प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद में हम देखते हैं कि ऋषि दो-तीन श्लोक बोलते हैं और जैसे राजा जनक के भीतर शून्यता उतरने लगता है। तो इससे हम ये समझें कि अगर किसी को समझाना हो तो शब्द का सहारा ही लिया जा सकता है, या फिर वो तरीका कि जैसे कहानियों में हम पढ़ते हैं कि गुरु ने हाथ पकड़ा और शिष्य को परम ज्ञान मिल गया?
आचार्य प्रशांत: समझने वाले तो कैसे भी समझ जाते हैं। पेड़ से एक पत्ता गिर रहा था, लाओत्ज़ू वहाँ खड़े हैं, वो पत्ते को गिरता देख रहे हैं, और बिल्कुल बोध तरंगित हो गया भीतर। कुछ नहीं है, हवा में तैरते एक पीले पत्ते को देखकर!
जो बिल्कुल प्रस्तुत हो, तैयार हो, खड़ा हो सीखने को, उसका तो हो ही जाता है। अवधूत से पूछोगे, वो कहेगा, ‘मैंने बहेलिये से सीख लिया, मैंने मछली से सीख लिया, मैंने शिकारी से सीख लिया, मैंने कबूतर से सीख लिया, मैंने अजगर से सीख लिया।’ जिस-जिस से सीखा जा सकता था, उसने सबसे सीख लिया।
जो सीखने को तैयार है, उसके लिए तो समूचा अस्तित्व ही गुरू है। पर तुममें पहले सीखने की वो महत् आकांक्षा तो उठे। पहले तुम ये मानो तो, कि जीवन बड़ा सूना है, बड़ा व्यर्थ जा रहा है, तुम्हारे भीतर एक छटपटाहट तो उठे। तुम तो झूठे संतोष में जी रहे हो, तुम तो माने बैठे हो कि ये तो ठीक है, मुझे पता ही है। हाँ! हाँ! ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, सब ठीक है। मस्त रहो! बस ऐसा है, सन्तुष्ट रहो, “संतोषं परमं धनम्।” जिसमें तड़प नहीं है, उसके लिए तो अध्यात्म की शुरुआत ही नहीं हो सकती।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक बोला जाता है बुक ऑफ़ लाइफ़ ; अगर हमें उस किताब को पढ़ना नहीं आता तो वो हमारे लिए कैसे मददगार साबित होगी?
आचार्य प्रशांत: सबकुछ उपलब्ध है। और पढ़ने के लिए कोई विशेष कला नहीं चाहिए, कोई कौशल्य नहीं चाहिए। आपको बुक ऑफ़ लाइफ़ (ज़िन्दगी की किताब) पढ़ने के लिए अनपढ़ होना पड़ेगा। पढ़ा-लिखा व्यक्ति कहता है, ‘पढ़ने के लिए क्या पढ़ूँ?’ वो कहता है कि पढ़ने के लिए भी तो पहले कुछ पढ़ा होना चाहिए न। आप जब कोई नई भाषा सीखते हो, तो आप पूर्व में सीखी गई किसी भाषा के माध्यम से सीखते हो; तो आप कहते हो कि नया कुछ पढ़ने के लिए पुराना कुछ पढ़ा होना चाहिए। बुक ऑफ़ लाइफ़ पढ़ने के लिए अनपढ़ होना चाहिए। जो पढ़ा है, उसे ज़रा मिटाओ।
क्या गा रहे थे? “जो कुछ लिखा तूने, उसे मिट के मिटा।” ज़रा अनपढ़ हो जाइए, फिर किताब बिल्कुल खुलेगी आपके सामने, और बिना पढ़े सब पढ़ जाएँगे। दिक्कत ये है कि हम थोड़े ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग हैं, हम ज़्यादा होशियार हैं, हम ज़्यादा तजुर्बेकार हैं, हमें बहुत कुछ पता है। और जो हमें पता है, उस पर हमें नाज़ बहुत है। और पता हमें कुछ नहीं है, ज्ञान हमारा सब खोखला और अधूरा है!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपकी बातों को सुनकर ये समझ आया कि कुछ पाने के लिए प्यास बहुत ज़रूरी है; प्यास ही सबकुछ है। तो किसी के अंदर या खुद के अंदर प्यास जगानी है तो कैसे जगे?
