प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं चार साल से आपसे जुड़ा हुआ हूँ, मेरे जीवन में बहुत बदलाव आये हैं। उसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा प्रश्न ये है कि जब घर में प्रेमपूर्ण, सौहार्दपूर्ण, आध्यात्मिक व्यवहार न हो, मैं ऐसे ही परिवार से हूँ, तो उसमें पिता होने के नाते मेरे बच्चों के प्रति मेरा क्या कर्तव्य बनता है ताकि वो जीवन में आगे बढ़ सकें और आध्यात्मिक उन्नति कर सकें?
आचार्य प्रशांत: परिवार में माहौल न हो माने किसकी ओर से नहीं है? आप हैं, बच्चे हैं।
प्र: जैसे मेरे और मेरी धर्मपत्नी के विचारों में भिन्नता हो, जो कि आमतौर पर रहती है दो अलग-अलग तलों पर क्योंकि आध्यात्मिकता की कमी है ।
आचार्य: देखिए, अब तो यही कर सकते हैं कि ये स्वीकार करें कि माहौल में एक खटास तो शायद बनी ही रहेगी। क्योंकि बात ऐसी तो है नहीं कि दो लोग नये-नये मिले हैं और अभी आरंभ में उनमें कुछ खटपट है जो आगे चलकर के ठीक हो जाएगी। दस-बीस वर्ष हो गये होंगे विवाह को?
प्र: ग्यारह वर्ष हो गये हैं।
आचार्य: ग्यारह वर्ष हो गये हैं विवाह को तो अगर अभी भी खटपट चल रही है तो संभावना यही है कि वो आगे भी चलेगी। लोग इतनी आसानी से और इतना अधिक नहीं बदलते, वो भी एक उम्र के बाद तो उनका बदलना बड़ा मुश्किल है। तो बहुत आशान्वित हुए बिना — बाक़ी पॉजिटिव थिंकिंग (सकारात्मक सोच) तो कितनी भी दूर तक जा सकती है कि भई हम सकारात्मक सोचते हैं, लेकिन मैं यथार्थ की बात कर रहा हूँ — बहुत सकारात्मक हुए बिना आप ये स्वीकार ही कर लें कि ये खटपट का माहौल तो लगभग ऐसा बना ही रहने वाला है।
अब इसमें बच्चों के लिए क्या कर सकते हैं? यही कर सकते हैं कि उन्हें कुछ अतिरिक्त भी दे दें। ये खटपट तो चलो चलती ही रहेगी, कुछ और भी ले लो। बच्चे कितने साल के हैं, चार-छः साल के?
प्र: छः साल का बेटा है, दस साल की बेटी है।
आचार्य: छः साल, दस साल। बेटी को तो अब आप कहानियों से परिचित कराना शुरू करिए। कहानियों के माध्यम से बेटी को सही शिक्षा देना शुरू करिए। दस साल काफ़ी होता है। बेटा अभी छोटा है, कुछ समय बाद वो भी इस योग्य हो जाएगा कि कहानियों से उसकी भी शुरुआत कर सकते हैं।
कोशिश किया करिए कि जो खटपट होनी भी है वो इनके सामने न हो या इनके कानों में न पड़े। एक समाधान बोर्डिंग स्कूल भी होता है। वो आपको देखना होगा कि कितना संभव है। लेकिन ये बात मैं एक सामान्य नियम के तौर पर कह रहा हूँ कि ये जो पीढ़ी अब वयस्क ही हो चुकी है और बीतने वाली है, इसका बदलना ज़्यादा मुश्किल होता है।
तो घर में यदि ये स्थिति है कि जो वयस्क पीढ़ी है, वो गड़बड़ या खटपट करती है, मनमुटाव वगैरह रहता है और उसकी वजह से बच्चों पर असर पड़ता है तो इस दिशा में प्रयास करना कि बड़ों को बदल दो, बहुत प्रभावी नहीं होगा। ये प्रयास करना कि जो घर के बड़े हैं इनको ही बदल दो, ये बहुत प्रभावी नहीं होगा। बड़े नहीं बदलते इतनी आसानी से।
