इंसान खिलौना नहीं, रिश्तों से ऐसे नहीं खेलते! || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

Acharya Prashant

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इंसान खिलौना नहीं, रिश्तों से ऐसे नहीं खेलते! || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। घरों में और समाज में डराया जाता है कि अगर आप अभी नहीं करोगे, अभी आपको लग रहा है कि क्योंकि जवानी में तो हर कोई आक्रोश दिखाता है, मना ही करता है। मगर ये बोलकर डराया जाता है कि अभी नहीं कर रहे हो, बाद में पछताओगे। बाद में मिलेगी नहीं, ढूँढोगे, पागलपन करोगे।

आचार्य प्रशांत: आप तो हो सकता है पछताओ, हो सकता है न पछताओ। और जो नहीं करते वो पछताते हैं, इसके प्रमाण बहुत कम हैं क्योंकि जिन्होंने नहीं करी, वैसे लोग ही बहुत कम हैं। वो तो आपको भविष्य के बारे में एक सम्भावना बताते हैं कि भाई, तुमने विवाह नहीं करा तो तुम पछताओगे। वो एक सम्भावना है जो हो भी सकती है सच और न भी हो लेकिन जिन्होंने करा है, उनसे पूछो कि तुम्हारी क्या हालत है, तुम कितना पछता रहे हो, अपनी तो बताओ। मेरी बात तो अभी सम्भावित है, प्रॉबेबलिस्टिक है, हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है लेकिन तुम बताओ न और तुम्हारे ही जैसे सब हैं, जो सब करके बैठे हैं। तुम अपने पछतावे की बात नहीं बताओगे क्या? तुम अपने पछतावे की बात नहीं बताओगे?

प्र२: इसमें आचार्य जी, अगर एक आम भारतीय की ज़िन्दगी देखी जाए तो उसमें कोई बहुत ज़्यादा रीडिंग या फिर स्पोर्ट्स या म्यूज़िक या जितनी भी और दूसरे अन्य सोर्स (स्रोत) होते हैं एक तरीक़े से प्लेज़र (आनन्द) के या हैप्पीनेस (खुशी) के, वो कहीं-न-कहीं मिसिंग (अनुपस्थित) रहते हैं। जिसकी वजह से आपके साथ जो भी; पहली बात तो आप एक व्यक्ति को तलाशते हो उस चीज़ की पूर्ति करने के लिए और अगर आपको कोई मिल भी जाता है, तो आप उसके ऊपर वो सारा बोझ डाल देते हो आपको वो चीज़ प्रोवाइड (पूर्ति) करने के लिए। तो मैं ये जानना चाहती हूँ कि भारतीय, हम लोग इतने इनवेस्टेड (निवेशित) क्यों हैं रिलेशनशिप्स (सम्बन्धों) में?

आचार्य: वही बात है देखो, जीवन में सबको दुख से मुक्ति चाहिए। चेतना की प्रकृति होती है दुख और चेतना का स्वभाव और नियति होती है आनन्द। ठीक है? बच्चा पैदा होते ही रोता है। छोटे बच्चों को देखो, वो ज़्यादातर रोते ही रहते हैं। किसी घर में कोई छोटा बच्चा हो, इसकी पहचान इस बात से आ जाएगी कि वहाँ से रोने की बहुत आवाज़ें आएँगी, तो चेतना की प्रकृति दुख है। चेतना दुख लेकर पैदा होती है लेकिन उसको चाहिए होती है दुख से मुक्ति।

अब दुख से मुक्ति के दो तरीक़े होते हैं, जो असली तरीक़ा होता है वो महँगा होता है। जो नक़ली तरीक़ा होता है, वो सस्ता होता है। असली तरीक़ा वही है जिसकी आपने बात करी कि पढ़ो, आगे बढ़ो, चुनौतियाँ स्वीकार करो। अपने भीतर जो भी डर और भ्रम है, उनको तोड़ो और तोड़ने में जो कष्ट होता है उससे गुज़रो। ये दुख से मुक्ति का असली तरीक़ा है। लेकिन ये महँगा तरीक़ा है, तो हम ये महँगा तरीक़ा स्वीकार नहीं करते।

हम कहते हैं, ‘दुख से मुक्ति का सस्ता सौदा कर लेंगे।’ सस्ता सौदा क्या होता है कि जीवन में एक लड़की ले आओ या एक लड़का ले आओ और उससे चिपक जाओ। कम-से-कम कुछ वर्षों तक उससे देह सुख मिलता रहेगा, हर क्षण नहीं मिलता पर बीच-बीच में मिलता रहता है। तो उससे एक तरह की सान्त्वना बनी रहती है और फिर बच्चे वगैरह आ जाएँगे और उनकी ज़िम्मेदारियाँ हो जाएँगी।

भई, पैदा किया तो उसको पालो-पोसो, बड़ा करो तो अपने दुख में बहुत उतरने का, अपने दुख का बहुत सामना करने का फिर समय ही नहीं मिलेगा न। सौ तरह की ज़िम्मेदारियों में बँध जाओगे, तो ये सब जीवन की रिक्तता को भरने के नक़ली तरीक़े होते हैं कि पच्चीस-अट्ठाईस के हो गयें, जीवन में कोई सार्थक उद्देश्य तो है नहीं, तो क्या किया? जाकर ब्याह किया क्योंकि जीवन में कुछ ऊँचा अच्छा, सुन्दर, चुनौतीपूर्ण था ही नहीं।

और वो अपनेआप नहीं आ जाता उसको तलाशना पड़ता है। ठीक है न? जीवन को सौन्दर्य देना पड़ता है। एक पत्थर की तरह होते हैं हम, उस पर शिल्पकार की तरह छेनी-हथौड़ी चलानी पड़ती है। तो मेहनत भी करनी पड़ती है और दर्द भी झेलना पड़ता है और अनिश्चितता से गुज़रना पड़ता है, तब जाकर के जो अपनी आकृति होती है, अपनी प्रतिमा होती है वो उभर कर सामने आती है, सुन्दर। अब वो सब कौन करे?