आचार्य प्रशांत: प्यास सबके अंदर जगी हुई है। कुछ लोग तड़प के मारे बेहोश हो गये हैं, उन्हें प्यास का पता ही नहीं चलता। कोई नहीं है जो प्यासा न हो। प्यास जगाने की क्या ज़रूरत है, प्यास तो सबमें जगी ही हुई है। कुछ लोगों ने उस प्यास के साथ समझौता कर लिया है, कुछ लोगों ने उस प्यास को गहराई में दबा दिया है।
प्रश्नकर्ता: गलत रास्ते से ढूँढ रहे हैं वैसे भी।
आचार्य प्रशांत: ढूँढ ही नहीं रहे हैं, वो प्यास दब गई।
प्रश्नकर्ता: तो आचार्य जी, फिर तो सुसंगति से ही पता चलेगा।
आचार्य प्रशांत: कोई और तरीका नहीं है। तुम्हारे साथ ऐसा हुआ नहीं क्या? याद करना, पानी को देखकर प्यास की याद आती है। छः घंटे से पानी नहीं पिया है, और याद भी नहीं है कि प्यासे हो; फिर पानी को देखा और तुरंत हाथ बढ़ गया। ये कहलाती है?
प्रश्नकर्ता: सुसंगति।
आचार्य प्रशांत: सुसंगति।
तुम अपनी ही प्यास से अनभिज्ञ हो, बैठे हो, तुम भूल गए कि तुम्हें क्या चाहिए। फिर जब किसी ऐसे को देखते हो जिसके पास वो है जो तुम्हें चाहिए, तो तुम्हें तत्काल याद आता है — ‘अरे! यही तो खोज रहा था, भूल गया।’ जैसे कि तुम बाज़ार गए हो मैदा लेने और वहाँ एक तरफ़ खीर मिल रही है, दूसरी तरफ़ कपड़े मिल रहे हैं, तीसरी तरफ़ मनोरंजन का है, और तुम उसमें खो गए!
लेने क्या गए थे?
प्रश्नकर्ता: मैदा।
आचार्य प्रशांत: मैदा। और खो गए हो, छः घंटे बिता दिए! और तभी सामने अचानक नज़र आ गया?
प्रश्नकर्ता: मैदा।
आचार्य प्रशांत: मैदा। और तुम्हें एकाएक याद आ गया — ‘अरे! यही तो चाहिए था, इसी के लिए तो आया था, न जाने कहाँ खो बैठा!’ ये सुसंगति कहलाती है। किसी ऐसे के संपर्क में आ जाओ जिसकी प्यास बुझी हुई हो या फिर जिसकी तड़प जगी हुई हो। वो तुम्हें याद दिला देगा कि तुम भी तो वही खोज रहे हो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी हमने गाया, “मिट के मिटा।” इस मिटने पर आप कृपया कुछ बोलें?
आचार्य प्रशांत: सब उसी पर बोला है, अलग से क्या बोलूँ? मैं सिर्फ़ इशारा कर सकता हूँ कि क्या होता है; कैसे होता है, ये नहीं बता पाऊँगा। अब ये चिड़िया बोल रही है, एक अवस्था वो होती है जब चिड़िया का बोलना तुम्हें दुनिया के पार ले जाता है बिल्कुल। और उसने कहा कुछ नहीं — ऐसा कुछ नहीं है कि मुझे पक्षियों की भाषा आ गई है — बस तीन बार उसने आवाज़ दी। और जैसे तीन बार बुलावा आ गया हो, कहाँ से आया पता नहीं, किसका आया पता नहीं, पर ये पक्का है कि उसने तीन बार आवाज़ नहीं दी, उसने तीन बार जैसे आमन्त्रण दिया, जैसे उसने तीन बार कहीं और का गीत सुना दिया। क्या बोला उसने, मुझे कुछ पता नहीं, पर ये पक्का है कि बात कहीं और की थी, कुछ और था जो प्रत्यक्ष हो गया।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि मैं किसी चीज़ को पाने से थोड़ा ही दूर हूँ, उसे पाने के लिए भीतर प्यास बढ़ती रहती है। पर जब वो चीज़ पाने के लिए जाता हूँ तो वापस फेंक दिया जाता हूँ। फिर लगता है कि थोड़ा दूर हूँ, थोड़ा दूर हूँ।
आचार्य प्रशांत: ठीक है, तो?