बड़ों को बदलने की बात बाद में करिए, बच्चों को बचाने की बात पहले करिए। बड़े जैसे हैं लगभग वैसे ही रहने वाले हैं। लकड़ी जैसे-जैसे बूढ़ी होती जाती है वैसे-वैसे कैसी हो जाती है? सख़्त; और अपनी लोच खोती जाती है। अब वो क्या मुड़ेगी, क्या बदलेगी! असंभव नहीं है, कठिन है।
बच्चों को बचा लीजिए। उनको अगर घर से दूर किसी बेहतर जगह पर पढ़ा सकते हैं तो बहुत अच्छा है। घर पर ही रखना है तो इतना और करिए कि उनको जो मिलता है सो मिलता है, कुछ उनको अतिरिक्त भी दे दीजिए। वो कवच की तरह काम करेगा। नहीं तो इस उम्र में मन पर जो छाप पड़ जाती है, बच्चा उसको फिर पूरी ज़िन्दगी लिये-लिये घूमता है। दृश्य, घटनाएँ, बातें, कानों में पड़ गयीं, तो वो एकदम छप जाती हैं। वो व्यक्तित्व का आधार बन जाती हैं — *डिस्टोर्ट*।
देखिए, मैं बार-बार आग्रह इसलिए करता हूँ, बहुत-बहुत सतर्क रहिए इन निर्णयों में क्योंकि ये पलटे नहीं जा सकते। है न? पहली बात तो विवाह कर लिया, वो पलटा नहीं जा सकता। दो-चार प्रतिशत आप कह भी दें कि नहीं, पलट देंगे विवाह को, तो बच्चे पैदा हो गये, उनको कैसे पलटोगे? जो चीज़ बिलकुल अपरिवर्तनीय हो जानी है — इररिवर्सिबल — उसको आप यूँही कर दोगे क्या? या बहुत-बहुत सावधानी रखोगे? ख़ैर, वो सब तो अतीत हो जाता है।
बच्चों का अगर प्रेम लग जाए ज्ञान से, दुनिया को समझने से, ऊँची चीज़ों से, तो उनको फिर घर की खटपट में स्वाद आना कम हो जाएगा। वो घर में खटपट होती देखेंगे भी तो अपने कमरे में चले जाएँगे, कमरा बंद कर लेंगे। वो कहेंगे, 'ये बोरिंग (उबाऊ) लगता है।'
इसके विपरीत कई घरों में ऐसा हो जाता है कि छोटे-छोटे बच्चे घर की बहसबाज़ी में और घरेलू राजनीति में सक्रियता दिखाना शुरू कर देते हैं। छोटा सा बच्चा होगा, कोई आठ-दस साल का, वो आ करके माँ के कान भर रहा है कि चाची ऐसा कर रही थी। अब बड़ी दिक्क़त हो जाएगी क्योंकि आठ वर्ष में ही वो जो बच्चा है, उसने चालाकी, राजनीति सब कुछ सीख लिया।
और ऐसा होता है। आठ क्या, पाँच-पाँच, छः-छः साल के बच्चे बिलकुल समझ जाते हैं कि किसको जा करके किसकी बुराई कर दो तो वो खुश हो जाएगा। मम्मी से टॉफी लेनी है तो जाकर बोल दो, ‘दादी गंदी’। और बोला नहीं ‘दादी गंदी’ कि मम्मी तुरन्त कहेगी कि हाँ, ये है मेरा लाल।
बच्चे का चित्त ऐसा कर दीजिए कि उसमें आकर्षण न बचे इन बातों के लिए। उसके लिए ये सब बातें परायी हो जाएँ। वो कहे — समझ में भी नहीं आती, अच्छी भी नहीं लगती; मुझे दूर रहने दो।
क़िताबों में डूबना हमेशा बहुत अच्छा होता है घर-परिवार में डूबने की अपेक्षा। बहुत अच्छे होते हैं वो बच्चे जिनको आप शादी-ब्याह में भी ले करके जाते हैं, तो वो किसी कोने में पाये जाते हैं और कोने में बैठकर अपना क़िताब पढ़ रहे हैं। और एक श्रेणी के बच्चे वो होते हैं जो कि नालायकी से भरे, बेहूदे, मूर्खतापूर्ण गानों पर डीजे फ्लोर पर नाच रहे होते हैं। देखे हैं? और उनके माँ-बाप खुश हो रहे हैं।
वो तीन साल, पाँच साल, आठ साल वाले सब लग करके डांस कर रहे हैं, चाचू की शादी है। फिर माँ-बाप को झटका लग जाता है जब यही घर का लाल आगे चल के गुण दिखाता है। कहते हैं, ‘ये ऐसा कैसे हो गया?’ उस दिन होश नहीं आया था जब उसे चाचू की शादी में नचा रहे थे?
