प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हर समय जागरुक होकर कैसे जियें?
आचार्य प्रशांत: जागरुकता कोई करने की बात नहीं है। जागरुकता स्वभाव है। तो ये कोई बोझ नहीं हो सकता। ये विचार की कोई बात नहीं हो सकती कि हर समय जागरुक कैसे रहें। आपको कुछ करना थोड़े ही है जागरुक होने के लिए। आप जैसे हो, सहज, वही जागरुकता है।
जागरुकता का मतलब ये थोड़ी है किसी विशेष आसन में बैठे हैं, ऑंखें कुछ ज़्यादा खोल ली हैं, कान कुछ ज़्यादा चौड़े हुए। शान्ति, स्थिरता, सहज आनन्द, यही जागरुकता है।
श्रोता: कोई बनावट नहीं है।
प्र: ये अगर स्वभाव है तो अपने आप खो क्यों जाती है?
आचार्य: अपनेआप थोड़े ही खोती है। तुम किसलिए हो? कुछ तुम भी कुछ करके दिखाओगे कि नहीं? (प्रतिभागियों की हँसी) तुम्हें क्या लग रहा है, तुम्हारी ज़िन्दगी बेकार ही जा रही है? ये सब तुमने हासिल किया है – कष्ट, खोना, क्लेश, दुःख।
प्र: सर, दुख का मतलब आत्मा से है क्या?
आचार्य: (हँसते हुए) ग़लतफ़हमी है। (प्रतिभागी भी हँसते हुए)।
प्र२: आचार्य जी, शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना माने क्या?
आचार्य: शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना, यही न? चेतना में अहंकार की मिलावट ही उसे अशुद्ध कर देता है।
शुद्ध चेतना का मतलब है बिना 'मैं' के सुनना, बिना 'मैं' के देखना। जब बिना 'मैं' के सुना जाता है तो फिर 'तुम' भी मौजूद नहीं रहता। जब 'मैं' के बिना सुनोगे तो 'तुम' को नहीं सुनोगे, तब मात्र सुनना होगा। जब 'मैं' के साथ सुनोगे तो 'तुम' को सुनोगे, तब दूरी रहेगी, तब दूसरा रहेगा; विभाजन रहेगा। और जहाँ 'मैं' है और 'तुम' है, वहाँ सुनना नहीं होगा। वहाँ तो बस छवियाँ एकत्रित की जाएँगी, मतों का आदान-प्रदान होगा।
सुनने का काम तभी हो सकता है जब तुम उसमें बाधा न बनो। कान सुनना जानते हैं। मन सूचनाओं को लेना जानता है। मन उनका अर्थ करना भी जानता है। ये भी मन को पता है कि स्मृति से जोड़ना कैसे है उसको। उसमें भी कुछ बुरा नहीं हो गया। बुरा तब हो जाता है जब तुम बीच में आते हो।
तुम बीच में आकर क्या करते हो? तुम डरे हुए हो, तुम हिंसक हो, तुम आक्रामक हो। तुम बीच में आकर के लगातार अपने आपको बचाने की कोशिश करोगे, तुम सुनने से इंकार करोगे। तुम कहोगे, “मैंने वही सुना, जो मैं हूँ।” तुम उससे आगे जाओगे नहीं क्योंकि उससे आगे जाने में तुम टूटते हो। अब सुनना कैसे हो पाएगा? तुम वो देख ही नहीं सकते जो तुम्हें 'न' सिद्ध करता हो। तुम देख कैसे पाओगे? बिना 'अपने', देखना-सुनना, सारी भौतिक क्रियाओं को होने देना, यही विशुद्ध चेतना है। और कुछ नहीं।
प्र: ये 'मैं' आती कैसे है? शुरू में जब हम पैदा होते हैं तो उस टाइम पर तो नहीं होती है लेकिन उसके बाद कैसे पनपती है?