पच्चीस-अट्ठाईस के हो गये हो, कुछ करने को नहीं है। नौकरी-वौकरी किसी तरह से लग गयी है कुछ और अकेलापन बहुत सताता है। काम वासना उठती है और समाज में जिधर देखते हो उधर दिखाई देता है कि सबका ब्याह हो गया। जिन लड़कों के साथ इधर-उधर घूमकर लफंगई करते थे वो सब बाप बनने लग गये, तो तुम कहते हो कि चलो, अब हम भी ब्याह करे लेते हैं, तो ऐसे होते हैं अधिकांश लोगों के ब्याह।

अब जब ब्याह इस हिसाब से होते हैं, तो भारत दुनिया के देशों में क्यों न सबसे दुखी देशों में गिना जाए। उस दुख के और भी कारण होंगे उदाहरण के लिए ग़रीबी, अशिक्षा, लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि ये जिस सर्वे, जिस रिपोर्ट की बात कर रही है, उसमें भारत से कहीं ज़्यादा ग़रीब और कहीं ज़्यादा अशिक्षित लोग भी भारतीयों से ज़्यादा सुखी पाये गये हैं।

भारतीयों जैसे दुखी लोग दुनिया में बहुत कम है। उस दुख के बहुत कारण है लेकिन जो भारतीय परिवार व्यवस्था है और जो भारतीय विवाह व्यवस्था है, वो उस दुख के प्रमुख कारणों में से है।

प्र१: आचार्य जी, आपकी बात बहुत कचोट भी रही है, दर्शकों को भी कचोट रही होगी मगर फिर भी मैं ये जो घरों में तर्क सुनता आ रहा हूँ, वो आपसे बात करना है। आपने कहा कि ज़िम्मेदारियाँ; आमतौर पर तो शादी का जो प्रमुख तर्क होता है, वो यही होता है कि लड़का शादी करेगा तो ही ज़िम्मेदार बनेगा, वरना तो वो ग़ैर ज़िम्मेदार बना रहेगा और लफंगई करता रहेगा, तो ये तो?

आचार्य: नहीं तो वो शादी करके ज़िम्मेदार बने इसके लिए एक लड़की की बलि दी जाएगी? माने आप एक ग़ैर ज़िम्मेदार आदमी के साथ एक लड़की को बाँध दोगे ताकि वो आदमी ज़िम्मेदार बन सके। ये तो उसको ज़िम्मेदार बनाने की बड़ी भारी क़ीमत चुकायी जा रही है और कोई भरोसा है कि इससे उसमें ज़िम्मेदारी आ जाएगी?

प्र२: सामाजिक परिभाषा के हिसाब से एक स्त्री जो है वो पूर्ण तभी कहलाती है जब वो माँ बन जाती है और इसके लिए शादी होना ज़रूरी है।

आचार्य: इसके लिए आपको पता होना चाहिए न कि आप स्त्री से पहले एक मनुष्य हो। आप स्त्री से पहले एक मनुष्य हो, स्त्री होना तो बहुत छोटी बात है, बहुत बाद की बात है। ज्ञानियों ने, संतों ने, इतना समझाया है न कि देह तो आपका एक पिंजड़ा भर है। आप उस पिंजड़े के भीतर जो मैना बोल रही है, जो पक्षी बोल रहा है, आप वो हो। तो वो जो पक्षी है, उस पिंजड़े में क़ैद है। पिंजड़े का कितना महत्व है? पिंजड़े का इतना ही महत्व है कि पिंजड़े को पिंजड़ा जाना जाए। “पाथर चुन-चुन महल बनाया, लोग कहे घर मेरा, हंसा ये पिंजड़ा नहीं तेरा।”

“काँकड़ चुन चुन महल बनाया, लोग कहे घर मेरा, हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।”

जब ये पिंजरा नहीं है तुम्हारा, तो तुम पर ये दायित्व कहाँ से आ गया कि इस पिंजरे से तुम एक और पिंजरा पैदा करो? कि ख़ुद तो देही बनकर पैदा हुई ही हो आप और बिना ये जाने कि देह कौन है, हम कौन हैं, ये दुनिया क्या चीज़ है, हमारे इस दुनिया में होने का अर्थ क्या है, ये सबकुछ पता नहीं है और प्रजनन में लग गये।

भारत में अभी भी लड़कियाँ सोलह-अठारह, बीस की होती हैं और उनके बच्चे हो जाते हैं। और ये बात कितनी चौंकाने वाली है, कितनी ख़तरनाक है! वो अठारह-बीस साल की लड़की, बच्ची ही तो है वो बारहवीं पास या जानें अभी दसवीं पास। क्या है वो कॉलेज में पहले-दूसरे साल में है, अठारह-बीस-बाईस साल की है, वो माँ बन रही है। उसे क्या पता है दुनिया का, ज़िन्दगी का? और आप कह रहे हो कि बच्चा पैदा कर दिया तो वो पूर्ण हो जाएगी, वाह!

उसने अभी शिक्षा अपनी पूरी करी नहीं और न आप ये बोलते हो कि शिक्षा पूरी करने से लड़की पूर्ण हो जाती है, पर आप बोल रहे हो कि कोई व्यक्ति, कोई मनुष्य आकर उससे सम्भोग करेगा, उसे गर्भ हो जाएगा फिर वो जन्म दे देगी, तो वो पूर्ण हो जाएगी। ये क्या जानवरों वाली बातें हैं?

