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इंसान और जानवर: दर्द भी, उम्मीद भी || आचार्य प्रशांत, बातचीत

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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इंसान और जानवर: दर्द भी, उम्मीद भी || आचार्य प्रशांत, बातचीत

प्रश्नकर्ता: पहले तो आपका बहुत बहुत धन्यवाद। जब मैंने एनिमल क्रूएलिटी (पशु क्रूरता) के सम्बन्ध में काम करना शुरू किया था उन्नीस-सौ-चौरानवे में तो जागरूकता भी बहुत कम थी लेकिन शायद उस तरह की औद्योगिक क्रूरता भी बहुत कम थी जो हम अब देख रहे हैं। तो निरन्तर माँस की बढ़ती माँग के साथ मनोरंजन की माँग के साथ, प्रयोगों की माँग के साथ और लोगों की तमाम तरह की विलासिताओं की अनावश्यक माँग के साथ अब जिस क़दर पशुओं पर, जिस मात्रा में पशुओं पर क्रूरता हो रही है वो पहले बिलकुल भी न देखी थी, न सुनी थी।

आज की तारीख में दस हज़ार करोड़ थलचर जीवों को, मतलब मछलियों को तो हम टनों में गिनते हैं उनकी तो गिनती ही नहीं है हंड्रेड बिलियन (दस हज़ार करोड़) थलचरों को हर साल काटा जाता है सिर्फ़ मानव भोजन के लिए। नाइनटी बिलियन (नौ हज़ार करोड़) जानवरों पर हम प्रयोग कर देते हैं। ये सब जो है ये क्या है, ये एक तरह का सर्वनाश है जो हम बढ़ाते चले जा रहे हैं और ये अनसस्टेनेबल (अरक्षणीय) है। ये शायद जहाँ हम खड़े हैं ये चरम सीमा है, ये चरम सीमा प्रतीत होती है। इससे बुरा और क्या हो सकता है कि हम करोड़ों मुर्गियों को इतनी-इतनी सी जगह में आजीवन क़ैद करके रख लेते हैं कि हमें उनसे रोज़ एक अंडा चाहिए और जिस दिन वो अंडे देने कम करेगी हम उसको मार देंगे!

ये न हमारे भारतीय संस्कृति में है इस प्रकार का पशु पालन और न हमारी इंसानियत की नियत ऐसी होनी चाहिए कि इस्तेमाल करो और खा जाओ।

आचार्य प्रशांत: तो आपने कहा लगभग तीस-पैंतीस करोड़ जानवर जिसमें मछलियांँ शामिल नहीं हैं प्रति दिन दुनिया में।

प्र: प्रतिवर्ष।

आचार्य: प्रतिवर्ष आपने कहा हंड्रेड बिलियन तो ये दुनिया भर में हो रहा है भारत में आपने क्या देखा है चौरानवे में आपने काम शुरू करा था तो चौरानवे‌ से आज में लगभग कितने मोटे तौर पर प्रति व्यक्ति माँस की खपत बढ़ी होगी?

प्र: इस प्रकार की निर्दयता जिसकी हम बात कर सकते हैं, जो कि बीते समय में नहीं थी।

आचार्य: तो इसमें आप रुझान क्या देख रही हैं? एक तो ये है कि खपत बढ़ रही है निश्चित रूप से और वो प्रतिशत में नहीं बढ़ी है, कई गुना बढ़ी है। दूसरा कितने तरीक़ों से जानवरों के ऊपर हम हिंसा कर रहे हैं और पिछले बीस-तीस साल में ही ये हिंसा इतनी ज़्यादा क्यों बढ़ी है? मैं आपसे समझना चाहता हूँ, आपका अनुभव क्या रहा है?

प्र: तो एक तो अब तादाद इतनी बढ़ गयी है इंसानों की, उन सबको कुछ-कुछ जिनका आर्थिक स्तर जैसे ही बढ़ता है तो सीधे सब्ज़ी से मुर्गा खाने पर आ जाते हैं और समझते हैं कि ये शायद विलासिता है। तो ये रुझान हमने ज़रूर देखा है और इसी को करके अंडे और मुर्गों जो अब फैक्ट्री फार्मिंग हो रही है वो पहले कभी भी न देखी थी, न सुनी थी।

अब हर जगह बैटरी केज फार्म्स होते हैं यहांँ तक कि हमने पिग्स (सूअरों) के लिए भी जेस्टेशन क्रेट नाम की एक फैक्ट्री फार्मिंग शुरू कर दी है जिसमें बस जो मादा सूअर होती है उसके लेटने भर की जगह होती है जिससे कि वो बच्चों को दूध पिला सके। न वो खड़ी हो सकती है, न चल सकती है, चलना तो बहुत दूर की बात है वो अलट-पलट भी नहीं कर सकती है।

इसी तरह आप गायों की भी मिल्किंग मशीन जहांँ पर स्टॉल फीडिंग होती है पहले जैसे हम दूध के डब्बों में देखते हैं कि चारागाह बने हुए हैं और गायें चर रही हैं। ऐसी तस्वीरें बढ़िया सी लगाते हैं, ऐसा किसी गाय के साथ नहीं होता।

भैंसों का दूध ज़्यादातर निकाला जाता है बेसमेंट (तहखानों) में, पहली मंज़िल पर, दूसरी मंज़िल पर, तीसरी मंज़िल पर आजीवन डेढ़ फुट की जंजीर से बँधी हुई बेचारी ये जानवर, पहले इस प्रकार नहीं होता था।

अब जैसे-जैसे हम न सिर्फ़ ख़ुद की खपत कर रहे हैं बल्कि बहुत बड़े एक्सपोर्टर (निर्यातक) भी बन गये हैं और जितना ज़्यादा-से-ज़्यादा दूध जब तक वो दे सके तब तक तो बहुत बढ़िया है और जैसे ही कम अंडे देने लगे मुर्गी या कम दूध देने लगे भैंस तो सीधे उसको काटकर उसका माँस भी निर्यात होता है। बच्चा मर जाए तो और भी अच्छा काफ लेदर (बछड़े का चमड़ा) है न, वो और भी महँगा बिकता है। तो हर चीज़ में फ़ायदा — हड्डियों से भी फ़ायदा, खुर से भी फ़ायदा यहाँ तक कि उसके बचे हुए माँस की खुरचन से भी पेटफूड बना देते हैं, वो भी फ़ायदा और हर तरह से अपने ख़र्चे बचा लेते हैं यानि बूढ़े जानवर की हमें देखभाल नहीं करनी, सड़क पर छोड़ देंगे उसके बाद कोई संस्था पाले या कॉरपोरेशन पाले, वो उनकी ज़िम्मेदारी बन जाती है।

