प्रश्नकर्ता: मैं सूरत से आया हूँ। और मेरा जो प्रश्न है वो रियल लाइफ (वास्तविक जीवन) से है। आचार्य जी, मैं आपको कम-से-कम पाँच-छः महीने से सुनता हूँ। और सुनने के बाद अंदर से बहुत से बदलाव आये हैं।
जो पहले इतना अन्दर से दिख नहीं पाता था। जब आपको सुनता था तो वो चीज़ रियल लाइफ में दिखता था। और अपनेआप से अन्दर से सवाल पूछता था और एकदम गहरा घुसता चला जाता था। और साफ़-साफ़ दिखता था कि जो मैं कर रहा हूँ वो सही नहीं है। चाहे बिजनेस (व्यापार) से रिलेटेड (सम्बन्धित) है या कुछ भी है। जैसे मेरा बिजनेस ही है तो उसमें मेरे जो भी वर्कर्स (कामगार) हैं, जब तक मेरे वर्कर्स उसमें से एक भी नहीं निकलते तब तक तो ठीक है। लेकिन जैसे ही उसमें से एक भी, दो भी निकलते थे तो शारीरिक और मानसिक तौर पर मुझे बहुत ज़्यादा प्रॉब्लम हो जाता था।
तब अन्दर एहसास होता था कि बहुत ग़लत है। तब सवाल उठता था कि ये क्या कर रहे हैं, क्या ये चीज़ सही है और इतना पैसे क्यों कमा रहे हैं। फिर समझ में आता है कि जितनी ज़रूरत है उतना ही दुख है। मतलब नॉर्मली (साधारणतया) इंसान को जो दो वक़्त की रोटी चाहिए वो खाया और नार्मल कपड़ा पहना। तो हम इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं। और हमारे जो आजु-बाजू का माहौल है, मेरी ज्वाइंट फैमिली (संयुक्त परिवार) है, तो सब एक-दूसरे से अपनेआप को बड़ा दिखाना चाहते हैं। कोई डॉक्टर है कोई फार्मा में है। और सामने से जताया जाता है कि मतलब मैं तुझसे बड़ा हूँ। न चाहते हुए भी सामने आते हैं तो बताते हैं कि दो-तीन दुकान इधर डालूँगा, उधर डालूँगा। मैं भी मतलब प्रभावित हो जाता।
मुझे तकलीफ़ होती है कि हमको नीचा दिखाया जा रहा है। और उससे बहुत लोग प्रभावित हो जाते हैं, मेरे और घर के सदस्य और आजु-बाजु वाले, सब प्रभावित हो जाते हैं। मतलब कि ये कुछ कर रहा है तो मेरे को भी बढ़ाना चाहिए। और जो मेरा परिवार है, सिर्फ़ मम्मी हैं वो भी कहीं-न-कहीं कहती हैं कि तू भी तो कुछ कर, क्या कर रहा है। मेरे अंदर सवाल आता है मैं क्या करूँ। मुझे दिख रहा साफ़-साफ़ कि मुझे ये चीज़ नहीं चाहिए। कि मैं कर क्या लूँगा, मेरे को वहाँ पर कुछ नही मिलने वाला। क्योंकि मैं बुड्ढा भी हो जाऊँगा तो वो चीज़ मिल नहीं पाएगी।
ये चीज़ मुझे दिख रही थी साफ़-साफ़ और सारे परिवार वालों को समझाने का भी ट्राई (कोशिश) किया मैंने, बहुत ट्राई किया। अब जितना पैसा आता था, उतनी इच्छा बढ़ती थी। अभी हाल ही में घर में एक लाख की टीवी लायी गई। तो मुझे साफ़-साफ़ दिख रहा था कि मतलब बहुत ग़लत कर रहे हैं। मैंने टीवी भी देखना छोड़ दिया था, आचार्य जी, जब मैं आपको सुनता था। मैं बस अच्छी चीज़ें बहुत ज़्यादा देखता था। और ये चीज़ मैं समझाने का भी ट्राई करता था पर कोई एक पर्सन (व्यक्ति) नहीं मिलता था जो मेरी बात सुने।
मैंने अपने भाभी को भी समझाने की कोशिश किया था। वो भी भगवद्गीता पढ़ती हैं, लेकिन उनके मतलब की बात नहीं है तो भगवद्गीता को मूल्य नहीं देती। यहाँ तक कि मेरा एक दोस्त भी था, दो-तीन अध्याय पढ़ा होगा, उसको अपने मतलब की नहीं लगी, उसने बोला अच्छा नहीं है। जब मैंने स्टार्ट किया था तो मेरे भाभी से बोला था कि जब मैं स्टार्ट करूँगा तो शायद मैं बदल जाऊँगा और यही हो गया। अंदर से यह एहसास होने लगा। लेकिन जो चारों तरफ़ की दुनिया है पूरी ग़लत है, मुझे ऐसा लगता है। बहुत बेचैनी महसूस होता है।
आचार्य: शुरुआत तो देखो ऐसे ही होती है, दुनिया ग़लत लगने लगती है। शुरुआत से पहले सब कुछ सामान्य लगता है और तुम दुनिया के प्रति बिलकुल सुव्यवस्थित, समायोजित होते हो। जैसे ज़्यादातर लोग होते हैं न तुम्हारे भी परिवार के जैसे अधिकांश लोग हैं। वो शुरुआत से पहले की हालत है। लगता है सब कुछ ठीक है, बढ़िया है, इसी को और बढ़िया बनाना है। एक लाख की टीवी लाए हैं, अगली तीन लाख की लाएँगे।
फिर शुरुआत होती है और शुरुआत जब होती है तो वो हालत होती है जो आपकी हो रही है। दिखाई देने लगता है ये सब ग़लत है, इसमें क्रूरता है, हिंसा है, अलगाव है, अप्रेम है, प्रतिस्पर्धा है, घुटन है। जब ऐसा होता है तो दुनिया के प्रति क्षोभ भी उठता है, शिकायत उठती है। शिकायत उठती है तभी इतना बुरा लग रहा है न।
जानते हो बुरा क्यों लग रहा है क्योंकि अभी भी शुरुआत से पहले वाली अवस्था तुममें मौजूद है। कुछ भी बुरा लगता है जब उसकी किसी दूसरी चीज़ से तुलना की जाए, है न? जिस चीज़ से जो उम्मीद हो जब वो पूरी न हो तभी तो दुख होता है न तो दुनिया अगर अभी बुरी लग रही है तो स्पष्ट आशय क्या है? दुनिया से कुछ उम्मीद है जो पूरी नहीं हो रही है। तुम्हें ये धारणा है कि दुनिया स्वर्गतुल्य भी तो हो सकती है। दुनिया में भाईचारा भी तो हो सकता है, प्रेम भी तो हो सकता है, इसी दुनिया में, ये जो दुनिया है। और वो तुम्हें देखने को नहीं मिल रहा तो अब तुम्हें बुरा लग रहा है।
जो तुमसे पहले वाली हालत के लोग हैं उनको क्या लग रहा है? उनको लग रहा है कि दुनिया में अच्छाई हो सकती है और दुनिया में अच्छाई है। वो अच्छाई उनको कहाँ मिल जा रही है? एक लाख के टीवी में। है न?