गाना अश्लील हो तो है ही बुरा और अश्लील नहीं भी है तो मुझे ये बताओ, वो जो छः साल वाला है जिसे तुम चाचू की शादी में नचा रहे हो, वो जानता है शादी माने क्या? तो किस बात पर नचा रहे हो? ये उसको भ्रष्ट कर रहे हो या नहीं कर रहे हो?
ये बात आपको थोड़ी अजीब लगेगी, आप कहेंगे, शादी तो अच्छी बात है और बच्चे जानते हैं शादी माने क्या होता है — घर में चाची आएगी, शादी माने यही होता है। नहीं, इतना आसान नहीं है। चूँकि हम नहीं जानते शादी माने क्या होता है और चूँकि हम नहीं जानते कि शादी के कितने दूरगामी परिणाम होते हैं, तो इसलिए हमें ये भी ख़याल नहीं आता कि बच्चे को समझाना ज़रूरी है। आप समझाओगे क्या, आप ख़ुद ही नहीं समझते। चाचू भी नहीं समझते शादी माने क्या। और बच्चे को नचा दिया!
इस तरह के आयोजनों से तो बच्चों को दूर ही रखा जाना चाहिए, सिर्फ़ घरेलू लड़ाई-झगड़े भर से ही नहीं। बहुत साफ़ रखना होता है बच्चे को कि इस पर कोई धब्बा न लग जाए। यही मौका है जब उसे बचा लो, गंदा मत होने दो, गंदा हो गया तो फिर क्या बचाओगे?
ये कपड़ा है (अपने शर्ट की तरफ़ इंगित करते हुए), ये नया है जब तक, तब तक तो इसको साफ़ रख लो तो इसका रूप-रंग, इसकी चमक कुछ बची रहती है। उसको ख़ूब ही गंदा कर लिया, उसके बाद कितना भी धोओ, उसकी पुरानी चमक लौटती है क्या? बल्कि ज़्यादा धोओगे तो वो और...
वैसे ही बच्चा है, उसको बचाने का मौक़ा उसके आरंभिक वर्षों में ही है। एक बार वो दस की उम्र पार कर गया, उसके बाद तो बस इलाज होता है, बचाव नहीं होता। और इलाज कभी उतना प्रभावी नहीं हो सकता जितना कि बचाव; और महँगा भी बहुत पड़ता है इलाज। देखिए, मैं कितना भी सोच लूँ, एक बच्चे को लेकर के मेरे पास बस दो ही समाधान ख़याल में आते हैं। पहला तो ये कि कोई ऐसा सशरीर मिल जाए जिसकी संगति बच्चे को साफ़ रख सके, तो उसकी संगति में छोड़ दो बच्चे को। पर ऐसा मिलना बहुत मुश्किल है। दूसरी बात, यदि ऐसा कोई होगा, तो हो सकता है उसके पास समय की भी कमी हो। क्योंकि अगर वो इतनी ऊँची गुणवत्ता का व्यक्ति है तो वो कैसे किसी एक बच्चे को अपना पूरा समय दे पाएगा?
तो जो दूसरा विकल्प है, वही व्यावहारिक है, वो है क़िताबें। क़िताबें, क़िताबें, क़िताबें। क़िताब माने क्या होता है, थोड़ा समझते हैं। क़िताब माने कागज़ तो नहीं होते। क़िताब माने क्या होता है?
क़िताब संगति है।
किसकी संगति है?