जो लोग उसका खून पीकर उन्होंने जिन्होंने कमाया पैसा वो तो कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते। ये एक ऐसी अनोखी इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन (औद्योगिक क्रान्ति) चल रही है जहांँ पर हम मछलियों को मैं आपको एक और इंटरेस्टिंग वाक़या बताती हूंँ। यूपी में कई जगहों पर मछली पालन के नाम पर जो हो रहा था हम देखने के लिए गये तो देखा कि गांँव के निचले क्षेत्रों में पानी-वानी भरकर और सारे घरों के सीवेज पाइप्स उसमें लाकर छोड़ दिये। अब वो जो मानव मल-मूत्र निकल रहा है वो सीधे उस गन्द में जा रहा है जहांँ उन्होंने मछलियों के बच्चे छोड़ दिये वो उस मानव गन्द को खा रहे हैं और उसमें खूब सारा एंटीबाइटिक डाल दिया जिससे मरे न और जैसे ही उनका थोड़ा वज़न बढ़ता है उनको उठाकर बेच दिया। तो जो लोग समझ रहे हैं, ‘अरे, ये तो मछली जल की रानी है।’ वो सीवेज से आ रही है।

दिल्ली में ख़ुद कोटला मुबारकपुर में भैंस का डेयरी फार्म है खूब बड़ा बिलकुल अवैध। सबको हफ्ता वसूली करके कोई वहांँ पर अनुमति की आवश्यकता नहीं है। सब आंँख मूँदकर सरकार बैठी है और भैंसें कहाँ बँधती है सीवेज की नली के अन्दर बँधी हुई, बैठे तो डूब जाए सीवेज में, मानव मल-मूत्र में ये हालत है यहांँ से हम अपने दूध हम अपने अंडे इस इतनी गन्द में से लेते हैं कि मुझे लगता है ये अनसस्टेनेबल (आरक्षणीय) है। अब जिस प्रकार की क्रूरता हम देख रहे हैं भारत में अब हम ऐसे जघन्य अपराध देख रहे हैं कि चार बच्चे गये मेडिकल कॉलेज की छत पर से कुत्ते को नीचे फेंक दिया। ये तो एक अजीब विकृति है दिमाग की, ऐसी विकृतियांँ बढ़ती जा रही हैं। हम सेक्शन थ्री सेवेंटी-सेवन आइपीसी (भारतीय दंड संहिता के भाग तीन-सौ-सतहत्तर) के अपराध देख रहे हैं।

आचार्य: ये क्या है, ये सेक्शन?

प्र: ये सेक्शन डील करता है जानवरों के साथ अप्राकृतिक मैथुन।

ये एक कॉग्निजेबल ऑफेन्स (संज्ञेय अपराध) है और ये मूलतः दर्शाता है एक तरह की मानसिक विकृति को। लेकिन हम देख रहे हैं मवेशी, भैंस, भेड़-बकरी अब कुत्ता, बिल्ली भी।

आचार्य: पिछले बीस-तीस साल में ही ये इतनी तेज़ी से कैसे हो गया? क्योंकि ये जो पूरा आपने रुझान बताया ये बिलकुल उसी समय का है जिस समय पर आप इस क्षेत्र में सक्रिय हुईं और कुछ हुआ तो है हिन्दुस्तान में नब्बे के दशक के बाद से, जो हर तरीक़े से आदमी का मन इतना हिंसात्मक हो गया है और जानवरों को इतने-इतने तरीक़ों से मारना, हर तरीक़े से उनका भोग, कंज़म्प्शन करना; आपने क्या देखा है? ग्राउंड पर चल क्या रहा है? क्यों?

प्र: मुझे लगता है कि इसका एक कारण नहीं है इसके कई कारण हैं इसका एक बहुत बड़ा कारण इंटरनेट भी है अब इंटरनेट से एक तो हमें नयी-नयी तरह की क्रूरताएँ पता चलती हैं। दूसरा कि इंटरनेट के माध्यम से लोगों की चाहतें इतनी बढ़ गयी हैं, उनके महत्वाकांक्षाएँ इतने बढ़ गयी हैं जो जहाँ है उसको वहांँ संतुष्टि है ही नहीं। पहले बड़ा साधारण जीवन हुआ करता था जो खाना-पीना अच्छे कपड़े दो प्रकार के कपड़े होते थे एक घर के, एक बाहर के‌। सब खुश रहते थे। अब तो इतनी-इतनी ज़रूरतें बढ़ गयी हैं लोगों की कि वो भले ही वो जानवरों से कमाने का तरीक़ा हो, जैसे हम देख रहे हैं मीट एक्सपोर्ट।

कोई आवश्यकता नहीं है मीट एक्सपोर्ट करने की भारत को। जिस देश में गाय को पूजा जाता है, जिस देश में दूध को पूजा में चढ़ाया जाता है, वहांँ पर आप बड़े जानवरों के माँस का इस तरह निर्यात कर रहे हैं कि आप विश्व में नम्बर एक बन गये हैं और वो भी इतनी अच्छी क्वालिटी का भी नहीं आप बना पा रहे हैं कि जो कोई यूरोपियन या कोई विकसित देश ले। ये तो सब हम हम विश्व के सबसे ख़राब पशुपालक देश हैं और हमारी इतनी स्थानीय बीमारियाँ हैं जिनको हम नहीं निपटा पा रहे हैं भले वो ब्रुसेलोसिस हो, ट्यूबरकुलोसिस हो, एफएमडी हो, ये सब बिलकुल हमारी वैक्सीन्स (टीके) असफल हो रहे हैं।

कोरोना में तो हमने पता नहीं क्या किया लेकिन पिछले साल जितनी भी वैक्सीन एफएमडी की लगी है पूरे देश में सब असफल हो गये।

आचार्य: एफएमडी क्या है? बताइए।

प्र: एफएमडी एक बीमारी है जो पैर और मुँह की बीमारी है जिसको बोलते हैं, मवेशियों में होती है जहाँ उनके खुर सड़ने लगते हैं और उनका मुंँह पक जाता है और फिर वो अगर बहुत गहन इलाज न किया जाए तो मर जाती हैं।