तुम उनसे थोड़ा अलग हो गये हो, आगे आ गये हो, तुमको दिख रहा है कि अच्छाई नहीं है। लेकिन अभी भी तुम्हारी उम्मीद यही है कि जैसा यह तंत्र है इस तंत्र के ऐसे रहते हुए भी इसमें गुडनेस हो सकती है, शुभता हो सकती है, अच्छाई हो सकती है। तो अब तुमको बुरा लगता है, तुम्हारा दिल टूटता है। तुम कहते हो ये मेरे घर वाले ये वैसे क्यों नहीं है जैसा उन्हें होना चाहिए।
तुम काम-धंधे पर रहते हो, तुम्हारे कर्मचारी, तुम्हारे वर्कर्स तुम्हें छोड़ कर चले जाते हैं, तुम्हें बड़ा बुरा लगता है। तुम कहते हो अरे काम-धंधे पर जो लोग आये हैं ये एक परिवार की तरह क्यों नहीं रह सकते, ये छोड़-छोड़ कर क्यों चले जाते हैं। जब कोई छोड़ के जाता होगा उस दिन शायद एक वक़्त का खाना न खा पाते हो तुम कि आज एक और छोड़ कर चला गया।
क्या है, फैक्ट्री है?
प्र: फूड्स एंड डेयरी।
आचार्य: बुरा लगता होगा कि अरे आज कोई चला गया। क्योंकि उम्मीद बनायी है कि जो लोग साथ काम करेंगे वो परिवार जैसे होंगे, वो छोड़ कर नहीं जाएँगे, साथ-साथ सुख-दुख सहेंगे, इत्यादि-इत्यादि।
इसी तरह घर को लेकर भी तुमने उम्मीद बनायी है कि घर तो बहुत पवित्र जगह होता है न, इस पवित्र जगह में गला काट प्रतिस्पर्धा का क्या काम? घर तो एक शुभ संस्था होती है न, द होली इंस्टीट्यूशन ऑफ़ फैमिली , घर तो एक बड़ी ऊँची जगह होती है न। इस ऊँची जगह में नीचे विचारों और कर्मों का क्या काम? तो जब तुम उस तथाकथित ऊँची जगह में नीचे विचारों को देखते हो तो तुलना करते हो और फिर तुम्हारा दिल टूटता है, यही हो रहा है न?
चाहे तुम्हारा काम हो, कारोबार, दफ़्तर या घर हो, दोनों ही जगह तुम्हें बुरा इसलिए लग रहा है क्योंकि अभी भी तुम्हारी मान्यता यही है कि ये जगहें तो अच्छी हैं मूल रूप से, बस यहाँ जो हो रहा है वो पता नहीं क्या ग़लत हो रहा है। और ये तुम्हें समझ में भी नहीं आ रहा है ग़लत क्यों हो रहा है। तुम जंगल में शेर को हिरण का शिकार करके खाते देखते हो, तुम्हारा दिल टूट जाता है क्या? बुरा लगता भी हो तो थोड़ा-बहुत, क्योंकि जानते हो कि यह तो जंगल है, यहाँ तो ये होना ही होना है। जंगल का कायदा यही है कि शेर जहाँ पाएगा हिरण को वहाँ अपनी भूख मिटाएगा। तो जंगल में तुम्हें बुरा नहीं लगेगा।
लेकिन एक शहर की गलियों में अगर तुम पाओ कि एक इंसान ने दूसरे के सीने में खंजर उतार दिया और उसके बाद उसका रुपया-पैसा लूट करके भाग गया, तो तुम्हें बुरा लगता है। अब हत्या तो तुमने जंगल में भी देखी और हत्या तुमने शहर में भी देखी। जंगल में बुरा क्यों नहीं लगा, शहर में बुरा क्यों लगा?
श्रोता: क्योंकि उसको जानवर के रूप में देख रहे थे।
आचार्य: क्योंकि शहर में तुमने उम्मीद बना ली है कि इस तरह के काम नही होंगे। तुमने शहर को बड़ा सम्मान दे दिया है । तुम्हें लगता है शहर और जंगल अलग-अलग हैं। हत्या इत्यादि तो जंगलों में होती है न। शहर में नहीं होनी चाहिए क्योंकि शहर क्या है? अरे शहर तो बड़ी सम्मानीय, बड़ी ऊँची जगह है, बड़ी पवित्र, पावन जगह है।
इसी तरीक़े से अगर तुम बाज़ार में लोगों को एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते देखते हो तो तुमको अचंभा होता है क्या? होता है क्या? भाई, बाज़ार में एक दुकानदार अपना माल बेचने की कोशिश कर रहा है, बगल की दुकान वाला चाह रहा है उसका माल न बिके, मेरा माल बिक जाए। ये सब बाज़ार में होते देखते हो तो तुम्हें कोई बड़ा ताज्जुब होता है? दिल टूट जाता है तुम्हारा? होता है क्या? नहीं होता न। पर यही काम जब तुम घर में होते देखते हो तो देखो क्या हालत है तुम्हारी, तुम्हारा बिलकुल दिल टूटा हुआ है।
क्यों दिल टूटा हुआ है? क्योंकि तुमने यह मान लिया है कि घर और बाज़ार अलग-अलग हैं। समझ ही रहे होगे कि मेरा उत्तर किस दिशा जा रहा है। शहर और जंगल बेटा अलग-अलग नहीं हैं। और घर और बाज़ार अलग-अलग नहीं हैं। जैसे ही ये समझ लोगे वैसे ही तुम्हें बुरा लगना बंद हो जाएगा। उसके बाद तुम दुख में नहीं डूबोगे। उसके बाद तुम सही काम करोगे, जो करना चाहिए।
अभी तो तुम न जाने किन सपनों में खोये हुए हो। अभी तो तुम होली फैमिली (पवित्र परिवार) का सिद्धांत रखते हो। हमारा प्यारा स्वर्गतुल्य संयुक्त परिवार, जहाँ सब ऐसे रहेंगे कि ख़ुद खाने से पहले दूसरे को खिलाएँगे। जहाँ अगर कोई कमज़ोर पड़ रहा हो उसे सब सहारा देंगे। जहाँ लोगों के हृदय में एक-दूसरे के लिए सिर्फ़ प्रेम-ही-प्रेम छलछला रहा है। ये क्या फ़िल्मी धारणा बना ली है तुमने?
