प्रश्नकर्ता: जीवन बासी और ऊब से भरा हुआ क्यों लगता है?
आचार्य प्रशांत: यह जो बात होती है कि कुछ बासी लग रहा है, उबाऊ लग रहा है, इसका डर से कितना गहरा सम्बन्ध है हम ये देख पा रहे हैं? इतना तो स्पष्ट है कि जीवन में कोई भी घड़ी अपनेआप को दोहराती नहीं है, कोई भी पल किसी दूसरे पल जैसा नहीं होता है। लेकिन उसका नयापन दिखना तो हमें चाहिए न। और नया तो वही है कि जिससे पहले से परिचय न हो, जो पहले से ज्ञान में न हो, जो पहले से अनुभव या स्मृति में न हो।
जो अनुभव में नहीं है उसके प्रति हमारा नज़रिया क्या है, दृष्टिकोण क्या है?
दो दृष्टिकोण हो सकते हैं। एक तो ये है कि मेरे अनुभव में नहीं है तो वो है ही नहीं। चूँकि मैंने कभी उसको देखा नहीं, जाना नहीं, वो मेरे स्मृति में, मेरे इतिहास में नहीं है, तो वो है ही नहीं। मैं प्रमाणित करूँगा वो है या नहीं, मैं अगर कहूँ कि है तो है, मैं अगर कहूँ कि नहीं है तो नहीं है। यह एक नज़रिया है।
दूसरा यह है कि मैं छोटा हूँ इतना कि मेरे अनुभव भी छोटे ही होने हैं, तो ज़ाहिर सी बात है कि मेरे अनुभवों के पार काफ़ी कुछ होगा और जो मेरे अनुभवों के पार होगा मुझे कोई हक़ नहीं है कि मैं उसके बारे में पूर्वानुमान लगाऊँ, यह उचित ही नहीं है कि मैं उसके बारे में बातें बोलूँ।
यह दूसरी दृष्टी कम पायी जाती है। यह स्वीकार कर पाने में कि हम छोटे हैं, हमारे ज्ञान का दायरा छोटा है, बड़ा डर लगता है। हम उस डर का निवारण कैसे करते हैं? हम क्या तरकीब लगाते हैं?
हम मानते ही नहीं कि नया कुछ है, हम नये को पुराने के सन्दर्भों में परिभाषित कर देते हैं। नये को नया न रहने देने का इससे कारगर तरीक़ा और क्या हो सकता है, मानो ही नहीं कि वो नया है, कह दो कि पुराने जैसा ही है। उसको ऐसे देखो कि जैसे वो पुराने का ही विस्तार है कि जैसे पुराना ही खींचता चला आ रहा हो और थोड़ा-बहुत बदल कर नया बन गया हो। अगर पुराना ही थोड़ा-बहुत बदल कर नया बना है, तो नया-नया है नहीं फिर, पुराना है और पुराना है तो बासी लगेगा।
अकड़ देख पा रहे हैं आप इसमें? नया नहीं है कुछ, वही है सब पुराना जो मैं पहले से ही जानता हूँ। और आप देख पा रहे हैं कि ऊब और डर में तो सम्बन्ध है ही, अकड़ और डर में भी कितना सम्बन्ध है। ये सारा खेल इसलिए खेला जा रहा है सिर्फ़, ताकि आप डरे-डरे रह सकें। जो डरा हुआ है वो अपनेआप को बचा रहा है — डरा हुआ देखा है न वो अपनेआप को बचाने की कितनी कोशिश करता है, डर में और आत्मसंरक्षण में तगड़ा रिश्ता है कि नहीं — और डरा हुआ अगर अपनेआप को बचा रहा है तो डर को ही बचा रहा है।
आप जब डरे होते हो तो अपनी आहुति देने निकल पड़ते हो क्या? आत्मसमर्पण करने आगे आ जाते हो? आप जब डरे होते हो तो आत्मसुरक्षा का ही तो उपाय कर रहे होते हो। और डरा हुआ आदमी निश्चित अपनेआप को बचाएगा। अपनेआप को बचाकर किसको बचाएगा? डर को ही तो बचाएगा। और बचाते हैं हम अपनेआप को और अब कहते हैं कि जो सामने है उसको देखेंगे नहीं, ताकि पुराना भी नष्ट न हो जाए। फिर जीवन में ऊब आती है, खीझ आती है।
ऊब है जीवन में? बासीपन है जीवन में? अब ऊबने लायक कोई कारण अस्तित्व तो देता नहीं। अस्तित्व किसी भी तारीख़ को दोहराता नहीं, अस्तित्व किसी भी चेहरे को अगले दिन पिछले जैसा तो रखता नहीं, अस्तित्व में तो सबकुछ प्रवाहमान है। ऊब कहाँ से आयी? आप बताओ मुझे। ऊब कहाँ से आएगी? ऊबे आप उसी से हो जो इतना डरा हुआ है कि प्रवाह में आना नहीं चाहता, बहना नहीं चाहता, नये को देखना नहीं चाहता, पुराने से चिपका हुआ है, लटका हुआ है।
बात किताबी नहीं है, अपने रोज़ के जीवन को देखना होगा कि कैसे हम सिर्फ़ उन्हीं दायरों में घूमते रहते हैं, उन्हीं दायरों के भीतर रहते हैं जो हमारे सुपरिचित दायरें हैं। आज सुबह ही मैं आपसे कह रहा था थोड़ी देर पहले कि देखिए किन लोगों के पास आप जाकर के बातचीत कर रहे हैं और देखिए कि आप किन विषयों पर बातचीत कर रहे हैं? क्या वो विषय वही नहीं हैं जो सदा से रहे हैं? क्या व्यक्तियों का आपका चुनाव वही नहीं है जो सदा से रहा है?
