जहाँ आत्मा है, मात्र वहीं बल है || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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जहाँ आत्मा है, मात्र वहीं बल है || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अनहद में नाचते समय जो ऊर्जा थी वह ऊर्जा हमेशा नाचने में क्यों नहीं होती?

आचार्य प्रशांत: तो ऊर्जा का संबंध फिर किससे हुआ? शांति से। मैं उसको थोड़ा और साफ़ करके बोलूँ तो ऊर्जा का संबंध हुआ आत्मा से। जब कुछ भी आत्मिक होता है तो तुम पाते हो कि उसके लिए तुम्हारे पास ऊर्जा की कमी नहीं है। जहाँ तुम्हारा दिल लगा हुआ होता है वहाँ तुम्हें थकान नहीं होती। जो कुछ हार्दिक होता है उसके लिए तुम्हारे पास ऊर्जा न जाने कहाँ से आ जाती है, इसको जानते हो क्या कहते हैं? इसको कहते हैं, 'जहाँ शिव हैं वहाँ शक्ति है।' मैं कहता हूँ, 'जब हृदय में शिव तो भुजाओं में शक्ति।' जहाँ आत्मा है वहाँ शक्ति अपनेआप है। आत्मा माने शिव।

जब शिव के साथ होकर कुछ करोगे तो शक्ति अपने आप मिल जाएगी। कहाँ से मिल जाएगी मत पूछो, वरना शक्ति के लिए तरह-तरह के आयोजन करोगे जनरेटर चलाओगे, टॉनिक पियोगे, उधार की ऊर्जा माँगोगे। यह सब उधार की शक्ति यहीं से तो आती है- जेनरेटर से आ गयी, टॉनिक पी रहे हैं, अपनेआप को किसी तरीके से उत्तेजित कर रहे हैं, बाहरी प्रेरणा, आयातित मोटिवेशन, यह सब उधार की ऊर्जा लाने के तरीक़े हैं और उधार की ऊर्जा तुम कितनी भी लाओ पहली बात वो बड़ी क़ीमत पर आती है, दूसरी बात जल्दी चुक जाती है। तो कोई फ़ायदा है उधार की ऊर्जा का? इससे अच्छा यह है कि सीधे हृदय पर टंकार हो, सीधे यहाँ चोट हो, और जैसे दरवाज़ा खुल जाए असीमित ऊर्जा का। हृदय पर जैसे कोई चाबी लगती हो, चाबी अगर यहाँ लग गई तो दरवाज़ा खुल जाता है और उस दरवाज़े से फिर क्या बहती है? ऊर्जा। समझ रहे हो?

जब तुम्हें ऊर्जा की कमी पड़ती है तो एक बात ध्यान रखना कि ऐसा नहीं है कि तुम्हारे शरीर के पास ऊर्जा नहीं है, ऊर्जा की कमी तुम्हारे मन को पड़ती है। और जब मैं असीमित कह रहा हूँ तो उससे मेरा आशय है कि मन की सीमा नहीं रहेगी, शरीर की तो तब भी रहेगी। ठीक है पहले पंद्रह मिनट नाचते थे, अभी तीन घंटे नाच लिए लेकिन तीन हज़ार घंटे तो अभी भी नहीं नाच पाते न? गिर जाते, वो लेकिन शरीर की सीमा होती।

शरीर की जो सीमा है वो ठीक है। अब हम लोग जीव हैं, मनुष्य हैं, तो शरीर की तो सीमा होती ही है लेकिन मन की सीमा न रहे, मन अगर सीमित हो गया तो आत्मा तक नहीं पहुँच पाएगा। मन अगर सीमित हो गया तो आशय ही यही है कि आत्मा में स्थित नहीं है। तो नाचना तभी रुके जब शरीर चुक जाए, मन कभी न चुके। खेलने गए हो, खेलना तभी रुके जब शरीर गिर जाए, मन कभी न गिरे। मन यही कहता रहे, 'अभी तो और।' मन क्या कहता रहे? 'अभी है, अभी दम बाक़ी है, अभी थक नहीं गए।' हाँ, शरीर एकदम ख़ाली हो जाए और गिर जाए वो अलग बात है।

तुमने इतनी कहानियाँ पढ़ी हैं, गुरुओं की, सूरमाओं की, पैगंबरों की कि उनको बड़ी चोट लगी है लेकिन वो फिर भी लड़ते गए। सिखों में एक योद्धा की कहानी है, (बाबा दीप सिंह की) जो कि अपना कटा हुआ सिर हाथ में लेकर लड़ते रहे और तब तक लड़ते रहे जब तक दुश्मन को हरा ही नहीं दिया। फिर वो स्वर्ण मंदिर तक पहुँचे और वहाँ पर समाधि ली। कटे सिर के साथ लड़ रहे थे। इशारा समझ रहे हो?