ये काम तो कोई भी जानवर कर सकता है न? किसी भी मादा के साथ ये हो जाता है कि कोई नर आता है और नर उसकी देह के साथ रहता है तो वो माँ बन जाती है। तो इससे वो पूर्ण हो जाती है क्या? तो ये बहुत मूर्खता का तर्क है और कृपया इस तर्क को स्वीकार न करें।

प्र२: बल्कि ये कहा जाता है कि जो शादी है, वो प्रोडक्ट (उपज) है एक सिविलाइज़्ड सोसायटी (सभ्य समाज) का, तो अगर स्त्री या पुरुष शादी नहीं करेंगे, मान लीजिए लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं, तो वो जानवरों जैसा है।

आचार्य: नहीं। देखो, पहली बात तो ये कि आप अगर सचेत नहीं हो, आपको अगर सेल्फ़ नॉलेज (आत्मज्ञान) नहीं है, आप अगर ख़ुद को नहीं जानते, आत्मज्ञान बहुत आपका कम है तो लिव इन भी कोई शादी से बहुत बेहतर चीज़ नहीं होती है। ये लिव इन वाले भी एक-दूसरे की ज़िन्दगी बर्बाद करते देखे गये हैं। लड़ते हैं, झगड़ते हैं। भई, दो मूर्ख हैं, वो किसी भी स्थिति में रहें, मूर्ख ही रहेंगे। उनकी मूर्खता थोड़े ही बदल जाएगी? वो शादी करें तो भी मूर्ख हैं और लिव इन कर रहे हैं तो भी मूर्ख हैं, तो लिव इन ऐसा नहीं है कि वो शादी से निश्चित रूप से कोई बेहतर व्यवस्था है। लेकिन ये जो बात है कि बिना विवाह के तो जानवर साथ में रहते हैं, तो एक बात अच्छे से समझनी पड़ेगी कि आप जो सामाजिक व्यवस्था बनाते हो न, वो आपके भीतर के जानवर को ख़त्म नहीं करती है, बस जानवर के ऊपर मनुष्य होने का मुखौटा लगा देती है।

हो तो आप अभी भी जानवर। हो तो आप अभी भी जानवर! जानवरों के साथ तो फिर भी एक आपको सहूलियत है कि वे झूठ नहीं बोलते, पाखंड नहीं करते। और मनुष्यों के साथ समस्या ये है कि वो सारे काम जानवरों जैसे कर रहे हैं, पर प्रदर्शित ऐसे कर रहे हैं जैसे कितने सभ्य और सुसंस्कृत हों और अपनी पशुता से उठकर दैवीयता पर आ गये हों! तो आप इंसान बनकर भालू, बंदर, कुत्ते, बिल्ली वाली हरक़त करो। इससे अच्छा है कि आप अपनी पशुता को प्रकट ही हो जाने दो। वो प्रकट हो जाएगी तो उसके मिटने की कुछ सम्भावना बनेगी न?

देखिए, नैतिकता पशुता को समाप्त नहीं कर देती सिर्फ़ उसका दमन करती है, उसको सप्रेस कर देती है और जिस चीज़ को आपने सप्रेस कर दिया, उसको आपने एक भीतरी तहखाने में कहीं छुपा दिया। छुपा दिया माने सुरक्षित कर दिया। जो चीज़ तहखानों में होती है वो कभी खोती नहीं, वो कभी नष्ट नहीं होती।

तो जो मनुष्य की पशुता है उसको बचाने का, उसको सुरक्षित रखने का ये एक बड़ा कारगर तरीक़ा रहता है कि उसके ऊपर सामाजिक नैतिकता थोप दी जाए कि काम तो तुम जानवर वाले ही करो, पर इस तरीक़े से करो कि लगे कि इंसान हो तुम। लगे कि इंसान हो तुम। इंसान में और पशु में अन्तर क्या होता है, वो मैं आपको बता देता हूँ। पशु प्रकृति पर चलता है, इंसान प्रेम पर चलता है।

पशु प्रकृति पर चलता है और इंसान प्रेम पर चलता है। जो प्रेम पर न चल पाये, वो पशु है। तो एक नर पशु, एक मादा पशु की ओर आकर्षित होता है, ये प्रकृति की बात है। इसमें उसका कहीं कोई विचार नहीं शामिल है, कोई विवेक नहीं शामिल है। नर बंदर, मादा बंदर की ओर जाएगा, नर कुत्ता-मादा कुत्ता ये दोनों एक-दूसरे की ओर आएँगे। इंसान वो है जो प्राकृतिक आकर्षणों पर नहीं, प्रेम पर चले और प्रेम की क्या परिभाषा होती है?

“जा मारग साहब मिले प्रेम कहावे सोए।”

ठीक? प्रेम का मतलब होता है — ‘मैं उधर को नहीं जा रहा जिधर को मेरी प्राकृतिक वृत्तियाँ मुझे खींच रही हैं, मैं उधर को जा रहा हूँ जिधर मुक्ति है। मैं उधर को नहीं जा रहा जिधर वृत्ति है, मैं उधर को जा रहा हूँ जिधर मुक्ति है, ठीक है? समझ में आयी बात?

तो इंसान आप सिर्फ़ तभी हो जब आप प्रेम पर चलो। जो प्रेम की जगह किसी भी और चीज़ पर चल रहा है वो जानवर ही तो है। फिर चाहे वो कोई जंगल का बिलकुल जंगली या सभ्य आदमी हो, जो जानवरों जैसा ही बर्ताव करता हो, तो वो तो है जानवर। जानवरों जैसा बर्ताव कर रहा है लेकिन वो कम-से-कम ईमानदार जानवर है या वो कोई शहरी सभ्य जानवर भी हो सकता है, जिसके पास प्रेम नहीं है तो वो नैतिकता पर चलता है।

प्रेम है नहीं उसके पास तो वो सामाजिक नैतिकता और परम्परा वगैरह पर चलता है। और सामाजिक परम्परा, नैतिकता पर चलकर वो अपनेआप को सभ्य बोल देता है। वो बोलता है, ‘मैं जंगल के जानवरों से बेहतर हूँ।’ अरे, तुम कैसे उनसे बेहतर हो? प्रेम न जंगल के जानवर के पास है, न शहर के इंसान के पास है, तो शहर का इंसान जंगल के जानवर से बेहतर कैसे हो गया? ये दोनों तो एक ही श्रेणी के हैं न?

शहर का इंसान, जंगल का जानवर दोनों ही अपनी प्राकृतिक वृत्तियों पर चल रहे हैं। जंगल का जानवर भी हिंसक है, शहर का इंसान भी हिंसक है, बस शहर का इंसान व्यवहार प्रदर्शन ऐसे करता है जैसे वो जानवर से थोड़ा बेहतर हो गया हो। ठीक है? तो जो प्रेम पर चल सके, इंसान कहलाने का अधिकार बस उसको है।

प्र२: इसमें आचार्य जी, जैसे जो जानवर है, आपने कहा कि वो प्रकृति पर चलते हैं। तो उसमें ये कहा जाता है कि जानवर है, नहीं कुछ बात बनी, नहीं आपस में सम्बन्ध बन पाया तो अलग-अलग हो गये, अपनी-अपनी दिशा मुड़ गये। पर इंसान जो है शादी के बन्धन में बँधने के बाद वो बन्धन उसको मदद करता है कि आप जो हैं उस तरीक़े से छिटक न जाओ, जानवरों जैसा व्यवहार न करो और साथ में बँधे रहो एक रिश्ते के अन्दर। और बात अगर नहीं भी बन रही है, तो भी उसे सम्भालकर के रखो।

आचार्य: क्या बोला है अभी, बँधे रहो एक रिश्ते में?