प्रश्नकर्ता: तो ऐसा लगता है तो उसके लिए कोई..?
आचार्य प्रशांत: तो न लगे ऐसा?
प्रश्नकर्ता: नहीं, मतलब ऐसा लगता है कि कोई सर्कल है, वो पूरा होना चाहता है।
आचार्य प्रशांत: तो ठीक है, लगता है तो? समस्या क्या है? लगने दो! क्या उम्र है तुम्हारी?
प्रश्नकर्ता: अट्ठाइस।
आचार्य प्रशांत: तो तुमने इतनी उम्र में पूरी कीमत अदा कर दी है? तुम कल से आकर बार-बार कह रहे हो कि मुझे तो बिल्कुल परमात्मा दे दीजिए, थोड़ा सा अटक रहा हूँ बस, निन्यानवे सीढ़ियाँ हो गईं। तुमने ऐसा क्या कर लिया इन अट्ठाइस सालों में कि तुम इतनी ऊँची माँग रख रहे हो? जो कीमत अदा करनी पड़ती है, तुमने की है? जब नहीं की है तो सिर झुकाओ और कीमत अदा करो, काम करो। इतनी माँगें क्यों रख रहे हो, इतनी शिकायतें क्यों कर रहे हो? तुम्हारे हर सवाल में शिकायत है।
तुम्हारे हर सवाल में भाव ये है कि देखो, मैं तो बड़ा भक्त हूँ, बड़ा शोधक हूँ, बड़ा ज्ञानी हूँ, परमात्मा मुझसे छुपन-छुपाई खेल रहा है। मैंने तो अडवान्स पेमेन्ट (अग्रिम भुगतान) कर दिया है, डिलिवरि (वितरण) नहीं आ रही है।
तुमने अभी तक, फिर पूछ रहा हूँ, कौन-सी साधना की है, कौन-सी तपस्या की है, कौन-सी कीमत अदा की है जो तुम इतनी बड़ी माँग रख रहे हो? वो झरोखा बस एक पल को खुलता है; एक पल को भी खुलता है तो गनीमत मानो, धन्यवाद अदा करो कि एक पल को तो खुला।
तुम तो माँग रख रहे हो कि एक पल को खुल रहा है, मुर्दाबाद! मुर्दाबाद! हमारे लिए तो पूरा एक पहर को खुलना चाहिए था, एक ही पल को क्यों खुला? आप रसीद देखिए, इसमें क्या लिखा है? दो घंटे को खुलेगा। पैसे दो घंटे के लिए और दिया एक पल को, बड़ी नाइंसाफ़ी है! दो दिन से तुम ऐसे ही प्रश्न पूछे जा रहे हो, तुम्हारे मन में कृतज्ञता ज़रा भी नहीं है कि एक पल को ही सही, खुला तो सही।
तुम हो कौन? और जिसके मन में उस एक पल के लिए कृतज्ञता नहीं है, उसको या तो वो एक पल भी मिला नहीं है, या फिर यदि अनुकम्पा बस मिल गया था, तो अब आगे नहीं मिलेगा। जिनको जो मिले, उसके प्रति उनमें कृतज्ञता न हो, उनका सिर्फ़ एक ही नतीजा होता है, कि वो उतना भी खो देते हैं जितना उन्हें मिल रहा होता है।
प्रश्नकर्ता: कृष्णमूर्ति जी कहते थे कि बोध की प्राप्ति सिर्फ़ सेल्फ़-इन्क्वाइरि (आत्म-पूछताछ) से होती है। तो आचार्य जी, वो सेल्फ़-इन्क्वाइरि क्या होती है?
