भी नहीं बचता। वो असम्बद्ध हो जाता है। और ये जो असम्बद्धता है, ये ज़बरदस्त करुणा होती है।

आपका अभी जिससे स्वार्थ है, आप उसके लिए कल्याण और करुणा के वाहक नहीं हो सकते। जिससे अभी कुछ चाह रहे हो, उसका भला नहीं कर सकते। ये अच्छे से समझ लीजिए। जिससे आपको कोई चाहत है, उम्मीद है, जिससे आपका स्वार्थ का सम्बन्ध है, आप उसके लिए किसी भी हालत में शुभ नहीं हो सकते। तो ये जो मुक्त पुरुष होता है, ये पूरे संसार के लिए शुभ हो जाता है। ये स्वयं के लिए शुभ हो जाता है। हम अपने लिए भी बड़े अशुभ होते हैं। क्योंकि हमारा स्वयं से भी क्या रिश्ता होता है? स्वार्थ का।

तो मुक्त पुरुष होता है, वो अपने लिए भी कल्याणकारी हो जाता है और संसार के लिए भी मुक्तिप्रद हो जाता है। जो मुक्त हो गया, वो सबके लिए भला हो जाता है। और जो बन्धन में है, वो सबके लिए बुरा है। दूसरों की भलाई करना चाहते हो तो सबसे पहले अपने बन्धन काटो।

वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्चता:। तत्त्यागो वासनात्यागात्स्थितिरद्य यथा तथा।।

वासना ही संसार है, इसलिए इन सबका परित्याग कर दो। वासना-त्याग से ही संसार का त्याग होता है अब शरीर अंतरण और संसार की चाहे जैसी स्थिति हो उससे कोई सम्बन्ध नहीं रहता।

“वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्चता:।” वासना ही संसार है। और सारी वासनाओं को त्यागना ही ठीक है। “तत्त्यागो वासनात्यागात्स्थितिरद्य यथा तथा।” ‘जैसा है वैसा, मुझे उससे कुछ नहीं चाहिए।’ आपको जिससे कुछ चाहिए न, आप उसे वैसा नहीं छोड़ सकते जैसा वो है। विचार करिएगा।

आपको एक जंगल से कुछ चाहिए। आप उसे वैसा छोड़ सकते हो जैसा वो है? आपको एक मुर्गे से कुछ चाहिए, आप उसे वैसा छोड़ दोगे जैसा वो है? आपको एक साधारण वस्त्र से भी कुछ चाहिए, आप उसे वैसा नहीं छोड़ पाओगे जैसा वो है। इस दुनिया की समस्या है — स्वार्थ, जो चीज़ों को विकृत करता है अपनी विकृति को मिटाने के लिए।

इतिहास में ऐसे प्रसंग आते हैं जब राजा हुए थे। जिन्हें कोई भाषा नहीं आती थी। कोई विशेष भाषा तो उन्होंने जितने भी राजकीय दस्तावेज़ थे पुराने, उन सबको हटवा दिया और कहा कि जो भाषा मुझे आती है, उसमें लिखो। ऐसा कोई राजा अगर गाड़ी चलाता हो राइट हैंड ड्राइव वाली और किसी ऐसे देश का राजा बन जाए जहाँ पूरी व्यवस्था लेफ़्ट हैंड ड्राइव की है। तो वो क्या करेगा?

श्रोतागण: नियम बदलेगा।

आचार्य: नियम भर बदलने से नहीं होगा न, उसे सबकुछ बदलना पड़ेगा भाई! सारी गाड़ियाँ बदलवा देगा वो। नियम से क्या होगा? वो सारी गाड़ियाँ बदलवाएगा और जिस तरीके से पूरा यातायात संचालित होता है। कहाँ पर बत्तियाँ लगी हुई हैं, इस तरफ़ कि उस तरफ़, वो सबकुछ बदला देगा।

अहम् चूँकि स्वयं एक विकृति है, ऐसी विकृति जिसे उससे बचाकर भी रखना है तो वो संसार को अपने अनुरूप बनाता है। और इस कारण वो संसार में विकार ला देता है। आपमें विकृति हो, उसको आपको बचाना है तो आप संसार के साथ क्या करोगे? आप संसार को ही बदल दोगे, तोड़-मरोड़ दोगे, विकृत कर दोगे। यही मनुष्य संसार के साथ करता रहा है और यही कारण है कि आज प्रकृति और पर्यावरण की इतनी दयनीय दशा हो गयी है।