प्र२: जी।

आचार्य: बँधे रहो एक रिश्ते में, बँधे हो एक रिश्ते में। पशु की परिभाषा ही यही है — जो बँधा हुआ है, जो पाश में है उसको पशु बोलते हैं। पाश माने, बन्धन। तो अगर आप विवाह में बँधे हुए हैं, तो आप जानवर ही तो हैं। जो बँधा हुआ है उसे ही तो जानवर बोलते हैं। जो बँध गया है, जो किसी भी ऐसी चीज़ में है, जिससे वो मुक्त नहीं हो सकता उसको जानवर बोलते हैं।

आप किसी भी ऐसी चीज़ में हो जिससे अब आप मुक्त हो नहीं सकते, तो आप जानवर हो और क्या हो आप? आप घर में जानवर रखते हो, आप उसको बाँध देते हो, बेचारा मुक्त तो हो नहीं सकता और आप घर में रहते हो, आप स्वयं भी मुक्त नहीं हो सकते। तो आपमें और घर में जो जानवर बँधा हुआ है, दोनों में अन्तर क्या है? मुक्त तो दोनों ही नहीं हो सकते, दोनों ही फँसे हुए हो।

मुझे मालूम है, जैसा उन्होंने कहा, बहुत लोगों को ये बातें बहुत कड़वी लग रही होंगी। पर बात मीठे और कड़वे की तो नहीं है न भाई! बात तो सच और झूठ की है। जो बातें हम यहाँ कर रहे हैं, उनमें कोई बात तथ्य से हटकर हो तो कहिए। और हमारा काम ये तो नहीं है कि जो मान्यताएँ चली आ रही है और जिन बातों को आप मानते हो, जिन बातों को आपकी कल्पना ने श्रेष्ठ मान रखा है, हम उन्हीं बातों का समर्थन करते रहें।

सच बोलना तो अच्छी बात होती है न? बचपन से ही कम-से-कम आपने ऊपरी तौर पर तो बच्चों को यही बोला है कि सदा सच बोलना। अब अगर मैं सच बोल रहा हूँ, तो क्यों आपको इतना बुरा लग रहा है? क्यों आप मुझे गाली देते हो? आप ही ने मुझे सिखाया था सदा सच बोलना, तो बोल रहा हूँ।

प्र१: सर जी, ऐसे ही इन्हीं मुद्दों पर जब वीडियो आता है, तो एक तर्क ये भी आता है कमेंट्स में कि अगर शादी की व्यवस्था हटायी जाए तो अराजकता फैल जाएगी और शायद जैसे माँ-बाप हैं, उनको तो हमारी संस्कृति में भगवान का दर्जा दिया जाता है और वो जो संस्कृति दी गयी है वो अगर नहीं रही तो हम कैसे बिना सुसंस्कृत हुए जियेंगे?

आचार्य: देखो, आप जैसे हो और जैसे आपके विवाह हैं, ये दोनों बिलकुल साथ-साथ चलती हैं चीज़ें। जैसे आपकी दुकान है, जैसे आपके दफ़्तर हैं, जैसा आपका समाज है, जैसे आपकी सरकार है, ठीक वैसा ही तो आपके घर का कारोबार भी होगा न? हम जैसे हैं, उससे हमारे विवाह बहुत अलग नहीं हो सकते।

जैसा हमारा संसार है, हमारा परिवार उससे बहुत अलग नहीं हो सकता, तो ये नहीं हो पाएगा कि आप बाक़ी सबकुछ यथावत रखते हुए बस विवाह रोक दो, नहीं हो पाएगा। विवाह तो चलेगा क्योंकि जैसी ये दुनिया आपने बनायी है, जिस दुनिया के निर्माता आप हो, जिस दुनिया के केन्द्र में आप हो उस दुनिया में विवाह तो एक अनिवार्यता है।

ये आपने एक प्रेमहीन दुनिया बनायी है, ये आपने एक हिंसक दुनिया बनायी है। ये आपने एक अन्धी, अज्ञानी दुनिया बनायी है, जब आपकी दुनिया में सबकुछ अप्रेम से और अज्ञान से है तो फिर उसमें पुरुष और स्त्री का सम्बन्ध भी तो अप्रेम और अज्ञान में होगा न, तो विवाह चलेगा। तो इस तरह का काल्पनिक प्रश्न करना कि अगर विवाह हटा दिया तो? विवाह हट ही नहीं सकता।

आप जैसे हो, आप पच्चीस-अट्ठाईस के होते-होते शादी के लिए न कुलबुलाने लग जाओ, ऐसा हो ही नहीं सकता। आप न भी कुलबुलाओ तो ये हो ही नहीं सकता कि जैसी आपने संगत करी है, जैसे आपके रिश्तेदार और दोस्त-यार हैं, वो आपके ऊपर चढ़ न बैठे कि तू अट्ठाईस-तीस का हो रहा है, अभी तक तेरी शादी नहीं हुई। वो चढ़ बिलकुल बैठेंगे।

तो आप सबकुछ वैसा है, जैसा है तो फिर विवाह भी वैसे ही होते रहेंगे जैसे हो रहे हैं। तो ग़लत मत समझिएगा, मैं जब विवाह की बात करता हूँ, तो मैं बात इंसान को बदलने की करता हूँ क्योंकि इंसान जब तक वैसा है, जैसा है, विवाह भी वैसे ही रहेंगे, जैसे हैं। क्योंकि जो कुछ भी है उसके केन्द्र में तो आप ही हैं न? आप ही उसके कर्ता हैं, आप उसके डूअर हैं।

आपने ही करा है, आपने विवाह की संस्था बनायी है, आपका बनाया हुआ घर भी है, आपका ही परिवार है और आपका ही समाज है और आपकी ही सरकार है और आपकी ही दुकान है और सबकुछ आपका है। आप नहीं बदलोगे तो कुछ भी कैसे बदलेगा? ठीक है?

