जब परिवार अध्यात्म की राह का विरोध करे || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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जब परिवार अध्यात्म की राह का विरोध करे || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, स्टूडियो कबीर के माध्यम से मैं पहले कबीर साहब को सुनता था, किंतु अब मैंने वह इसलिए छोड़ दिया क्योंकि मेरी पत्नी का रुझान उस तरफ़ नहीं था। अब मैं चिंतित क्यों हूँ?

आचार्य प्रशांत: तो तुम्हारा जहाँ रुझान था, उसने वहाँ आना स्वीकार नहीं किया पर उसका जहाँ रुझान था, तुमने कबीर साहब को छोड़कर वहाँ जाना स्वीकार कर लिया। जहाँ कबीर नहीं हैं वहाँ कौन है? माया। तो तुम बैठे थे कबीर साहब के साथ मेज़ के इस तरफ़। उसको कबीर साहब पसंद नहीं तो वह किसके साथ बैठी थी उधर?

प्र: माया के साथ।

आचार्य: तो तुम्हारा उसका मिलन हो सके इसलिए तुमने कहा, 'छोड़ो कबीर साहब को, मैं उधर चला जाता हूँ'। मिलन तो दूसरे तरीक़े से भी हो सकता था न। कैसे हो सकता था? कि वो इधर आ जाती, पर इतना प्रेम तुमने दिखाया नहीं। इतना प्रेम तुमने दिखाया नहीं कि मैं तुझे इधर ले आऊँगा। हाँ, इतनी सूरमाई दिखा दी तुमने कि तू इधर नहीं आ रही तो मैं कबीर साहब को ही त्याग देता हूँ। तो अब मुद्दे की बात! तुम उसको इधर क्यों नहीं ला पाए?

प्र: उसका इंटरेस्ट (रुचि) नहीं था इधर। उसका कहना है कि कुछ ख़ास नहीं है इन चीज़ों में, तो वो नहीं आना चाहती।

आचार्य: ये चीज़ें इंटरेस्ट की होती हैं या सच की होती हैं? और अगर सच में रुचि नहीं है तो फिर किस में रूचि हुई?

श्रोतागण: माया में।

आचार्य: और अगर वाक़ई तुम्हें प्रेम है किसी से तो उसे झूठ में जीने दोगे, ताकि कष्ट में रहे? मूल समस्या तो फिर यह हुई कि पत्नी से प्रेम ही नहीं है तुमको। भई! जो कोई कह दे कि 'कबीर साहब और संतवाणी और ये शास्त्रों, उपनिषदों, क्या रखा क्या है इनमें!' निश्चितरूप से वह घोर अंधकार और अज्ञान में जी रहा है। और जो अंधकार और अज्ञान में जी रहा है उसके जीवन में घोर कष्ट भी होगा; तुमने कैसे स्वीकार कर लिया कि वह इतने कष्ट में जीती जाए?

जहाँ प्रेम होता है वहाँ तो जिद्द करके अपने प्रेमी को कष्ट से मुक्ति दिलायी जाती है। जो व्यक्ति इस तरह की बातें करता हो कि 'भजनों में क्या रखा है, सत्य में क्या रखा है, मुक्ति में क्या रखा है', वह तो नर्क तुल्य कष्ट में जी रहा होगा; तुममें इतना प्रेम नहीं कि उसकी बाँह पकड़कर कहो, 'चल इधर'!

(प्रश्नकर्ता के चेहरे पर अपराध भाव का बोध प्रतीत हो रहा था)

सच की राह पर अपराध बोध और हीन भावना के साथ नहीं चला जाता। मियाँ साहब दफ़्तर से घूस खाकर आये हैं, घर में घुसेंगे छाती चौड़ी करके बेगम के सामने। छाती चौड़ी और सिर ऊँचा! कोई ग्लानि नहीं, कोई अफ़सोस नहीं, बल्कि वीरता है कि यह देखो, कितनी गड्डियाँ लाये हैं आज हम। दफ़्तर से घूस खाकर आये हैं, कोई ग्लानि की बात ही नहीं है, बेगम भी खुश। लेकिन यही दिन में सत्संग करके आ गए हों तो सर झुकाकर और नज़रें बचाकर घर में घुसेंगे। क्योंकि उन्हें पता है कुछ ऐसा कर आए हैं जो बेगम को स्वीकार नहीं है। ऐसे थोड़े ही होता है।

तुम्हें तो अगर अध्यात्म ज़रा भी समझ में आया था तो मन के तौर-तरीक़े खुल गए होंगे तुम्हारे सामने! है न? साफ़ जान गए होगे कि कौनसा इंसान किस वृत्ति द्वारा संचालित होता है, किस एल्गोरिदम (कलन विधि) से ऑपरेट (संचालित) होता है, दिख जाता है न बिलकुल? कि मन माने तमाम तरीके के जैविक और सामाजिक संस्कारों का पिंड। जितने उस पर प्रभाव पड़े होते हैं, जितने उसके तौर-तरीक़े होते हैं, साफ़ दिखाई देने लगते हैं।

थोड़ी देर पहले हम बात कह रहे थे पूर्वानुमान की। बात कर रहे थे न! साफ़ दिखाई पड़ जाता है कि ऐसे तरीक़े हैं, यह बटन दबेगा तो यह पुर्जा हिलेगा, ऐसा है यह आदमी। उसके बाद तुम उस आदमी की किसी बात को वज़न या तवज्जो या आदर कैसे दे सकते हो?

आध्यात्मिक आदमी के लिए तो दुनिया का कहा मानना बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसे साफ़ दिखता है कि दुनिया कितने नकली तरीक़े से चल रही है। तुम्हारे सामने जो व्यक्ति है अगर वह तुमसे कोई हार्दिक बात कह रहा हो, कोई आत्मिक उद्गार व्यक्त कर रहा हो तो तुम उसकी सुनो भी, फिर सुनना चाहिए भी। पर तुम्हारे सामने जो व्यक्ति बैठा हुआ है, जब तुम भलीभाँति जान गए हो कि नशे में है और बहकी-बहकी बातें कर रहा है, तो तुम उसकी कोई बात कैसे मान सकते हो! कैसे उसकी बात को आदर दे सकते हो!

अध्यात्म का मतलब ही है यह जान जाना कि अधिकांशतः हम जिसको चेतना कहते हैं, सामान्य चेतना, नॉर्मल कॉन्शियसनेस, वो सिर्फ़ नशा है। तुम बैठे पढ़ रहे हो उपनिषद्, सामने कोई नशेड़ी बैठा है और कह रहा है, 'हटाओ इसमें रखा क्या है, मेरा तो इंटरेस्ट नहीं है'। तुम कहोगे नशेड़ी से कि 'जी, जो हुकुम!' ऐसा कहोगे? ऐसा तो तब ही कह सकते हो जब तुम्हारा भी नशा उतरा ही न हो।

सामने कोई बैठा हो जो पूरे होशो-हवास में हो और फिर वह तुम्हारी गर्दन माँगे, तो सिर काटकर दे दो। तुम्हारे सामने कोई बैठा हो जो जागृत हो, और फिर तुमसे कहे कि 'प्रेमवश तुमसे ये माँग कर रहे हैं कि तुम अपने पाँव में ज़ंजीरें बाँध लो', तो ज़रूर बाँध लो। क्योंकि अब उसने जागृति में, होश में, प्रेम में एक हार्दिक बात कही है।

पर तुम्हारे सामने जो बैठा है वह आधी नींद में, आधे सपने में, आधे नशे में उल-जुलूल बक रहा है और भले रोते-रोते बक रहा हो, तुम पिघल जाओगे? नहीं! पर तुम तो पिघल गए।

तुम्हारा बच्चा तीन साल का है और ख़ूब रो रहा है पाँव पटक-पटक कर और तुमसे कह रहा है कि मुझे मिठाई की पूरी दुकान खरीद दो; तुम खरीद दोगे? नहीं! पर तुमने तो खरीद दी। तुमने यह देखा ही नहीं कि जो तुमसे जिद्द कर रहा है, उसमें परिपक्वता कितनी है। उसमें कोई मैच्योरिटी है? बच्चे जैसी उसकी हालत है पर उसने आँसू बहा दिए, थोड़ा पाँव पटक दिए, थोड़ी जिद्द कर दी और तुम पिघल गए। और तुमने इसको नाम दिया प्रेम का।

जिन्हें अपनी हस्ती का कुछ पता नहीं वह दूसरों को ज़िम्मेदारियाँ याद दिला रहे हैं। उनसे पूछो ज़िम्मेदारी शब्द का कुछ अर्थ तो बता दो? और यह तो बता दो कि तुम्हें कैसे पता कि एक आदमी की यह ज़िम्मेदारियाँ होती हैं! बताना, क्या होती है ज़िम्मेदारी, क्या होता है कर्तव्य, क्या होता है धर्म? और बताना, यह पाठ तुमने पढ़ा कहाँ से? पर तुम यह प्रश्न पूछ ही नहीं पाए, न माँ-बाप से, न पत्नी से। क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर अभी तुम्हें भी स्पष्ट नहीं था। तो तुम्हें यह उत्तर स्पष्ट करना चाहिए था न, उसकी जगह तुमने घुटने टेक दिए।

अदालत में न्यायाधीश किसी आरोपी को सज़ा सुना रहा हो और कहे कि तुझे चार साल की क़ैद दी जाती है क्योंकि तूने कुट्टुकू किया है। तो बेचारे मुज़रिम का, उसके वकील का यह हक़ है न, और यह फ़र्ज़ है न कि जज से पूछे कि 'जिस बात की तुम मुझे सज़ा दे रहे हो, पहले मुझे उसका अर्थ तो बताओ? यह किस बात की सज़ा दे रहे हो'?

वो तुम्हें बार-बार अपराधी घोषित करते रहे ये कहकर कि 'तुम ज़िम्मेदार नहीं हो'। और तुमने यह भी नहीं पूछा कि 'तुम न्यायाधीश बनकर मुझे अपराधी बना रहे हो और मुझसे कह रहे हो कि मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ। यह तुमने इल्ज़ाम लगाया है मुझ पर। तुम पहले मुझे समझाओ कि ज़िम्मेदारी मतलब होता क्या है। आज बात करेंगे, बैठो आमने-सामने और इंसान की तरह बात करो। दो वयस्क लोग आपस में आज बात करेंगे कि ज़िम्मेदारी माने क्या'। पर नहीं! उन्होंने कहा- 'कुट्टुकू', तुमने कहा- 'कुट्टुकू' और सजा भी भुगत आए। बड़े होशियार हो तुम, कुट्टुकू की सज़ा भुगत रहे हो!

श्रीकृष्ण बेकार ही समझाते रह गए "स्वधर्मे निधनं श्रेयं"- कि बाक़ी सब ज़िम्मेदारियों को छोड़ो। "सर्वधर्मान परित्यज्य"- सारी ज़िम्मेदारियों को छोड़ो, स्वधर्म का पालन करो बस। वह बेकार ही समझाते रह गए। श्री कृष्ण तो बेचारे छोटे आदमी थे, ये तुम्हारे परिवार वाले तुमको और बड़ी व्याख्या दे गए धर्म की, कर्तव्य की, ज़िम्मेदारी की।

उनसे पूछते न कि 'एक छोटा-मोटा बंदा हुआ था श्रीकृष्ण के नाम से, उसने भी ज़िम्मेदारियों के बारे में कुछ बातें बोली हैं पिताजी। और आप अपनेआप को हिंदू नहीं, ब्राह्मण बताते हैं तो आइए ज़रा ब्रह्म चर्चा भी कर लें। ज़रा सुन लें कि श्रीकृष्ण क्या बोल गए हैं ज़िम्मेदारियों के बारे में'।

पर नहीं! कह दिया, 'बामशक्कत कुट्टुकू चल रही है'। क़ैद भुगतना मंज़ूर है, आमने-सामने की खुली चर्चा का साहस दिखाना मंज़ूर नहीं है। एक परिपक्व जवान आदमी की तरह सीधी बात करने का साहस नहीं है। उन्होंने तुमसे कह दिया, तुमने सुन लिया। उन्होंने पूरा आरोप पत्र पढ़ दिया और तुमने मान लिया कि हाँ, मैं तो दोषी हूँ ही। कैसा लगेगा उम्रकैद बिताकर, अगर उम्र बीतने के बाद पता चले कि कुट्टुकू की सज़ा भुगत रहे थे? और यहाँ सब कुट्टुकू की ही सज़ा भुगत रहे हैं। और सीधे इल्ज़ाम लगाया जाता है कि देखो, तुम ये ग़लत काम कर रहे हो।

कितनी विचित्र बात है! इल्ज़ाम लगाने वाला बेहोश है, नशे में है, अज्ञानी है, पर उसमें आत्मविश्वास पूरा है। और जिस पर इल्ज़ाम लगाया जा रहा है, वह बेचारा सकुचा जाता है, लज्जा जाता है, डर जाता है और अपराध भी क़ुबूल लेता है कि 'हाँ, मेरी ग़लती है'। क्या माया है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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