जो व्यक्ति अपूर्ण है, वो सबके लिए महा अशुभ हो जाता है, विशेषकर तब जब उसकी अपूर्णता को तरह-तरह की ताकतें मिल जाएँ। मनुष्य अपूर्ण भी है और भौतिक रूप से ताकतवर भी। तो हमारी अपूर्णता माने हमारी मूर्खता, हमारे अज्ञान को बड़ी ताकत मिल गयी है। और इस ताकत ने पूरी दुनिया का नाश कर दिया है। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि बल किसी ऐसे के हाथ में न रहे जो बहुत अपूर्ण हैं, बहुत अज्ञानी है।

अपूर्णता की निशानी क्या होती है? कामना। उसी कामना को आप कह सकते हो महत्वाकांक्षा, एम्बिशन। बहुत ज़रूरी है कि ताकत किसी भी तरह की ऐसे आदमी के हाथ में न पहुँचे जो एम्बिशियस, महत्वाकांक्षी है। उसको अगर ताकत मिल गयी, वो पूरी दुनिया का नाश कर देगा। क्योंकि उसके भीतर एक घोर रिक्तता है। उस रिक्तता में तुम पूरा ब्रह्मांड भी झोंक दोगे। तो वो रिक्तता मिटने वाली नहीं है। वो सबकुछ खा जाएगा। वो सबकुछ खा जाएगा और फिर भी कहेगा, ‘अभी और चाहिए।’

ताकत किसको मिलनी चाहिए? उसको जिसको ताकत चाहिए ही नहीं। जिसको ताकत की आकांक्षा है, उसे किसी हालत में ताकत नहीं मिलनी चाहिए। जो डिस्परेट है, जो पागलों की तरह बल और सत्ता तलाश रहा है। और बल और सत्ता मिल जाए तो उसे चिपक कर बैठ रहा है, उस व्यक्ति के हाथ में अगर किसी भी तरह की ताकत पहुँच गयी तो ये पूरे जगत के लिए बहुत अशुभ है।

(आचार्य जी फ़िलोसॉफ़र किंग के निम्नलिखित अवधारणा की चर्चा करते हुए: द फ़िलोसॉफ़र किंग इज़ अ हाइपोथेटिकल रूलर इन हुम पॉलिटिकल स्किल इज़ कम्बाइंड विद फ़िलोसॉफ़िकल नॉलेज। द कॉन्सेप्ट ऑफ़ ए सिटी-स्टेट रुल्ड बाय फ़िलोसॉफ़र्स इज़ फ़र्स्ट एक्सप्लोर्ड इन प्लेटोज़ 'रिपब्लिक' रिटन अराउंड ३७५ बीसी। )

प्लेटों में जो फ़िलोसॉफ़र किंग की अवधारणा रखी थी वो बहुत रोचक है। आप लोग आज उसको पढ़िएगा। वही आज का आपका गृ कार्य है। लिखिए जाकर अभी कम्युनिटी पर।

तो उसमें जो राजा बनेगा, उसके चयन की जो पूरी प्रक्रिया है और जो चरण हैं, वो क्या हैं, वो आपको पढ़ने हैं और लिखने हैं। वो मुझे ठीक-ठीक अभी स्मरण नहीं है। पर जितना स्मृति से आ रहा है बता देता हूँ। वो कुछ ऐसा है कि जो भी बच्चे पैदा होंगे राज्य में, उन सबके लिए अनिवार्य रूप से बीस साल शिक्षण होगा और शिक्षण कड़ा होगा। शिक्षण कड़ा होगा।

और चूँकि शिक्षण कड़ा होगा इसीलिए बीस साल में बहुत सारे होंगे। जो आगे और बढ़ने-पढ़ने से इनकार कर देंगे या फिर वो असफल हो जाएँगे। जो परीक्षा इत्यादि होगी, उसमें वो खरे नहीं उतरेंगे। तो इनको फिर शिक्षा की प्रक्रिया से मुक्त कर दिया जाएगा और इनको कहा जाएगा कि अब आप जाकर के जो बहुत साधारण स्तर के काम होते हैं, ज़्यादातर जो हाथ के काम होते हैं, आप वो करिए। ‘आप दर्ज़ी बनें, आप बढ़ई बनें, ये सब आपके लिए काम होंगे। आप सेना में जाकर जो बिलकुल पैदल सैनिक होते हैं, आप वो बनें, आप लोहार बनें।’ उनको ये सब काम दे दिया जाएगा।