तो ये बात बिलकुल ठीक है। आप जैसे हो वैसे ही रहोगे और विवाह नहीं होगा तो फिर कुछ उल्टा-पुल्टा बिलकुल होगा। तो हम बात जो कर रहे हैं वो भले ही विवाह पर है क्योंकि प्रश्न मुझसे आज विवाह पर पूछा गया है लेकिन जो मेरा केन्द्रीय सरोकार है वो शादी-ब्याह से नहीं है। मेरा केन्द्रीय सरोकार है इंसान का परिवर्तन। और इंसान चूँकि बिलकुल अन्धेरे में और अज्ञानी है इसलिए उसके रिश्ते भी बिलकुल अन्धेरे में हैं और दर्दनाक हैं। तो स्त्री-पुरुष का रिश्ता भी हमारा इसलिए इतना ख़राब है क्योंकि हम ही ख़राब है, तुम्हारे रिश्ते भी ख़राब है।

प्र१: आचार्य जी, कमेंट्स में अक्सर ये सवाल देखने को मिलता है कि आपकी बात से आँखें अब तो खुली हैं मगर सामने दिखता है कि ये स्थायी, इर्रिवर्सिबल (न बदलने वाला) जोड़ा जो है, बन चुका है।

आचार्य: इर्रिवर्सिबल कुछ नहीं होता है। क्या इर्रिवर्सिबल होता है? मौत होती है इर्रिवर्सिबल, उससे पहले सब रिवर्सिबल होता है, सब रिवर्सिबल होता है।

मुझे बहुत अच्छी तरह पता है कि एक बार जोड़ा बना लो। उसके बाद जोड़ा तोड़ने में कई दुख होते हैं और कई तरह के झंझट होते हैं ख़ास तौर पर अगर बच्चा हो गया हो, तो बच्चे के भविष्य को लेकर ख़तरे होते हैं। वो मैं सब जानता हूँ और ये जानने के बाद मैं बहुत ज़िम्मेदारी से बोल रहा हूँ कि जोड़ा कोई आसमानों में, किसी स्वर्ग में, किसी भगवान के द्वारा बनी चीज़ नहीं होती है। ये बात मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ बोल रहा हूँ।

मैं जानता हूँ कि जब जोड़ा टूटता है, तो उसमें कितने तरह की समस्याएँ आती हैं। और ज़्यादा समस्या जो आती है वो महिला के लिए आती है और बच्चे के लिए आती है। महिला के लिए इसलिए आती है कि भारत में नब्बे-बानवे प्रतिशत महिलाएँ कमाती तो है नहीं, अब पति सम्बन्ध-विच्छेद कर लोगी, तो जियोगी कैसे?

चलो, एलिमनी (तलाक़ के बाद पूर्व पति या पत्‍नी को क़ानूनन दिया जाने वाला धन) मिल जाती है और ठीक है। एलीमनी का मुद्दा भी बड़ा बहस में रहता है पर उसके बाद भी अकेले जीने की ताक़त, मासपेशियाँ कभी विकसित तो करी नहीं होती हैं, अब पति के घर से निकल जाओगी। मायके में परित्यक्त कहलाओगी, उसका एक सोशल स्टिग्मा (सामाजिक कलंक) होता है न, तो जियोगी कैसे?

तो वो बच्चा होता है, बच्चे को तो स्कूल में भी ताने मिलेंगे। बच्चा तो ये चाहता है कि माँ-बाप दोनों से ज़रा बातचीत चलती रहे और वो हो नहीं पाता है। फिर जो कानूनी व्यवस्था है वो ऐसी है कि तलाक़ के मामले पाँच-दस साल तक खिंचते रहते हैं और उसमें बेईमानियाँ होती हैं। कुछ भी हो जाता है, हिंसा के मुक़दमे चलने लग जाते हैं और तलाक़ से शुरू हुई थी बात, वो जेल तक चली जाती है ये बात फिर।

तो ये सब मैं भलीभाँति जानता हूँ। लेकिन इसके बाद भी मैं कह रहा हूँ कि ज़िन्दगी ही टूट जाए इससे कहीं अच्छा है कि क़ैद की सलाखें तोड़ दो। वो सलाखें तोड़ना आसान नहीं होगा और क़ीमत चुकानी पड़ेगी, दर्द सहना पड़ेगा; लेकिन क़ैद में घुसते क्यों हो भाई? ये नौबत क्यों आ रही है कि मुझे बोलना पड़ रहा है कि सलाखे तोड़ दो? ऐसे तुम ग़ैर ज़िम्मेदार रिश्ते बनाते क्यों हो जो नर्क से निकलते हैं? तब कौनसी मूर्खता, मूर्छा, हवस छायी रहती है?

तब तो बस ये रहता है कि मम्मी ने बता दिया है और फोटो में सेक्सी लग रही है, झट से अब ब्याह कर लो और बाद में कहते हो कि फँस गये हैं, हाय-हाय! ये करते क्यों हो? ये नौबत ही क्यों आये कि तलाक़ लेना पड़े, डायवोर्स लेना पड़े, सम्बन्ध-विच्छेद की बात हो? रिश्ते जब बनाओ तो ज़िम्मेदारी से बनाओ न। क्यों इतने आतुर रहते हो कूद पड़ने के लिए कि अभी पच्चीस के हो गये, ब्याह करना है?