और फिर जब यथार्थ इस धारणा से मेल नहीं खाता तो तुम्हें बड़ा दुख होता है। तुम्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि घर और बाज़ार अलग नहीं हैं भाई। और शहर और जंगल अलग नहीं हैं। जैसे ही समझ जाओगे शहर और जंगल अलग नहीं हैं उसके बाद एल आँसू थम जाएँगे और बाजुओं में ताक़त आ जाएगी। वरना अभी तो तुम्हारी जो हालत है, उसमें तुम रोते ही रह जाओगे। तुम कहोगे, "हाय-हाय ये मेरे शहर को क्या हो गया। कोई किसी का गला काट रहा है, कोई कहीं गंदगी कर रहा है, चोरी हो रही है, आगजनी हो रही है, दंगे हो रहे हैं चारों तरफ़ अराजकता, अव्यवस्था है।"
जंगल में तुम्हें बुरा लगता है क्या? जानवर कहीं भी मल कर देता है, कर देता है न? बुरा लगता है क्या? तो शहरों में क्यों बुरा मानते हो जब देखते हो कि कोई कहीं भी पेशाब कर देता है। तुम कहोगे, "अरे! हम इंसान है न हम जानवरों से बेहतर हैं इसलिए मुझे बुरा लगता है।"
बुरा लगना बंद हो जाएगा अगर तुम समझ जाओ कि हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं। हमने ऊपर-ऊपर सिर्फ़ सभ्यता और संस्कृति का नक़ाब ओढ़ रखा है। भीतर हमारे भी जानवर ही है, जंगली ही बैठा हुआ है। फिर बुरा लगना बंद हो जाएगा।
फिर क्या करोगे तुम? फिर क्या तुम कहोगे जो जैसा चल रहा है चलने दे? नहीं, फिर तुम कहोगे, "हैं हम जंगलवासी ही, लेकिन हम सब में वो मौजूद है, जो मुझमें भी मौजूद है, जो चाहता है कि हम जंगल की तरह न जियें। मेरे जीवन का लक्ष्य है उसको अभिव्यक्ति देना। फिर तुम उस चेतना को अभिव्यक्ति देने के लिए जियोगे जो जंगल की नहीं है। अभी तो तुम फँसे हुए हो। अभी तो तुमने जंगल को ही मंगल समझ रखा है। और मंगल में जब दंगल होता देख रहे हो तो रो पड़ रहे हो।
ये ऐसी सी ही बात है कि तुम जंगल में जा करके थोड़ा झाड़-झंखाड़ साफ़ करके एक गली बना दो और उस पर निशान बना दो कि अब सब जानवर इसी पर चला करेंगे, पूर्व के जंगल से पश्चिम के जंगल की ओर जाना हो। रास्ते में हमने गली बना दिए। सब लोग इसी पर चलेंगे और जब हिरण जा रहा होगा तो शेर नहीं आएगा उसको लाल बत्ती रहेगी और फिर पाओ कि उस पर कोई चल ही नहीं रहा। और बेचारा एकाध हिरण तुम्हारी लच्छेदार बातों में आकर उसपर चलने लग गया तो सबसे पहले वही मारा गया। शेर भी घात लगाये बैठा था कि ये किसी को बनाये बुद्धू और चलाये इस गली पर तो हम बताएँ।
अरे भाई, तुम्हारी फैक्टरी इत्यादि में कोई तुम्हारे प्रेम के लिए थोड़े ही काम करने आया था? तुम हो किस गुमान में, तुम किस दुनिया में जी रहे हो? तुम्हें किसने बता दिया कि आदमी तो मूल रूप से शुद्ध आत्मा मात्र है। किसने बता दिया ये? लोग कहीं पर काम करने जाते हैं, इसलिए काम करने जाते हैं कि उन्हें प्रेम हो गया है? इसलिए काम करने जाते हैं कि वहाँ यज्ञ करेंगे? किसी दैवीय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कोई काम करने जाता है क्या?
लोग काम किसलिए करने जाते हैं?
श्रोता: पैसों के लिए।
आचार्य: कहीं और उन्हें बेहतर पैसा मिलता है तो तुम्हें छोड़ कर चले जाते हैं, तुम पीछे से काहे को आँसू बहा रहे हो? तुम्हें यथार्थ नहीं दिख रहा है इंसान का।
पर हम अपनेआप को दो तरह के धोखों में ख़ूब फुसलाये हुए हैं; एक है सामाजिक धोखा और एक आध्यात्मिक धोखा।
सामाजिक धोखे ने हम पर भलमनसाहत का नक़ाब डाल दिया है। हम एक-दूसरे से मुस्कुरा कर बात करते हैं, है न? और पूछते हैं "जी आपका हाल कैसा है, अरे अरे अरे अरे! आपके तो बाल झड़ गए।" ये सामाजिक धोखा है। हम झूठ बोल रहे हैं न? आपको वाक़ई मतलब है दूसरे का हाल कैसा है, दिल से बताइएगा। ये सामाजिक धोखा है।
और दूसरा धोखा है आध्यात्मिक जिसने आपको बता दिया है कि आप आत्मा मात्र हैं, आप परम ब्रह्म मात्र हैं। और इस दूसरे धोखे को भी आप रोज़ दोहराते हैं धर्म ग्रंथ इत्यादि पढ़-पढ़कर, अपनेआप को बताते हैं, "मैं तो आत्मा मात्र हूँ, मैं तो ब्रह्म हूँ, मैं तो नित्य-शुद्ध-चैतन्य हूँ, मैं तो और कुछ हूँ ही नहीं।" करते हैं कि नहीं?
