प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। अल्बर्ट आइंस्टीन की एक उक्ति है – ’इफ़ यू कान्ट एक्सप्लेन इट सिम्पली, यू डोंट अंडरस्टैंड इट वेल इनफ़’ (यदि आप इसे सरलता से नहीं समझा सकते हैं तो आप अच्छी तरह से समझे नहीं हैं)। आपने भी कहा है – ’दैट इंटेलिजेंस इज़ टू सी द सिम्पल इन द कॉम्प्लेक्स’ (वह बुद्धिमत्ता जो जटिल में भी सरल को देख सके)।
आचार्य जी, संस्था के स्वयं सेवकों के माध्यम से यह बात बार-बार सामने आती है कि कबीर साहब आपको बहुत प्यारे हैं। आपके कमरे में उनकी एक बहुत बड़ी तस्वीर भी है। इस बात को मैंने सोचा तो पाया कि शायद ऐसा इसीलिए है क्योंकि वह भी बहुत सहज और सरल थे जैसे आप एकदम सहज, सरल और सटीक हैं।
जब कल ड्रामा प्रस्तुत किया तो एक बड़ा कड़वा तथ्य मेरे सामने आ गया कि जो मेरे मित्र सत्संगी नहीं हैं, आपको सुनते नहीं हैं, वह मेरी तुलना में मुझसे ज़्यादा आसानी से और सरलता, सहजता से अपनी बात सबके सामने प्रस्तुत कर पा रहे हैं। मैं ही बड़ा जटिल, घबराया वहॉं पर अपनी बात व्यक्त करने में समस्या का अनुभव कर रहा था। ऐसा अनुभव मुझे तब भी होता है जब मैं वीगनिज़्म (शाकाहार) के विषय में लोगों से बात करता हूँ। आचार्य जी, आपके व्यक्तित्व में मुझे और अन्य अनुयायियों को यह सरलता ही सबसे ज़्यादा पसन्द आती है। इस सरलता को पाने का और इसमें डूब जाने का कोई सूत्र बताइए।
आचार्य प्रशांत: जीना पड़ता है। जब तक जो तुम मंच पर अभिनीत कर रहे थे, उसमें और तुम्हारी ज़िन्दगी में फ़र्क है, तब तक मंच पर जो कुछ बोलोगे, उसमें दम नहीं रहेगा, जान नहीं रहेगी, ठसक नहीं रहेगी, कन्विक्शन नहीं रहेगा।
अपने कॉलेजी जीवन में मैंने जब भी कोई नाटक खेला, मैं समझता हूँ क़रीब-क़रीब हर मौके पर नाटक का चयन भी मैंने ही किया और चयन करने में, स्क्रिप्ट (पटकथा) को चुनने में अच्छा समय लगाया। एक दो दिन नहीं, हफ़्तों का समय लगाया। बहुत कुछ पढ़ा और उसके बाद जो दिखायी दिया कि मेरे अन्तर्जगत के साथ अभी झनझनाता है, मेल खाता है, उसको ही चुना। उसके बाद जो कुछ नाटक में चल रहा होता था, वो नाटकीय नहीं होता था, वो वास्तविक हो जाता था। उसके बाद जैसे मुझे पता होता था कि नाटककार ने जिन पात्रों को जो संवाद दिये हैं, वो संवाद बिलकुल किस तरह से अदा किये जाने हैं क्योंकि वो नाटक अब है ही नहीं न, वो ज़िन्दगी है। वो किसी और की नहीं बात है, वो मेरी ही बात है। चाहे वो मोहन राकेश का नाटक हो, बादल सरकार का हो, आइन रैंड का हो, आयोनेस्को का हो, फिर वो मेरा हो जाता था।
इसी तरीक़े से कबीर साहब का तुमने उल्लेख कर दिया, उनका तो,’उठूँ-बैठूँ करूँ परिक्रमा।’ अलग है ही नहीं जीवन से पूजा। पूजा, परिक्रमा, भजन, कीर्तन जीवन से इतर बचे ही नहीं। उठना-बैठना ही क्या बन गया? परिक्रमा। “कबीरा मन निर्मल भया।”, अरे! देवी जी की नगरी है, पूरा करिए। “कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर”, आगे है हमारे साहब का जलवा “पाछे-पाछे हरि फिरें, कहत कबीर-कबीर।” तो साहब को रिहर्सल थोड़ी करनी पड़ती थी। उनको किसी नियम, क़ायदे, ढर्रे में नहीं बंधना है। ज़रूरत ही नहीं है न क्योंकि ईमानदारी इतनी है कि वही कह रहे हैं जो जी रहे हैं।