जिसके साथ तुम चाह रहे हो कि अब एक क़ानूनी रिश्ता बना लो, जिसपर धर्म की मुहर लगेगी, समाज की मुहर लगेगी, अदालत की मुहर लगेगी उसके साथ कम-से-कम दस साल तो बिताओ और ये बात भी बहुत ज़िम्मेदारी से बोल रहा हूँ। जिसके साथ तुमने कम-से-कम दस साल नहीं बिताये, उसके साथ कोई तुम लीगल (क़ानूनी), सोशल (सामाजिक), रिलीजियस ऑब्लिगेशन (धार्मिक दायित्व) मत खड़ी कर लेना।

कम-से-कम दस साल कह रहा हूँ क्योंकि दस साल से पहले इंसान के सारे चेहरे पता नहीं चलते। सारे चेहरे तो दस साल में भी नहीं पता चलते, पर दस साल में कम-से-कम उसको थोड़ा-बहुत जान जाते हो और दस साल में तुम्हारी भी कुछ उम्र हो जाती है, थोड़े परिपक़्व हो जाते हो। तीस पार कर जाओगे, तुम्हारी भी कुछ बुद्धि आ जाएगी।

और हो सकता है कि दस-पन्द्रह साल दोनों इकट्ठे हो तो उसके बाद कहो कि इकट्ठे हैं तो, अब काहे के लिए गठबन्धन का झंझट करना? ‘हम जैसे चल रहे हैं, बहुत सुन्दर चल रहे हैं, क्या समस्या है?’ लेकिन तुम्हें गठबन्धन करना भी है, तो मैं कह रहा हूँ कम-से-कम एक-दूसरे को दस वर्ष तक जानो पहले। क्योंकि भारत में गठबन्धन से निकलना बड़ा मुश्किल होता है और अब बच्चे आ गयें, तो तुम बच्चों को चौपट करते हो फिर।

प्र२: आचार्य जी, भारतीय संस्कृति में आपने अभी जो बात कही कि आप एक-दूसरे को कम-से-कम दस साल तक तो जानो, बहुत ही अनैतिक प्रतीत होगी लोगों को।

आचार्य: जैसी भी प्रतीत हो – लड़का तुम्हारा, लड़की तुम्हारी पागल हो जाएँ एक रिश्ते में, उससे इम्मोरलिटी (अनैतिकता) कहीं भली है। तुम जानते हो? जाकर किसी भी तुम मनोवैज्ञानिक से पूछो, वो तुम्हें बताएगा कि दुनिया भर में मानसिक रोग, मेंटल डिसीज़ का सबसे बड़ा कारण विवाह है, सिर्फ़ रिलेशनशिप्स (सम्बन्ध) भी नहीं बोलेगा, विवाह।

आप चाहते हो क्या कि आपकी लड़की-लड़का पागल ही हो जाए शादी के बाद? और पागल ऐसे नहीं होते कि वो बावरा हो गया और पजामा फाड़कर सड़क में घूम रहा है एकदम, और बाल नोच रहा है अपने, पत्थर मार रहा है दूसरों को, इसी को नहीं पागल कहते। विक्षिप्तता बहुत तरीक़े की होती है, छुपी, प्रछन्न विक्षिप्तताएँ होती हैं।

आप साइकेटरी (मनश्चिकित्सा) थोड़ा पढ़िए, यहाँ पता भी नहीं चलेगा कि आदमी पागल है लेकिन उसकी जो पर्सनालिटी है वो बँट चुकी होगी। उसके व्यक्तित्व के कुछ हिस्से विक्षिप्त हो चुके होंगे। तो वो सब होने से कहीं बेहतर है कि दो इंसान, दो परिपक़्व इंसान, वयस्क एक-दूसरे को अच्छे से जान लें, उसके बाद उनको लगता है गठबन्धन करना है तो कर लें।

प्र२: इसमें जानने से कई लोगों को ऐसा लग रहा होगा कि आप लिव इन रिलेशनशिप्स के बारे में बात कर रहे हैं।

आचार्य: न हाँ, न ना; न हाँ, न ना। न‌ मैं ये कह रहा हूँ कि जो लिव इन वाले होते हैं, एक-दूसरे को बहुत जान जाते है; मैंने लिव इन के कितने ही जोड़ों को एक-दूसरे का सिर फोड़ते देखा है। अदालत भी जो लिव इन वाले होते हैं, इनको कुछ मामलों में शादीशुदा ही मानती है। तो साथ-ही-साथ ये भी है कि एक अनिवार्यता अपने ऊपर नहीं बना लेनी चाहिए कि अगर किसी के साथ चार दिन रुकने को मिल रहा है, तो हम कह देंगे, ‘हाय-हाय! मैं तो छुई-मुई हूँ, मैं तेरे साथ कैसे रह सकती हूँ?’

ठीक है। चार दिन अगर कहीं रहने को मिल रहा है उसका कोई अनिवार्य रूप से मतलब सेक्स तो नहीं होता न? सेक्स को भी न हाँ, न ना, अनिवार्यता नहीं है। क्यों मान रहे हो कि दो लोग चार दिन कहीं गये हैं, तो सेक्स के लिए ही गये होंगे? और क्यों ये कह देना है कि दस साल तक साथ हैं, तो सेक्स बिलकुल होना ही नहीं चाहिए? न हाँ, न ना। क्योंकि मुद्दा ही नहीं है बहुत बड़ा।

हम वेदान्त की बात कर रहे थे न? तुम ऋषियों से जाकर के पूछोगे, तुम कपिल ऋषि, कणाद ऋषि इनसे जाकर के पूछोगे अगर, बैठे हैं तुम्हारे सामने शौनक और तुम उनसे पूछो बड़े ऋषि थे, या व्यास बैठे हैं। अभी-अभी उन्होंने वेदान्त सूत्र समाप्त करे हैं और तुम उनसे पूछो कि पुरुष और स्त्री को सेक्स करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए। तो तुमसे पूछेंगे, ‘किस भाषा में बात कर रहे हो बेटा? हमसे पूछने के लिए कुल तुम्हें यही बात मिली? इस बात का अध्यात्म से क्या लेना-देना? तुम्हें करना है सेक्स करो, नहीं करना न करो। ये कौनसी बड़ी बात है? ये मल-मूत्र की बात हमसे करने मत आओ। हमसे कोई बड़े मुद्दे की बात करो।

तो ये जो सेक्शुअल ऑब्सेशन (सनक) है कि कुल मिलाकर के इंसान को एक ही तरीक़े से देखना है, सेक्स। ये बहुत बेहूदी बात है, बड़ी अश्लील बात है कि आपको कोई लड़की दिखाई दे रही है, आप सोच रहे हो — अच्छा, इसका कोई बॉयफ्रेंड होगा कि नहीं होगा? आप किसी लड़की को देखने गये हो, तो उससे पूछ रहे हो विवाह के लिए और उससे पूछ रहे हो कि अच्छा, तुम वर्जिन हो कि नहीं हो। ये क्या दृष्टि है?