तो क्या करते हैं, एफएमडी होते ही सीधे कत्लखाना भेज देते हैं और उस एफएमडी से ग्रसित जानवर का माँस या तो अपने ही देश में या किसी और देश में उपभोग होता है। अब कोई विकसित देश तो बिना परीक्षण के लेगा नहीं और ये माँस वापस हो जाता है तो ये कहाँ भेजते हैं? मध्य पूर्व में, दक्षिण पूर्वी एशिया में, उस प्रकार के देश, वियतनाम। जो कुछ भी ले लेते हैं तो वहाँ पर हम अपना माँस निर्यात करते हैं और फिर सबसे बड़े निर्यातक बने हुए क्योंकि बड़ी मात्रा में खपत यहांँ हो जाता है।

चीन को हम बहुत माँस का निर्यात करते हैं मगर वो किस रास्ते जाता है? सीधे चीन को नहीं जाता, यहांँ से वियतनाम, वियतनाम से चीन, हाई सीज (अन्तर्राष्ट्रीय जलक्षेत्र) से ही शिप्स टर्न (जहाज़ का घूमना) हो जाते हैं। ये तो स्पष्ट ही है कि वियतनाम तो इतना सा देश है लेकिन उनका माँस उनको जो निर्यात हो रहा है तो उनकी जनसंख्या खा ही नहीं सकती तब पता चला कि वो तो हाई सीज से चीन को निर्यात होता है। और यहांँ पर जो डब्बे भी पैक हो जाते हैं उनसे चीन का ही पूरा सब कुछ लिखा होता है। तो मैं बस इतना कह रही हूंँ, हमने तरीक़े निकाल लिये हैं और पैसा कमाने के।

आचार्य: तो भारत पिछले तीस साल में पशुओं के प्रति भयानक रूप से हिंसक हो गया है। एक कारण आपने इसमें इंटरनेट कहा और भी कई कारण होंगे उन पर अभी सोचेंगे लेकिन ज़मीन पर आपने जो दशा देखी है, जो काम करा है उसमें ये स्पष्ट है कि स्थिति बिलकुल भयावह है।

प्र: बिलकुल। लोगों में सहनशीलता कम हो गयी है मुझको लगता है। सबने अपना घर सुन्दर सा बना लिया है फिर उनको लगता है कि अब तो ये न्यूयॉर्क जैसा होना चाहिए। इस आरडब्लूए (रेसीडेंट वेलफ़ेयर असोसिएशन) में कोई कुत्ता नहीं होना चाहिए, अगर कोई कुत्ता दिखेगा, भौंकेगा। कोई उस कुत्ते को खाना खिला देगा या जाड़े में कोई उसके लिए बोरी रख देगा तो वो लड़ने पहुँच जाएँगे।

तो लोगों में एक आक्रोश कुछ ज़्यादा ही पनप गया है पहले इतना नहीं देखा जाता था। अगर पड़ोसी कोई कुछ कर रहा है तो उसको कहने में भी शर्म आती थी कि अरे, आस-पड़ोस की बात है। आजकल लोगों के अन्दर वो भाव ही नहीं रह गया कि अरे, पड़ोसी हैं तो लगभग एक परिवार का विस्तार जैसा है। तो वो चीज़ें हैं, जो अत्यधिक भारतीय हैं वो हम खो रहे हैं। अब हम अपने घर की बालकनी पर कबूतर नहीं बैठे देखना चाहते हैं, यहांँ कई आरडब्लूएस हैं, उन्होंने जालियांँ लगा दी हैं भवन के ऊपर। अरे! कर दी उसने बीट तो पानी से साफ़ कर लो, क्या है बुरा उसमें!

अब हम कुत्तों से परेशान हैं, बिल्लियों से परेशान हैं। पहले गाय आती थी, पहली रोटी गाय को मिलती थी, आख़िरी रोटी कुत्ते को मिलती थी, हर घर से थोड़ा-बहुत तो होता ही था। लेकिन वो भावना जा चुकी है। और मुझे लगता है ये विनाश की तरफ़ हम बढ़ रहे हैं क्योंकि जब हमारी ये एथिकल बेडरॉक (नैतिकता), जो हमारी नींव है वो हिल जाती है तो फिर हम किस चीज़ को पकड़ें और ये तो चीज़ें ऐसी है कि जो हमें इंसान बनाती है।

आचार्य: तो हम आधुनिक हुए हैं पिछले तीस साल में। आपने सन् चौरानवे में काम शुरू करा सन् इक्यानवे में भारत की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ था उसके बाद से हम और ज़्यादा आधुनिक हो गये हमारे पास न सिर्फ़ विदेशी माल आ गया, विदेशी ब्रैंड्स आ गये बल्कि विदेशी विचार भी आ गया और हमारे लिए ये प्रगति का पैमाना हो गया कि हम ख़ुद बातचीत में, विचार में, खान-पान में, कितने ज़्यादा अभारतीय हैं, अनइंडियन हैं।

तो जिसको हम मॉडर्निटी (आधुनिकता) कहते हैं और ख़ास तौर पर जो ये नयी जेनरेशन्स (पीढ़ियाँ) हैं इनके नये-नये नाम हम देते रहते हैं नाइंटीज वालों को एक देते हैं; एक्स , वाई , ज़ेड और मिलेनियल्स और ये सब नाम हम देते रहते हैं। तो ये सब जो हैं ये इंसानियत में और-और ज़्यादा गिरे हुए हैं। मैं उनको दोष नहीं दे रहा हूँ; इनकी शिक्षा ऐसी हुई परवरिश ऐसी हुई, इनपर प्रभाव ऐसे पड़े, इनकी उम्र कम है, इनको मैं क्या दोष दूंँ! लेकिन ये तथ्य है कि हिन्दुस्तान की आबादी और विशेषकर जो युवा आबादी है वो और ज़्यादा हिंसक, क्रूर, असंवेदनशील और जानवरों जैसी ही होकर के हमारे सामने आ रही है।

हमें उम्मीद इन्हीं पर रखनी होगी कि ये कुछ कर सकते हैं। लेकिन ये बात भी सही है कि अगर हम प्रतिशत में देखें कि माँसाहारी किस एज ग्रुप , आयु वर्ग में सबसे ज़्यादा हैं तो शायद हम पाएँगे कि जो युवा पीढ़ी है इसमें ही माँसाहारियों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। माने ज़्यादा सम्भावना यही होगी किसी घर में कि माँ-बाप माँस नहीं खाते थे, बच्चा माँस खाता है। इस बात की सम्भावना कम होगी कि माँ-बाप तो खाया करते थे लेकिन जो जवान लड़का निकला वो इतना संवेदनशील था और उसके ऊपर इतने अच्छे प्रभाव पड़े थे कि उसने माँस खाना बन्द कर दिया या वो वीगन बन गया ऐसी सम्भावना कम है।