अब जो उसमें बच्चे, जो जवान हो चुके हैं बचे रहेंगे, उनको और आगे पढ़ाया जाएगा। और ये मैं जो बोल रहा हूँ, अनुमान से बोल रहा हूँ। ये चीज़ ऐसी नहीं है कि मैंने रट रखा हो। आप लोग जाकर देखिएगा। मैं आपको एक इशारा सा दे रहा हूँ। तो ये आगे पढ़ेंगे। और लगभग दस साल की और प्रक्रिया रहेगी। और वो भी प्रक्रिया और कठिन हो जाएगी।

और उससे फिर जो निकालेंगे उनको कहा जाएगा कि अब आप जाकर के जो थोड़े पढ़े-लिखे लोगों के काम इत्यादि हैं, वो करिए। तो उनको राज्य में अधिकारी इत्यादि के पद दे दिये जाएँगे। और उसके बाद की प्रक्रिया और कठिन हो जानी है, और कठिन। और दस वर्ष के बाद फिर जो निकलेंगे, वो शासन के उच्च पदों के लायक होंगे लोग, उन्हें मन्त्री इत्यादि का दर्जा दिया जाएगा।

और इसके बाद इस पूरी प्रक्रिया में बस चन्द लोग बचेंगे। और इन चन्द लोगों के साथ प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। और पैंतालीस-पचास साल की उम्र में पहुँचकर के फिर इन्हीं लोगों में से कोई एक चुना जाएगा या शायद ये था कि वो आपस में ही निर्धारित कर लेंगे जो राजा बनेगा। और ये जो एक है जो अब राजा बनेगा, ये वो होगा जो हर तरीके से अपनेआप को स्थापित कर चुका होगा, जो इतनी आग से गुज़र चुका होगा, शिक्षण की, प्रशिक्षण की, कि उसके भीतर अपने लिए कोई कामना नहीं शेष रह गयी होगी।

तो वो था फिर प्लेटो का फ़िलोसॉफ़र किंग। कि वो राज्य का अग्रणी फ़िलोसॉफ़र (दार्शनिक) भी होगा और वही राजा बनेगा। और उसके पास अपनी कोई सम्पत्ति वगैरह नहीं होगी क्योंकि अगर सम्पत्ति वगैरह में उसका रस होता तो वो पैंतालीस साल तक एक के बाद एक जो बाधाएँ थीं, परीक्षाएँ थीं, उनको पार नहीं कर पाता।

तो क्यों कहा था प्लेटो ने ऐसा? इसीलिए कहा था क्योंकि जिसके पास सत्ता जा रही हो, उसके पास किसी तरह का स्वार्थ नहीं होना चाहिए। अगर वो ऐसा है जिसके भीतर अभी अपनेआप को लेकर के कुछ कामनाएँ हैं, तो वो पूरा जगत बर्बाद करके छोड़ेगा। समझ में आ रही है बात?

जिसका ज्ञान पूरा नहीं है, जो दर्शन में खरा नहीं है, जिसकी आध्यात्मिक, दार्शनिक, शिक्षा पूरी नहीं हुई है, जिसके अहम् का समूल नाश नहीं हुआ है, ऐसे व्यक्ति को अगर बल मिल गया तो वही होगा जो आज आप पृथ्वी पर चारों ओर होता देख रहे हैं।

हमें भ्रम हो जाता है कि हम चिकित्सक हैं। जब इस संसार की बात आती है न, हमें भ्रम हो जाता है कि हम चिकित्सक हैं। अहम् अपनेआप को छोटा थोड़े ही मानता है, वो तो बड़ा भारी मानता है। अगर वो मरीज़ भी होता है तो वो मान अपनेआप को डॉक्टर रहा होता है।

अब दुनिया की हालत हमने कर दी है खराब। नदियाँ गन्दी हो गयी हैं, जंगल काट दिये हैं, वो सब कर दिया है। उसके बाद हम बैठकर बड़ी-बड़ी गोष्ठियाँ करते हैं कि ये सब ठीक कैसे किया जाए। ठीक कैसे किया जाए ये तो बाद में आता है, पहले बताओ खराब करने एलियन्स (दूसरे ग्रह के प्राणी) आये थे क्या? खराब किसने किया?