आपको किसी लड़के से किसी तरीक़े की ईर्ष्या हो रही है किस बात की? उसकी गर्लफ्रेंड कितनी सेक्सी है या वो तीन लड़कियाँ लेकर घूम रहा है! ये नज़र कौनसी है जो सेक्स के अलावा कुछ देखती ही नहीं? ये क्यों नहीं कहते, ‘दो इंसान एक साथ जा रहे हैं?’ क्यों कह रहे हो, ‘एक स्त्री और एक पुरुष एक साथ जा रहे हैं?’ मनुष्य नहीं दिखाई देता क्या? हर बात में तुमको बस लिंग, जेंडर, सेक्स?

हाँ, रह सकते हैं एक लड़का-लड़की, साथ रह सकते हैं। ये क्यों नहीं कह रहे दो इंसान साथ रह रहे हैं? क्यों नहीं कह रहे वो भी मैं जानता हूँ क्योंकि हमारे लड़के-लड़की हैं ही ऐसे कि वो जब भी किसी होटल में साथ रहने जाते हैं, तो सेक्स के लिए ही जाते हैं। एक लड़का-लड़की कहीं ओयो में घुस रहे हों, तो निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना है कि वो कन्डोम साथ लेकर ही जा रहे होंगे।

अब फिर मेरी बात न जाने कितनों को बुरी लग जाएगी, पर ऐसा है भई! तो हमारे लड़के-लड़की हैं इसी तरह के। मैं पूछ रहा हूँ, ऐसा होना ज़रूरी है क्या? ऐसा होना ज़रूरी है क्या कि आप एक पुरुष के साथ हो या स्त्री के साथ हो, तो उसमें कारण सेक्शुअल ही हो? ज़रूरी है क्या?

पुराने धार्मिक साहित्य में कितने उल्लेख आते हैं, वेदों में कितनी ही ऋचाएँ हैं जो महिलाओं द्वारा रचित हैं, कितनी ही जगहें हैं जहाँ पर ऋषिकाएँ और ऋषि बैठकर आपस में चर्चा कर रहे हैं, शास्त्रार्थ कर रहे हैं। क्या ये बोलोगे कि एक महिला और पुरुष बैठे हैं? ये नहीं कहोगे क्या कि दो विद्वान मनुष्य बैठे हैं? ऐसा क्यों नहीं हो सकता? मैं उस सम्भावना की बात कर रहा हूँ।

प्र२: इसमें आचार्य जी, ऐसा लग रहा है जैसे जो समस्या है, हम अक्सर क्या करते हैं कि समाज में कोई भी समस्या होती है, तो हम चिह्नित करके, उठाकर के देखते हैं कि अच्छा, प्रेम विवाह बेहतर है या अरेंज मैरिज (आयोजित विवाह) बेहतर है। अच्छा, लिव इन बेहतर है या फिर शादी बेहतर है, रिलेशनशिप गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाला वैसा ही होना चाहिए या फिर उसको कोई रिश्ते को नाम देना चाहिए।

तो अलग-अलग तरीक़ों से हम उनको देखते हैं और उन्हीं में ही हम समाधान ढूँढने की कोशिश करते हैं बिना प्रश्न करे कि हम कौन हैं। तो जब आप उस चीज़ को देख रहे हैं और बता रहे हैं तो आप पूरे-के-पूरे सामाजिक ताने-बाने पर ही प्रश्न उठता है।

आचार्य: मैं पूरा पैराडाइम (रूपावली) ही बदल रहा हूँ। आप एक फ्रेमवर्क (ढाँचे) के भीतर अपनी समस्या और मुद्दा लेकर आ जाते हो। मैं कह रहा हूँ, तुम्हारा फ्रेमवर्क ही ग़लत है, वो जो पैराडाइम है, जो चौखटा है तुम्हारा, वही ग़लत है। उसके भीतर जो भी तुम समाधान निकालोगे, वो भी उसके अन्दर ही होगा इसलिए ग़लत ही होगा।

तो तुमको सचमुच अगर समस्या का समाधान चाहिए तो तुम्हें वो अपना पैराडाइम, अपना वो फ्रेमवर्क, अपना वो तल ही त्यागना पड़ेगा, नहीं तो कोई समाधान नहीं है। आज आप किस समस्या को लेकर आयी थीं? आपकी समस्या ये थी कि भारत में डायवोर्स रेट तो है एक पर्सेंट , लेकिन भारत दुनिया के सबसे दुखी देशों में आता है। और मेंटल डिसीज़ में भी भारत बिलकुल एकदम शीर्ष पर आता है कि लोग पागल हुए जा रहे हैं और हम कहते हैं, ‘हमारा फ़ैमिली सिस्टम (पारिवारिक तन्त्र) बहुत अच्छा है, तो कुछ तो बात होगी।’ ये आपकी समस्या थी न? मैं कह रहा हूँ, ‘जब तक हम जैसे हैं तब तक ये समस्या नहीं सुलझेगी। इंसान को बदलना पड़ेगा, फिर उसका घर भी ठीक हो जाएगा, उसके रिश्ते भी ठीक हो जाएँगे, उसका मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक हो जाएगा।’ इंसान को बदलना पड़ेगा। इंसान को बदले बिना तो फिर एक समस्या से आप दूसरी समस्या पर कूद जाओगे।

प्र२: जी। असल में यही होता है क्योंकि कोई समस्या होती है, उसके लिए एक समाधान आ जाता है। आपको लगने लगता है कि वो समस्या सुलझ गयी है, पर ये नहीं देखा जाता कि उससे कितनी नयी समस्याएँ और पैदा हो जाएँगी।

