आचार्य प्रशांत: सब नाम, सब उपाधियाँ, सब रूप सीमित होते हैं। जो कुछ भी सीमित है, वो एक मामले में धोखा है। किस मामले में? वो तुम्हारी गहनतम अभिलाषा पूरी नहीं कर पाएगा, पर वो तुम्हारे सामने खड़ा इसी तरह से हो जाता है जैसे वो बड़ा महत्त्वपूर्ण हो—और महत्व उसका दो कौड़ी का नहीं। नाम, रूप, रंग, आकार वाली सब चीज़ें संसार में मिलती है न, और संसार की ही चीज़ें एकदम उछल-उछल के ज़ोर से चिल्लाती हैं कि हम क़ीमती हैं, हम महत्त्वपूर्ण हैं, हमारी तरफ़ आओ, हमें पाओ, हमें गले लगाओ, हमारा पीछा करो, हमारी क़ीमत चुकाओ, हम तुमको अतीव सुख देंगे। संसार यही करता है न?
और अगर तुम दु:ख में हो तो संसार की ही यह सब नाम, रूप, गुणमूलक चीज़ें क्या बोलती हैं? आओ, हमारे पीछे आओ, हमारी क़ीमत चुकाओ, हमें महत्व दो, हम तुम्हें तुम्हारे दु:ख से मुक्ति दिलाएँगे। इसलिए ये सब धोखा हैं, इसलिए कहा जा रहा है कि जब तुम धोखा खाने की वृत्ति से रहित हो गए, दुनिया की नाम, रूप वाली चीज़ों से धोखा खाने की वृत्ति से जब तुम रहित हो गए, तब ब्रह्म है। समझ रहे हो बात को?
नाम, रूप, सब गुणों से आशय दुनिया के सब सीमित पदार्थो, व्यक्तियों, वस्तुओं, विचारों की तरफ़ है। ठीक है? तो ब्रह्म की कल्पना मत करने लग जाना कि ब्रह्म कोई ऐसी शय है, कोई ऐसी हस्ती ही है जो नाम नहीं रखती, जो रूप नहीं रखती, जो गुण नहीं रखती। लोगो ने ये ख़ूब करा है, “वो है, पर उसका कोई चेहरा नहीं है।”
नहीं साहब, आप बातचीत ज़्यादा मत करिए, आप इतना भी अगर बोल देंगे कि वो है, पर उसका कोई नाम नहीं है, तो आपने उसको नाम दे दिया। आप यह भी कह देंगे वो है, पर उसका कोई चेहरा नहीं है, तो आपने उसको चेहरा दे दिया। आप यह भी कह देंगे कि वो है, पर उसका कोई गुण नहीं है, वो निर्गुण है, तो भी आपने उसको गुण दे दिया। यह सब मत बोलिए। उसके बारे में कुछ भी मत बोलिए। न तो यह बोलिए कि वो अनाम है, न बोलिए अरूप है, न बोलिए निर्गुण है।
आप बस उन चीज़ों के बारे में बोलिए जो सनाम हैं, जो स्वरुप हैं, जो सगुण हैं। और वो सब चीज़ें आपको नचाए हुए हैं। उनकी बात आप करना नहीं चाहते, वो सबकुछ जो आपको नचाए हुए है ज़िन्दगी में, आपके लिए दु:ख का कारण है—उसका तो नाम है न, उसका रूप है, उसका रंग है, उसका गुण है, उसका आकार है। उनकी बात करो, ब्रह्म की बात मत करो।
ये जो तुमको परेशान करे हुए है, तुम्हारी ज़िन्दगी को झंझट बनाये हुए है, ये असली नहीं है। ये असली इसीलिए नहीं है क्योंकि ये झंझट बनाये हुए है, और झंझट में रहना तुम्हारा स्वभाव नहीं।
झंझट में फँसे क्यों हुए हो? झंझट से मुक्त होने के लिए। अंततः तुम जिस भी परेशानी में फँसे हुए हो, फँसे ही इसीलिए हो क्योंकि तुम्हें कही-न-कही लगता है या लगता था कि यह परेशानी मुझे मेरी दूसरी परेशानियों से मुक्ति दिला देगी। ऐसा कभी नहीं होता साहब। एक परेशानी दूसरी परेशानी का इलाज नहीं होती। अज्ञान दूसरे अज्ञान का इलाज नहीं होता। एक बीमारी दूसरी बीमारी का इलाज नहीं होती। हाँ, बीमारियों से पाँच और बीमारियाँ पैदा ज़रूर होती हैं। आपको एक बीमारी हो जाए, आप पाँच और बीमारियाँ पालेंगे। समझ में आ रही है बात?
ब्रह्म एक नई बीमारी नहीं, आख़िरी, अंतिम समाधान है, और वो समाधान इस तरीक़े से है कि वो तुम्हें मुक्ति दिला देता है उन सब चीज़ों से जो समाधान की शक्ल में समस्या होते हैं। हमारी सारी समस्याएँ किस शक्ल में हैं? समाधान की शक्ल में। वो कहते हैं कि हम सब ठीक-ठाक कर देंगे। वो अगर समाधान की शक्ल में नहीं होती, तो हमारी ज़िन्दगी में ही नहीं होती; हमने उन्हें ज़िन्दगी में प्रवेश ही इसलिए दिया है क्योंकि हमें लगता है कि इनसे कुछ मिलेगा, पर उनसे मिलता तुम्हें सिर्फ़ झंझट है। जिसने यह बात समझ ली—ब्रह्मत्व हो गया। समझ में आ रही है यह बात?
यह सिर्फ़ मज़े के लिए या तुकबंदी के लिए या काव्यात्मकता के लिए नहीं कर दिया गया है कि जितनी भी उपाधियाँ हो सकती हैं, उन सबको नकार दो; कह दो कि जो सत्य है, वो अपरिमेय है, अज्ञेय है, अचिन्त्य है, अनिकेत है, अरूप है, असंग है। ये क्यों किया गया है? जो भी बातें तुम सोच सकते हो, उनको कह दिया गया, “नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं है; निरवयव है, निष्कल है, निर्गुण है।” यह क्यों करा गया है? क्योंकि इन्हीं का जो विपरीत है, उसमे तुम फँसे हुए हो। तो इन शब्दों को बार-बार तुम्हारे सामने ला करके तुम्हे याद दिलाया जाता है कि सगुण में, साकार में, सरूप में, तुम ग़लत फँसे हुए हो; वहाँ तुम्हे वो नहीं मिलने वाला जिसकी तुमको तलाश है। इसलिए ब्रह्म को बार-बार नकार की भाषा में सम्बोधित करते हैं।
मुक्ति कुछ नहीं है, बंधनों के प्रति अरुचि ही मुक्ति है, बंधनों का ज्ञान ही मुक्ति है।
तो मुक्ति के केंद्र में भी बंधन बैठे हैं। सारी बात हमें बंधनों की करनी है भाई, जो मुक्ति की बात करने लग गया, वो बंधन में फँस गया, जो बंधनोंं की बात करने लग गया, वो मुक्त हो जाएगा। और खेद ये है कि अधिकतर अध्यात्म में बात बंधनोंं की नहीं, मुक्ति की होती है। हमने कहा जो मुक्ति की बात करेगा, वो बंधनों में फँसा ही रहेगा और जो बंधनों की बात करेगा, वो मुक्त हो जाएगा।
बंधनों की हम बात करना नहीं चाहते, हमें तमाचे जैसी लगती है वो बात, बड़ा बुरा लगता है, बड़ा अपमान लगता है क्योंकि स्वीकारना पड़ता है कि ज़िन्दगी में चारों तरफ़ बेड़ियाँ-ही-बेड़ियाँ हैं। बंधन की बात हम करते नहीं, तो फिर हम अपने-आपको सुख अनुभव करने के लिए काल्पनिक रस चर्चा किसकी करते हैं? मुक्ति की। और जो मुक्ति की बात करेगा, हम कह रहे हैं, उसके बंधन यथावत रह जाएँगे, बल्कि और सुदृढ़ हो जाएँगे।
मत पूछो बार-बार, “ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है? मुक्ति क्या है?” मैं तुमसे कह रहा हूँ, तुम यथार्थ में जियो, तुम अपनी असलियत देखो, तुम अपनी ज़िन्दगी देखो, तुम सुबह से शाम क्या कर रहे हो, ये देखो; तुम अपने बंधनों को देखो भाई। बंधनों को देखना पर्याप्त है। जो बंधनों को देख लेगा, बंधनों की प्रक्रिया का जिसको ज्ञान हो जाएगा, बंधनों में ज़ोर कहाँ से आता है, जो इस बात को समझ लेगा, वो मुक्त हो जाएगा। और जो मुक्ति चालीसा ही पढ़ता रह जाएगा, वो बेईमान आदमी है, उसको सज़ा ये मिलेगी कि वो हमेशा बंधक रहेगा।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी समझाते वक़्त आपने बंधनों का ज्ञान और बंधनों में अरुचि, दोनों को अलग-अलग कहके सम्बोधित किया। तो क्या बंधनों का ज्ञान अपने-आपमें अरुचि नहीं पैदा कर देता?
आचार्य: तुम्हे बंधनों का ज्ञान नहीं है, इसीलिए तो तुम्हे बंधनों में रूचि है; बंधनों का ज्ञान होगा नहीं कि तुम्हे अरुचि हो जाएगी। तुम जानते ही नहीं कि वहाँ जो मामला है, वो कितना सड़ा हुआ है, तभी तो तुमने उन बंधनों को पकड़ रखा है। देखो, बंधनों में कोई फँसता नहीं; हम अपने बंधन पकड़ के रखते हैं। ऐसा नहीं है कि हाथों में रस्सी बँधी है या हथकड़ी लगी हुई है; हमने हथकड़ी को अपने हाथ से, अपनी उँगलियों से, अपने पंजे के ज़ोर से ऐसे पकड़ रखा है (जैसे किसी ने जेल की सलाखों को पकड़ रखा हो, ऐसा इशारा करते हुए)।
हथकड़ी यहाँ नहीं है कलाई में, हथकड़ी कहाँ है? ऐसे हमने पकड़ रखी है हथकड़ी। हमारे बंधन ऐसे हैं। हमें उनमे रूचि बहुत है क्योंकि हमें उनका ज्ञान नहीं है। हमें लगता है हथकड़ी नहीं है, कोई गहना है, कोई क़ीमती चीज़ है, इसको पकड़ने से कुछ मिल जाएगा, तो हम पकड़े हुए हैं, ऐसे हमारे बंधन हैं।
इसी से फिर ये भी समझ लेना कि तुम जो कुछ भी पकड़े हुए हो ज़ोर से, वही बंधन है, वही हथकड़ी है। हथकड़ी वो है जिसे ज़ोर से पकड़ा जाता है और जो ज़ोर से पकड़ा जाए, वही हथकड़ी है। जो ही चीज़ तुम ऐसे (मुट्ठी बंद करने का इशारा करते हुए) पकड़ के बैठे हो, वहीं पर तुम्हारा खेल ख़राब हो रहा है।