प्र: दुर्भाग्यवश मैं पहले वाली श्रेणी से सम्बन्ध करती हूँ। मेरे माँ-बाप नहीं खाते थे और मैं इतना खाती थी। शाकाहारियों का मज़ाक़ उड़ाती थी कि घास-फूस खा रहे हो, ऐसे करके ताने मारती थी और सोलह-सत्रह साल की उम्र तक मैंने माँस खाया और बड़े चाव के साथ खाया और उसके बाद एक बार मेनका गाँधी जी की संस्था ‘पीपल फ़ैन्स’ जो लखनऊ में थी, उनके साथ काम करते हुए कुत्ते को हम ड्रेसिंग कर रहे थे उसके कीड़े थे वो सम्भवत: पहली और इकलौती बार था जब मैं बेहोश हो गयी थी वो देखकर।

तब मुझे बोध हुआ कि मतलब ये क्या कर रही हूंँ मैं, एक जानवर को बचा रहे हैं, दूसरे को खा रहे हैं और वो जिसको हम खा रहे थे उसके माँ-बाप भी थे उसका क़त्ल किस प्रकार हुआ, जब ये सब सोचना शुरू किया और इसके बारे में उस समय तो इंटरनेट नहीं था, कुछ नहीं था तो स्वाध्याय से जितना हम सीख समझ पाए तो मुझे शर्म आयी अपने ऊपर कि मैं अपने प्लेट में किसी के आंँसू, किसी का खून, किसी की चीख-पुकार परोस रही हूँ। और वो दिन था कि एक तरह से जैसे बल्ब जल जाता है तो वो बल्ब जल गया। लेकिन लोगों में अब, सामान्यतया बच्चों में एक तरह का अलगाव आ गया है वो बटर चिकन को एक मुर्गी के साथ सम्बन्धित ही नहीं करते।

अब ये जो ‘डेलीसियस’ और किन्हीं प्रकार की कम्पनीज़ के विज्ञापन हम देखते हैं टीवी पर तो बहुत ख़ुशी के साथ वो दिखाते हैं किसी जानवर का माँस, उसकी लाश, उसका शरीर, उसमें लोग खुशी मना रहे हैं। किसी को अपनी अक्ल बिलकुल दरकिनार कर देनी पड़ेगी उस खुशी को भोगने के लिए।

लेकिन अब हम देखते हैं कि जो युवा समूह हैं जिन्होंने कभी बूचड़खाना नहीं देखा जिन्होंने कभी जानवरों का पालन देखा ही नहीं, कभी किसी मुर्गी के साथ क्रिया-कलाप नहीं किया या कभी किसी भैंस को हाथ नहीं लगाया। उनके लिए माँस एक अन्य निर्जीव वस्तु के समान ही है जैसे टिश्यू पेपर। तो ये डिस्कनेक्ट (अलगाव) जो है वो मुझे लगता है बहुत घातक है।

आचार्य: और जब ये डिस्कनेक्ट मिटाया जाता है तो हमें उत्साहवर्धक परिणाम मिलते हैं।

प्र: मुझे लगता है बहुत-बहुत जल्दी मिलता है।

आचार्य: मतलब अगर हम जो युवा पीढ़ी है इसको ये दिखा सकें कि तुम जो खा रहे हो वो वास्तव में चीज़ क्या है। वो कोई इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट (औद्योगिक उत्पाद) नहीं है वो किसी की देह है, किसी का शरीर है जिसके तुम्हारे जैसा खून था जो जीना चाहता था लेकिन उसकी गर्दन काटी गयी ताकि तुम थोड़ी देर के लिए जुबान का स्वाद ले सको। ये चीज़ उनको अगर दिखायी जाए तो उस पर काफ़ी फ़र्क पड़ता है।

प्र: दिखा तो हम ये भी सकते हैं कि गर्दन कटती भी नहीं है। दिल्ली में दो से पाँच लाख मुर्गे काटे जाते हैं गाज़ीपुर मुर्गा मंडी में गर्दन नहीं काटते हैं वो, उतना समय किसी के पास नहीं है, बहुत जल्दी-जल्दी करना होता है ख़ूब सारी माँग है इतने सब लोग तो चिकन टिक्का, किसी को चिकन ये, किसी को चिकन वो चाहिए। तो वो क्या करते हैं पिंजरे में से मुर्गी को निकालते हैं, दोनों टाँगें पकड़कर और उसके पंख खिंचे, फटे कोई फ़र्क नहीं पड़ता और उसको दीवार पर से ठक से मारते हैं एक बार नहीं तो कभी दो बार और उसके बाद अधमरी मुर्गी को एक ढ़ेर में फेंक देते हैं पहाड़ जैसा बना देते हैं और उसके बाद जब वो अधमरी मुर्गियांँ खूब सारी इकट्ठा हो जाती हैं एक-के-ऊपर-एक। तो पैर में पॉलिथीन बैग पहनकर उसको चलते हैं उसके ऊपर जिससे वो पिच-पिचकर मर जाएँ। तो ये है।

आपने कहा गर्दन काटते हैं तो मुझे लगा वो तो बहुत अच्छा होता अगर गर्दन ही काट देते तो लेकिन जिस प्रकार से वहांँ पर ये हो रहा है और मैं ख़ुद दिल्ली की कत्ल खाना नियन्त्रक समिति में हूंँ और मैंने बहुत बार उस जगह पर भ्रमण किया है। कई सारे सरकारी दस्तावेज़ में ये बात है कि वहांँ पर इस प्रकार से काम होता है। लेकिन आज तक किसी विभाग ने कोई एक्शन नहीं लिया। मैंने जनहित याचिका दिल्ली हाईकोर्ट में भी की वहांँ पर उन्होंने कहा कि एक भी मुर्गी नहीं कटनी चाहिए ये देलही हाईकोर्ट के आदेश हैं लेकिन आज की तारीख तक धड़ल्ले से वहाँ पर कट रहा है। हम कंटेंप्ट (अवमानना) में भी गये, उसके बावजूद भी कुछ नहीं हो रहा है।