और इसीलिए उनके सत्रों का कोई समय नहीं निश्चित होता था। वहॉं ऐसा नहीं होता था कि रात में साढ़े नौ-दस बजे चलो अब सत्र शुरू होगा। वहॉं क्या होता था? गये हैं हाट में अपना कपड़ा बेचने, वहीं जो हाल देखे तो झट से कुछ कह दिया। कोई सुन रहा था, उसने याद कर लिया या लिख लिया। उन्होंने ख़ुद थोड़ी कभी कोई क़िताब लिखी है। न जाने कितना बोले होंगे जो किसी की स्मृति में अगर बसा नहीं होगा तो विलुप्त भी हो गया। फिर सॉंझ को दरबार लगता था और उसमें भी यही कहानी है कि बैठते थे तो भी काम करते रहते थे। क्या करते रहते थे? बुनकर थे तो कपड़ा बुनते रहते थे।
अब वो बुनते जा रहे हैं, किसी ने कुछ कह दिया तो ज़वाब में कुछ बातें बोलीं, कुछ पद्य, कुछ गद्य। कोई अगर शागिर्द बैठा हुआ है वहॉं पर तो उसने बात को लिख लिया। यह है सरलता का सूत्र। तुम्हें तैयारी करनी ही न पड़े। तुम्हारा जीवन ही तुम्हारी सीख बन जाए। कहते हुए सोचना बिलकुल भी न पड़े, झट से बात मानस में उभर आये। किसी अंजाने श्रोत से सहज ही शब्द होंठों पर आ जाएँ। तुमको पता भी न हो कि यह बात तुमने बोल कैसे दी! तुम कहो, ’यह बात हमें पहले से तो पता ही नहीं थी। जैसे सुनने वालों ने यह बात पहली बार सुनी, वैसे ही हमने अभी यह बात बोली तो पहली बार सुनी।’ ज़िन्दगी ऐसी होनी चाहिए।
तो फिर देखते नहीं हो उनको, यहीं इसी कक्ष में जितनी चीज़ें हैं, इनमें से आधी से ज़्यादा चीज़ों पर उनकी साखियाँ होंगी। यह चादर, यह टोपा, यह ऑंख, यह नाक, यह कान, यह पर्दा, यह चश्मा, यह प्रकाश, यह पतंगें, यह बाहर से आता शोर, यह गुरु-शिष्य का रिश्ता, यह सवाल-जवाब का दौर, वो सब कुछ जो यहॉं हो रहा है, वो सब कुछ जो आम आदमी की ज़िन्दगी में होता है। अगर तुम सच्चा जीवन जी रहे हो तो यही सब बातें तुम्हारे लिए सच्चाई की प्रतिनिधि बन जाती हैं।
चक्की दिखेगी तुमको, द्वैत-अद्वैत याद आ जाएगा। कपड़ा बुन रहे हो, ताना बाना देखोगे, तुमको जीवन की जटिलतायें दिखायी पड़ जाएँगी। सफ़ेद कपड़े पर तुम रंग होता देखोगे, तुम्हें बिलकुल समझ में आ जाएगा कि कैसे मन की सफ़ेद चादर पर संसार अपना रंग चढ़ा देता है। मन कैसे दागदार हो जाता है।
जो कुछ दुनिया में हो रहा होगा, वही दुनिया से पार के किसी खेल का संकेत बन जाएगा। कुछ भी कर रहे हो, एक ही केन्द्र से कर रहे हो।
खीरा, भिन्डी, कद्दू इन सबको प्रतीक बनाकर कबीर साहब ऊॅंची-से-ऊॅंची सीख देते रहते हैं। गाय, भैंस, बकरी, शेर, सियार, चींटी, ऊॅंट जो उनके सामने पड़ता है, वही ज़रिया बन जाता है बहुत ऊॅंची बात बोलने का। जैसे कि ऊॅंचाई पर तो वो बैठे हुए हैं, अब उस ऊॅंचाई से वो जिस भी चीज़ का नाम लेंगे वो चीज़ भी ऊॅंचाई का ही प्रतिनिधित्व करने लगेगी।
बात समझ रहे हो?