मान लो सिर कटा नहीं भी था, मान लो कि गहरा घाव ही था लेकिन फिर भी गहरे घाव के साथ लड़ना कितनी बड़ी बात है? बहुत बड़ी बात है। इससे यही पता चलता है कि मन की शक्ति है, अब आप तन की शक्ति से नहीं लड़ रहे हो, मन की शक्ति से लड़ रहे हो। तन की शक्ति से लड़ रहे होते तो यदि सिर कट गया होता या गर्दन में गहरा घाव आ गया होता तो आप वही लुढ़क जाते, पर आप लुढ़के नहीं, यह आत्मबल कहलाता है। इसीलिए मैं निरंतर जूझने पर इतना ज़ोर देता हूँ।

आप लोग फुटबॉल खेल रहे थे तो मैं देख रहा था कि एक टीम है जो दो दिन से हार रही है। तो वापस आकर के मैंने बात करी और उसमें मैं यही कह रहा था कि उपनिषद बताते हैं हमें 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो।' क्या अर्थ है? कि आत्मा और बल एक साथ चलते हैं, जो बलहीन है उसे आत्मा का भी लाभ नहीं होता। जैसे शिव और शक्ति का साथ होना तय है वैसे ही आत्मा और बल का साथ होना तय है। जहाँ मैं बल को नहीं देखता वहाँ मैं समझ जाता हूँ कि आत्मा नहीं है।

बल का न होना, ताक़त का न होना, ऊर्जा का न होना, शक्ति का न होना अपनेआप में कोई बड़ी चूक नहीं, अक्षम्य नहीं लेकिन बल का न होना इशारा करता है किसी ज़्यादा गहरे उपद्रव की ओर। और वो उपद्रव यह है कि बल नहीं है तो शायद आत्मा भी नहीं है आपमें। बल भर न होता तो माफ़ किए जा सकते थे पर अगर आत्मा से तुमने दूरी बना ली है तो इसकी कोई माफ़ी नहीं है। चाहे फुटबॉल का मैदान हो, चाहे नाच का मैदान हो, चाहे जीवन का मैदान हो, बल तो हर जगह चाहिए न!

एक बल वो होता है जो अहंकार से उठता है, उसमें कोई व्यवस्था नहीं होती, वो तो ख़ुद को ही खा जाता है। उसमें कोई सौंदर्य नहीं होता और उसमें बड़ी लघुता होती है, और एक बल होता है जो आत्मा से उठता है। बल आवश्यक है, बल अगर नहीं है तुम में तो तुम जीवन में किसी काम के नहीं हो। होंगे तुम में और सौ गुण, वो तुम्हारे किसी काम नहीं आएँगे अगर तुम में बल नहीं है। और यह पक्का जान लो कि जितने भी वास्तविक गुण हैं वो बल से उठते हैं, इसीलिए शिव के जो निकटतम है वो शक्ति है। न तो पुण्य है, न धैर्य है, न क्षमा है, शिव के निकटतम क्या है? क्या तुम कहते हो कि शिव की अर्धांगिनी, धैर्य की देवी है या सौंदर्य की देवी है या पुण्य की देवी है? बोलो? शिव की अर्धांगिनी कौन? शिव के निकटतम कौन? शक्ति की देवी। शक्ति आवश्यक है। जिसकी शक्ति न उठती हो वो जीवन में नपुंसक और आत्मा से रिक्त है।

मैं अभी कह रहा था कि कबीर साहब कहते हैं— 'सूरा से सूरा मिले तब पूरा संग्राम' और उसका एक सुंदर उदाहरण है कि बुद्ध से अंगुलिमाल मिल रहा है। बुद्ध राज्य के राजकुमार और अंगुलिमाल जंगल का राजा, इसीलिए वो समर्पण भी कर पाया। दो ऐसे मिल रहे हैं जिन दोनों में ही ताक़त है। समर्पण करने के लिए भी बड़ी ताक़त चाहिए, कोई टुच्चा ठग या लुटेरा होता तो वो थोड़े ही बुद्ध के सामने नतमस्तक हो जाता। नतमस्तक होने के लिए भी बड़ी शक्ति चाहिए।