आचार्य प्रशांत: अपने ऊपर नज़र रखना। साक्षित्व की ही बात कर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: अगर सोचेंगे तो वो भी थॉट्स ही होते हैं।
आचार्य प्रशांत: सोचना नहीं है; देखने को सोचना नहीं कहते। सोचने में तो तुम्हें समय मिल जाता है, देखने में समय नहीं मिलता। सोचने में तो तुम्हें समय मिल गया खुराफ़ात करने का, अब तुम कुछ भी सोच सकते हो; देखने में तुम्हें समय नहीं मिलता, तो देखने में फिर सरलता रहती है, इनोसेन्स रहती है। देखने में जो होता है सो जस का तस होता है।
प्रश्नकर्ता: फ़्रैक्शन ऑफ़ अ सेकन्ड (पलक झपकते) में वो आ जाता है।
आचार्य प्रशांत: उतना भी नहीं, उतना भी नहीं।
प्रश्नकर्ता: फ़्रैक्शन ऑफ़ अ सेकन्ड में…
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो इसीलिए। देखने में उतना भी अपने आप को ढीला नहीं छोड़ना है।
प्रश्नकर्ता: और अटेन्टिव (सतर्क) रहना है।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल। फ़्रैक्शन ऑफ़ अ सेकन्ड में तो दुनिया बदल गई पूरी, ये तो एक कल्प बीत गया; कल्प नहीं बीता है, युग बीत गया। तत्काल माने शीघ्र नहीं होता, तत्काल माने कालातीत होता है। शीघ्रता का अर्थ तात्कालिकता नहीं होता। शीघ्रता का अर्थ होता है ‘समय मिल गया’, और तत्काल का अर्थ होता है ‘समय है ही नहीं।’
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अगर कोई व्यक्ति उपलब्ध हुआ है, तो उसमें तुरंत ही बदलाव आता है, या फिर पुरानी जो आदत है जैसे साइकल का पेडल मारते हैं तो साइकल थोड़ी आगे तक जाती है?
आचार्य प्रशांत: ये उस व्यक्ति को आकर पूछने दो, तुम अपनी बात करो। तुम्हें काम नहीं करना, तुम्हें उपलब्धि का ज़्यादा लालच है। है न बेटा? जेब में रखकर जाओगे उपलब्धि यहाँ से? सीधे-सीधे पूछा तो मैंने डाँट दिया, तो अब कह रहे हैं, ‘अगर कोई व्यक्ति उपलब्ध हुआ है..।’ कौन उपलब्ध हुआ है? कहीं से तुम हसीन सपने उठा लाए हो — ये उपलब्धि जैसा कुछ होता है, और तारे बरसते हैं, और फूल खिलते हैं, और सुगंध फैल जाती है चारों ओर, और फिर उसमें लड़कियाँ नाचती होंगी, स्कर्ट लहराती हुई।
तो कुछ तो तुम्हारे मन में उपलब्धि का सिद्धान्त, कोई छवि तो है ही। वही उपलब्धि के पीछे घूम रहे हो। क्या है? लड्डू है, पेड़ा है, पकौड़ा है, क्या है उपलब्धि? मन पर तुम्हारी इतनी भी नज़र नहीं है कि तुम देख सको कि जितनी बार मैं बोलता हूँ, उतनी बार तुम पेन का ढक्कन कट-कट-कट-कट शुरू कर देते हो। उपलब्धि की बातें कर रहे हो!
परमात्मा कोई उपलब्धि नहीं होता। जो कुछ तुमने स्वयं को उपलब्ध करा रखा होता है, उसे अनुपलब्ध कराना होता है। उपलब्धि कुछ नहीं होती कि जेब में डाली और लेकर चल दिए। जो कुछ भर रखा होता है, उससे निजात पाना होता है, मुट्ठी खोलनी होती है — जा, जा, छोड़ा, जा। आज दे देना रात में उपलब्धि।
प्रश्नकर्ता: भजन में वही लिखा है न, “तूने जो पाया है, उसे छोड़ना पड़ेगा।”
आचार्य प्रशांत: भजन में लिखा है, पर तुम्हें थोड़ी उसे मानना है — “दिल है कि मानता नहीं!” मनीष को हुई थी उपलब्धि, इतना सोचोगे तो तुम्हें भी हो जाएगी।
प्रश्नकर्ता: नहीं। आचार्य जी, अंत में फिर एक विचार आता है कि कुछ है ही नहीं, बस पदार्थ है और बदलाव होते रहते हैं, बस और कुछ है नहीं।
आचार्य प्रशांत: बेटा, जब तुम कहते हो, ‘कुछ है ही नहीं,’ तो भी तुमने पदार्थ खड़ा कर लिया। तुम जब कहते हो, ‘कुछ है,’ तुम पदार्थ की बात करते हो। जब तुम कहते हो, ‘कुछ नहीं है,’ तो यही तो कहते हो, ‘पदार्थ नहीं।’ अभी भी तो तुम्हारे केन्द्र में पदार्थ ही बैठा है। पदार्थ को ही तो केन्द्र बनाकर कह रहे हो, ‘पदार्थ नहीं।’ परमात्मा न पदार्थ के होने, न पदार्थ के न होने की बात है। वो इस मुद्दे के ही शमन का नाम है।
एक बच्चा आता है और बोलता है, ‘बताओ मेरे किस हाथ में तितली है?’ उसने दो मुट्ठियाँ भींच रखी हैं, एक मुट्ठी में तितली है, दूसरी में?