अब ये तो न कह दीजिएगा कि ये जगह भी नयी नहीं है, ये तो मत कह दीजिएगा कि ये मौका भी नया नहीं है। जगह भी नयी है, मौका भी नया है, गंगा भी नयी हैं, सत्र भी नया है, शिविर भी नया है, लेकिन देखिए कि हम कैसे पुराने को ढोये-ढोये फिरते हैं। जहाँ सबकुछ सर्वथा नया है वहाँ भी हम पुराने को ही चिपकाए घूम रहे हैं।
यह आरोप नहीं है, यह हमारे होने का यथार्थ है, हम ऐसे हैं। और हम कोई पहले नहीं हैं जो ऐसे हैं, इंसान सदा से ऐसा ही रहा है। हाँ, अगर हम यह देख पाएँ कि हम ऐसे हैं तो शायद ऐसा होने से मुक्ति मिले।
ऊब, डर और अकड़ ध्यान से देखो कि तीनों एक हैं। जो ऊबा हुआ होगा उसमें अकड़ भी है, जो अकड़ा हुआ है उसमें डर भी है, जो डरा हुआ है वो ऊबेगा ही; तीनों एक हैं। तीनों का, अन्तरसम्बन्ध स्पष्ट हो पा रहा है, हो पा रहा है?
तीनों में से किसी एक को भी जीवन में मौजूद पाना, तो बाक़ी दो का होना भी ही निश्चित जान लेना। ज़रूरी नहीं है कि तीनों को ही पकड़ पाओ, ज़रूरी नहीं है कि तीनों की ही मौजूदगी तुम्हें दिखायी पड़ती हो, पर तीनों में से किसी एक की उपस्थिति भी अगर तुम्हें दिखायी पड़ती है, तो निश्चित जानना कि बाक़ी दो भी मौजूद हैं। डर है तो हठ भी होगा, हठ है तो ऊब भी होगी, ऊब है तो समझ जाना कि कहीं डर बैठा हुआ है। जो डरा नहीं है वो ऊबेगा नहीं, जिसमें हठ नहीं है वो डरेगा नहीं।
ऊब पर चलकर कोई काम करना तो समझ लेना डर को आमंत्रण दे रहे हो, डर तुम्हारा अब और गहराएगा। डर के केन्द्र से कोई काम करना तो समझ लेना कि अब जीवन में ऊब और बासीपन और भारीपन आएगा ही। अड़ना, अटकना, हठ दिखाना, अहंकार दिखाना तो जान लेना कि आगे-पीछे डर ही डोल रहा है।
ऊब से बचने के लिए हम उत्तेजना का सहारा लेते हैं, लेते हैं न? और अक़्सर हम सोच लेते है कि उत्तेजना ऊब की काट है। उत्तेजना ऊब की काट नहीं है, उत्तेजना ऊब का विस्तार है। हम इन दो प्रकार के मनों को, इन दो तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग और एक-दूसरे का विपरीत समझ लेते हैं। अगर कहीं पर माहौल ज़रा बोझिल दिखायी देता है, तो हम कहते हैं यहाँ कुछ ऐसे लोग ले आओ जो यहाँ ज़रा ऊर्जा लाएँ, माहौल को ज़रा स्पन्दित कर दें, खुशनुमा कर दें। हमने गलत निष्कर्ष निकाल लिया है। उत्तेजित लोग भी उसी व्याधि के शिकार हैं जिस व्याधि के ऊबे हुए लोग। सत्य, शान्ति, दृढ़ता ये न उत्तेजना के नाम हैं न ऊब के।
एक सिरे पर वो लोग होते हैं जो करीब-करीब मुर्दा से दिखायी दे रहे हैं, दूसरे सिरे पर वो लोग होते हैं जो अपनी असंयमित ऊर्जा में विक्षिप्त हुए जा रहे हैं; ये दोनों एक-दूसरे से दूर नहीं हैं। जिसकी ऊर्जा असंयमित होकर के, अविवेकी होकर के बहे ही जा रही है वो जल्दी ही अपनेआप से ऊबेगा। वो अपनेआप से ऊबा ही हुआ है, बस लक्षणों के प्रकट होने की देर है। और जो ऊब के दलदल में फँसा हुआ है वो जल्दी ही परेशान होकर के उत्तेजना का सहारा लेगा, वो अपनी इन्द्रियों का उद्दीपन चाहेगा, वो अन्धड़, आवेग की तलाश करेगा।