तो तुम्हें ठीक नहीं करना है, तुम्हें हटना है। तुम हट जाओ, सब ठीक है ही। जब ठीक चल रहा था तो क्या तुम आये थे उस ठीक व्यवस्था को स्थापित करने? वो व्यवस्था ठीक इसलिए थी क्योंकि तुम नहीं थे।

वो सारी व्यवस्था खराब इसलिए हुई है क्योंकि तुम हो। लेकिन तुर्रा ये है कि तुम हटने की बात नहीं कर रहे हो। तुम कह रहे हो, ‘अरे, किसी और ने आकर के, कहीं से आये होंगे भाई, किसी आकाश गंगा से, किसी दूसरे अन्तरिक्ष से लोग आये होंगे, वो आकर के सब खराब कर गये हैं। अब हम आये हैं, हम बड़े भारी चिकित्सक हैं, हम सबकुछ ठीक करेंगे।’

तुम जितना ठीक करने का प्रयास करोगे, सबकुछ उतना खराब होता जाएगा। तुम हट जाओ, तुम्हारा हटना ही समाधान है। हमारा ठीक करने का प्रयास ऐसा ही होगा कि आप नशे में थे और आप गाड़ी चला रहे थे। आपने सड़क पर ठोक दिया किसी को। आपका स्पर्श पाने से पहले, आपका प्यार भरा, स्नेह भरा स्पर्श पाने से पहले वो व्यक्ति कैसा था? बिलकुल ठीक था। उसके बाद आपने अपने अज्ञान, अपनी बेहोशी, अपनी मूर्छा में जाकर के उस पर गाड़ी चढ़ा दी। ये आपने पहला काम करा।

अब वो पड़ा हुआ है वहीं सड़क किनारे, उसका सिर फट गया है और खून बह रहा है। तो आपने कहा, ‘अरे, अरे, अरे, मैं सब ठीक करे देता हूँ, मैं सब ठीक करे देता हूँ।’ और आप हो कौन? आप हो एक नशे में धुत्त बेहोश आदमी। आप कह रहे हो, ‘मैं सब ठीक करे देता हूँ।’

और ठीक करने के नाम पर आप क्या कर रहे हो? आप कह रहे हो, ‘अरे, इसका जो खून बह रहा है, इसको ज़रा टिंचर से धोना जरूरी है न, कुछ एंटीसेप्टिक किया जाए, नहीं तो खून बहुत बह रहा है, कहीं इसको इन्फ़ेक्शन (संक्रमण) न हो जाए। तो लाकर के इंजन का कूलेंट डाल दिया उसके खोपड़े में।

फिर बोल रहे हैं, ‘इसको कुछ दवा तो पिला दें नहीं तो मर जाएगा, इतना इसको खून बह रहा है।’ तो लाकर उसके मुँह में इंजन ऑयल डाल दिया। और अपनेआप को खूब शाबाशी दे रहे हैं कि हमने कुछ तो किया। देखो, मैं ठीक कर रहा हूँ, देखो, मैं ठीक कर रहा हूँ।

बात ये नहीं है कि आपकी मंशा क्या है। बात ये है कि आप कौन हो। आप मूर्छित हो। आप तब भी मूर्छित थे जब आपने उस व्यक्ति को गाड़ी से मारा था। आप तब भी मूर्छित हो जब आप उस व्यक्ति की सहायता करना चाह रहे हो। और जो मूर्छित होगा, वो दूसरे का नाश ही करेगा। वो सहायता भी करना चाहेगा तो नाश ही करेगा।

इसी तरीके से हम अब जब प्रकृति, पर्यावरण या समाज या राष्ट्र या विश्व का भला भी करना चाहते हैं या अपने परिवार का या अपने प्रियजनों का भला भी करना चाहते हैं तो हम उनका नाश ही करते हैं।

आपका भाव क्या है, इससे थोड़े ही कोई फ़र्क पड़ता है? विशेषकर भारत में हम भावना को बहुत महत्व देते हैं। हम कहते हैं, ‘मेरा भाव तो अच्छा है न, मेरा भाव तो अच्छा है न।’ भाव से क्या होता है? होश से होता है न। आपका भाव है कि वो पड़ा हुआ है और उसका सिर फट गया, मैं उसकी मदद कर दूँ पर आपको होश ही नहीं है, तो आपका भाव किस काम आएगा? भाव के नाम पर आप उसकी हत्या और कर दोगे और हमने यही करा है।

हमने भाव और भावना के नाम पर बड़ा खून बहाया है। सबको बड़ा कष्ट दिया है। खुद को भी बहुत सताया है। समझ में आ रही है बात?