नतमस्तक तुम होते हो शिव के आगे और शिव के आगे सर्वप्रथम कौन नतमस्तक होता है? स्वयं शिव की अर्धांगिनी, जिनका नाम है—शक्ति। शक्ति ही तो शिव के आगे झुकेगी। तुम में शक्ति नहीं तो तुम शिव के आगे झुकोगे कैसे? तुम में शक्ति नहीं तो तुम शिव के आगे झुकोगे कैसे? इसीलिए तो अंगुलिमाल बुद्ध के सामने झुक पाया क्योंकि उसमें ताक़त थी, वो कोई साधारण डाकू-चोर नहीं था।

वाल्मीकि जी रामायण लिख पाए इसीलिए क्योंकि वाल्मीकि कोई टुच्चे लुटेरे नहीं थे; कुख्यात थे, दबदबा था, जोर था, लोग थर्राते थे। तुम लुटेरे भी बनो तो बलवान। बल अगर तुम में है तो शिव तुमसे फिर दूर नहीं है, फिर तो तुम्हें बस प्रेरणा के स्पर्श की ज़रूरत है, किसी गुरु के स्पर्श के ज़रूरत है। बल अगर तुम में है तो चाहे तुम जिस क्षेत्र में हो वो बल आत्मा में तब्दील हो सकता है, पर अगर तुम में बल ही नहीं है तो गुरु के लिए भी बड़ा मुश्किल पड़ेगा तुम्हें शिव से मिलवाना। समझ में आ रही है बात?

भारत में जितने अवतार हुए हैं, अधिकांश के हाथ में शस्त्र हैं। कृपा में भी उठा है उनका हाथ, आशीर्वाद देने के लिए भी उठा है लेकिन वध करने के लिए भी उठा है। एक हाथ में यदि वेद है तो दूसरे हाथ में तलवार है। तुम में अगर तलवार धारण करने की शक्ति नहीं तो तुम वेद भी नहीं उठा पाओगे। वेद भी हारने वालों के लिए नहीं है, वेद भी कमज़ोरों के लिए नहीं है; वेद भी उसके लिए है जो इंद्रियजित है। जो मन को जीत ले, वेद उसके लिए है। जो स्वयं को जीत ले, वेद उसके लिए है। जीतना तो हर पल ज़रूरी है, हर जगह ज़रूरी है, जो जीतना नहीं जानता वो आदमी की दुनिया में भी शर्मसार रहेगा और आत्मा की दुनिया में भी। तुम्हारे लिए दुनिया में शर्म और अप्रतिष्ठा और अपयश के अलावा कुछ नहीं।

शक्ति का संधान ज़रूरी है। शिव सूत्र कहते हैं, 'उद्यमो भैरवः' तुम्हारा उद्यम भैरव है। भैरव माने शिव के प्रतापी अवतार को भैरव कहते हैं। उद्यम करोगे कहाँ से जब तक शिव तुम्हारे साथ नहीं? भैरव तुम्हारे साथ नहीं? उद्यम, भैरव एक हैं। अब तुमसे उद्यम हो नहीं रहा है, फुटबॉल का मैदान है, इधर से उधर भाग नहीं पा रहे हो, भीतर से तुम्हारे बल नहीं उठ रहा है कि सामने वाले दल पर चढ़ बैठें तो पक्का जान लो कि शिव से तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं। पक्का जान लो कि तुम अहंकार में, तमस में, अंधेरे में डूबे हुए हो। नहीं तो इतनी लचर और दुर्बल हालत तुम्हारी हो नहीं सकती थी।

मैं फिर कह रहा हूँ, 'मुझे दुर्बलता मात्र से खेद नहीं है, कमजोरी मात्र से मुझे क्षोभ नहीं है पर कमज़ोरी इस बात का इशारा है कि तुम्हारा आत्मा से कोई संबंध नहीं। इसका मुझे बहुत खेद है। आ रही है बात समझ में?

कमज़ोर नहीं रहना है, बाज़ुओं में जान होनी चाहिए। हारना भी है तो ऐसे हारना है कि फ़क्र रहे, हारना भी है तो ऐसे हारना है की आत्मा रण में पूरी अभिव्यक्त हुई, अब उसके बाद ठीक है, नियति की बात है हारे। यह तो किस्मत का पासा है कभी ऐसे पड़ा कभी वैसे पड़ा लेकिन तुम जो हो उसको मैदान में खुलकर सामने तो आने दो। उतना ही दम है तुम्हारी टांगों में जितना दिखाई दिया? उतना ही कौशल है तुम में जितना तुम दर्शा पाए?

