इन्तज़ार के मायने || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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इन्तज़ार के मायने || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: सर, मेरा मानना यह है कि “इंतज़ार करने वालों को सिर्फ़ उतना ही मिलता है, जितना की कोशिश करने वाले छोड़ जातें हैं।” पर कभी यह बात दिमाग में आती है कि यह ख़याल किन पर निर्भर होता है? दोनों में अंतर क्या है?

वक्ता : क्या नाम है आपका?

श्रोता १ : अमन पाण्डेय।

वक्ता : अमन पाण्डेय। बेटा, अलग-अलग मन हैं, अलग-अलग व्यक्ति हैं, जिनके लिए यह बात कही गयी है। लेकिन कहने वालों ने यह नहीं जाना कि यह कोई सार्वभोम सत्य नहीं है। यह सिर्फ़ आंशिक बातें हैं, मन की विशेष परिस्थितियों की। पहली बात तुमने कही कि ‘इंतज़ार करने वालों को तो उतना ही मिलता है, जितना की कोशिश करने वाले छोड़ जाते हैं।’ तुम, इसके पीछे जो मान्यता छुपी हुई है, उसे ध्यान से देखो। यहाँ यह माना यह जा रहा है कि कई लोग हैं जो एक ही वस्तु के पीछे दौड़ रहे हैं। और जो वो वस्तु है, वो सीमित परिमाण में है। कुछ ऐसी सी छवि बनायी जा रही है कि कोई आठ-दस लोग हैं जो एक ही चीज़ के पीछे भाग रहे हैं। जो पहले पहुंचेगा, वो उस चीज़ का ज़्यादा बड़ा हिस्सा लेकर के चला जाएगा। उसके बाद जो पहुंचेगा, उसे कम मिलेगा। फिर जो बाद में पहुंचेगा, उसे और कम मिलेगा। और जो आखिर में पहुंचेगा, उसे जो बिल्कुल छूटा हुआ माल है, छुटवन, वो मिलेगी। कुछ ऐसा सा दृष्य बनाकर के हमारे सामने लाया जा रहा है।

लेकिन हममें यह जागरूकता नहीं हैं कि हम पूछ सकें, कि जीवन में ऐसा तो होता नहीं ना? कि एक ही चीज़ के पीछे पचास लोग दौड़ रहे हों। ऐसा उत्तरप्रदेश राज्य परिवहन की बसों में तो होता है। देखा है कि बस आ गई, तो उसे हाथ देकर के रुकवाया। उसमें सीट कितनी हैं? दो। और रुकवाया कितने लोगों ने है? पंद्रह। और बस उतनी आगे जाकर के रुकी है। अब यह पंद्रह जने क्या करते हैं? यह दौड़ लगाते हैं। ये दौड़ इसी कारण लगाते हैं, जो तुमने बताया है। क्या बताया है तुमने? कि “इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ जाते हैं।” अब इस स्थिती में तो यह कहावत लागू हो सकती है। पर जीवन तो ऐसा नहीं है। तुम सब अलग-अलग हो। तो तुम सब एक ही सीट पर बैठने को आतुर कैसे हो सकते हो?

तुम्हारा पड़ोसी पानी पीता है। क्या तुम उसकी देखा-देखी पानी पीना शुरू कर देते हो? तुम्हारी प्यास तो तुम्हारी अपनी निजी प्यास होती है ना? कि नहीं? अगर तुम एक असली आदमी हो; नकली आदमी हो, तो तुम कुछ भी कर सकते हो। नकली आदमी हो, तो तुम ऐसा भी कह सकते हो कि ‘पडोसी पानी नहीं पी रहा, ज़हर पी रहा है। तो मैं भी पी लूंगा।’ लोग ऐसे ही ज़हर भी पी जाते हैं।

तुम्हारा परिवार कैसा होगा? यह तुम यह सोच करके तो नहीं तय करते न कि पड़ोसी का परिवार कैसा है? या तुम यह कहते हो कि पड़ोसी के पांच बच्चे हैं। मैं पीछे छूट गया। मेरे तो दो ही हैं। वो आगे बढ़ गया। मुझे भी कुछ करना चाहिए। हम कमज़ोर हैं क्या? पर लोग ऐसे भी हैं, जो यह हरकत भी करते हैं। बेवकूफों की कमी तो नहीं दुनिया में। लोग ऐसे भी हैं जो जीते हैं इस तरीके से, कि कोई आगे ना निकल जाये। लोग जीवन के हर मामले में, गहरे से गहरे, निजी से निजी मामले में, प्रतिस्पर्धा करने को तैयार बैठे हैं। ऐसे मामलों में थोड़ी भी प्रतिस्पर्धा की नहीं जा सकती है।