ये सब एक हैं, सारी बीमारियाँ भी एक हैं और सारी बीमारियों का निदान भी एक ही है; इनको अलग-अलग मत मान लेना, सब जुड़े हुए हैं। मैंने तो सिर्फ़ तीन को जोड़कर कहा न, मैंने कहा, ‘डर, ऊब और हठ।’ तुम इस सूची को और लम्बा कर सकते हो। तुम इसमें जो चाहे जोड़ लो, मन के जितने रंग हैं जोड़ लो; सबको एक पाओगे। सब एक ही मूल से निकल रहे हैं।
एक को जाने बिना लिया अनेकों का ज्ञान। यही मूल अज्ञान है, यही दुःख की खान।।
जहाँ बैठे हो वहाँ बैठे ही रह करके सात लोकों के चक्कर मत लगा आओ कि मैं तो यहीं बैठा हूँ और मैंने पूरी दुनिया देख ली, सातों लोक देख लिये। देखो कि बैठे कहाँ हो? तुम अपने प्रयासों में कितने सफल हो रहे हो यह बात कोई महत्व नहीं रखती है, देखो कि तुम्हारे प्रयास आ कहाँ से रहे हैं, देखो कि तुम क्या करने की कोशिश कर रहे हो। देखो कि तुम सफल होकर पहुँचना कहाँ चाह रहे हो।
हमारा सारा समय, हमारी सारी ऊर्जा अपने प्रयत्नों को गति देने में निकल जाती है। तुम क्या प्रयत्न कर रहे हो? प्रयत्न अगर सफल हो जाए तो देखो तुम्हें मिलेगा क्या? इस पर भी तो ज़रा ध्यान दो। उपाय, चतुराई ही मत लगाओ, देखो कि तुम अपने उपाय से कर क्या डालना चाहते हो। जो तुम चाह रहे हो उसका अंजाम क्या है? क्या करने को उतारू हो?
प्र: यदि ऐसा सोचेंगे तो कुछ कर ही नहीं सकते।
आचार्य: सोचने की बात ही नहीं है, दिख रहा है। सोच चुके हो तभी तो कर रहे हो न! मैं तो सिर्फ़ खोल देने को कह रहा हूँ। देखो कि ये तरकीब लगा रहे हो, वो तिकडम लगा रहे हो, लगातार ये उपाय कर रहे हो, वो उपाय कर रहे हो। ये सबकुछ यूँही नहीं है, इस सबके पीछे तुम्हारी एक आन्तरिक योजना है।
मैं कह रहा हूँ, क्या करना चाहते हो? योजना किस दिशा में है? देखो तो सही। और योजना तुम्हारी हो जाती है सफल, तो देखो उससे होगा क्या? चाह क्या रहे हो, समझो तो।
तुम किसी के प्रति एक प्रकार का व्यवहार करे जाते हो, करे जाते हो, करे जाते हो, ये व्यवहार अकारण नहीं है। हम जो भी करते हैं, हम तो कारणवश ही करते हैं, हम तो स्वार्थवश ही करते हैं। तुम जो व्यवहार करे जा रहे हो, देखने में ऐसा लगता है कि ये तो यूँही हो जाता है। न, यूँही नहीं है।
देखो कि तुम क्या चाहते हो, तुम इस तरह का बर्ताव करके अन्ततः क्या हासिल कर लेना चाहते हो। कुछ तो हासिल कर लेना चाहते हो, क्या? और अगर वो कहीं तुम्हें हासिल हो गया तो तुम्हारा होगा क्या, ये भी देख लो।