रचना अगर त्रुटिपूर्ण हो, अधूरी हो तो रचनाकार के लिए यह लज्जा की बात होती है। भगवान को क्यों लजाते हो? उसे भी लगता होगा किसको रच दिया! भगवान वो रचयिता है जो अपनी रचना में ख़ुद आकर बैठता है, जो अपनेआप को रचकर ख़ुद ज़मीन पर उतरता है। ऐसा तो नहीं होगा न भगवान जैसा अभी खेल के मैदान पर था? आलसी, तामसिक, तोंदू। एक तरफ़ फुटबॉल लुढ़क रही है, एक तरफ़ तुम लुढ़क रहे हो।

अद्वैत का अर्थ होता है रचयिता और उसकी रचना एक है। अगर एक हैं तो तुम ऐसे क्यों हो?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैदान में हर कोई चाह रहा था कि मैं अच्छा करूँ, पर उनमें से कोई कर पा रहा था और कोई नहीं कर पा रहा था। तो जो नहीं कर पा रहा था वो कितना ज़िम्मेदार है?

आचार्य: पूरा।

प्र: लेकिन आचार्य जी, वो तो चाह रहा है न कि वो कर पाता? उसकी भी उतनी ही इच्छा उठ रही है करने की जितनी जो कर पा रहा है उसकी है।

आचार्य: जब कर सकते हो तब चाहो तो चाहना क्या है? जो क्षण करने का है उस क्षण में तुम चाहो तो यह चाहत क्या है? बेईमानी और पलायन। जिस क्षण में तुम्हें कर गुजरना था उस क्षण में तुम बैठकर के चाह रहे थे, यह तुम क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो? बेईमानी कर रहे हो।

दो आलसियों की कहानी सुनी है न कि जामुन के पेड़ के नीचे लेट गये हैं और एक तो मुँह खोलकर पड़ा हुआ है कि जामुन सीधी मुँह में गिरेगी पर जामुन गिरी तो बगल में गिर गयी। तो वो पड़ोसी को बोल रहा है, 'बगल में गिर गयी है उठाकर मेरे मुँह में डाल दे।' चाह रहा है! पड़ोसी उसका और आगे—वो तुम्हारी ही फुटबॉल टीम से निकला था—तो वो कह रहा है, 'ज़रूरत क्या है डालने की, इस क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं अक्सर। आएगा ज़रूर आएगा और पेड़ हिलेगा और जामुन बरसेगी।' चाहो!

"उद्यमेन ही सिध्यंति कार्याणि न मनोरथै। न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे मृगा।"

मनोरथ माने इच्छा। काम करने से होते हैं, इच्छा से नहीं। उद्यम माने? मेहनत। सिंह भी सो रहा हो तो उसके मुख में आकर मृग नहीं घुस जाएगा, उसे भी उद्यम करना पड़ेगा। गोल खुला भी हो तो भी हिट मारनी पड़ती है। अपने गोल की तरफ़ नहीं, प्रतिद्वंदी के गोल की तरफ़।

श्रोता: हँसते हैं।

खेल, खेल तो होता है पर खेल ही भर नहीं होता। जीवन में कुछ भी मात्र उतना नहीं होता जितना वो दिखता है। कर्म खेल का होगा पर कर्ता तो तुम ही हो न? जो तुम कर्ता खेलते वक़्त हो, वही तुम खाते वक़्त भी हो, वही तुम पढ़ते वक़्त भी हो, वही तुम व्यापार में हो, वही तुम दफ़्तर में हो, वही तुम हर जगह हो। तुम्हारा ही चरित्र निकलकर सामने आ रहा है खेल के मैदान में।

संसार में, देखो चारों तरफ़ अस्तित्व में, जो कुछ है वो अपनी-अपनी जगह पर पूरा है। यहाँ तुम्हें इतने पौधे दिख रहे हैं यह सब कभी न कभी बीज रहे होंगे। अब बीज बनकर यह प्रकट हुए हैं तो पूरे प्रकट हुए हैं न? अभिव्यक्ति अलग-अलग है लेकिन जैसी भी है पूर्ण है। पीपल पूरा पीपल है, अधूरा पीपल तो नहीं है? घास है तो पूरी घास है, आधा पीपल नहीं है। अपनेआप को पूरी अभिव्यक्ति दो न। जीवन है ही इसीलिए, खुलने के लिए, पकने के लिए, अभिव्यक्ति के लिए, यही जीवन का उद्देश्य है।