आचार्य: जब पैदा होते हो तो इसके साथ ही पैदा होते हो। आती कैसे है, ये प्रश्न व्यर्थ है। ये देखो अभी कैसे आ रहा है। क्या अभी है? जैसे तब आया था, ठीक वैसे अभी आ रहा है। अभी को जान लिया तो समझ जाओगे कि पहले भी कैसे आया होगा।
अभी कब उदित होता है 'मैं' भाव? अभी सवाल पूछ रहे हो तो है? जितना ज़्यादा वहम् रहेगा, जितना ज़्यादा कोशिश रहेगी अपने आपको बचाने की, जितना ज़्यादा अपनी ज़िद पर अड़ोगे, जितना ज़्यादा अपने अनुसार जीवन को ढालने की कोशिश करोगे, 'मैं' उतना ज़्यादा है। पहले भी ऐसे ही आया था। और जितना ज़्यादा समर्पित रहोगे, जितना ज़्यादा अपनेआप को बहने की आज़ादी दोगे, उतना कम रहेगा।
हम कह देते हैं न कि बच्चे को संस्कारित कर दिया जाता है। याद रखना संस्कारित नहीं किया जा सकता तुम्हें अगर तुममें डर न हो। बच्चे को भी कुछ फ़ायदा दिखा करके ही संस्कारित किया जाता है। बच्चे को भी कुछ लालच, कुछ डर दिखा करके ही धारणायें थमाई जाती हैं।
बच्चा कमज़ोर होता है शारीरिक रूप से, आर्थिक रूप से, हर तरीक़े से, भौतिक रूप से। बच्चा तो डरा हुआ होता ही है। उसी डर का इस्तेमाल करके उसको कंडीशन (संस्कारित) किया जाता है। तुम अगर ऐसा नहीं करोगे तो ऐसा हो जाएगा। ठीक वैसे जैसे बच्चे को संस्कारित किया गया था, आपको भी तो किया जाता है। डर को महत्व मत दो, लालच को तवज्जो मत दो, 'मैं' नहीं उठेगा।
आत्मा का अर्थ ही है दृढ़ता। जो दृढ़ नहीं है वो लचीला नहीं हो सकता। जो दृढ़ नहीं है वो बह नहीं सकता। सुनने में अजीब बात लगेगी लेकिन जो ताक़तवर होता है सिर्फ़ वही झुक सकता है। जो चट्टान की तरह दृढ़ होता है सिर्फ़ वही बह सकता है। जो डरा हुआ होगा वो तो ठिठकेगा, वो अटकेगा, वो ज़िद करेगा। वो डर-डर के कदम आगे बढ़ाएगा, बहेगा नहीं वो। वो कदम-कदम पर अपनी सुरक्षा जाँचेगा, ठिठकेगा। बहेगा कैसे? बहने के लिए तो बड़ी गहरी आन्तरिक आश्वस्ति चाहिए।
‘इतना मज़बूत हूँ मैं कि बहता रहूँ, बहता रहूँ, तो भी बिगड़ नहीं जाऊँगा। इतनी ताक़त है मुझमें कि बहाव मुझे कहीं भी ले जाए, मेरा कोई नुकसान नहीं हो जाने वाला।‘
जहाँ डर है, वहाँ बहाव नहीं हो सकता। जहाँ डर है वहाँ तो क्षुद्रता आएगी, रूकावट आएगी, संकीर्णता आएगी। किसी मुकाम पर बस जाने की, ठहर जाने की, सेटल हो जाने की हसरत आएगी। ‘यहीं रुक जाओ; आगे पता नहीं क्या हो?’ ‘ये जगह ठीक लगी न? चलो गाढ़ दो तम्बू।‘ ‘अरे! अब और मत भटको, जंगल ख़तरनाक है, हिंसक पशु हैं।‘ वहाँ ठहराव आ जाएगा, वहाँ पड़ाव डल जाएगा।
लगातार तो आप तभी गतिशील रह सकते हो जब जंगल आपको प्यारा लगे, ख़तरनाक नहीं। ख़तरनाक लग रहा है, तो तो फिर अपने लिए आप एक ठिकाना ढूँढोगे। ‘मिल गई गुफा, घुस जाओ!’