शर्मा जी सुबह सोकर के उठे। वर्मा जी ने पूछा, “और साहब, कैसा रहा?”। शर्मा जी ने कहा “बड़ी अच्छी नींद थी। ग्यारह बजे सोये थे। छह बजे उठ गए”। वर्मा जी बोले कि “सिर्फ़ सात घंटे। अरे! हम साड़े-आठ घंटे सोये”। शर्मा जी को तनाव आ गया। दिल का दौरा पड़ जाएगा इनको। पूरे डेढ़-घंटा पीछे हो गए। अब ये जायेंगे, नींद की गोली खाकर के, सोने की कोशिश करेगे। डेढ़-घंटे पीछे रह गया वर्मा से। ऐसे-ऐसे मामलों में प्रतिस्पर्धा चल रही है, जहाँ प्रतिस्पर्धा का कोई सवाल ही नहीं उठता।

और ऐसा ही एक मामला यह भी है कि “मैं क्या पढूंगा और क्या काम करूंगा?” मोहल्ले में से तीन इंजीनियर निकल गए। अब टंडन जी को तनाव है। मेरे घर में एक भी इंजीनियर नहीं। अब अपनी लड़की को धक्का दे रहे हैं ‘तू इंजीनियर बन आकर दिखाएगी।’ और वो कह रही है कि ‘मुझे गणित समझ में नहीं आती। मुझे कुछ और पढ़ने दो। मुझे कुछ और पसंद है।’ वो मान ही नहीं रहे, क्योंकि मोहल्ले में तीन इंजीनियर निकल चुके हैं। और सबसे शर्म की बात यह है कि इसके बुआ की लड़की इंजीनियरिंग कर रही है। अब तो पीछे रहा ही नहीं जा सकता।

तो जो पहला वक्तव्य था कि “इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ जाते हैं।” यह कॉम्प्टेटिवनेस, प्रतिस्पर्धा का वक्तव्य है। और याद रखना, जीवन में सिर्फ़ मूर्ख ही प्रतिस्पर्धात्मक होतें हैं। जो जितना मूर्ख होगा, जिसकी हीनता जितनी गहरी होगी, उसके भीतर प्रतिस्पर्धा का भाव उतना ज़्यादा होगा। वो बात-बात में तुलना करेगा। वो बात-बात में देखेगा कि यह मुझसे आगे तो नहीं निकल रहा। कि दूसरे लोग ज़्यादा कोशिश तो नहीं कर रहे। मैं और कोशिश करके दिखाउंगा।

लोग उंचाइयां नापते हैं।

‘मेरे बंटू के जब स्कूल में प्राथर्ना के लिए कतार बनती है। उस कतार में बंटू सबसे आगे खड़ा होता है। कक्षा में सबसे छोटा है। अब तनाव हो गया इनको। वो बंटू को खींच रहे हैं। बंटू छोटा कैसे रह गया?’

‘शादी करके ले आये। अब नाप रहे हैं। पडोसी की बीवी से इनकी ऊँचाई। अब ऊँचाई आधा इंच कम है। तो उसको बोल रहे हैं कि इतना बड़ा जूड़ा बनाए।’

इन मामलों में भी कॉम्प्टेटीशन चल रहा है। हँसने की बात नहीं है, बेटा। हम ज़िंदगियाँ ऐसे ही जी रहे हैं। अभी चुटकुला दूसरों पर है, इसलिए मज़ाक जैसा लग रहा है। चुटकला दूसरों पर नहीं हैं। चुटकला हमारे ऊपर है, क्योंकि हम ऐसे ही जीते हैं।

तुम्हें इस बात का कम अफ़सोस होता है कि तुम्हारे कम नंबर आये? तुम्हे इसका ज़्यादा अफ़सोस होता है, कि हॉस्टल के बाकि जितने लोग हैं, उनके कितने आयें हैं। तुम्हारे कम हो, और तुम निकलो बाहर, और तुम्हें पता चले कि बाकी सबसे तुम्हारे ज़्यादा आये हैं। तुम्हारे पचपन नंबर ही आये, सौ में। लेकिन तुम्हें पता चले कि बाकी किसी के तो पचास भी नहीं आये हैं। तुम मिठाई बाँट दोगे। यह पागलपन है। यह तो हद दर्जे की मूर्खता है।