बात ये नहीं कि आपका भाव क्या है, बात ये है कि आप क्या हो। बात ये नहीं है कि आपका इरादा क्या है। बात ये है कि आप क्या हो।

और अहम् जब तक है, वो मूर्छित ही है। तो सबके लिए यही अच्छा है कि आप न रहो क्योंकि आप अगर हो तो आप मूर्छित हो। आपका होना माने आपकी मूर्छावस्था का होना। और एक मूर्छित आदमी किसके लिए अच्छा हो सकता है बताओ तो?

तो आप हटें, इसी में सबकी भलाई है, दुनिया की भी, आपकी भी। आप क्यों सोच रहे हो आप किसी के लिए भी? आप क्यों सोच रहे हो अपने लिए भी अच्छे हो? आप अपने लिए भी बहुत बुरे हो। और आपके लिए अच्छे-से-अच्छा वो है जो आपको हटाने में आपकी मदद कर दे।

स्पष्ट हो रही है बात कुछ?

आपके लिए भी अच्छे-से-अच्छा वो है जो आपको हटाने में आपकी मदद कर दे। जो आपको हटाने में आपकी मदद करेगा, वो आमतौर पर आपके संसार का हिस्सा नहीं होगा क्योंकि आपका संसार कौन निर्धारित करता है? स्वार्थ। और आपके स्वार्थ में ये नहीं सम्मिलित होता कि आप हटें कि मिटें। वो परमार्थ है, स्वार्थ नहीं है। और हम अपना परमार्थ नहीं चाहते। हम तो अपना स्वार्थ ही ढूँढते हैं।

विरल है वो व्यक्ति जो अपना मित्र होता है। समस्या ये है कि हम सब अपने ही शत्रु होते है। और इसीलिए हमारा पूरा मन, हमारा पूरा संसार, हमारी स्वयं के प्रति शत्रुता का बड़ा भारी एक प्रमाण भर होता है।

आपके मन में और आपके संसार में जो कुछ है, उस एक-एक विषय पर उँगली रखकर के ये साबित किया जा सकता है कि आप अपने कितने भारी दुश्मन हो। आप अपने दुश्मन नहीं होते तो वो विषय आपके कमरे में नहीं मौजूद होता, आपकी अलमारी में नहीं मौजूद होता, आपके दिल में नहीं मौजूद होता, आपकी दुनिया में नहीं मौजूद होता।

आपकी ज़िन्दगी में जो कुछ भी है, वो इसी बात का प्रमाण है कि आप अपने कितने बड़े दुश्मन हो। तो हम कह रहे हैं, ‘बिरला होता है वो इंसान जो अपना दुश्मन नहीं होता।‘ और उसको बहुत श्रम से, बहुत होश से, बहुत साहस से, बहुत प्रेम से अपने जीवन में उसको लाना पड़ता है जो उसको (अहम् को) मिटा देगा।

बड़े प्रेम की बात है, बड़े प्रेम की बात है। बड़ी ईमानदारी की बात है और बड़े हौसले की बात है क्योंकि किसी ऐसे को ला रहे हो जो तुम्हें ही खत्म करने वाला है। साधारण, डरपोक, कायर आदमी के लिए कहाँ सम्भव है? ये आज थोड़ा सा जाकर के ये करिएगा अपने साथ, एक क्रिया है कि अपने मन को देखिए, अपने घर को देखिए, अपने कमरे को देखिए, जीवन को देखिए और देखिए कि उसमें क्या-क्या मौजूद है जो यही सिद्ध करता है कि आप शत्रु हैं अपने।

बहुत लोगों को तो बहुत दूर जाना ही नहीं पड़ेगा। उन्हें बस अपना फ़्रिज खोलना पड़ेगा। बहुतों को बस अपनी जेब में हाथ डालना पड़ेगा। बहुतों को इतना भी नहीं करना पड़ेगा, उन्हें ज़रा सा अपना मन टटोलना पड़ेगा और एक के बाद एक सामग्री मिल जाएगी जो यही साबित करेगी कि हम अपने ही बड़े भारी दुश्मन हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories