प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सभी सम्बन्धी आत्मा का विकल्प बनने की कोशिश करते हैं। आपकी संगति से पहले मैं भी ऐसा ही बनने की कोशिश करता था। अब ऐसा न करने से सम्बन्धों में काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ये विरोध बना ही हुआ है लेकिन मन में उमंग है, शान्ति बढ़ी है, निडरता बढ़ी है। अब जब कोई डराने की कोशिश करता है तो बहुत क्रोध भरी प्रतिक्रिया मन से उठती है। इसको अभिव्यक्ति नहीं देता हूँ; अभिव्यक्ति देने से उलझनें बढ़ जाती हैं। इस प्रतिक्रिया को रुककर जाने देता हूँ, क्या ये सही है? कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, आप अभी भी अपने आसपास वालों को उनके सही स्थान पर नहीं रख रहे हो। देखो, दूसरों के आचरण पर क्रोध अगर आपको आ रहा है तो इसका मतलब आपकी कुछ अपेक्षाएँ हैं जो पूरी नहीं हो रही हैं। आप उनसे क्या अपेक्षा रख रहे हो, उन्हें क्या माने बैठे हो? ऊँची अपेक्षाएँ तो सिर्फ़ जो ऊँचा है उससे ही रखी जा सकती हैं। प्रकृति के तत्वों से प्रकृति विरुद्ध या गुणातीत अपेक्षाएँ रखने का तुक क्या है?
दो-तीन साल पहले एक शिविर हुआ था अहमदाबाद में, उसमें मैंने कुछ बोला था। फिर बाद में वो एक वीडियो प्रकाशित किया उसका शीर्षक था 'जानवरों से उम्मीदें रखोगे तो दिल तो टूटेगा ही।' उसको देखिएगा। क्या? 'जानवरों से उम्मीदें रखोगे तो दिल तो टूटेगा ही।'
‘जानवर’ से मेरा आशय है प्रकृति। प्रकृति के तत्वों को तुम आत्मा का दर्जा दे रहे हो और फिर सोच रहे हो, ‘अरे! इनमें ऊँचाई क्यों नहीं है, इनमें स्पष्टता, इनमें सत्यता क्यों नहीं है?’ कैसे होगी! आप अभी भी समझ नहीं पा रहे हैं कि वो बस प्रकृति के जीव-जंतु हैं, आप उन्हें न जाने क्या मान रहे हैं। फिर जब वो उल्टा-पुल्टा आचरण करते हैं तो आपको बुरा लग जाता है। क्यों बुरा लग जाता है, बताओ? क्यों बुरा लग जाता है? क्योंकि आपने मान रखा होता है कि वह बहुत ऊँचा था जिसने व्यवहार नीचा कर दिया। आप जो समझ नहीं पा रहे हैं बात वो ये है कि वह ऊँचा था ही नहीं।
आपके पास एक कुत्ता है और वो कुत्ता पालतू है, आपके घर में ही रहता है। उसने आपकी चप्पल चबा दी। आपका दिल टूट जाता है क्या, दिल टूट जाता है? लेकिन आपका एक दोस्त होता है उसने चप्पल चला दी, तो आपका दिल क्यों टूट जाता है? क्योंकि आपने ये मान रखा होता है कि आपका दोस्त कुत्ता नहीं है, जबकि वो कुत्ता है। दिल नहीं टूटना चाहिए था, दोनों अपने हैं न; एक पालतू कुत्ता एक पालतू दोस्त, एक चप्पल चबा गया एक चप्पल चला गया। लेकिन एक में दिल टूटा और एक में नहीं टूटा, काहे बाबा, क्यों? वो दोनों एक बराबर हैं।
घर में बिल्ली होती है आपके, वो आकर के दूध पी गयी, आपका दिल टूट जाता है क्या? भीतर से आक्रोश उठता है, क्रोध उठता है? विद्रोह की भावना उठती है ‘बिल्ली दूध पी गयी?’ और आपके घर में एक ह्यूमन बिल्ली भी है, मनुष्य के भेस में बिल्ली है। वो आकर आपका ख़ून पी गयी, रोज़ पीती है तो आपके भीतर से आक्रोश काहे उठता है? वो दोनों बिल्लियाँ ही हैं, दोनों पाल ही रखी हैं आपने। एक ज़बरदस्ती दूध पी गयी, दूसरा ज़बरदस्ती खून पी गयी, एक में ही क्यों बुरा लगा, फिर तो दोनों में लगे।
अगली बार जब बिल्ली दूध पी जाए तो छाती पीटना, क्रांति कर देना, ‘बिल्लीराज मुर्दाबाद!’ नारे लगाना, कोर्ट चले जाना, किस्मत कोसना; करते हो ये सब? तब क्या बोलते हो? ‘बिल्ली है, बिल्ली तो बिल्ली जैसी ही हरकत करेगी न।‘ वैसे ही जब बिल्लू ख़ून पिये तो यही बोल दिया करो ‘बिल्ला है!’ बिल्लू नहीं है, क्या है? बिल्ला है, बिल्ले जैसे ही तो हरकत करेगा; ख़ून पी गया।
अभी भी आप उनको आत्मा कहीं-न-कहीं थोड़ा-बहुत माने बैठे हैं इसीलिए आपका दिल टूटता है। जिस दिन आप जान जाएँगे कि उनमें आत्मा जैसा कुछ है ही नहीं अभी, वो आत्मा हो सकते हैं संभावित तौर पर, अभी उनमें आत्मा जैसा कुछ नहीं है, अभी बिल्ली भर हैं वो। आत्मा होने की सामर्थ्य है उनमें, संभावना है, लेकिन अभी वो बस बिल्ली हैं, जानवर हैं, जीव हैं, पशु हैं, तो फिर आपका दिल नहीं टूटेगा। फिर जब वो कोई ऐसी व्यर्थ, फ़िज़ूल, ज़लील हरकत करेंगे, तब आपको बस ये समझ में आएगा कि अभी इन्हें बस बहुत दूरी तय करनी बाक़ी है। आपको बस ये दिखाई देगा कि अभी इन्हें सहायता की बहुत ज़रूरत है। फिर करुणा उठती है, फिर आक्रोश नहीं उठता। करुणा न भी उठे तो कम-से-कम भीतर अपना ख़ून तो नहीं जलेगा।
भाई, सामने वाला इंसान ऐसा है जो ख़ुद से ही बेबस है, वो अपने ऊपर ही कोई नियंत्रण नहीं रख पाता। आप उस पर क्रोध कैसे कर सकते हैं? उसका अपने ऊपर कोई बस ही नहीं है। वो ख़ुद बहुत क्या है? बेबस है, ग़ुलाम है, उसका कोई आत्म-नियंत्रण नहीं है। जिसको आप बोलते हो न ‘कंट्रोल’, ऐसी कोई चीज़ उसके पास है ही नहीं। वो किसी भी तरह की कोई सत्यता, शालीनता, मर्यादा दिखा ही नहीं सकता क्योंकि अभी वो बस बिल्ली है। तो क्रोध आपको नहीं करना चाहिए। उसने चुना नहीं, उससे हो जाता है।
कुत्ते ने चुनाव करा था चप्पल चबाने का? चप्पल दिखी, चबा दी। वैसे ही वो जो दूसरा कुत्ता है, उसने भी चुनाव नहीं करा था चप्पल चलाने का; चप्पल दिखी, चला दी। ऐसी ही तो होती है प्रकृति, वहाँ कोई चुनाव नहीं कर पाता, वहाँ भी एक चॉइसलेसनेस होती है, एक निर्विकल्पता होती है। नदी चुनती थोड़ी है कि बहना है, वो तो बह जाती है बस। गेंद आप उछालो, वो चुनाव करती है अब नीचे आना है? वो आ जाती है। प्रकृति के अपने नियम हैं जिनमें किसी के पास कोई विकल्प नहीं होता।
ज़्यादातर इंसान भी ऐसे ही बस प्राकृतिक होते हैं, उनके पास चेतना-रूपी विकल्प होता ही नहीं है। विकल्प सारे चेतना में होते हैं। जो जितना चैतन्य होता जाता है, उसके पास उतने विकल्प बढ़ते जाते हैं। अंततः उसके पास एक आख़िरी विकल्प भी आ जाता है – निर्विकल्प होने का। वो बहुत आख़िरी बात है।
जो जितना प्राकृतिक होता है, जो जितना ज़्यादा प्रकृति के तल पर जी रहा होता है, वो उतना ज़्यादा अपने भीतर की अंधी वृत्तियों का ग़ुलाम होता है। उसके भीतर से एक ज़बरदस्त आवेग उठता है और वो उसको बहा ले जाता है। उसको पता भी नहीं चलता उसने क्या कर दिया। हाँ, बाद में वो पछता सकता है, ‘अरे! मुझे पता नहीं चला मैं क्या कर गया, चप्पल चला दी।‘ ‘मालूम है मुझे इतना गुस्सा आ गया कि मैं आपका ख़ून पी गयी, मैंने चाहा थोड़ी था, बस मैं पी गयी।‘
इस इंसान पर क्रोध नहीं किया जा सकता। पर आप कह रहे हैं कि आप क्रोध कर रहे हैं। क्रोध कर रहे हो, ग्लानि कर रहे हो, कुछ भी कर रहे हो; आप कर रहे हैं, अभी आपको बुरा लग रहा है। इसका मतलब है आपने अभी उनको प्रकृति जाना नहीं। कहीं-न-कहीं आप एक छुपी हुई उम्मीद लेकर के बैठे हैं, क्या? क्या पता इनमें से कोई आत्मा निकल जाए। ‘आचार्य जी बार-बार बोलते हैं किसी को भी हृदय में स्थान मत देना, हृदय का स्थान मत देना, पर क्या पता कोई इस लायक़ निकल ही जाए!’ तो ऐसे-ऐसे (इधर-उधर देखते हुए) धीरे-धीरे अपना तिरछी निगाहों से तलाश रहे हैं। फिर कोई मिलता नहीं तो चोट लग जाती है।
चोट किसी के हरकत से नहीं लगती है, चोट लगती है उम्मीदों से। उम्मीद बाँधना बुरा नहीं है, उम्मीद लेकिन वहाँ बाँधो जहाँ वो पूरी हो सकती है। बिल्ली से कहोगे कि उपनिषद् बोले, तो बोलेगी 'म्याऊ'। कैसी उम्मीद है ये! फिर तुम कहो कि अरे-अरे! अब जिया नहीं जाता, दिल टूट गया, बिल्ली ने श्लोक की जगह म्याऊ बोल दिया। अरे वो बेचारी निर्विकल्प है, वो बिलारी भर है। उसकी मदद कर सकते हो तो कर दो, उससे उम्मीद मत बाँधो।
आ रही है बात समझ में?
प्र: आचार्य जी, पिछले प्रश्न में प्रश्नकर्ता ने आपसे कहा था कि काफ़ी क्रोध आता है उनको। तो क्या हम दूसरों के हर ग़लत पाप को झेलते रहें? इससे उनका साहस और बढ़ जाता है और वो ज़्यादा परेशान करते हैं।
अचार्य: झेलने का सवाल नहीं पैदा होता न। फिर पूछ रहा हूँ, कुत्ता अगर चप्पल चबा गया तो इसमें झेलने की क्या बात है। बुरा मत मानो, खदेड़ दो बस उसे बाहर। झेलने की बात इसीलिए आती है क्योंकि तुम उसे बाहर खदेड़ नहीं सकते। खदेड़ इसलिए नहीं सकते हो क्योंकि तुम उसे कुत्ता मान ही नहीं रहे। झेलना तुम्हें इसलिए पड़ता है क्योंकि तुम उसे कुत्ता मान ही नहीं रहे। अभी भी तुम बात समझ ही नहीं रहे हो मेरी। तुम्हें लग रहा है कि वो प्रकृति नहीं है, वो आत्मा है। तुम मान ही नहीं रहे हो कि वो जड़ है, तुम्हें लग रहा है कि वो चेतन है। तो इसलिए तुम उसे बाहर खदेड़ नहीं पाते।
एक बंदर का बच्चा है, वो आता है रोज़ सुबह यहाँ पर, तो हम उसे कुछ खिला-पिला देते हैं। फिर क्या कहते हैं, 'बेटा दरवाज़ा उधर है, निकल लो।' बस हो गयी बात ख़त्म, झेलने की क्या बात है इसमें? बिस्तर पर बैठायें उसको? साथ-ही-साथ किसी तरह की क्रूरता का भी कोई प्रश्न नहीं, प्यारा सा बंदर का बच्चा है। बहुत प्यारा है, लेकिन बंदर का बच्चा है भाई!
वैसे ही तुम ज़्यादातर जो इंसानों को देखते हो वो बंदर के ही बच्चे हैं, खिलाओ-पिलाओ, दरवाज़ा दिखाओ, बात ख़त्म। झेलना क्या है इसमें? पर न तो तुम दरवाज़ा दिखा पाते, न अपनेआप को ग्लानि से मुक्त रख पाते। बंदर को सोफ़े पर बैठाते हो, फिर कहते हो ‘देखो ये रिमोट तोड़ रहा है।‘
जो जैसा है उसके साथ उस तरीक़े का आचरण करो, झेलने की कोई बात ही नहीं है। लेकिन उसके साथ वैसा आचरण तुम तब करोगे जब पहले ये मानोगे कि वो कैसा है। बंदर को बंदर मानोगे तो उसे दरवाज़ा दिखाने में तुम्हें कोई घबराहट नहीं होगी, न कोई ग्लानि उठेगी, न शोक होगा, न क्षोभ होगा, क्योंकि पता है कि बंदर है। पर तुम बंदर को कहोगे, 'ये तो मेरा चड्डीबदल यार है, बिरादर है मेरा,' तो भीतर से बड़ा संकोच आएगा कि इसको मैं कैसे कह दूँ कि दरवाज़े के बाहर जा। वो जो भी है तुम्हारा, वो बांदर है, बांदर को खिला-पिला दिया। उसे बाहर जाने को बोलने में कोई क्रूरता नहीं चाहिए, सहजता चाहिए।
बंदर को खिलाने-पिलाने के बाद अगर मैं बोलूँ कि अब ये दरवाज़ा खोल दिया है, ‘शू’ (बाहर जाओ) तो ये मैंने हिंसा करी, क्रूरता करी क्या? तो वैसे ही अगर तुम्हारे जीवन में लोग हैं जो बंदर ही समान हैं, तो उन्हें खिला-पिला दो फिर बोला करो, 'दरवाज़ा उधर है, शू।' इसमें इतना सोचना-घबराना क्या? क्या शोक करना? जड़ पदार्थ के प्रति शोक किया जाता है?
तुम चल रहे हो, तुम्हारे पैर से पत्थर को ठोकर लग गयी, माफ़ी माँगते हो पत्थर से? पत्थर जड़ है और उसमें ऐसा भी कुछ नहीं है जो तुम्हें चेतना की ओर ले जाता हो। हाँ, तुम चल रहे हो और तुम्हारे पाँव तले कोई आध्यात्मिक पुस्तक आ जाए तो तुम उससे ज़रूर क्षमा माँगते हो। उसे उठाते हो माथे पर रख लेते हो, क्योंकि उसमें ये संभावना थी कि वो तुम्हारी चेतना को ऊपर उठा देती।
तुम्हारे जीवन में अगर बंदर ही बंदर भरे हैं, तो तुम्हें बंदर ही बनाएँगे, तुम्हारी चेतना थोड़े ही उठाएँगे! उनके प्रति तुम क्यों क्षमा-प्रार्थी होते हो, उनको लेकर के तुममें क्यों इतना संकोच, घबराहट और चिंता है? उनको तो चुपचाप बोला करो कि दरवाज़ा उधर है और इसमें कोई क्रूरता नहीं है, कोई आक्रोश नहीं चाहिए। हम बंदर को डाँटते थोड़े ही हैं, हम तो उसको खिला-पिला देते हैं और फिर कहते हैं, साहब रास्ता नापिए, आपकी जगह पेड़ है, सोफ़ासेट नहीं। हम आपको उस जगह भेज रहे हैं आप जिस जगह के अधिकारी हैं, जो आपकी प्रकृति है, आपकी प्रकृति पेड़ है। समझ में आ रही है न बात?
किसी का भी मूल्यांकन उसकी चेतना के आधार पर करो, कोई ग्लानि, कोई शोक नहीं होगा। लेकिन चेतना के आधार पर जो सम्मान के अधिकारी हैं उनको हम सम्मान देते नहीं हैं। हम कहते हैं कि अरे अभी इनके पास धन नहीं है, रुतबा नहीं है तो उनको हम कैसे दे दें सम्मान। इसी तरीक़े से चेतना के आधार पर जो सम्मान के अधिकारी नहीं हैं, उनको हम व्यर्थ ही सम्मान दिये जाते हैं, ये कहकर कि इनसे तो हमारा कोई रिश्ता है या इनके पास रुपया-पैसा है या कुछ और है।
सिर्फ़ एक आधार पर मूल्यांकन करो – चेतना कितनी है किसमें; इसमें फिर न हिंसा है न क्रूरता है, बस सहजता है। जो ऊँची चेतना का है, सहज ही उसे सम्मान दे दो। जो ऊँची चेतना का नहीं है पर चेतना उठाने को तैयार है, उसे प्रश्रय दो, प्रेरणा दो, सहारा दो। और जो गिरी हुई चेतना का है और चेतना उठाने को भी राज़ी नहीं है, उसे दरवाज़ा दिखा दो, अधिक-से-अधिक उसको खिला-पिला दो, जैसे बंदर को खिलाते-पिलाते हो। खिला-पिला दो क्योंकि उसको जीवन में खाने-पीने से अधिक कुछ चाहिए भी नहीं। तो उसकी खाने-पीने की इच्छा पूरी कर दो और दरवाज़ा दिखा दो। समझ में आ रही है बात? खेल बहुत सीधा है।