ये दो धोखे हैं जिसमें इंसान जी रहा है; पहला सामाजिक नैतिकता का और दूसरा आध्यात्मिकता का। और ये दोनों बहुत बड़े झूठ हैं। न तो हम सामाजिक प्राणी हैं जिन्हें दूसरों की फ़िक्र हो। न हम आध्यात्मिक प्राणी हैं जो भीतर से प्रकाशित और जागृत हैं और मुक्ति ही जिनका लक्ष्य है।
हममें से ज़्यादातर लोग ज़्यादातर समय ज़्यादातर मौकों पर क्या हैं?
श्रोता: जानवर।
आचार्य: अब बताओ, बुरा लग रहा है? जितना बुरा लगना चाहिए अभी लग ले। दिल अगर रोज़ टूटता है तो उसे एक ही बार में पूरी तरह टूट जाने दो। फिर बार-बार नहीं टूटेगा। आदमी के यथार्थ से वाक़िफ हो जाओ। आदमी के असली चेहरे से परिचित हो जाओ। अपनेआप को आध्यात्मिक झुनझुना मत सुनाओ। अपनेआप को सामाजिक और नैतिक लोरियाँ मत सुनाओ।
हम शरीर के लिए जीने वाले, हम अपने छोटे-छोटे सरोकारों के लिए जीने वाले, क्षुद्र और स्वार्थी लोग हैं मूलत:। सौ दफे में से एक दफे होता है, जब कोई किसी के लिए कोई प्रेमवश काम करता हैजेड नि:स्वार्थ भाव से। निन्यानवे बार क्या हो रहा है, ये बिलकुल भूल जाते हो? वो जो एक बार हुआ उसको तो याद रख लेते हो और आदमी को बड़ा गौरवान्वित कर देते हो, आदमी की महिमा गाने लग जाते हो। कहते हो ये देखो फ़लाने ने फ़लाने से प्रेम किया और प्रेम में अपनी जान दे दी। यह तो याद रख लेते हो।
कृष्ण और अर्जुन का रिश्ता याद रख लेते हो, हीर-रांझा का रिश्ता याद रख लेते हो। आध्यात्मिक तल पर कौनसा रिश्ता याद रख लिया? कृष्ण और अर्जुन का। सामाजिक, सांसारिक तल पर कौनसा रिश्ता याद रख लिया? हीर-रांझा का।
और जो हज़ारों घटिया रिश्ते तुम्हारी आँखों के सामने हैं उनको बिलकुल भुला देते हो? और कहना शुरू कर देते हो 'अरे अरे, हर रिश्ता या तो कृष्ण-अर्जुन जैसा होना चाहिए या हीर-रांझा जैसा होना चाहिए।' अरे कृष्ण-अर्जुन लाखों में एक थे और हीर-रांझा भी लाखों में एक थे। और फिर जब तुम पाते नहीं कृष्ण और अर्जुन जैसा रिश्ता, तो तुम कहते हो, 'मुझे बड़ा बुरा लग रहा है, मुझे बड़ा बुरा लग रहा है।' अरे काहे को बुरा लग रहा है?
हज़ारों लाखों की सेनाएँ खड़ी थीं। कृष्ण को सुनने कौन आया था, सब आ गए थे? सब आ गए थे क्या? कौन आ गया था? एक ही तो आ गया था, तो बुरा लगने की क्या बात है। कृष्ण को सुनने वाले हमेशा एकाध ही रहे हैं। कृष्ण से रिश्ता बनाने को उत्सुक भी हमेशा एकाध ही रहे हैं। बाक़ी सब तो झूठे हैं, वो कृष्ण से रिश्ता बनाते भी हैं तो सतही, झूठा, ऊपर-ऊपर का।
ये बात साफ़-साफ़ जान लो, तुम रो रहे हो किस बात पर जानते हो, वहाँ कृष्ण और अर्जुन का संवाद चल रहा है और तुम खड़े छाती पीट रहे हो कि दुर्योधन क्यों नहीं आ रहा है कृष्ण के पास। दुर्योधन काहे को आएगा कृष्ण के पास भाई। वो कौन है? वो दुर्योधन है। और दुनिया में ज़्यादातर क्या हैं?
श्रोता: दुर्योधन।
आचार्य: दुर्योधन ही तो हैं। सेना भी किनकी ज़्यादा बड़ी थी? कौरवों की ज़्यादा बड़ी थी। और पाण्डवों की भी जो सेना इतनी बड़ी खड़ी थी वो सब क्या कृष्ण के बड़े भक्त थे? बोलो! पाँच पांडव थे, उनमें से भी कृष्ण को सुनने कितने आ गये? एक ही तो आया। अब तुम काहे के लिए हाय-हाय कर रहे हो?
दो-चार तुमको प्रेम कथाएँ पता हैं जहाँ भाई ने भाई के लिए जान दे दी, बेटे ने बाप के लिए जान दे दी या प्रेमिका ने प्रेमी के लिए जान दे दी। और अपने आसपास के अफसाने नहीं देखते, यहाँ कौन किसकी कद्र करता है, बताना ज़रा। कौन किसकी कद्र करता है?
पर वही पुराने सपनों में खोये हुए हो, तुम्हें लग रहा है 'नहीं, बेटे और बाप का रिश्ता तो ऐसा होना चाहिए कि दोनों एक-दूसरे पर कुरबान हो जाए।' तुम पत्थर से उम्मीद कर रहे हो कि उस पर हरियाली उगेगी? तुम जाओ और पत्थर पर जितना जी चाहे रो लो भीगेगा वो तब भी नहीं। जो अध्यात्म, अध्यात्म शब्द भी हटाओ, जिन्हें सच्चाई में जीना हो वो सबसे पहले सपनों से बाहर आ जाएँ।
ये दो तरीक़े के सपने, कौन से दो तरीक़े के सपने? एक सामाजिक, एक आध्यात्मिक। सामाजिक सपना क्या बताता है? कि हम सब एक-दूसरे के बड़े शुभेच्छु हैं, आदमी जानवर से ऊपर है, पड़ोसी पड़ोसी के काम आता है, ये सामाजिक सपना है तुम्हारा। ऐसा नहीं है भाई, इससे से बाहर आओ।
और आध्यात्मिक सपना क्या है? मैं नित्य-शुद्ध-चैतन्य आत्मा मात्र हूँ।
सामाजिक सपना तुम्हें दूसरों के प्रति झूठ में रखता है, आध्यात्मिक सपना तुम्हें तुम्हारे ही प्रति झूठ में रखता है।
आदमी की हक़ीक़त को पहचानो, आदमी के भीतर जानवर बैठा हुआ है, इस बात को समझ क्यों नहीं रहे हो। एक बार तुम समझ गए, एक बार तुमने देखना शुरू कर दिया कि बिना मतलब के तो हम किसी को पानी न पूछें उसके बाद तुम्हें बुरा लगना बंद हो जाएगा।
एक बार तुम समझ गए कि ये जिसको हम परिवार कहते हैं ये भी जंगल से उठ कर आयी हुई एक संस्था मात्र है, इसमें कुछ भी दिव्य या पवित्र-पावन नहीं है फिर तुम अगर परिवार में स्वार्थ और नीचता देखोगे तो बुरा नहीं लगेगा। तुम कहोगे, 'नीचता तो होगी ही, यह परिवार की संस्था भी तो जंगल से ही आयी है।'
जंगलों में परिवार नहीं होते क्या? जंगलों में परिवार नहीं होते क्या? बस फिर। जंगलों के परिवारों में भी मोह होता है, ममता होती है, आधिपत्य होता है, वासना होती है, नियंत्रण होता है, वासना पर नियंत्रण नहीं, एक-दूसरे पर नियंत्रण। लेकिन प्रेम होता है क्या?
जंगल में भेड़ियों का एक झुंड घूम रहा है, उसमें नर भेड़िये हैं, मादा भेड़िये हैं, बूढे भेड़िये हैं, बच्चे भेड़िये हैं, छोटे-छोटे शिशु हैं, शावक हैं। क्या यह कहना चाहते हो कि वहाँ प्रेम है आपस में? हाँ, ये कह सकते हो कि जो मादा भेड़िया है उसकी छौने भेड़िये के प्रति ममता होगी कुछ, प्रेम तो नहीं होगा न।
वैसा ही हमारे शहरी और ग्रामीण परिवारों में भी है, वैसा ही हमारे समाज में है; ममता मिल जाएगी, प्रेम नहीं मिलेगा। नर भेड़िया भी मादा की ओर आकर्षित होता है देह इत्यादि ही तो देख करके और उस आकर्षण का कुल परिणाम क्या होता है — संतानोत्पति। यही काम परिवारों में होता है, और क्या होता है।
पर परिवार की बड़ी महिमा-मंडित छवि है दिमाग़ में कि नहीं-नहीं-नहीं, परिवार में तो सब आत्माएँ ही आत्माएँ हैं, दिव्य विभूतियाँ; वो पिताजी हैं वो इंद्र हैं, वो माता जी हैं वो इन्द्रानी हैं, दादा विष्णु हैं, दादी लक्ष्मी हैं।
अब जब तुम पाते हो कि पप्पा दद्दा को कूट रहे हैं तो तुम्हे समझ में ही नहीं आता कि ये इन्द्र ने विष्णु को कूटना कैसे शुरू कर दिया। हमें तो बचपन से यही बताया गया था कि ये सब दिव्य देवी-देवता हैं। माँ-बाप ही परमात्मा होते हैं। बताया है समाज ने तुमको यही न कि माँ-बाप ही भगवान होते हैं? अब तुम देख रहे हो कि भगवती ने जूता खींच कर मारा है भगवान को। हमें तो बताया था माँ-बाप भगवान होते हैं! और भगवती ने अभी बेलन उठाया और भगवान के सिर से तुल्ला फूटा है। माँ-बाप अगर भगवान होते, तो भगवान भगवती को रोज़ पीटता काहे है? और भगवती बेलन काहे चलाती है इतना?
इसलिए तुम्हारा दिल टूटा हुआ है, क्योंकि तुम्हें अभी भी पुराने, सामाजिक और आध्यात्मिक प्रचार में बहुत विश्वास है। तुम उस प्रोपगेंडा (झूठ जिसे सच की तरह दिखाने की कोशिश की जाए) के मारे हुए हो जिसने तुमको बता दिया है कि तुम आत्मा हो और ताऊ इंद्र हैं और चचा अग्निदेव हैं और संसार स्वर्ग है।
स्वर्ग नहीं है, क्या है? जंगल है भाई! और जंगल में जंगल का क़ायदा चलता है। बस वो जो जंगल पेड़ों का और झाड़ों का होता है वो ईमानदार होता है। वहाँ न सभ्यता है, न संस्कृति है और न ही ये झूठा नक़ाब है कि सभ्यता और संस्कृत है।
शेर सीधे बोलता है 'मुझे भूख लगेगी मैं मारूँगा' और शेर जब मार देगा तो ये नहीं कहेगा कि मैंने धर्म की ख़ातिर मारा। शेर जब मार देगा तो ये नहीं कहेगा कि ये नापाक था इसलिए मैंने इसको मार दिया, ये विधर्मी था, काफ़िर था इसलिए इसको मार दिया। वो सीधे बोलेगा मेरा स्वार्थ था इसलिए मार दिया।
आदमी भी मारता है पर साफ़-साफ़ कभी स्वीकारता नहीं है कि स्वार्थ था इसलिए मार दिया। आदमी कहेगा वो ये नियम-कायदे तोड़ रहा था इसलिए मार दिया मैंने, ये विश्व की शांति के लिए ख़तरा हो रहा था इसलिए इसको मार दिया।
तो आदमी जंगली है लेकिन जंगली होने के साथ-साथ दोगला और बेईमान भी है। जानवर भी मारता है लेकिन साफ़ बता देता है मैंने मारा अपने स्वार्थी पेट की ख़ातिर मारा। आदमी भी मारता है लेकिन आदमी साफ़-साफ़ बताएगा नहीं कि अपने स्वार्थ की ख़ातिर मारा है। आदमी ऊँचे-ऊँचे आदर्शों का नाम लेगा कि स्वाभिमान की ख़ातिर मारा है, राष्ट्र की ख़ातिर मारा है।
