इसे कहते हैं लग्ज़री लाइफ़! || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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इसे कहते हैं लग्ज़री लाइफ़! || आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: कुल मिलाकर तर्क़ ये है कि आचार्य जी, आप तो ख़ूब भोग–वोग लिये (श्रोतागण हँसते हैं)। मज़े मारने के बाद अब मंच पर बैठकर प्रवचन दे रहे हो। हमने तो अभी ज़िंन्दगी के कोई मज़े मारे नहीं, तो हम कैसे छोड़ दें?

मैंने कौन–सी चीज़ें भोग ली हैं? क्या भोगा है? उल्टा हुआ है। मुझसे पन्द्रह–बीस बैच जूनियर लोग भी जितना कमाते हैं और कन्ज़्यूम (भोग) करते हैं, मैं उतना भी नहीं करता हूँ।

आज आइआइएम अहमदाबाद का जो फ्रेशर (नया–नया) निकलता है, उसकी जो एवरेज सीटीसी (औसतन सालाना सैलरी पैकेज) होती है, मेरी अपनी तनख़्वाह उतनी भी नहीं है। और जो मेरी तनख़्वाह है भी, उसमें मैं संस्था से आपकी एक पैसा नहीं लेता। पुरानी 'अद्वैत लाइफ़ एजुकेशन' (अद्वैत जीवन शिक्षा) है, उसका जो पड़ा था, वही चल रहा था। और पिछले महीने मुझे बताया गया कि अब वो ख़त्म हो गया। तो अभी मुझे फ़ुर्सत ही नहीं मिली है, मुझे ये देखना है कि मेरा अपना खाना–पीना कैसे चलेगा, इस महीने में। लग्ज़रीज़ क्या हैं?

और जो लोग लग्ज़रीज़ की बात करते हैं कि राम और कृष्ण थे, इनके पास तो सब कुछ थी, तभी तो ये कर पाए। वो कभी कबीर साहब, रैदास साहब, नानकदेव; इनकी बात क्यों नहीं करते? इनके पास कौनसी लग्ज़रीज़ थीं? गरीबदास, मलूकदास; इनकी बातें क्यों नहीं होती? पलटूदास। ये सब बहुत साधारण वर्गों से आते थे।

मैं अपने खाने–पीने तक का ठीक से ख़याल नहीं रख पाया। और वो मैंने ग़लत करा अपने साथ। उसका नतीजा ये हुआ कि शरीर को कई तरीक़े की समस्याएँ हो गयीं। तुम कौन–सी लग्ज़रीज़ की बात कर रहे हो?

नोएडा के तिरसठ सेक्टर , वो इंडस्ट्रियल एरिया (औद्योगिक क्षेत्र), उसमें दस साल तक मैंने धुआँ पिया है। वहीं पर ऐसे मेज़ थी, उसके बगल में ऐसे सो जाता था। वहाँ नहीं सोया, तो उसके पीछे वो छः बाइ आठ का खोखा था। उसमें घुस जाता था। उसमें ऊपर से मेरे सीमेंट के इतने बड़े–बड़े गिर रहे होते थे (एक हाथ से संकेत करते हुए)। और अपना उस वक़्त काम कर रहा था। इन चीज़ों का होश ही नहीं था।

संवाद लेने आता था तो लम्बे कुर्ते होते थे। वही लम्बे कुर्ते जब घिस जाते थे, तो उनको कटवाकर, छोटा करवाकर उनको डेली यूज़ (दैनिक उपयोग) में ले आ लेता था। कौन–सी लग्ज़रीज़?

ये तुम्हारे जो भी मित्र लोग हैं, उन्हीं का नहीं होगा; यहाँ बहुत लोग बैठे होंगे, सबका यही होगा— ‘अरे! ये तो सब इन्होंने पहले हासिल कर लिया।’

उल्टा नहीं सोचना चाहिए कि अगर हासिल कर लिया तो हासिल करने के बाद छोड़ना कितना मुश्क़िल है। जिसने हासिल नहीं किया और वो कहना शुरू कर दे— ‘अरे! सब बेकार है।’ तब तो फिर भी ठीक है। "अंगूर खट्टे हैं"। उसने हासिल ही नहीं किया, वो कह सकता है कि सब बेकार है। पर कर लिया हो और जब वसूली का समय आया हो तब त्याग दिया हो। वो नहीं ज़्यादा कठिन है?

पर मैं उसको कठिन भी नहीं कह रहा हूँ। वो ज़रूरी था। और जो चीज़ ज़रूरी होती है, वो तो करनी पड़ेगी। भले ही कठिन हो।

और चूँकि वो ज़रूरी है इसलिए उसमें फिर कठिनाई का गाना गाने की भी आवश्यकता नहीं होती है। तुम पूछ रहे इसलिए बोल दिया। नहीं तो इतने सालों से मुझे ये बोलने की कभी ज़रूरत लगी ही नहीं कि बताऊँ कि मैं पिछले पन्द्रह साल से कैसा रहा हूँ, कैसे जिया हूँ। क्योंकि मुझे उसमें कोई, ऐसा नहीं है कि बहुत दुख हो रहा था। मज़े में ही था। मौज मैंने पूरी मारी है। मज़े में नहीं होता, तो कुछ और कर लेता न? या अपनी दिशा बदल देता। उसमें मुझे तृप्ति मिल रही थी इसीलिए उसमें लगा था। तो मैं क्यों बोलूँ कि वो कठिन है या दुखभरा है?