प्रश्नकर्ता: खाली है।
आचार्य प्रशांत: खाली है। फ़र्क नहीं पड़ता कि तितली कहाँ है और कहाँ नहीं है, एक बात पक्की है कि बच्चा हिंसक है। पदार्थ का होना, पदार्थ का न होना, दोनों ही तुम्हारी दो मुट्ठियाँ हैं; और न होना, होने पर आश्रित है। ठीक? तभी तो तुम्हारा खेल चल रहा है, कहते हो, ‘एक में है, एक में नहीं है, बताओ कहाँ है, कहाँ नहीं है।’ एक बात पक्की है, तुम ये खेल चला रहे हो तो बड़े हिंसक हो।
अभी भी तुम्हारे चेहरे पर बेचारगी है, क्यों? क्योंकि जो कुछ बोल रहा हूँ, उसको पकड़कर उसको नोंच रहे हो, खसोट रहे हो, उसमें घुसना चाहते हो, उससे अर्थ निकालना चाहते हो। और यदि तुमने मुझे सुना है वीडियो पर, तो इतनी बार कहा है मैंने कि मैं जो कुछ कहता हूँ उसका कोई अर्थ नहीं होता। हाँ, सुन लोगे तो शांत हो जाओगे। उसका अर्थ निकलोगे तो ऐसा उलझोगे कि फिर…!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, योगवासिष्ठ में लिखा है कि उचित जीवन जीने के लिए दो चीज़ें महत्वपूर्ण हैं — अपनी कामना त्याग देना और अपनी साँस पर नियन्त्रण रखना। तो साँस पर नियन्त्रण रखने का क्या मतलब होता है?
आचार्य प्रशांत: जब भी तुम मानसिक उत्तेजनाओं में फँसते हो तो साँस उखड़ जाती है, बेतरतीब हो जाती है, बदहवास हो जाती है, अपनी सुव्यवस्था खो देती है। तो जो लोग सूक्ष्मता से मन को न देख पाते हों, उनके लिए ये एक उपाय है कि जब भी दिखे की साँस उखड़ रही है, साँस की सुचारु व्यवस्था अपनी लय खो रही है, तो समझ जाओ कुछ गड़बड़ हुआ।
बेटा, ज़िन्दगी ही ठीक करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
अध्यात्म इसलिए नहीं होता कि सवाल-जवाब कर लिए, सुन लिया, ज्ञान में इज़ाफ़ा कर लिया और चले गए। पूरी ज़िन्दगी ठीक जीनी पड़ती है, पूरी ज़िन्दगी, एक-एक घन्टा, सुबह से शाम तक।
तुम्हें देखना होता है कि कहाँ से कमा रहे हो, तुम्हें देखना होता है कि किसकी सुन रहे हो, तुम्हें देखना होता है कि किसके साथ उठ-बैठ रहे हो, कहाँ खा-पी रहे हो, सबकुछ।
जिसकी पूरी ज़िन्दगी ठीक नहीं चल रही है, मेरी बातें उसके काम थोड़े ही आएँगी। सत्य को लेकर यदि तुम लगातार आग्रही नहीं रहे हो, तो मुझे भी बहुत सुन थोड़े ही पाओगे, मुझे तुम अचानक से ही सम्मान थोड़े ही दे सकते हो। अगर चौबीस में से सोलह घंटे तुम मुझे याद ही नहीं करते या मेरे प्रति सम्मान नहीं रखते, तो अभी अचानक मेरे सामने बैठोगे तो मुझसे लाभ थोड़े ही ले पाओगे। मुझसे लाभ लेना है यदि तो जीवन ठीक रखो। गाड़ी थोड़े ही हो कि यहाँ आते ही गियर बदल दोगे!