प्र३: नॉलेज (ज्ञान) के लिए अगर कुछ जाए, तो वो भी 'मैं' ही पाना चाहता हूँ — वो ही नहीं होना चाहिए। वी शुड गो बाय फ़्लो (हमें प्रवाह से जाना चाहिए)। फिर चेतना में नॉलेज का मीनिंग नहीं रहेगा?
आचार्य: क्यों नहीं रहेगा? ज्ञान है, आएगा। आप जी रहे हो, रोज़ नयी-नयी चीज़ें देख रहे हो, नये-नये अनुभव हो रहे हैं; ज्ञान आ रहा है।
प्र: कुछ और ज्ञान ढूँढने की ज़रूरत नहीं है?
आचार्य: और ज्ञान ले लो।
प्र: मुझे कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं है? — ये पूछ रहा हूँ।
आचार्य: और जा करके भी ले लो (प्रतिभागियों की हँसी)। कोई बंदिश थोड़े ही है। तुम्हें कैसे पता कि तुम फ्लो से अलग जा रहे हो? जो कुछ है, सब कुछ बहाव में है।
एक बात समझना अच्छे से, अहंकार बहाव के समानांतर कोई दूसरा बहाव नहीं बना सकता। और न ही वो बहाव को स्थायी रूप से रोक सकता है। वो बस भांजी मारता है। जिसे कहते हैं न लंगड़ी अड़ाना, कि लोग दौड़ रहे हैं लंगड़ा लगा दिया, वो गिर पड़ा, वो फिर उठकर दौड़ेगा।
जैसे खेल ख़राब करने के लिए कोई बीच में बद्दिमाग़ बच्चा घुस आया हो। कभी देखा है? पाँच-सात बच्चे खेल रहे हैं, उनके बीच में एक घुसा होगा। उसका दिमाग ही उल्टा है; न वो ख़ुद खेलेगा, न दूसरों को खेलने देगा। अहंकार ऐसा है। ऐसा नहीं है कि वो कोई नया खेल शुरू कर लेगा। वो जैसा है, वो कोई नया खेल शुरू कर ही नहीं सकता। वो अगर खेल सकता है सिर्फ़ अपने साथ, वो इतना अकेला है। उसकी दुनिया में और कोई हो ही नहीं सकता, दूसरे के लिए उसके पास जगह कहाँ होती है? उसकी दुनिया में सिर्फ़ अकेलापन होता है। हाँ, वो ये करता है कि जो खेल चल ही रहा है, उसको ख़राब करने की पुरज़ोर कोशिश। जो भी कुछ हो रहा है, कम ज्ञान, ज़्यादा ज्ञान, इधर से लेना, उधर से लेना; वो सब बहाव में शामिल है।
आप सब कुछ करने के लिए मुक्त हो। मुक्ति ही बहाव है। और सब कुछ किया जा सकता है बहाव में, बिना उस 'मैं' के। बुद्धि तय कर देगी ज्ञान कहाँ से मिलना है। बुद्धि और किस लिये है? उसमें 'मैं' क्यों तड़पे? 'मैं' क्यों कहे कि ज्ञान ले लूँगा तो मेरा कुछ भला हो जाएगा?
जी रहे हैं, उसमें कोई अवसर आया है, जहाँ पर ज्ञान मिल सकता है, ठीक है, जाएँगे, ले लेंगे। उसमें 'मैं' का क्या काम? 'मैं' का काम जानते हैं इसमें क्या होता है? 'मैं' का काम ये होता है कि ज्ञान ले लूँगा तो बड़ा बन जाऊँगा। क्या आप ज्ञान नहीं ले सकते बिना इस भावना के कि ज्ञान आपको बड़ा बना देगा? जवाब दीजिए।
ज्ञानी बने बिना क्या ज्ञान लेना सम्भव नहीं है? बोलिए। 'मैं' की उत्सुकता ज्ञान में नहीं, ज्ञानी में होती है। मैं ज्ञानी हो गया (दोनों हाथ उठाकर संकेत करते हुए)। ज्ञान आपको जितना लेना है लीजिए। ज्ञानी मत बनिए।
प्र: सर, उस बहाव में जो जीवन स्थिरता है, वो तो चली जाएगी न? या वो और बढ़ जाएगी?