अब सुनो सही बात।

जिन चीज़ों को तुम लग्ज़रीज़ बोलते हो, उन लग्ज़री से बड़ी-से-बड़ी लग्ज़री है, एक सही और सच्चा जीवन।

जो लोग आज सबसे लग्ज़ूरियस (विलासितापूर्ण) जीवन जी रहे हैं। विलासिता और वैभवपूर्ण। क्या उनको भी सही और सच्चे जीवन की लग्ज़री मिली?

तो बताओ न फिर! बड़ी-से-बड़ी लग्ज़री के बाद भी ये वाली लग्ज़री तो नहीं मिली न? तो ज़्यादा बड़ी लग्ज़री कौन–सी है? प्राइवेट जेट (निजी तीव्रगामी वायुयान) और प्राइवेट आइलैंड (निजी द्वीप) और प्राइवेट याॅट् (निजी क्रीड़ा-नौका) होना या ज़िंन्दगी के सामने बिलकुल छाती चौड़ी करके खड़े हों कि हाँ, सही जिये हैं, सच्चा जिये हैं? न घुटने टेकते हैं, न बन्धन माने हैं, न बिक गये हैं। ज़्यादा बड़ी लग्ज़री क्या है?

तो हम भी कह रहे हैं कि ज़िंन्दगी में लग्ज़रीज़ होनी चाहिए। गो फ़ॉर द हाइयेस्ट लग्ज़री (सबसे ऊँची विलासिता के लिए जाओ)। इस जीवन में इससे बड़ी और क्या लग्ज़री हो सकती है कि तुम जीवन के ग़ुलाम बनकर न जियो? आज़ादी से जीने से बड़ी कोई लग्ज़री है? सोने के पिंजरे में कैद चिड़िया और मोतियों का उसको आहार दिया जाता है। क्या लग्ज़री है! क्या लग्ज़री है! चाहिए?

हम भैया, छोटी–सी गौरैया ही सही लेकिन आज़ाद उड़ लेंगे। क्या होगा? शिकार हो जाएगा; चील, बाज घूम रहे हैं। मेहनत करनी पड़ती है। ख़ुद देखो। ख़ुद समझो। दाना चुनो। कम जिएँगे, कोई बात नहीं। पंख कटवाने के लिए नहीं पैदा हुए थे।

बताता हूँ, लग्ज़री क्या होती है। लग्ज़री ये होती है कि बिना बात के डरना नहीं पड़ता। लग्ज़री ये होती है, कोई दूसरा इंसान तुम्हारी ज़िंन्दगी पर हावी नहीं होता। ये होती हैं लग्ज़रीज़। ये पैसे देकर नहीं ख़रीदी जातीं। इन्हें हासिल करके दिखाओ न! ये नहीं करनी हासिल? या लग्ज़रीज़ बस यही है कि न्यूयॉर्क में बंगला ख़रीदा है? धोखा नहीं करना पड़ रहा है, ये लग्ज़री नहीं है? बोलने से पहले पाँच बार सोचना नहीं पड़ रहा, ये बहुत बड़ी लग्ज़री है।

मैं आपके सामने पाँच–पाँच, छः–छः घंटे बैठा रहता हूँ। मैं कैसे बोल पाता, अगर हर बात विचारनी पड़ती तो? बोलिए।

महान लग्ज़री मिली हुई है मुझे। बात जैसी है, वैसी कह देनी है। न सोचना, न विचारना; बस मुँह खोल दो। (श्रोतागण हँसते हैं) सोच–सोचकर तो आदमी आधे घंटे में थक जाए, दिमाग से परेशान हो जाए — ‘क्या अभी? अब ये बोल दिया। अब क्या करें? सोचें, कहीं वो न नाराज़ हो जाए। उसको कैसा लगेगा!’

किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ता, ये कम बड़ी राहत है? इससे बड़ी विलासिता क्या होगी? बताओ। ज़िन्दगी में जो करना चाहो, कर सकते हो, कोई जवाबदेही नहीं है, कोई सिर पर मालिक नहीं बैठा हुआ; न दफ़्तर में, न घर में। जवाब देना भी है किसी को तो उसका नाम एक है, उसको आत्मा बोल लो, परमात्मा बोल लो; जो भी है। उसके सामने पेशी होती है। और हम किसी को जवाब देंगे ही नहीं।

प्रधानमन्त्रियों, राष्ट्रपतियों को भी ये लग्ज़री उपलब्ध है? उन्हें भी नहीं है। उन्हें भी जवाब देना पड़ता है। तुम ऊँचे-से-ऊँचे हो जाओ, कहीं-न-कहीं तो तुम्हारी अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) होती है। और उतनी दूर जाने की तो ज़रूरत ही नहीं होती। हमने अपनी निजी ज़िन्दगी में ही ऐसे काम कर रखे होते हैं कि हमारे घर में ही हमारी बड़ी जवाबदेही हो जाती है।