लोग कहते हैं न जीवन का उद्देश्य है कि नहीं है? दोनों बातें हैं। शिव भी सत्य, निराकार और शक्ति भी सत्य, साकार। शिव होकर देखो तो जीवन पूर्णतया निरुद्देश्य है और शक्ति होकर देखो तो जीवन का उद्देश्य है। क्या? शक्ति की अभिव्यक्ति। क्योंकि शक्ति तो अभिव्यक्त है, दोनों को साथ-साथ चलना है। हृदय पर किसी भी उद्देश्य से अछूते रहो, कोई उद्देश्य नहीं है लेकिन मन के, शरीर के तो उद्देश्य हों। तुम्हारी आत्मा पर खरोंच भी न आए अगर तुम्हारे उद्देश्य पूरे न हों लेकिन मन को तो संकल्पित रहना चाहिए उद्देश्यों की पूर्ति के लिए।

आत्मा को ही शोभा देता है निरुद्देश्य होना; तुम्हें नहीं शोभा देता, क्योंकि तुम आत्मा नहीं हो। जब तुम आत्मस्थ तो हो जाओ पूर्णतया, तब तुम कहो कि अब हमारा भी कोई उद्देश्य बचा नहीं, तब देखेंगे। तुम्हारे तो उद्देश्य होने चाहिए, खेल रहे हो तो उद्देश्य हो। 'गोल' शब्द का अर्थ ही होता है उद्देश्य। तुम गोल तब मत मारना जब तुम्हारे जीवन में गोल न बचें। जीवन तो तुम्हारा गोलों से परिपूर्ण है। है कि नहीं? जीवन में तो तुम्हारी हज़ार चाहतें, हज़ार तमन्नाएँ हैं तो फिर खेल के मैदान पर गोल क्यों नहीं?

हारते-हारते हारना आदत बन जाती है और आदत अगर लंबी खिंचे तो चरित्र बन जाती है, और फिर तुम हज़ार कारण ढूंढना शुरू कर देते हो हारने के। फिर तुम्हें हारने के पीछे कोई-न-कोई वजह और तर्क मिल ही जाता है। हारने को चरित्र मत बना लो! क्योंकि हारने को अगर चरित्र बनाया तो आत्मा से हाथ धो बैठोगे।

आत्मा हरंतों के लिए नहीं है जो विश्वविजयी हो उसके लिए है आत्मा। जो स्वयं को जीते वो कहलाता है महावीर। जीतना आवश्यक है न? चाहे दुनिया को जीतो चाहे ख़ुद को जीतो।

भक्ति की भाषा में अगर इसे कहें तो ऐसे कहोगे कि मन सेवक है आत्मा स्वामी। मन भक्त है आत्मा भगवान। मन शक्ति है आत्मा शिव। तो शरीर और मन जो कुछ भी करने निकले हैं वो किसकी सेवा में करने निकले हैं? आत्मा की। और तुम अपने मालिक के लिए, अपने प्रेमी के लिए कुछ करने निकले हो, उसमें तुम भूल या हार कैसे बर्दाश्त कर सकते हो? बोलो कैसे कर सकते हो? अपने लिए करने निकले होते तो फिर भी बर्दाश्त कर लेते लेकिन अगर तुम में शक्ति नहीं, तो यह तो फिर आत्मा की हार हुई न?

शिव से शक्ति निकलती है तो शक्ति का होना किसका प्रमाण है? शिव का। और फिर शक्ति का न होना किसका प्रमाण है हुआ? शिव के न होने का। तो तुम अपनी हार कैसे बर्दाश्त कर सकते हो? क्योंकि तुम्हारी हार फिर तुम्हारी हार नहीं होगी वो तुम्हारे मालिक की हार होगी। तुम हारते तो कोई बात नहीं थी, तुम्हारी वजह से मालिक हारें, यह तुम होने दोगे क्या? बोलो?

शिष्य जब लड़ने जाते थे तो कहते थे, 'या तो जीतेंगे, नहीं तो वापस नहीं जाएँगे। क्योंकि अगर हार कर वापस गए तो गुरु को मुँह क्या दिखाएँगे! शिष्य की हार किसकी हार होती? गुरु की हार होती। तो हारा हुआ शिष्य क्या साबित कर देता? कि गुरु हार गया। तो वो कहते थे कि अगर हम हारे तो हम लौटकर ही नहीं जाएँगे।

बात आ रही है समझ में?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=biuy9Te-dqo

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