आचार्य: जहाँ स्थिरता है, सिर्फ़ वहीं बहाव हो सकता है। अभी थोड़ी देर पहले कहा था। जहाँ स्थिरता नहीं है, वहाँ तो बहाव आक्रांत करेगा। आप कहोगे बहा तो कुछ पीछे छूट जाएगा मेरा। बहा तो नुकसान हो जाएगा। जहाँ पूरी आस्था है, सिर्फ़ वहीं आप अपने आपको अनुमति दे सकते हो बहने की। अगर आस्था नहीं है, स्थायित्व नहीं है, तो बहाव डरावना लगेगा।
प्र४: आप टूटकर अपनेआप को पहचान सकते हैं — ये भी होता है। कुछ सिचुएशन्स (परिस्थितियों) को जब आप अपनेआप को इगो में रखते हैं तो इगो में जब तक आप टूटते नहीं हैं तब तक वो इगो आपकी टूट नहीं सकती।
आचार्य: टूट करके आप अपनेआप को तो बाद में, उसको पहचानते हैं जो टूटा। अभी तक आप उसे असली समझते थे। जब टूटा तब समझ में आता है कि नकली है। जो झूठा था अभी तक, वो सत्य बना बैठा था। जब वो टूटता है तब पता चलता है कि अरे! ये तो झूठा था। टूटा, सो झूठा।
प्र: वो आपका भ्रम हो गया।
आचार्य: वो भ्रम हुआ। भ्रमों को टूटते देखना, यही तो सत्य का काम है। और वो कुछ करता ही नहीं है। उसका आशीर्वाद ही यही होता है कि उसके सानिध्य में भ्रम टूट जाते हैं।
जो टूटे उसे बार-बार जोड़ने की कोशिश मत करो। स्वयं जुड़ता हो तो अलग बात है। जो टूटा, उसे मानो झूठा। लगे मत रहो उसपर। सत्य बहुत मरम्मत नहीं माँगता। वो ख़ुद अपनेआप को ठीक कर लेता है। जैसे पानी में अगर डंडा मारो तो कितनी देर के लिए तोड़ लोगे पानी को? क्षणांश के लिए। जितनी देर तक़ लाठी घुसी हुई है उतनी देर तक तो वहाँ पर तुम एक विभाजन पैदा कर दोगे, लाठी हटी नहीं वो फिर जुड़ जाएगा।
सोना सज्जन साधुजन, टूट जुड़ें सौ बार। दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकई धक्का दरार। ~ कबीर साहब
कुम्भ कुम्हार के। जो ऐसी चीज़ें हों जिनमें बड़ी आसानी से दरार पड़ जाती हो, कि किसी ने एक ज़रा कड़वी बात बोल दी और मन खट्टा हो गया, तो जान लो ये दुर्जन कुम्भ कुम्हार के हैं, एकई धक्का दरार, इन्हें जाने दो। इनमें दम नहीं है।
'लाल कहे, लाल मुरझिहैं, तै जीबै कै दिन करिहैं।' एक लाल साहब थे, छोटे से। कहते हैं न? मेरा लाल। तो उनको बोल दो ‘लाल’, वो इतने में ही मुरझा जाते थे। तो बोले, 'ये कितने दिन जिएँगे?' ये लाल साहब अगर इतना कहने से ही मुरझा जाते हैं तो फिर इन्हें जाने दो।
आप जिसे आदर्श और उच्चतम मानकर बैठे हैं, जीवन उससे कहीं-कहीं आगे का और सुन्दर आपको देने के लिए तत्पर है। डरिए मत। डरिए मत, रुकिए मत, अटकिए मत।
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