कल यहाँ पर बोलकर तो गये हैं लोग — ‘आज आये हैं, अब कल नहीं आ पाएँगे।’ मैं मस्त हूँ। मुझे आपको कभी नहीं बोलना पड़ेगा कि आज आया हूँ, कल नहीं आ पाऊँगा। मौत हो जाए, वो अलग बात है। वरना, अगर आना है, तो आना है। कोई नहीं रोक सकता। ये है लग्ज़री। अभी और भी पानी बाक़ी हैं। ठीक है। और लग्ज़री हैं, जीवन ख़त्म कहीं नहीं हो जाता। एक-के-बाद-एक ऊँचाईयाँ होती हैं।

दिक्क़त ये है न कि आप ऊँचाइयों को सिर्फ़ भौतिक रूप से समझते हो। आपके लिए लग्ज़री सिर्फ़ मटेरियल (पदार्थ) होती है, टेंजिबल (दृष्टिगत)। और इसीलिए फिर आप पैसे के पीछे भागते हो कि पैसा तो टेंजिबल चीज़ें ही ख़रीद सकता है।

वास्तविक लग्ज़री इंटेंजिबल (अदृष्टिगत) होती है। तभी फ़कीरों को बादशाह बोला गया है। उनके पास बताओ, पदार्थ क्या थे? उनके पास वस्तुएँ क्या थीं? चीज़ों की लग्ज़री तो नहीं थी उनके पास। पर फिर भी इस देश ने सब फ़कीरों को बोला ‘बादशाह’। जो संन्यस्थ हो गया, उसको बोला— स्वामी। स्वामी माने मालिक। मालिक। अब ये मालिक हो गया। बादशाह है ये। बादशाह। क्योंकि अब उसके पास वो वैभव आ गया है, वो सम्पदा आ गयी है जो बड़े-से-बड़े सेठ, राजा, अमीर, किसी के पास नहीं होती।

बैठे होगे, तुम फोर्ब्स फाइव हंड्रेड में। तुम्हारे पास वो चीज़ नहीं है। ये उनके पास होती है। तो इसीलिए यहाँ पर सम्राटों ने आकर के साधुओं के सामने सिर झुकाया है। ये तुम कहीं नहीं सुनते होगे कि साधु गया और सम्राट के पाँव छू रहा है। ऐसा सुना कहीं? तो कोई वजह है न कि जो राज्य का सबसे अमीर बन्दा है — कौन? राजा — वही आकर के कहाँ चरण स्पर्श कर रहा है? वो जिसके पास कानी–कौड़ी नहीं है। वो साधु है, नंगा है, ऐसे ही फिर रहा है‌ और राजा आकर उसके पाँव छू रहा है।

अब बताओ, लग्ज़री किसके पास है? और मज़े की बात ये कि साधु ध्यान भी नहीं दे रहा, छू रहा है कि नहीं छू रहा है। वो कहे— ‘हट। दूर हट। परेशान करने चला आता है’ (श्रोतागण हँसते हैं)। अब बताओ लग्ज़री किसके पास है? और राजा को बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी, अगर उसके नीचे वाले उसको नमस्कार न करें।

साधु को तब भी तकलीफ़ नहीं होगी, कोई आकर उसके मुँह पर थूक जाए। राजा उसके पाँव छू ले तो भी एक बात और कोई आकर उसके मुँह पर थूक जाए तो भी वही बात। ये हुई लग्ज़री कि नहीं? ये हुई जगत से आज़ादी कि नहीं? कि जगत हमें कितना भी सम्मान दे दे, स्तुति कर दे या निन्दा कर दे, अपमान कर दे, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ये होती है लग्ज़री।

और हम ऐसे हैं कि फ़ेसबुक पर सेल्फ़ी डाली थी। चौदह ही लाइक आये (श्रोतागण हँसते हैं)। साइकिएट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) को फ़ोन मिला रहे हैं, ’डिप्रेशन हो गया है, चौदह ही लाइक आये हैं आज कुल।’

रखे रहो तुम अपना नया वाला आइफ़ोन और उसमें देखते रहो कि चौदह ही लाइक आये हैं। लग्ज़ूरियस फ़ोन है न, तुम्हारे पास! रखो। देखो, उसमें कि कुल चौदह लाइक आये हैं और डिप्रेशन आ रहा है।

बेसिक की परिभाषा समझ गये हो? ज़िन्दगी में सही काम करने के लिए जितने संसाधन चाहिए, उतने ज़रूर जुटाओ और उससे ज़्यादा बिलकुल नहीं। एक सही और साफ़ और ऊँचा लक्ष्य बनाओ और उसको पाने के लिए रुपया–पैसा, रिसोर्सेस (स्रोत), जो भी चाहिए, उतने ज़रूर इकट्ठा करो। कमाओ।

लेकिन अपने भोगने के लिए कमाना, इसमें कोई मज़ा नहीं आने वाला। आप चाहो तो प्रयोग करके देख लो।

YouTube Link: https://youtu.be/dWLCq2XrgH0

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