जानते हो जब दंगे होते हैं, सांप्रदायिक दंगे, इसमें तुम्हें क्या लग रहा है कि एक पंथ के लोग दूसरे पंथ के लोगों को यूँही मार देते हैं, ना! अगर तुम इनका अध्ययन करोगे तो पाओगे कि सबसे पहले तुम उसको मारते हो जिसकी दुकान से तुम्हारी दुकान को ख़तरा है। हाँ, कह देते हो कि मैं हिन्दू हूँ तो मैंने मुसलमान को मारा है, मुसलमान हूँ तो मैंने हिन्दू को मारा; पर मारा तुमने उसको है, जिसके कारण तुम्हारी दुकान नहीं चल रही थी।
विभाजन के समय जब दंगे हुए थे, जानते हो सबसे पहले कौन मरते थे? सुन्दर लड़कियों के घर वाले। सबसे पहले जो सुन्दर लड़कियाँ होती थी उनके घरवालों को मारा जाता था। मारा यही कह के जाता था कि ये दूसरे धर्म का है इसलिए इसको मार रहा हूँ। पर बात उसमें धर्म की होती नहीं थी, बात ये होती थी कि उसके घरवालों को साफ़ करो, लड़की को उठा कर ले जाओ क्योंकि लड़की को भोगना है। जानवर भी यही करते हैं, एक मादा के पीछे दो-तीन नर लगे होंगे, वो आपस में लड़ाई कर लेंगे। एक-दूसरे को हो सकता है मार भी दें पर वो ये नहीं कहेंगे कि ये काम हमने धर्म की ख़ातिर करा। वो साफ़-साफ़ बता देंगे ये काम हमने मादा की देह की ख़ातिर करा।
एक सामाजिक धोखा होता है, एक आध्यात्मिक धोखा होता है। एक तीसरा भी होता है — फ़िल्मी धोखा। आदमी बड़ा होनहार है उसने धोखों पर धोखे चढ़ा रखे हैं। बेवकूफ़ बनने का हमने तीसरा तल भी आविष्कृत कर लिया है। सामाजिक, आध्यात्मिक और तीसरा रुमानी तल; और रुमानी तल यह बताता है कि दुनिया रोमांस (कल्पित प्रेम लीला) के लिए है।
श्रोता: प्रेम के लिए है।
आचार्य: वो ख़ास किस्म का प्रेम जिसको रोमांस कहा जाता है। और वहाँ भी तुम्हारा बड़ा दिल टूटता है। तुम कहते हो, पिक्चरों में तो हम देखते थे कि जब उसके पीछे जाता है नायक तो उसका दुपट्टा उड़ने लगता है। और वायलिन बजने लगते हैं। और पेड़ों के पीछे से अपसराएँ निकल कर नृत्य करने लगती हैं। अब मैं पीछे जाता हूँ तो कुत्ते भौंकते हैं। फिर दिल टूट जाता है, कहते हो अरे ऐसी क्यों नहीं है जैसी मुझे बतायी गई थी।
उन्होंने जो प्रचार, प्रोपेगेंडा करा सो करा, तुमने माना क्यों? तुम्हारे पास अपना विवेक नहीं है, तुम्हारे पास अपनी आँखें नहीं हैं? तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा कि हमसे झूठ बोला जा रहा है? बोलो तुम वाक़ई माने बैठे हो गॉड हैड मेड मैन इन हिज ओन इमेज कि आदमी तो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है, तुम वाक़ई मान लिए ये सब कुछ?
तुम्हें दिख नहीं रहा कि इंसान जानवरों से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है? तुम्हें दिख नहीं रहा कि इस पृथ्वी पर इंसान ने सब जानवर ख़त्म कर दिए, एक जानवर बच रहा है अब, कौन?
श्रोता: इंसान।
आचार्य: हाँ। आज से एक लाख वर्ष पीछे जाओ तो अरबों-खरबों जानवर थे हज़ारों-लाखों प्रजातियों के, अरबो-खरबों जानवर थे। और मनुष्य थे कुछ लाख। अधिक-से-अधिक मनुष्य थे कुछ लाख। और आदमी इन चन्द सालों में ही क्या करा है? अब आदमी हो गए हैं आठ अरब और जानवर बचे हैं इतने से।
साहब जानवर भी कौन से बचे हैं बताइए? जो मनुष्य के काम के हैं। कुत्ते बचे हैं क्योंकि आदमी के काम आता है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ बचे हैं क्योंकि आदमी के काम आते हैं। जो भी जानवर आदमी के काम नहीं आता, वो ही विलुप्त हो रहा है। जो पेड़ आपके काम आ रहा है वो बच रहा है। जो पेड़ आपके काम नहीं आता वो देखने को नहीं मिल रहा है।
इंसान जानवरों में सबसे ख़तरनाक जानवर है, तुम्हें बात समझ में नहीं आ रही? तुम इंसानियत की हक़ीक़त से इतने नावाक़िफ़ हो? इंसान वो जानवर है जिससे पूरा जंगल थर्राता है। जंगल ही ख़त्म कर दिया आदमी ने। बाक़ी सब जानवर तो बेचारे जंगल में बैठे हैं, आदमी ने तो जंगल ही ख़त्म कर दिया पूरा।
गाँव में बोलते हैं कि जितने चौपाये हैं वो सब सुबह प्रार्थना करते हैं कि आज दोपाये के दर्शन न हों। चौपाये समझते हो, चार पाँव पर चलने वाले। चार पाँव पर चलने वाले और रेंगने वाले और उड़ने वाले और तैरने वाले, ये जितने हैं इन सबकी एक ही दुआ रहती है कि दो पाँव वाले से मुलाक़ात मत करवा देना। इतना ख़तरनाक जानवर है आदमी और तुम ताज्जुब कर रहे हो कि प्रेम, करुणा, सहिष्णुता देखने को क्यों नहीं मिलते।
प्रेम, करुणा, सहिष्णुता यूँही नहीं देखने को मिलेंगे। उसके लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। उसके लिए किसी जीजस को अपनी जान देनी पड़ती है, उसके लिए किसी बुद्ध को, किसी महावीर को अपना जीवन देना पड़ता है। उसके लिए किसी राम को, किसी कृष्ण को अवतरित होना पड़ता है। उसके लिए न जाने कितने ऋषियों को, कितने मुनियों को, कितने ग्रंथ लिखने पड़ते हैं। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है तब जा कर इंसान को थोड़ा सा प्रेम समझ में आता है।
तुम सोच रहे हो यूँही मुफ़्त में प्रेम समझ में आ जाएगा। तुमने इतना सस्ता समझ लिया प्रेम को? तुम्हें बोध और करुणा की कोई क़ीमत ही नहीं? तुम चाह रहे हो कि सड़क पर चलता आम आदमी यूँही तुम्हें बोध से परिपूर्ण दिखाई दे? कैसे दिखाई देगा भाई!
एक है वो आदमी जो जानवर जैसा है, मुझे उससे कोई शिक़ायत नहीं, वो पैदा ही ऐसा हुआ है। हम सब पैदा ही जानवर होते हैं। और एक दूसरा आदमी है जो उस पहले आदमी को देख कर के अफ़सोस ज़ाहिर कर रहा है कि ये जानवर जैसा क्यों है। मुझे इस आदमी से शिक़ायत है। क्योंकि यह जो पहला आदमी है ये कम-से-कम अंधविश्वास में नहीं जी रहा, गलतफहमी में नहीं जी रहा। यह दूसरा आदमी गलतफहमी में जी रहा है। इसे क्या गलतफहमी है? कि आदमी को?
श्रोता: तो देवता होना चाहिए।
आचार्य: तो देवता होना चाहिए। आदमी देवता कैसे हो जाएगा? और ये जो लोग हैं जो बार-बार दुष्प्रचार कर रहे हैं कि आदमी तो देवता है, आदमी तो देवता होना चाहिए। इन्हीं लोगों ने आदमी की पशुता को छुपा दिया है, उसे नक़ाब ओढ़ा दिया है। इन लोगों के कारण ये बात स्पष्ट नहीं होने पा रही कि हम जानवरों से भी गर्हित जानवर हैं।
जब इंसान की ओर देखो तो एक सुझाव दिए देता हूँ, यह मत देखना कि इंसान है देखना कि कपड़े पहने हुए एक धूर्त जानवर है। सियार तो सियार होता है, रंगा सियार ज़्यादा ख़तरनाक होता है न। भेड़िया तो भेड़िया होता है, भेड़ की खाल में भेड़िया ज़्यादा ख़तरनाक होता है न।
तो इंसान को जब देखो तो जान लो कि है तो जानवर ही, बस अंग्रेजी बोलना सीख गया है, गुर्राने की जगह और दाँत दिखाने की जगह बोलता है, "नमस्कार हाऊ डू यू डू (और बताइए कैसे हैं)" ये जानवर अब कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हो गया है। इसने अपने नाखून कटवा लिए हैं, इसने अपनी जेब में रिवॉल्वर रख लिया है। इसके नाखूनों को देख कर तुम्हें इसकी दरिंदगी का पता नहीं चलेगा। नाखून नहीं है, रिवॉल्वर है अब सीधे।
जब साफ़-साफ़ देख लोगे कि आदमी दरिंदा है तब शायद कुछ कर पाओ आदमी को देवता बनाने के लिए। जिन्होंने अभी यही नहीं देखा कि आदमी दरिंदा है वो देवत्व की ओर बढ़ेंगे कैसे? आदमी की पशुता से उसके नृशंसतम रूप में साक्षात्कार करो। आदमी के भीतर के जंगल की भयावहता को स्पष्ट देखो। उसके बाद ही तुम आदमी को उसकी आत्मा तक पहुँचाने के लिए, पशुता से आज़ाद करने के लिए कुछ कर पाओगे। साफ़ हो रही है बात?
प्र: शायद मैं रोने लगा था बात पूरी नहीं कर पायी। बात मुझे साफ़-साफ़ यह दिख रही थी कि पहले जो सस्ती टीवी थी फिर महँगी टीवी लाकर उसके लिए भी तैयारी की जा रही थी कि अब तो और मज़ा आएगा, एचडी चलेगा। फिलहाल तो मैं देखता नहीं था। लेकिन ये चीज़ मुझे बहुत ख़राब लगती थी कि ये सब क्या हो रहा है। और ये चीज़ बहुत सी जगह थी मेरे परिवार में। जब इस चीज़ में मैं आया तो मुझे बहुत चीज़ साफ़-साफ़ दिखने लगती थी।
तो शॉप (दुकान) पर भी जो काम हो रहा है, मतलब वो चीज़ करने की इच्छा नहीं होती थी। ये चीज़ व्यर्थ लग रहा था मुझे कि मेरा जो समय है ग़लत जगह जा रहा है। मैं देख रहा था कि जो काम करते-करते बूढ़े हो जाते हैं लेकिन वो चीज़ प्राप्त नहीं कर पा रहे। मेरे चाचा भी बूढ़े हो चुके हैं लेकिन आज तक उनको अनुभव नहीं हो पाया कि भाई कभी सवाल करो कि पूरा ज़िंदगी व्यर्थ में में चला गया और मैं कुछ देख नहीं पाया। और वो हमें भी सिखाया जा रहा कि तुम भी वही करो, पैसे बनाने की मशीन बन जाओ।
आचार्य: और अभी तक तुम वो सब कर भी रहे हो न बेटा।
प्र: तो आचार्य जी, इसी सवाल के लिए आप के पास आया।
आचार्य: फिर कोई सवाल नहीं बचता, अब तो कर्म एक्शन है। अगर साफ़-साफ़ देख लोगे कि ये सब जो चल रहा है वो है क्या है, तो उसके बाद तुम उसमें सहभागी थोड़े ही रह पाओगे? उसके बाद तुम उससे उम्मीद थोड़ी रख पाओगे कि यह जो चल रहा है इसी से एक दिन कुछ बहुत शुभ उत्पन्न हो जाएगा? फिर तो तुम तत्काल कुछ अलग करोगे न, तत्काल, उसी पल। फिर एक पल नहीं रुकोगे। कहोगे अब दिख गया।
प्र: यहाँ पर आया हूँ चार दिन के लिए तो घर पर बताया नहीं था कि मैं आया हूँ। मैं बस बताया था घूमने आया हूँ।
आचार्य: क्यों नहीं बताया था, इसी पर ग़ौर करो। क्योंकि अभी भी तुम सामाजिक झूठ पर यकीन करते हो। अभी भी तुम झूठ को बहुत आदर देते हो। नहीं तो मुँह पर बोल कर आते। जो झूठ को आदर देगा, वही तो झूठ से कुछ बातें छुपाएगा न। झूठ से सच को छुपाने का मतलब है झूठ के लिए तुम्हारे मन में अभी बहुत सम्मान है।
प्र: मुझे डर था कि रोक लेंगे।
आचार्य: कैसे रोक लेंगे, कैसे रोक लेंगे? ज़ंजीरें डालेंगे?