ये क्या है, ये सिर्फ़ लोगों की माँग है और वहाँ का माफिया है, मीट माफिया जो बहुत ही आसानी से सब कानूनों को बायपास करता है और मूल रूप से पूरी व्यवस्था को हाईजैक (अपहरण) करता है, अराजकता की एक पराकाष्ठा है गाज़ीपुर। क्षमा करें, मैंने थोड़ा अधिक विस्तार में कहा।

आचार्य: उसकी ज़रूरत है, उसकी ज़रूरत है। जो लोग बड़े चाव से बटर चिकन, चिकन टिक्का खाते हैं बहुत ज़रूरत है कि उन्हें ये साफ़-साफ़ पता चले कि वो जो तुम खा रहे हो उसको कितने दर्द के साथ मारा गया है उसकी जान ली गयी है और बहुत तड़पा-तड़पाकर उसकी जान ली गयी है। नहीं तो अभी तो चिकन ऐसे है जैसे सब्ज़ी है।

प्र: जो खाना चाहता है वो किसी दिन किसी माँस की दुकान में जाकर किसी मुर्गे की आंँखों में आंँखें डालकर देखे तो वो शायद नहीं खा पाएगा क्योंकि इतना विश्वास मुझे इंसानियत पर है। लेकिन ज़्यादातर लोग वो सम्बन्ध स्थापित ही नहीं करना चाहते। असुविधाजनक है वो सोचना तो हटा दो, वो सोचना ही ख़राब है, नहीं सोचते। जो काम करना नहीं किसी दोस्त ने कोई मदद माँगी तो सोचो ही मत, उसको ब्लॉक कर दो या हमें माता-पिता से कुछ हो जाए ब्लॉक कर दो, तो इसी तरह हम जानवर को भी ऐसे ही ब्लॉक कर देते हैं लेकिन उससे वो चला नहीं जाता उसका दर्द वो वहीं रहता है और वो हमारे कर्मों के ऊपर भारी पड़ता है। अगर हम उसको जो है वो समय पर मदद कर सके।

मदद न करें मैं तो सिर्फ़ इतना कहती हूँ कि लोग क्रूर न हों उतना ही बहुत है। अगर हम एक ऐसा लाइफ़स्टाइल जियें जो पृथ्वी के लिए अच्छा हो सस्टेनेबिलिटी (वहनीयता) के दृष्टिकोण से अच्छा हो और किसी जानवर को तकलीफ़ न पहुँचाए। नहीं चलाएँ हम शेल्टर , चलिए; नहीं हम लड़ें किसी कोर्ट में, न हम किसी पुलिस थाने में जाकर शिकायत करें, कम-से-कम अपने अपने हाथ-पैरों से जो हम करते हैं अपने मुँह में जो हम डालते हैं उससे तो हम बहुत अच्छा प्रभाव छोड़ सकते हैं।

आचार्य: आपने अभी कोर्ट की, थाने की बात की तो इससे मुझे आपका जो कोर फील्ड (मुख्य कार्यक्षेत्र) है वो याद आया। मुझे बताइए कि कानून में क्या ऐसे उपाय हैं जिससे जानवरों को कुछ राहत पहुँचाई जा सकती है पहली बात और दूसरी बात कानून में कमियांँ क्या- क्या हैं?

आम जनता को पता भी नहीं है कि जानवरों से सम्बन्धित भी कानून होते है तो फिर; भई, जब जानवरों को प्राणी ही नहीं माना जाता, जीव ही नहीं मान रहे हम उनको उनको कॉन्शियस (चैतन्य) नहीं मान रहे तो हमें ख़्याल भी कैसे आएगा कि इनके लिए भी कानून बन सकते हैं पर कानून हैं ज़रूर। क्या हैं, मुझे बताइए थोड़ा सा।

प्र: ये कानून तो कॉमन लॉ के समय से है जब ब्रिटिश राज करते थे अट्ठारह-सौ-नब्बे में भी एक ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ जैसा कुछ था। लेकिन उसमें सिर्फ़ सार्वजनिक स्थानों पर की गयी क्रूरता को क्रूरता मानते थे अगर अपने घर में किसी जानवर को मार-कूट दिया तो कोई उसका दंडनीय अपराध नहीं था। होते-होते जवाहर लाल नेहरू जी के समय पर उन्नीस-सौ-साठ में हमारी एक तमिलनाडु की एक सांसद थी रूपमनी देवी अरुणदय उन्होंने एक प्राइवेट मूवमेंट पर परिचित कराया। उन्होंने कहा कि प्रीवेंशन ऑफ़ क्रूअल्टी टु एनिमल एक्ट (पशु के प्रति क्रूरता का निवारण अधिनियम) चाहिए। सरकार ने पार्लियामेंट्री कमिटी (संसदीय समिति) को रेफर करके मिनिस्टर ऑफ़ एग्रीकल्चर के थ्रू इस बिल को पास कर दिया और उसके बाद ये उन्नीस-सौ-साठ के हिसाब से एक अच्छा कानून था उस समय की समझ, उस समय की सज़ा उस दौरान के हिसाब से बिलकुल ठीक थी। पचास रुपए का जुर्माना, सौ रुपए का जुर्माना बढ़िया था। लेकिन अब बासठ साल बीत जाने के बाद ये कानून थोड़ा सा बस कागज़ भर का रह गया है। मगर हम अभी भी इसमें बहुत कुछ कर सकते हैं ऐसा जिससे कि हम जानवरों को राहत दे सकें।

एकदम ये समझना ज़रूरी है कि प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूअल्टी टु एनिमल एक्ट कोई इकलौता कानून नहीं है जानवरों के लिए। बहुत सारे कानूनों में प्रावधान होते हैं जानवरों से सम्बन्धित। जैसे हमारा एक वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन एक्ट है उन्नीस-सौ-बहत्तर का जो सारे वन्य जीवों के ऊपर लागू होता है जो भारतीय वन्यजीव हैं। इसमें भी एक संशोधन आ रहा है। प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूअल्टी टु एनिमल एक्ट में दंड का सुधार करने के लिए भी एक संशोधन आ रहा है इससे सबके लिए हम सरकार के साथ प्रयत्नशील हैं।

मगर जो म्युनिसिपल कॉरपोरेशन एक्ट होती हैं राज्य की हर राज्य की अलग-अलग होती हैं वो बहुत ज़रूरी होती हैं। आवारा गायें, जो बोलते हैं जो बेचारी डेयरी से निकाली हुई गायें होती हैं उनको कहांँ रखना है, सड़क के कुत्तों का क्या करना है, सूअरों का क्या करना है, पालतू कुत्तों को कैसे रजिस्टर करें, ये सब प्रावधान म्युनिसिपल कॉरपोरेशन एक्ट में होते हैं।

