इतनी गन्दगी है भीतर, फिर खुद से प्रेम कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

4 min
24 reads
इतनी गन्दगी है भीतर, फिर खुद से प्रेम कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल आपने सत्संग में आत्म-प्रेम के विषय में कहा था, कैसे मन यह जानते हुए, यह देखते हुए कि उसमें सारी गन्दगी मौजूद है, बहुत विकार मौजूद हैं, खुद को प्रेम कर सकता है। यह रास्ता बहुत कठिन मालूम होता है, जब भी आत्म-प्रेम, सेल्फ़-लव की ओर एक भी कदम आगे बढ़ाते हैं तो भीतर मौजूद विकार आकर सारा रास्ता रोक लेते हैं।

आचार्य प्रशांत: या तो जो सब गन्दगियों के बीच में तुम्हारी शुद्धता छुपी हुई है उससे प्रेम कर लो, वो आत्म-प्रेम का रास्ता है। ऊपर-ऊपर बहुत गन्दगी है पर भीतर शुद्धता है, मुझे प्रेम है उस शुद्धता से और चूँकि मुझे उस शुद्धता से प्रेम है, इसलिए मैं उसका पोषण करूँगा, उसको और बढ़ाऊँगा — ये प्रेम का रास्ता है, ये गन्दगी को नहीं देखता। दूसरा जो रास्ता है — वो आत्म-त्याग का है। कह रहे हो कि जब मैं जानता हूँ कि मुझमें इतनी गन्दगियाँ भरी हुई हैं, तो मैं खुद से प्रेम कैसे कर सकता हूँ। ठीक है, मत करो खुद से प्रेम, खुद का त्याग कर दो।

भई, तुममें गन्दगी भी है और शुद्धि भी है। मैंने समझाया कि अपनी शुद्धता से प्रेम करो, पर तुम बात कर रहे हो अपनी गन्दगी की, अपने कचरे की, वो सब जो दोष और विकार भीतर बैठे हैं, उनकी बात कर रहे हो। ठीक है, अगर तुम्हारी नज़र उन पर हैं, तो तुम्हारे लिए फिर बेहतर है आत्म-प्रेम से आत्म-त्याग का रास्ता। जिस कचरे को लेकर के परेशान हो — अंदरुनी कचरा, उस अंदरुनी कचरे का त्याग कर दो, ये ज्ञानी का रास्ता होता है, ये “नेति-नेति” का रास्ता है, ये आत्म-त्याग का रास्ता है। ‘छोड़ूँगा, काटूँगा, मिटा दूँगा!’

प्रेम का रास्ता सिर्फ़ सीधे, सामने सच को देखता है और उसकी तरफ़ बढ़ता चला जाता है। वो कहता है, ‘प्यार हो गया है उससे, अगल-बगल क्या है, मैं देख नहीं रहा। जीवन में गन्दगी बहुत है, पर मुझे ये भी समझ में आ गया है कि जीवन में चाहने लायक क्या है, अब जो चाहने लायक है मैं उसके साथ रहूँगा, गन्दगी की ओर देखूँगा ही नहीं। नतीजा ये निकलेगा कि कुछ समय में गन्दगी के पार निकल जाऊँगा। जीवन में बहुत कचरा है लेकिन जीवन में कुछ ऐसा भी मिल गया है जो बहुत साफ़ है और सुन्दर है, तो अब मैं पूरा जीवन बिताऊँगा उसके साथ जो साफ़ है और सुन्दर है।’

कचरे की ओर मुझे ध्यान देना ही नहीं, ये प्रेम का रास्ता है। प्रेमी कहता है, कचरे का इलाज भी अब वो ही कर लेगा, जिससे मुझे प्रेम है। और वो इतना सुन्दर है कि जब मुझे जब ये विकल्प मिला हुआ है कि उसको देखूँ, तो उसके होते हुए मैं सब कचरे को और विकृतियों को और दुर्गन्ध को क्यों देखूँ? भई, कुछ ऐसा है जो बहुत सुन्दर है और कुछ ऐसा है जो अति कुरूप है, दोनों में से अगर मुझे किसी एक को देखना है तो मैं किसको देखूँगा? ‘जो सुन्दर है उसको देखूँगा’ — ये प्रेमी कहता है, ये भक्त कहता है। मैं उसको देखूँगा, उसी की तरफ़ बढ़ता चलूँगा, जब मैं उसकी ओर बढ़ता चलूँगा तो मैं खुद ही कचरे से दूर होता जाऊँगा।

पर अगर आपका चित्त ऐसा है कि आपकी नज़र बार-बार भीतर के कचरे पर जाती है, तो आपके लिए जो रास्ता उसका नाम मैंने बताया — आत्म-त्याग। आप फिर कचरे की सफ़ाई कर डालो, आप कचरे का त्याग करो। बोलो, ‘इसी पर बार-बार नज़र जा रही है, मुझे तो यही दिखाई दे रहा है ज़िन्दगी में। तो ठीक है, मैं इसी पर काम करूँगा, मैं इसी पर पूरा ज़ोर लगा दूँगा। मैं इस कचरे को त्यागूँगा, ये मेरा रास्ता है।’

ये ही दो रास्ते होते हैं सिर्फ़, इनके अलावा तीसरा कुछ होता ही नहीं — प्रेम का और त्याग का।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories