इंसान तो इंसान है - उसमें कुछ दोष होंगे ही || आचार्य प्रशांत, स्वामी विवेकानंद पर (2021)

Acharya Prashant

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इंसान तो इंसान है - उसमें कुछ दोष होंगे ही || आचार्य प्रशांत, स्वामी विवेकानंद पर (2021)

आचार्य प्रशांत: सुपर-फ़ास्ट वर्ल्ड न्यूज़ पूछ रहे हैं कि स्वामी विवेकानंद जी मीट (माँस) क्यों खाते थे।

क्योंकि कोई भी व्यक्ति पूर्ण, माने परफ़ेक्ट नहीं होता। तुम उनसे या तो वह सीख लो जो चीज़ें सीखने लायक है या उन बातों पर ध्यान दें लो जिन पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए, जिनकी उपेक्षा कर दी जानी चाहिए।

यहाँ आदर्शो के लिए कोई जगह नहीं है। तुम अतियों में जीते हो। एक अति यह होती है जिसको तुम अपने लिए माननीय या पूज्य बना लेते हो, उसमें कोई भी दोष देखना तुम बर्दाश्त ही नहीं करते। तुम्हें लगता है उसमें तो कोई खोट हो ही नहीं सकती। क्यों नहीं हो सकती?

यही वजह है कि जब मैंने देखा की कुछ लोग मुझे मानने लगे हैं मुझे सम्मान देने लगे हैं, आज से कुछ साल पहले, तो मैंने ज़ोर दे करके, ज़बरदस्ती करके, यह बार-बार कहा कि मुझमें सौ तरह की कमियाँ हैं; कि मुझे किसी भी तरह से ऐनलाइटेंड (प्रबुद्ध) वगैरह मत मान लेना। और वास्तव में जिस इंसान को लोग सम्मान का दर्ज़ा देने लगे है, मैं समझता हूँ उसके ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह अपने दोष निकाल-निकाल करके सार्वजनिक करे, सबको बताये। अन्यथा दुनिया के सामने आपकी बस एक मैनीक्योर्ड (साफ़-सुथरी) इमेज (छवि) आती है, एक बड़ी निर्दोष छवि, जिसमें आपकी कमियों के लिए, कमज़ोरियों के लिए कोई जगह ही नहीं होती। लोगों को लगता है, यह देखो, ये बिलकुल आसमान से उतरे हैं, दूध के धुले हैं। कोई नहीं दूध का धुला होता है, कोई नहीं दूध का धुला होता है, एकदम नहीं।

कहते है न कि हर संत का एक अतीत होता है, हर अपराधी का, हर पापी का एक भविष्य होता है। हर संत का एक अतीत होता है और इसमें कोई बुरा मानने वाली बात नहीं है, इसमें कोई अफ़सोस करने वाली बात या चौंकने वाली बात भी नहीं है। पैदा तो एक ही जैसे होते हैं न सब? फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं, चीज़ों को समझते हैं, उनकी चेतना आगे बढ़ती है।

संतों का काम है साफ़-साफ़ बताना कि हम देखो कि कितने दोष में हैं, कितने दोष में जीते हैं। और कई बार तो आपके दोष आपको पता भी नहीं होते है। रामकृष्ण अगर आज होते और कोई उन्हें जाकर बताता कि ये जो तुम मछली खा रहे हो, इससे तो पर्यावरण की बहुत हानि हो रही है, तो रामकृष्ण में इतनी महानता निश्चित रूप से थी कि वे एकदम मान जाते की हाँ मछली खाना ठीक नहीं है, वे छोड़ देते।

पर लोग यही बात पकड़ कर बैठ जाते है कि रामकृष्ण भी तो मछली खाते थे। अरे तो बहुत और चीज़ें भी थी जो रामकृष्ण में परिपूर्ण नहीं थी, तो? उनको गिनना है? दस तरीके हैं जिनमें उनकी महानता परिलक्षित होती है। उनकी महानता को नहीं देखना चाहते। जहाँ तुम्हें दोष दिख गया, वही पकड़ लेते हो।

तो तुमने पूछा कि स्वामी विवेकानंद जी मीट क्यों खाते थे। इसलिए खाते थे क्योंकि इंसान थे। और हर इंसान में कमियाँ हो सकती हैं। इतना हक़ ऊँचे-से-ऊँचे आदमी को दिया करो कि उसमें कुछ कमियाँ हो सकती है, कुछ कमज़ोरियाँ हो सकती है। लेकिन वह कमी और कमज़ोरियाँ सीखने की चीज़ नही है। इस बात को स्वीकार करो, एक्नॉलेज करो कि हाँ उसमें ये दोष है और फिर कहो, “लेकिन यह चीज़ नहीं सीखनी है मुझे उनसे। उनसे मुझे क्या सीखना है? जो सीखने लायक है।“

ऋषियों ने जिस मुँह से ब्रह्म उच्चारा था न, उस मुँह में भी बैक्टीरिया (जीवाणु) लगे थे कुछ। किसी डेंटिस्ट के पास जाओ, वह बताएगा कितना भी साफ़ कर लो मुँह को, कुछ-न-कुछ तो गंदगी बच ही जाती है, कुछ-न-कुछ तो बैक्टीरिया रह ही जाते हैं। अब ऊँचे-से-ऊँचे दर्जे का श्लोक उसी मुँह से निकल रहा है। तुम्हें उस श्लोक पर ध्यान देना है या मुँह में जो बैक्टीरिया बैठा है उस पर ध्यान देना है?

हम बैक्टीरिया पर ध्यान देते हैं। हम कहते हैं, “देखो जिस मुँह से श्लोक निकला उसी मुँह में बैक्टीरिया था न? इसका मतलब बैक्टीरिया बहुत सही चीज़ है।“

अरे! छोड़ दो बैक्टीरिया को। श्लोक पर ध्यान दो।

देवेश जी है। पूछ रहें है कि हमने देखा कि इतनी बीमारी के बावजूद भी आप अपना काम इतने ज़बरदस्त तरीके से कर पाये। ये अजूबा कैसे करके दिखाया आपने?

कोई अजूबा नहीं है और न ही मैं बहुत ज़बरदस्त तरीके से काम कर पाया, देवेश जी। क्या आप कोई चमत्कार वगैरह की उम्मीद कर रहे थे? मैं आपकी भावना का सम्मान करता हूँ लेकिन फिर भी बताता हूँ — जितना काम मैं आमतौर पर करता था, वह आधा हो गया, आधे से भी कम हो गया होगा।

मैं क्या करता? दवाइयाँ, इतनी सारी दवाइयाँ खाता जा रहा था, खाता जा रहा था, वो सुलाती बहुत थी और थकान बहुत ज़्यादा। तो मैं अगर दावा करूँ कि आमतौर पर जितना काम करता था उतना ही उन दिनों किया, तो झूठ बोल रहा हूँ। उतना काम तो मैं अभी भी नहीं शुरू कर पाया हूँ। तो कोई चमत्कार नहीं होता है। थोड़ी और बीमारी अगर बढ़ जाती है तो काम शून्य हो जाता। तो कोई अजूबा नहीं होता। आपने अजूबा शब्द का इस्तेमाल करा है, कोई अजूबा नहीं होता।

शरीर तो देखिए प्रकृति के तंत्र के वशीभूत है, कोई अजूबा नहीं होने वाला। लेकिन हमारे मन में यह सब बातें आ गई हैं न, हमारा जो, हमारा अध्यात्म भी ऐसा ही रहा है। हमें लगता है कि जो ऊँची चेतना के लोग होते हैं, तो उनको शारीरिक कुछ बल या सिद्धियाँ आ जाती हैं। हम कहते हैं न? हम कहते हैं — वह फ़लाना तपस्वी था, वह जंगल में था। तो उसको ऐसी सिद्धि आ गई कि उसकी चार हाथ हो गए। या वह फ़लाना था, वह फ़लाना उड़ना शुरू कर देता है। तो वैसा ही अजूबा कुछ आप मुझ से अपेक्षा रख रहे होंगे। नहीं होता बाबा, नहीं होता।

चेतना कितनी भी ऊँची हो जाये, उसका कोई आपको शारीरिक लाभ नहीं मिलने वाला है। छोड़िए वह बच्चों वाली कहानियाँ कि फ़लाना आदमी था, उसने अपनी प्रज्ञा, अपना बोध इतना जागृत किया कि वह पानी पर चलने लग गया; कोई आग से गुज़र गया; कोई आँख बंद करता था तो उसको बहुत दूर का दिखाई दे जाता था; कोई ज़रा सा ऐसे करके अंतर्धान हो जाता था; कहीं और पहुँच जाता था।

हम इतने ज़्यादा शरीर केंद्रित लोग हैं न कि हम अध्यात्म में भी शरीर को घुसेड़ देते हैं। हम चाहते हैं कि हम आध्यात्मिक तल पर भी जो करें, उससे हमें कुछ शारीरिक विशेषताएँ मिल जाये; कुछ खास हो जाये।

कहे, “फ़लाने गुरुजी थे, मरने के बाद भी सेशन (सत्र) लेते थे यूट्यूब पर। अरे मैं नहीं लूँगा बाबा, मर गया तो। कभी कोई लेने लग जाये मेरे मरने के बाद, तो जान लेना चैनल हैक हो गया है। उसमें मेरी कोई विशेष दिव्य शक्ति नहीं होगी। वह हैकर (कंप्यूटर घुसपैठीया) की खासियत है कि वह घुस गया। मेरी कोई सिद्धि नही उसमें। क्यों अजूबों की इतनी तलाश में रहते हो?

देवेश जी, मैं आपको आहत करने के लिए नहीं बोल रहा हूँ। आपने सवाल पूछा है, आपने बहुत सद्भावना से, बड़े प्रेम से पूछा है। लेकिन देखिए, मेरा कर्तव्य है कि मैं आपको सच बोलूँ, यही न? झूठ बोलने वाले दुनिया में बहुत हैं। आपके पास भी बहुत होंगे इर्द-गिर्द। थोड़ा मुझे सच बोल लेने दीजिए। आपको या किसी को भी, कभी भी आहत करने के लिए नहीं बोलता। इसलिए बोलता हूँ क्योंकि कुछ चीजें जो बोली जानी ज़रूरी है।

तो बचिए इस तरह की बातों से जहाँ अध्यात्म को और शरीर को, एक में गूँथ दिया जाता है — कि साहब मैं तो फ़लानी तपस्या करे बैठा हूँ या मैं तो कुछ भी, कहीं से भी, कि मैं तो फ़लानी परम्परा से आ रहा हूँ। मेरे गुरु ने मुझे फ़लाना मंत्र दिया था, तो मुझे इतना ज़्यादा दिखाई देता है या मुझे कुछ ऐसी बातें सुनाई देती हैं जो किसी और को सुनाई नहीं देती। ऐसा कुछ नहीं होता बाबा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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