किसी ऐसे व्यक्ति की संगति है जो सशरीर नहीं आ सकता तो उसकी बात आ गयी। वो बच्चे के बगल में नहीं बैठ सकता तो अपनी बात को लिखकर के दे रहा है बच्चे को कि लो, तुम पढ़ो। मैं नहीं आ सकता, मेरी बात तो आ सकती है, लो बात को पढ़ लो। इससे अच्छा माध्यम पूरे इतिहास में नहीं हुआ है। लत ही लगवा दीजिए बच्चे को पढ़ने की। किसी भी और काम की अपेक्षा उसको पढ़ने में रस आए।
मेरे पिताजी की रुद्रपुर में पोस्टिंग थी। वो एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था, तो कुछ भी चीज़ें ख़रीदनी हों, कपड़े-लते कुछ भी, तो उसके लिए हम बरेली जाया करते थे। बरेली उसकी अपेक्षा थोड़ा ज़्यादा बड़ा शहर था। तो हफ़्ते-दस-दिन में बरेली का चक्कर लगता था। वहाँ मैं जब भी जाऊँ तो मेरा काम होता था क़िताबें ख़रीदना।
मैंने के.जी., फर्स्ट, सेकंड रुद्रपुर में करी है। बाक़ी सब काम मेरी माता जी के होते थे, शॉपिंग (ख़रीददारी) करा दी, कपड़े ख़रीदवा दिये, मेरे लिए आकर्षण होता था क़िताबें। उनमें कॉमिक्स वगैरह भी होती थीं — 'नंदन', 'चम्पक', 'चंदा-मामा', ये भी होता था। और भी क़िताबें होती थीं।
तो जब हम वहाँ से लौट रहे होते थे, एम्बेसडर कार होती थी और मैं उसमें आगे बैठा करता था ड्राइवर (चालक) के बगल में। रात हो चुकी होती थी जब लौट रहे होते थे और सड़क ख़राब थी काफ़ी। एंबेसडर कार और मैं गाड़ी के अंदर की लाइट जला देता था और जो क़िताब ख़रीदी होती थी, उसे रास्ते में ही पढ़ना शुरू कर देता था।
अब एक तो रात का समय और वो लाइट एम्बेसडर की अंदर की ऐसी थी, ऊपर से गाड़ी ऐसे-ऐसे (ऊपर-नीचे) कर रही है, तो ये हमेशा होता था, हर बार का तयशुदा किस्सा था कि जब तक घर पहुँचता था तो सिर ज़ोर से दर्द कर रहा होता था, एकदम ज़ोर से, और घर आकर मैं फिर उल्टी कर देता था। क्योंकि वहाँ से डिनर (भोजन) करके चले होते थे, बरेली से।
तो रास्ते में वो सब हो गया और घर आते-आते उल्टी कर देता था। पीछे से ये लोग बोलते भी थे कि मत पढ़ो अभी, घर जाकर पढ़ लेना। पर लत लग गयी थी। वो लत लगनी ज़रूरी है। किसी भी और चीज़ की अपेक्षा उसकी लत लगनी ज़रूरी है। कुछ भी चल रहा हो, वो क्या कर रहा है, पढ़ रहा है। ट्रेन में बैठा है, पढ़ रहा है। घर में बैठा है, पढ़ रहा है। रिक्शे से स्कूल जा रहा है, पढ़ रहा है। लंच पीरियड हुआ, पढ़ रहा है उसमें, क्या करेगा इधर-उधर जाकर के।
समझ रहे हो बात को?
जब पढ़ रहा है तो पीछे क्या खटपट चल रही है माँ-बाप में, क्या पता, हमें क्या पता! इसी को इनोसेंस (निर्दोषता) बोलते हैं। इनोसेंस का यही मतलब होता है, उस पर अभी दाग नहीं लगा, उसे पता ही नहीं चला। उसे पता ही नहीं चला कि दुनिया में और ये सब क्या हो रहा है।
कुछ बातों से अनभिज्ञ रह जाना ही इनोसेंस है। कुछ चीज़ें चित्त में आयें ही नहीं। बहुत कुछ है दुनिया में जिसका न पता हो तो बच्चे के लिए वही बेहतर है। पता होने की कोई ज़रूरत भी नहीं है। एक आठ-दस साल के बच्चे को ये ज्ञान क्यों होना चाहिए कि कौनसा रैपर या ये और वो आजकल सोशल मीडिया पर छाया हुआ है? पर ये ज्ञान पूरा होता है न बच्चे को!
ये है लॉस ऑफ इनोसेंस (निर्दोषता का ह्रास)। ऐसा ज्ञान पा लेना जो आपको पाना ही नहीं चाहिए था, जिस ज्ञान की आपको कोई ज़रूरत नहीं थी, यही तो नर्क है।
एक आठ साल के बच्चे को क्यों पता हो कि सारे सड़े हुए क्षेत्रों में क्या चल रहा है? उसे क्या आवश्यकता है जानने की? क्योंकि अगर वो अपना समय ये जानने में लगा रहा है कि किस एक्टर (अभिनेता) ने किस एक्ट्रेस (अभिनेत्री) को डायवोर्स (तलाक) दे दिया, कौनसी एक्ट्रेस प्रेगनेंट (गर्भवती) है, कौन कहाँ पर होलीडेयिंग (छुट्टियाँ मनाना) कर रही है; अगर उसके मन में ये सब चीज़ें हैं तो उसके पास जगह कहाँ बचेगी उनको जानने की जो जानने योग्य हैं?