आचार्य: नयी समस्याएँ पैदा हो जाएँगी। जैसे कि आपको बीमारी न पता हो, आप लक्षणों का उपचार करने लग जाओ। ठीक है? और लक्षणों का उपचार करने में आप चार नयी बीमारियाँ पैदा कर लो, मूल बीमारी तो कहीं नहीं गयी, बस उसका लक्षण दबा दिया। लेकिन लक्षण को दबाने के लिए जो दवाई खा ली उससे तीन नयी बीमारियाँ पैदा कर दी। ये हम करते रहते हैं लगातार।

मूल बीमारी हम समझते नहीं, मूल बीमारी है आदमी के भीतर का अन्धेरा, स्वयं के प्रति अज्ञान। वो जब तक नहीं हटेगा। मैं जब तक स्वयं को जानूँगा नहीं, सेल्फ़ ऑब्ज़र्वेशन , सेल्फ़ नॉलेज नहीं होगा, तब तक हम हर तरह की बेवकूफ़ियाँ करते ही रहेंगे। हम नौकरी ग़लत चुनेंगे, हम रिश्ते ग़लत बनाएँगे, हम घर ग़लत बनाएँगे, हम समाज ग़लत बनाएँगे। हम संस्कार ग़लत देंगे, हम सरकार ग़लत बनाएँगे, हम सबकुछ ग़लत बनाएँगे।

प्र२: अभी इतना कुछ जो है, ग़लत लग रहा है या दिख रहा है, तो क्या फिर तरीक़ा हो उसको सुधारने का?

आचार्य: आध्यात्मिक शिक्षा। जो कि हम दे नहीं पा रहे हैं और उस आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा सिर्फ़ एक मतलब है सेल्फ़ नॉलेज। जानना कि तुम कौन हो? दुनिया क्या है, ये बताने के लिए हमारे पास बहुत अच्छी शिक्षा व्यवस्था है। हमारा जो एजुकेशन सिस्टम है वो वर्ल्डली नॉलेज के लिए पर्याप्त है, बहुत अच्छा है।

जो एक चीज़ उसमें रह जाती है, वो ये है कि ये जगत और ये जीव इनका रिश्ता क्या है? जो कुछ मुझे दिखाई देता है उसमें देखने वाला कौन है? कौन है भीतर बैठा जो इस पूरी दुनिया का अनुभव करता है? तो वो चीज़ रह जाती है, इधर (बाहर) की सारी बात हो जाती है, इधर (भीतर) की कोई बात नहीं होती है। ये चीज़ अगर आ जाए तो आप जितनी समस्याओं की बात कर रहे हैं वो सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी।

प्र२: सेल्फ़ नॉलेज के लिए अक्सर ही लोग सेल्फ़ हेल्प के पास चले जाते हैं।

आचार्य: अरे, वो एक और ऊँचे तल की मूर्खता है। वो वैसा ही है जैसे मैरिज काउंसलर्स होते हैं। (मुस्कुराते हुए) तो सब उससे कुछ नहीं होता। कौनसी सेल्फ़ हेल्प? सेल्फ़ को जानते नहीं हेल्प कहाँ से हो जाएगी? अगर सेल्फ़ हेल्प की वास्तविक परिभाषा पूछना चाहते हैं, तो सेल्फ़ नॉलेज अलोन इज़ सेल्फ़ हेल्प (आत्मज्ञान ही ख़ुद की सहायता है)।

ये जो सेल्फ़ है माने जो अहम् है भीतर, उसकी एक तरीक़े से मदद करी जा सकती है, उसको जानकर के। उसके तौर-तरीक़े, कहाँ से उसकी इच्छाएँ आ रही हैं, कोई इच्छा उठ रही है, उसके इच्छाएँ-इच्छाएँ ही रहती हैं। उसके हर विचार में इच्छा छुपी होती है। ये भावनाएँ, ये इच्छाएँ, ये विचार ही हैं। ‘कहाँ से आ रहे हैं? क्या चल रहा है? मैं जो कल सोच रहा था, मैं आज नहीं सोच रहा था, वजह क्या है? मैंने कैसे फ़लानी चीज़ पसन्द करनी शुरू कर दी? अच्छा, ऐसा कैसे है कि मेरे परिवार में सब एक चीज़ पसन्द करते हैं और उस परिवार में सब-के-सब कोई दूसरी चीज़ पसन्द करते हैं? अच्छा, ऐसा कैसे हो गया कि यहाँ जितने लोग हैं, उन सबको एक तरह सोचना होता है और उधर जो बैठे दूसरे धर्म के लोग हैं, वो सब बिलकुल दूसरे तरीक़े से सोचते हैं?’ तो ये सब जो हमारे विचार हैं, हमारी पसन्द है, हमारे हैं क्या?

‘और अगर जो खाना मुझे पसन्द है। वो इसलिए पसन्द है कि मेरे घर में बनता था। क्रिकेट मुझे इसलिए पसन्द है क्योकि मेरे मोहल्ले में खेला जाता था। मुझे बास्केटबॉल तो पसन्द है नहीं, मुझे बास्केटबॉल क्यों नहीं पसन्द है?’ पर हम ये नहीं सोचते कि हमें बास्केटबॉल क्यों नहीं पसन्द है? हम आइपीएल देखने बैठ जाते हैं।’

एक बार सोचो तो सही कि भारत में सब कोई क्यों क्रिकेट, हर कोई बोलता है, ‘क्रिकेट मेरे खून में है?’ ब्राज़ील वाला क्यों नहीं बोलता क्रिकेट उसके खून में है? इसका मतलब बात खून की है ही नहीं न, कोई और बात है। वो हम समझना नहीं चाहते।

यही आत्मज्ञान है, अपनेआप को जानना, अपनी पसन्द, अपनी नापसन्द को समझना। ‘मुझे कोई चीज़ क्यों पसन्द आ गयी है? वो सचमुच मेरी पसन्द है क्या?’ जब मैं कहता हूँ, ‘मेरी मर्ज़ी, मेरा निर्णय, मेरा डिसीज़न।’ मेरे निर्णय क्या मेरे निर्णय है सचमुच, या मुझे पट्टी पढ़ा दी गयी है जाने में, अनजाने में, होश में, बेहोशी में?’ ये आत्मज्ञान होता है। जब ये होने लग जाता है तो उसके बाद फिर चीज़ें सुधरने लगती हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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