तीसरा जो अगला अधिनियम है जो बहुत महत्वपूर्ण है वो है ‘खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम’। जिसको बोलते हैं ’फूड सेफ्टी एंड स्टैन्डर्ड एक्ट’। क्योंकि इसमें दो-हज़ार-ग्यारह के लाइसेंसिंग इन रजिस्ट्रेशन रेगुलेशंस में बताया गया है कि किस प्रकार तीन प्रकार की चीज़ें चलेंगी — माँस की दुकान, कसाई खाने और माँस प्रसंस्करण इकाई, ये कैसे बनने चाहिए इनको कैसे लाइसेंस या रजिस्ट्रेशन प्राप्त करना होगा छोटे हैं तो रजिस्ट्रेशन‌ बढ़े हैं तो लाइसेंस और उसकी योग्यता भी। उसमें दिया हुआ है तो इन रेगुलेशंस के माध्यम से और इसमें तो दंड बहुत ज़्यादा है, दो लाख रुपए प्रतिदिन तक के दंड हैं बशर्ते कि कोई शिकायत करे और उसको अनुकरण करे।

ये रिपोर्टिंग ‘डीओ फूड सेफ्टी’ (खाद्य सुरक्षा विभाग) को हो सकती है‌। डेज़िग्नेटेड ऑफ़िसर फूड सेफ्टी जिले का एक अधिकारी होता है, उसको हो सकती है या राज्य के खाद्य सुरक्षा कमिश्नर को हो सकती है या फिर फूड सेफ़्टी स्टैन्डर्ड्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण) जो भारत सरकार में है वहांँ पर हो सकती है उनके सीईओ को या चेयरमैन को।

अब ये तो हो गयी जहांँ पर जानवरों को अवैध रूप से मारा जा रहा है। कानून ये है कि अगर जिस माँस की दुकान या कसाई खाना या माँस प्रसंस्करण इकाई को लाइसेंस मिला उसको अपना लाइसेंस पर्दर्शित करके दिखाना पड़ेगा, दुकान के बाहर। अगर प्रदर्शित नहीं है तो आप मान लीजिए कि उसके पास लाइसेंस नहीं है। और आप उसकी शिकायत कर सकते हैं।

किसी भी माँस की दुकान में जानवर को मारना अवैध है। माँस की दुकान में सिर्फ़ माँस बेचा जा सकता है जानवर को मारने के लिए स्लॉटर हाउस ही ज़रूरी है। अगर स्लॉटर हाउस के पास लाइसेंस नहीं है तो मतलब उसका चलना बिलकुल भी नामुमकिन है। यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने भी फ़ैसले दे रखे हैं। यहांँ तक कि सत्रह फरवरी दो-हज़ार-सत्रह इज़ द डेट ऑफ़ अ कॉमन कॉज़ वर्सेज यूनियन ऑफ़ इंडिया (सामान्य कारण बनाम भारत संघ) आदेश जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन सारे कानूनों को इकट्ठा करके जो स्लॉटर हाउस पर लागू होते हैं कि इनको हर राज्य सरकार को लागू करना है।

तो लेकिन कोई जाए तो सही, कोई राज्य सरकार को बोले तो सही कि यहांँ पर ये चार दुकानें हैं जो नहीं होनी चाहिए। और कुछ नहीं तो अपने थाने को ही बता दें। आइपीसी के धारा दो-सौ-साठ से दो-सौ-उनहत्तर में पब्लिक न्यूसेंस (बाधा) पर वो हो सकता है। उदाहरण के लिए, मेरे घर के बगल में‌ एक माँस की दुकान है। मैं वहांँ पर‌ मुर्गियों को क्यों देखूँ, मेरे लिए वो आपत्तिजनक है, मुझे रुकावट लगता है। और वहांँ पंख, कभी कुछ हड्डी कहीं पड़ी रहे किसी का पंजा पड़ा रहे है ये बीमारी फैलाने के भी तो तरीक़े हैं। तो मैं अपने नजदीकी पुलिस स्टेशन में आइपीसी की धाराओं इंडियन पैनल कोड की धाराओं में धारा दो-सौ-साठ से दो-सौ-उनहत्तर में रिपोर्ट कर सकती हूँ और उसको हटवा सकती हूंँ। तो तरीक़े बहुत हैं प्रावधान हैं।

आचार्य: लेकिन इनका इस्तेमाल तो तब होगा न जब किसी के मन में सबसे पहले जानवरों को लेकर के कुछ संवेदनशीलता हो। वरना कानून बना रहेगा पर पड़ा रहेगा कोई उसका इस्तेमाल करेगा नहीं। इतना ही नहीं उसमें जो एक्ज़ीक्यूटिंग अथॉरिटी (अनुपालना प्राधिकरण) है उसमें भी ये संवेदनशीलता होनी चाहिए कि ये मामला, मुद्दा गम्भीर है और इस तरह की अगर कोई शिकायत आए तो उस पर कार्रवाई हो। नहीं तो शिकायत आएगी भी तो उसको रफ़ा-दफ़ा कर देंगे, कह देंगे जानवरों को लेकर क्या बात करनी है अभी तो इंसान नहीं सम्भल रहे तो ले-देकर के बात आम आदमी की, भारतीयों की चेतना पर आकर के रुक जाती है क्योंकि करना तो सब कुछ इंसानों ने ही है न। कानून भी इंसान ने बनाया है कानून पर अमल भी इंसानों ने करना है, स्लॉटर भी करने वाले इंसान हैं, खाने भी वाले भी इंसान हैं। अगर इंसान ही एकदम क्रूर हो गया है तो बात उसमें शायद इसीलिए अटक रही है।