प्र: जब मैं यहाँ पर आया था तो मैंने पहले से ही मैसेज कर दिए थे।
आचार्य: देखिए, जब तुम कहते हो रोक लेंगे, तो यह मत कहो कि रोक लेंगे, कहो कि मैं रुकने के लिए राज़ी हो जाऊँगा। हट्टे-कट्टे जवान आदमी हो कोई तुम्हारे ऊपर चढ़ कर तो तुम्हें रोकेगा नहीं, कुछ कहेगा ही। और तुम तैयार हो जाओगे कि अच्छा मैं रुक गया, मैं नहीं जा रहा। तुम राज़ी हो जाओगे न।
तो बात ये है कि तुम समझे ही नहीं हो अभी तक कि जो तुम्हें रोक रहा है वो कौन है। तुम उसके प्रति बहुत आदर से भरे हुए हो। तो आया वो जो आदरणीय शख़्स हैं तुम्हारे सामने, आया और उसने कहा "नहीं, नहीं जाना है, रुको।" और तुमने कहा "जी, जी, जैसा आप कहें, जी।"
तुम अभी समझ ही नहीं पा रहे हो कि तुम्हारे सामने जो है वो है कौन।
प्र: डर ये था कि ये बात फैले नहीं।
आचार्य: किनमें नहीं फैले?
प्र: सब लोग ये ग़लत धारणाएँ बनाते हैं।
आचार्य: किनमें नहीं फैले?
प्र: कि परिवार वालों में सब जगह ऐसे फैल जाएगा।
आचार्य: जिनमें न फैले, उनके प्रति बहुत सम्मान है न तभी तो कह रहे हो कि बात न फैले। तुम मेरी बात समझ रहे हो ज़रा भी?
तुम जितनी बातें कह रहे हो तुम किसके प्रति आदरभाव से भर कर कह रहे हो। जिनके प्रति तुम इतने सम्मान से भरे हुए हो, तुम समझ ही नहीं रहे कि वो कौन हैं।
तुम यही सोच रहे हो कि वो तो भगवान-भगवती हैं,
प्र: उस चीज़ का मज़ाक़ उड़ाते हैं, तकलीफ़ होता है मुझे।
आचार्य: अरे बाबा, तुम सड़क पर चल रहे हो, पीछे से कुत्ते तुम पर भौंके, तुम्हें बुरा लगता है क्या? तो घर वाले अगर तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाते हैं तो तुम्हे इतनी फ़िक्र क्यों हो रही है? क्योंकि तुम समझ ही नहीं पा रहे हो कि वो हैं कौन।
कुत्तों को तो यूँही तुम उपेक्षित कर देते हो, कहते हो ये कुत्ते सड़क के भौंक भी रहे हैं तो मेरा क्या जाता है। पर आस-पास तो सब तुम्हारे बड़े आदरणीय, ज्ञानी, सम्मानीय लोग हैं, वो तुमसे कुछ बातें कह देते हैं तो फिर तुम्हें उन बातों को मान्यता देनी पड़ती है। तुम्हें क्या तकलीफ़ हो रही है वो बताए देता हूँ।
मैं जिनके लिए तुम्हें समझा रहा हूँ कि जानवर ही हैं, ये पूरा समाज, ये मनुष्य द्वारा निर्मित पूरी व्यवस्था, उन्हीं से तो तुमने रिश्ते बना रखे हैं न। उन्हीं से अपनेआप को जोड़ के देखते हो। तो अगर मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि ये सब लोग जो इर्द-गिर्द हैं हमारे ये पशु मात्र हैं तो उसका अर्थ यह भी हुआ कि तुम भी पशु मात्र हो। इसलिए भीतर से विरोध उठ रहा है। कैसे मान लूँ कि ये सब लोग जिन्हें मैंने जीवन में इतना महत्व दिया, इतना सम्मान दिया, जिनकी बातों का मैंने इतना पालन किया, ये सब पशु मात्र हैं, कैसे मान लूँ?
क्योंकि उनको अगर पशु माना तो ये भी मानना पड़ेगा कि मैं भी पशु हूँ। इसलिए मानना नहीं चाहते। दूसरी बात, बड़ा अपमान लगता है कि बुद्धू बने इसका मतलब पच्चीस-तीस साल तक! कुत्ते और सियार और लंगूर आ कर बुद्धू बना गये! तो अहंकार आहत होता है। तो इसलिए मानने में तकलीफ़ होती है।
मैं नहीं कह रहा मेरी बात मानो, बस आँखों से पर्दा हटा करके ज़रा संसार का यथार्थ देख लो। मेरी बात मानने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्या पता मैं ही सबसे बड़ा गोरिल्ला हूँ। चेतावनी दे रहा हूँ लंगूरों के विरुद्ध और बैठा हूँ ख़ुद गोरिल्ला। तो मेरी बात भी मत मानो, ख़ुद ही देख लो न कि चल क्या रहा है सड़कों पर, संसदों में क्या चल रहा है, बड़े-बड़े दफ्तरों में क्या चल रहा है। दुनिया को जो चलाते हैं विधिवेत्ता, उन विधानसभाओं में क्या चल रहा है, यह देख लो न। दिख जाएगा कि आदमी जानवर ही है।
फिर बुरा नहीं लगेगा, फिर मुस्करा दोगे। तुम सेब खा रहे थे, बंदर आया सेब छीन कर ले गया, दहाड़े मार कर रोने लगते हो? कहते हो अरे बंदर ने ऐसा काम कैसे कर दिया! यह तो दिव्य वानर था न। अरे! दिव्य वानर नहीं, बांदर है बांदर। दोबारा सेब उठाओगे, दोबारा छीनेगा। तुम टूटा हुआ दिल लेकर हाथ में घूमते रहना, सेब तो नहीं रहेगा हाथ में।
आदमी की पशुता को साफ़-साफ़ देखो तभी आदमी को उसकी पशुता से आज़ाद कराने के लिए कुछ कर पाओगे।