और अगर तुम यह चाहोगे कि तुम ज़िन्दगी तो एक तरह की जीयो लेकिन मंच पर दूसरे किरदार बन जाओ, तो हो सकता है कि तुम कुछ अनाड़ी लोगों को जो बैठे हों दर्शक दीर्गाह में धोखा दे लो, लेकिन ख़ुद को धोखा नहीं दे पाओगे। तुम्हें पता होगा कि तुम ऊपर-ऊपर से बस किरदार निभा रहे हो, अन्दर ही अन्दर कुछ और हो। यह बात नहीं चलती।
रोशनी हो जाओ, जिस भी चीज़ पर पड़ो उसे रोशन कर दो। अब फ़र्क नहीं पड़ेगा कि कौनसी चीज़ के आस-पास हो, या पड़ेगा फ़र्क? चीज़ मत रहो, प्रकाश हो जाओ।
और याद रखना अगर यूँही गलियों में चलते हुए या क्रिकेट-फ़ुटबाल खेलते हुए, या जलेबी-समोसा खाते हुए तुम ज़िन्दगी की सच्चाई देख नहीं पाते हो, बोल नहीं पाते हो, तो किसी कुर्सी पर बैठकर के अचानक देखने, बोलने नहीं लगोगे। मैं अगर इस सत्र में इस समय और इस स्थान पर बैठकर बोल पाता हूँ तो वो अचानक नहीं हो जाता। दिनभर यही ज़िन्दगी जीता हूँ। कोई विशेष अभ्यास नहीं करना पड़ता क्योंकि दिनभर ही अभ्यास चलता है। दिनभर ही जिस चीज़ का अभ्यास चलेगा वो चीज़ तो तुम्हारी रग-रग में दौड़ेगी न फिर। तुम्हारी सॉंस-सॉंस में बहेगी न फिर। फिर सब सरल हो जाता है।
फिर एक सुन्दर सहज प्रवाह रहता है जीवन में जिसमें तनाव नहीं रहता, खींचातानी नहीं रहती। निष्प्रयास काम होते हैं, एफर्टलेसली। (अनायास) डरते नहीं हो फिर तुम कि अगला पल जो आएगा उसका सामना कैसे करेंगे। अगली चुनौती जो आएगी, उसका क्या उत्तर देंगे? अगला प्रश्न जो आएगा, उसका क्या जवाब देंगे? फिर यह सब कुछ नहीं।
हम तो बह रहे हैं, अगली जो भी चीज़ आएगी, वो हमारे बहाव में सम्मिलित हो जाएगी। हम तो प्रकाश हैं, अगली जो भी चीज़ आएगी, रोशन हो जाएगी। सोचना क्या? उलझना क्या? और सबसे बड़ी बात डरना क्या? हमारे सामने तो अगर डर भी आएगा तो वो रोशन हो जाएगा; प्रकाशित डर।
पल-पल ध्यान रहे कि दुनियादारी के कामों का सीमित समय होता है, आध्यात्म का कोई समय नहीं होता। सच को किसी समय सीमा में मत बाँध लेना।
यह मत कर लेना कि अभी तो सत्र चल रहा है तो एक तरह का मन रखना है, एक तरह का आचरण करना है और ज़रा सा आचार्य जी यहॉं से हटें तो उसके बाद फ़िर हमारी दूसरी दुनिया, दूसरे ढर्रे, दूसरी तरक़ीबें-करतूतें, सब शुरू, वो सब नहीं।
इसीलिए मैं सबसे ज़्यादा हतोत्साहित करता हूँ उन लोगों को जो ज़िन्दगी को विभाजित रखते हैं। जो आध्यात्मिक जगहों पर या आध्यात्मिक समयों पर अपना एक चेहरा दिखाते हैं, अन्यत्र अन्यथा उनका दूसरा चेहरा होता है। और उस दूसरे चेहरे का उनके आध्यात्मिक चेहरे से कोई मेल ही नहीं होता। वो यहॉं एक आदमी होते हैं और यहॉं से निकलकर के अपने दुकान में, बाज़ार में, दफ़्तर में, घर में बिलकुल दूसरे आदमी होते हैं।
अभ्यास निरंतर रहे। निरंतर मतलब समझते हो? अंतर नहीं पड़ना चाहिए कि यहॉं पर हो कि बाहर हो। सच तो सच है न, भाई। रोशनी तो रोशनी है न। यहॉं रहेगी तो इस जगह को रोशन करे। कहीं और है तो जहॉं है, वहॉं रोशन करे। कुछ और नहीं हो जाना है, एक रहना है। बँटा हुआ, विभाजित जीवन नहीं जीना है। कई मुखौटे नहीं लगाने हैं।
इससे मेरा यह नहीं मतलब है कि अगर यहॉं पर पालथी मारकर बैठे हो तो गाड़ी में भी पालथी मारकर बैठना। या कि पीछे वो शिक्षक महोदय हैं, कि यहॉं बिलकुल चुपचाप बैठे हो तो कक्षा में भी पढ़ाने जाना तो कहना पूरा पीरियड चुप ही रहेंगे। आचार्य जी ने बोला था कि अंतर नहीं पड़ना चाहिए, जैसे सत्र में हो वैसे ही हर जगह रहना। यह नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ प्रकाश की भाँति रहो।
जहाँ भी रहो, जो भी हालत रहे, जो भी सामने रहे, जो भी समय रहे, जो भी स्थान रहे, केन्द्र एक रहे, प्रथम एक रहे, वरीयता एक ही रहे। क्या? हक़ीक़त क्या है? यह सब जो चल रहा है, इसकी सच्चाई क्या है? बह मत जाओ। पूछो अपनेआप से, ’यह हो क्या रहा है, भाई? चल क्या रहा है? व्हाट रियली इज़ गोइंग ऑन?’ (असल में क्या चल रहा है)। यह पूछना बहुत ज़रूरी है। हम नहीं पूछते। पूछना चाहिए।