प्र: मेरी कर्मभूमि बहुत समय तक उत्तराखंड रही और जब मैं वहाँ पर शुरू में जाती थी किसी थाने में कोई रिपोर्ट लेकर कि ये मुकदमा दर्ज कर लीजिए, हँसते थे मेरे ऊपर कि अरे! ये जानवर को भी कुत्ता मरने पर भी रिपोर्ट लिखनी पड़ेगी, मैडम! हँसते थे। लेकिन हम न हमारा मनोबल कम हुआ, न हमने हार मानी; उल्टा हमने कहा कि अरे! आपको नहीं पता और फिर उनको अधिनियम दिखाया बिलकुल कानूनी शब्दों में जब बात करी और भावुक नहीं हुए और मनोबल काम नहीं होने दिया। तो आज की तारीख में आप उत्तराखंड के किसी भी थाने में जाकर अगर रिपोर्ट देते हैं दस में से आठ थाने शर्तिया उनको सब पता होगा और हो सकता है कि दो कोई नये बन्दे आये हों जो भी हो लेकिन हमने वर्कशॉप्स करीं, कैपेसिटी बिल्डिंग करी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि बारह पन्द्रह और राज्यों में पुलिस के साथ वर्कशॉप्स, जुडिशल मैजिस्ट्रेट्स के साथ वर्कशॉप्स , पशुपालन विभाग के अधिकारियों के साथ वर्कशॉप्स।

तो अब हम ये क्यों कर पा रहे हैं? क्योंकि हमने अपनेआप को आत्म शिक्षित किया। दूसरों को भी यही करना है पहले अपनेआप को सिखाना है, उसके बाद दूसरों को सिखाना है और भले ही हमें बाल्टी से सागर खाली करना पड़े। हमें करते चले जाना है।

आचार्य: आँकड़े बता रहे हैं कि जैसी हालत पाँच साल पहले थी उससे ज़्यादा ख़राब हालत आज है तो उस दृष्टि से बात अटक कहाँ पर रही है? बिलकुल अच्छी बात है कि जवान पीढ़ी से उम्मीदें हैं, रखनी होगी उनके अलावा किससे रख सकते हैं! लेकिन उन तक बात पहुँच क्यों नहीं रही है और उनकी सहभागिता जिस हद तक होनी चाहिए आपने क्या पाया है, क्यों नहीं मिल पा रही?

प्र: कुछ तो ये कि शायद जैसा कि मैंने कहा उन तक तार नहीं बन रहे हैं अभी कितने ही कैपेसिटी बिल्डिंग सेशंस हमने किये हैं और भविष्य में अब ये लोग थोड़ा अगर इनके कैंपस में कोई क्रूरता होती है वगैरह, वगैरह, तो बोलना शुरू करेंगे।

मैं फिर भी समझती हूंँ कि वो बहुत ही टिप ऑफ़ द आइसबर्ग वाली समस्या है जो ज़्यादा बड़ी समस्या है वो आती है इंडस्ट्रियल एनिमल एग्रीकल्चर (पशुपालन) से, जहांँ पर ऐसे-ऐसे दैत्य बैठे हैं, बड़ी-बड़ी दूध की कम्पनियाँ, बड़ी-बड़ी अंडे की कम्पनियाँ एक नेशनल एंड कोर्डिनेशन कमिटी भी है जो किसी भी तरह सरकारी नहीं है लेकिन दिखती सरकारी है इसी तरह जो है जो बड़े दैत्य हैं ये इन्होंने सब तरह से कानून को डिसमेम्बर करके रखा हुआ है। और इन्होंने एक सांस्कृतिक बदलाव कर दिया जैसे श्वेत क्रान्ति हम बोलते हैं। कोई डॉक्टर कुरियन हुआ करते थे। इससे क्या हुआ है? एक गाय का कितना हम दूध खींच लें और कैसे हम उसके बच्चे को एकदम नदारद कर दें वहांँ से और कैसे हम ज़्यादा-से-ज़्यादा दूध को बेच सकें।

इसमें कौनसी बहुत ही मानवता के विकास की बात है! ये तो विकास है ही नहीं। लेकिन यही कम्पनियाँ अपनेआप को विकास के नाम पर प्रोटीन-प्रोटीन बोलते हुए तमाम तरह से शोषण कर रही है इतनी बड़ी संख्या में कि जो अगर हम युवा को अभी विकसित कर भी रहे हैं फेलोशिप के माध्यम से, केपैसिटी बिल्डिंग (क्षमता निर्माण) के माध्यम से ये कब अपने उस मुक़ाम पर पहुंँचेंगे जहांँ ये इनको चुनौती दे सकेंगे? इनको तो हमें ही चुनौती देना अभी मुश्किल है।

आचार्य: तो आप इसको ऐसे देख रहे हैं कि ये जो पूरी चीज़ है ये बिग कैपिटल (बड़ी पूँजी) और बड़ी कम्पनियों द्वारा ड्रिवेन (संचालित) है।

प्र: क्योंकि इनके हाथ में वोट्स हैं, इनके हाथ में पैसे हैं तो सरकार भी सब्सिडीज़ देती है, विनियमित नहीं करती, नहीं।

आचार्य: नहीं पर जो चीज़ें आप कह रही हैं वो तो इनके हाथ में हमेशा रहेंगी ही न।

प्र: जी, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि इनको विनियमन के घेरे में लाना ज़रुरी है। पशु व्यापार भी‌ एक बहुत मुख्य समस्या थी जो मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत बुरी लगती थी। यहांँ तक कि बचपन में हम पक्षी बाज़ार वगैरह में मेरे पिताजी मुझे ले जाया करते थे कि हम चिड़िया खरीदते हैं, ये-वो, नहीं। उस समय‌ मैं समझती कि हम पिंजरे में क्यों रख रहे हैं चिड़ियों को लेकिन वहांँ उनकी हालत देखकर बहुत ख़राब लगता था।

करते-करते-करते अब हम इस मुक़ाम पर पहुंँचे कि हमने दिल्ली उच्च न्यायालय में मुकदमा दर्ज किया कि ये इतना बड़ा पशु व्यापार जो हो रहा है, अनरेगुलेटेड (अनियन्त्रित) है‌, पूरे देश में सरकार को कानून बनाने चाहिए। सरकार का बिलकुल मन नहीं था कानून बनाने का लेकिन न्यायलय ने कदम बढ़ाया भारत के विधि आयोग ने रिपोर्ट बनाकर प्रकाशित किया और अंततः आज की तारीख में हमारे पास वेट शॉप्स और डॉक ब्रीडर्स को विनियमित करने के कानून हैं, है न। पहले शायद सपना सा लगता था।

आचार्य: अच्छा, आप रेगुलेट वो सब चीज़ें करा सकते हैं जिसमें जो हिंसा है वो मिनिमाइज़ (न्यूनतम) हो जाए लेकिन सबसे बड़ी हिंसा तो माँस का कंज़म्प्शन ही है। कानून के माध्यम से माँस खाने पर किसी तरह की वर्जना तो लायी नहीं जा सकती जहाँ तक मैं समझता हूँ।