दूसरा, तुमने कहा कि ‘इंतज़ार का फल मीठा होता है’। बेटा, इंतज़ार का फल नहीं मीठा होता। या तो इंतज़ार अपने-आप में मीठा है, या उसका फल कड़वा होगा। या तो इंतज़ार खुद मीठा होगा। ‘फल मीठा है’ – इसका अर्थ है, देखो, फल अंत में आता है न? फल माने अंत।

फल माने अंत। पहले पेड़ होता है, फिर फल आता है। आख़िर में आता है फल। अगर अंत मीठा लग रहा है, तो इसका मतलब अभी जो है वो कैसा लग रहा है?

श्रोतागण : कड़वा।

वक्ता : कड़वा। ठीक वैसे, जैसे प्लेटफार्म पर ट्रेन की प्रतीक्षा करते हो, इंतज़ार करते हो, तो फल तो मीठा होता है। फल क्या होता है? ट्रेन आ गई। बैठ गए। पर जब चार घंटे इंतज़ार करते हो, तो कैसा लगता है?

श्रोतागण : कड़वा लगता है।

वक्ता : नाचते हो? कि इंतज़ार करने को मिल रहा है? जय हो, भारतीय रेल!

और वो उधर से अनाउस कर रही है, हाँ? तीन घंटे और विलम्ब से आयेगी। और तुम कह रहे हो कि आनंद आ गया। तो इंतज़ार का फल जब भी मीठा होगा तो इंतज़ार कैसा होगा?

श्रोतागण : कड़वा।

वक्ता : तो इसीलिए कह रहा हूँ, यह इंतज़ार किसी काम का नहीं है। क्योंकि यह इंतज़ार तो तुम्हे सिर्फ़ उबायेगा, और मार देगा। असली बात तब है जब इंतज़ार खुद मीठा हो जाये। अब वो इंतज़ार, इंतज़ार रहा नहीं। अब उसमें किसी तरह का तनाव या बोझ रहा नहीं। क्योंकि अब तुम वास्तव में इंतज़ार कर ही नहीं रहे हो। अब तो तुम जो कर रहे हो, उसी में खुश हो।

ऐसे समझो – कोई पढ़ता है इसलिए क्योंकि उसको सेम्सेस्टर के अंत के रिज़ल्ट का इंतज़ार है। कोई सिर्फ़ इसीलिए पढ़ रहा है कि सेमेम्स्टर के अंत में क्या होगा। इसका मुझे इंतज़ार है। उसके लिए सेमेस्टर कैसा रहेगा? बेकार। जो *बी टेक* में इसीलिए आया है कि चौथे-साल के अंत में नौकरी करेंगे। उस नौकरी का मुझे इंतज़ार है। उसके लिए चार साल कैसे रहेंगे?

श्रोतागण : कड़वे।

वक्ता : क्योंकि उसे तो इंतज़ार है सिर्फ़ उसका जो चौथे साल के अंत में होना है। यह चार साल तो उसको सिर्फ़ ऊब देंगे। बोरडम । बात समझ रहे हो?

एक दूसरा व्यक्ति भी हो सकता है, जो कहता है कि “मैं नौकरी के लिए नहीं आया हूँ। मैं *बी टेक* के लिए आया हूँ। पढ़ने आया हूँ।” अब उसका इंतज़ार मीठा है, क्योंकि वो वास्तव में इंतज़ार कर ही नहीं रहा।

जहाँ कहीं भी भविष्य का इंतज़ार होगा, वर्त्तमान कड़वा हो जाएगा।

भूलना नहीं, इस बात को।

जो भी कोई भविष्य के इंतज़ार में जी रहा है, वो अपने वर्त्तमान को कड़वा बना के रहेगा। और जो कोई वर्त्तमान में ही जी रहा है, उसके लिए वर्त्तमान ही मीठा है। उसे भविष्य चाहिए नहीं। उसके वर्त्तमान और भविष्य, दोनों मीठे हो जायेंगे।

आ गयी बात समझ में?

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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