या तो आप उनको जान सकते हो जो मुट्ठी भर लोग इतिहास में हुए हैं जो जानने योग्य हैं; और ऐसे लोग हज़ारों में भी नहीं हैं, बस कुछ सौ ऐसे लोग हैं जिनसे मानव इतिहास बना है और जिनके दम पर हम सब आज खड़े हुए हैं। या तो उनको जान लो या फिर इन सब को जान लो जो आजकल का कचरा हैं।
तो ये जो आज का कचरा है इससे बच्चे को बिलकुल बचा कर रखिए, दूर-दूर रखिए। यही निर्दोषता है। दोष माने दाग, धब्बा, विकार; एकदम दूर रखिए बच्चे को। अगर आप जानते हो, उदाहरण के लिए, कि आपके कोई रिश्तेदार हैं जहाँ पर गॉसिपबाज़ी (व्यर्थ चर्चा) बहुत होती है, उनके यहाँ बच्चे को छोड़िए ही नहीं, क्या करना है! आपको जो करना है अपनी ज़िन्दगी का, वो करिए। बच्चे को अस्पर्शित रखिए।
'मैं गंदगी को इसको स्पर्श भी नहीं करने दूँगा।' इसकी शुद्धता को, इसकी मासूमियत को, प्यूरिटी (शुद्धता) को बहुत बचा कर रखने की ज़रूरत है। चालू नहीं बनाना है उसको। चालू माने क्या — यही सड़क की चालूपंती। पर बहुत माँ-बाप होते हैं जो इसी में प्रसन्न हो जाते हैं कि हमारा बच्चा तो देखो कितना होशियार है। वो चालाकी को होशियारी समझ रहे हैं।
आपके बच्चे को नहीं पता है, उदाहरण के लिए, कि कौन-कौन से ब्रांड कपड़ों के बाज़ार में छाए हुए हैं, कोई बात नहीं, लेकिन अगर आपके बच्चे को वैज्ञानिकों के बारे में पता है, ऋषियों के बारे में पता है, संसार की बड़ी घटनाओं के बारे में पता है तो वो ज़्यादा ज़रूरी है। मैं देखता हूँ, बड़ी तकलीफ़ होती है, बहुत छोटे, छः-आठ साल के बच्चे होते हैं उनके चेहरों पर भी चालाकी आ गयी होती है, एकदम व्यस्कों वाली चालाकी। उनके चेहरों को देखकर ये लगता ही नहीं कि ये बच्चे हैं कि बड़े हैं। उनके डायलॉग भी फिल्मी हो जाते हैं। उनकी बातें भी ऐसा लगेगा कि...
कोई बच्ची होगी छः साल की, ऐसा लगेगा कि अठारह साल की महिला बोल रही है, ये कैसी बात कर रही है ये! ऐसा लगता है जैसे कि आप कोई दुर्घटना होते देख रहे हो अपने सामने; किसी को चोट लग गयी है, वो सड़क पर पड़ा है, उसका ख़ून बह रहा है।
कोई बच्ची होगी छोटी सी, वो बोल रही होगी, ‘चाचू मेरे हाथ से पानी नहीं लेते, चाचू को तो चाची ही पसंद है।’ ये क्या सीखा इसने! कहाँ से सीखा? और अगर आपके घर में बच्चा हो और इस तरह की बातें करना शुरू कर रहा हो तो आपको बहुत-बहुत चिंतित हो जाना चाहिए। ये बात क्यूट (मासूम) नहीं है, ये बात हँसने वाली नहीं है।
और आपकी होंगी मजबूरियाँ, घर में होते हैं एक से एक गलीच चाचे, ताऊ, फूफे! आपकी होंगी मजबूरियाँ रिश्ते निभाने की, आप अपने रिश्ते निभा लीजिए पर आप जब उनसे रिश्ते निभायें तो अपने बच्चों को दूर रखें।
मैं जो बोल रहा हूँ वो बात बहुत दूर की लग रही है? क्या ऐसी घर-घर की कहानी नहीं है? आपके रिश्तेदारों में हैं न बहुत सारे ऐसे जिनसे मजबूरीवश आप रिश्ते निभाते रहते हो जानते हुए भी कि ये व्यक्ति महाभ्रष्ट है, किसी काम का नहीं है, सड़े हुए दिमाग़ का है? लेकिन हो सकता है उसके पास पैसा हो, पदवी हो या रिश्ते का ऐसा तकाज़ा हो कि आपको उससे रिश्ता निभाना ही पड़ता है, बात करनी पड़ती है, सम्मान प्रदर्शित करना पड़ता है। दामाद जी हैं या जीजा जी हैं, वो जीजा जी नरक के कीड़े जैसे हों, लेकिन अब जीजा जी हैं, जीजी तो उन्ही के यहाँ पर है। पर आपके घर में बिटिया हो छः-आठ साल की, वो जीजा जी को मत दे दीजिएगा, ‘जीजा जी! इसे ज़रा घुमा लाओ बाज़ार तक।’
एकदम दूर रखिए, छूने भी मत दीजिएगा। आपको जीजा जी के पाँव छूने हैं, आप छूते रहिए। घर की बच्ची को बचा कर रखिए उस आदमी से। या फिर वो महिला हो, महिलाएँ कौनसी कम हैं! वो भी एक से एक नारकीय।
इस तरीक़े के लोग आपके घर आ रहे हों तो बच्चों को किसी कमरे में बंद कर दीजिए क़िताबें वगैरह देकर, या किसी विश्वास योग्य व्यक्ति के साथ उन्हें घूमने भेज दीजिए कि जाओ इसे चार घंटे घुमा के ले आओ।
कुछ बातें हैं जो आपके बच्चों को नहीं पता होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, आपके बच्चे को ये नहीं पता होना चाहिए कि उसके कपड़े कितने रुपए के हैं। और बहुत सारे बच्चे आप देखेंगे वो तुरन्त अपनी उम्र का कोई बच्चा होगा, उसकी नई शर्ट देखेंगे और पूछेंगे कि कितने की है। वो छः-आठ साल का है और पहला सवाल पूछता है, ‘कितने की है?’ ये बहुत अशुभ लक्षण है।
आपके बच्चे को न तो ये पता होना चाहिए किस ब्रांड का कपड़ा है और न ये पता होना चाहिए कितने रुपए का है — नन ऑफ़ हिज़ बिज़नेस (उसके किसी काम का नहीं)। ‘तुम्हारा काम है पढ़ना, तुम पढ़ो, बाक़ी सब बातों से तुम्हें क्या मतलब? हमने लाकर दे दिया, तुम पहन लो। हाँ, छोटा हो रहा है, पसंद नहीं आ रहा है तो बता दो, देख लेंगे। लेकिन ब्रांड क्या है उससे मतलब नहीं।’
अब बच्चा बोले, ‘ताऊ जी ये आपने एमएनएस (ब्रांड का नाम) की पहन रखी है!’ भई, तू अभी चार साल का है, छः साल का है, तू ये कैसी बातें पूछ रहा है? और तुझे ये सब ब्रांड्स के नाम बताये किसने और तेरे चित्त में ये सब कैसे आ गया?
माँ-बाप होंगे और बच्चों से पूछ रहे होंगे, ‘हाँ, तो बेटा आज डिनर करने कौनसे रेस्टोरेंट में चलेंगे?’ अब ये बच्चे आपस में बैठ के तय कर रहे होते हैं कि उस मॉल में वो रेस्टोरेंट है, वहाँ जाएँ या यहाँ जाएँ, कैसे करें। उसमें से एक शातिर निकल के आता है, वो बोलता है मैंने तो मोबाइल पर उनकी वेबसाइट पर जाकर एडवांस बुकिंग (पूर्व सुनिश्चित) भी करवा दी। उन्हें ये पता ही नहीं होना चाहिए। किस मॉल में कौनसा रेस्टोरेंट है, इससे बच्चे का क्या लेना-देना।
कौनसी मूवी अगली रिलीज़ हो रही है, इससे बच्चे का क्या लेना-देना? किस एक्ट्रेस का किस एक्टर से डायवोर्स (तलाक) हो गया है और मुआवज़े में कितनी राशि मिल रही है, ये बच्चों को पता ही क्यों है? बच्चों को सब पता है; क्यों पता है? जो पता होना चाहिए, वो नहीं पता है। मैं पूछ दूँ, ‘वल्लभभाई पटेल’, उसको नहीं पता। टॉम क्रूज़ पता है उसको। क्यों पता है?