प्र: हमारे संविधान के विरुद्ध है।

आचार्य: वो तो भई, लोग कह देंगे, राइट टू फूड और इन चीज़ों में आ जाता है, फ़्री विल , फ़्री चॉइस। तो अगर लोगों को खाना है और लोगों में, और ख़ासतौर पर जवान लोगों में‌ खाने की वृत्ति है और चाहत है तो वो चीज़ चलती रहेगी न, भले ही रेगुलेटेड होकर चले। अब जैसे पश्चिम है वहाँ तो रेगुलेशन है और रेगुलेशन को माना भी जाता है। लेकिन प्रति व्यक्ति माँस की खपत वहाँ तो भारत से सौ गुना ज़्यादा। तो जो रेगुलेशन का रूट है उसको आप वो निश्चित रूप से बहुत आवश्यक है पर वो कहाँ तक जा पाएगा। यहाँ पर अगर पाँच लोग बैठे हैं और पाँचों कह रहे हैं कि हमें माँस खाना है। ‘अभी शाम के पाँच बजने वाले हैं, साहब हमें स्नैक्स में तो माँस ही चाहिए,’ तो कौनसा रेगुलेशन आकर के उनको वर्जित कर सकता है खाने से!

प्र: एनिमल वेलफेयर (पशु कल्याण) और एनिमल राइट्स (पशु अधिकार)‌ — दो अलग अवधारणाएँ हैं। पशु अधिकार में हम ये कहते हैं कि जानवर को मारो ही मत, बिलकुल मत मारो और पशु कल्याण में हम ये कहते हैं कि कम-से-कम हम उसको क्रूरतापूर्वक व्यवहार न करें उसके साथ और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, जो हमारा प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूअल्टी टु एनिमल एक्ट है उसमें भी मानव भोजन के लिए पशुवध को स्वीकार किया गया है मगर उसको अनावश्यक क्रूरता नहीं दी जा सकती‌ मारते हुए भी। अनावश्यक को बताने के लिए नियम हैं, उस नियम में बताया कि आपको निश्चेतन करना होगा, स्टनिंग करनी होगी जानवर को मारने से पहले एक जानवर के आगे दूसरा जानवर नहीं मार सकते, कोई गर्भवती जानवर को नहीं मार सकते, जानवर के बच्चे को नहीं मार सकते, बीमार को नहीं मार सकते, वगैरह-वगैरह। तो वो नियम भी अब भारत सरकार बना रही है धीरे-धीरे मतलब ये ऐसा है जैसे चम्मच से सुरंग खोदना, लेकिन हो रहा है।

ये तो हो गया इन्क्रीमेंटल वेलफेयर लेकिन वो भी बहुत होता है जब हम करोड़ों पक्षियों की बात कर रहे हैं जो पूरी ज़िन्दगी पंख नहीं फैला सकते, सीधे खड़े नहीं हो सकते, गोल घूम नहीं सकते, एक-के-ऊपर-एक बैठते हैं कभी-कभी, उनको अगर इतनी जगह मिल जाए कि वो चार कदम चल लें तो ये उनकी ज़िन्दगी बदलने के बराबर है और उनके कल्याण के मूल्य को हम कम नहीं आँक सकते।

दूसरा, और इससे क्या होगा कि स्पष्ट रूप से उतनी जगह अगर किसान और दे रहा है तो उसकी थोड़ी सी क़ीमत भी ज़्यादा लगेगी, वो क़ीमत क्यों न उपभोक्ता दें? अगर भैंस का बच्चा या गाय का बच्चा नर पैदा हुआ है और वो उसको सड़क पर छोड़ दिया गया है और उसको किसान कहते हैं, ‘मैं तो बहुत ग़रीब हूँ, मैं नहीं पाल सकता तो जो जिसने दूध खरीदा उसकी क़ीमत में जुड़ना चाहिए। ये सब मामले भी‌ न्यायतन्त्र में विचाराधीन हैं तो इन पर मेरी उम्मीद क़ायम है।

दूसरी बहुत बड़ी उम्मीद का ज़रिया ये है कि अब विकल्प बहुत आ गये हैं माँस के विकल्प बहुत आ गये हैं एक तो ये पौधों से प्राप्त विकल्प हैं जो बिलकुल माँस जैसे दिखते हैं और स्वाद में भी होते हैं यहांँ तक कि चिकन, बीफ, मटन ये सब के पौधों से प्राप्त विकल्प आ गये हैं जो बिलकुल माँस जैसे होते हैं और क़ीमत वास्तव में कम होती हैं। बिना पकाए खाने वाले भी होते हैं, पकाकर खाने वाले भी होते हैं और बहुत सारी कम्पनी हो गयी हैं।

पिछले पांँच साल में मैंने इतनी कम्पनीज़ कम-से-कम पहले तो एक-आध कम्पनी का ही हमने नाम सुना था, कभी विदेश से मँगाया करती थी। कोई लन्दन जाता तो हम कहते थे कि अरे, वो प्लांट बेस्ड एग ले आना ज़रा। अब हम देखते हैं यहाँ पर पौधों से पाये जाने वाले अंडों के चार प्रकार हैं बाज़ार में, तो अगर मुझे अंडे की भुजिया खानी है तो मैं पौधों से पाये जाने वाले अंडे खा सकती हूंँ। तो बहुत ही ज़्यादा प्रकार के पौधों से प्राप्त होने वाले आ गये हैं और अब हम इसे और ऊँचे पायदान पर ले जा रहे हैं अब हम कोशिका से बने माँस बना रहे हैं जो वास्तव में बिलकुल माँस होगा लेकिन जानवर से निकला हुआ नहीं होगा।

आचार्य: उम्मीद यही है कि ये जो आप प्लांट बेस्ड और बाक़ी विकल्प कह रही है ये सफल रहें और काश ऐसा हो सके कि इनके कारण आदमी और जानवरों का जो सम्बन्ध है वो बदल सके। लेकिन अगर मैं आदमी के मन को देखूँ तो मुझे आशंका है कि ऐसा होने नहीं वाला। क्योंकि देखिए बात ये नहीं है कि उस व्यक्ति को खाना था तो उसको मुर्गी का माँस मिल गया तो उसने खा लिया, उसे कुछ और मिलेगा तो वो खा लेगा। जो मुर्गी का माँस खा रहा है आपने ख़ुद ही कहा कि जानता तो है ही बस उस विचार को वो अलग कर देता है क्योंकि वो अनकनविनिएंट (असुविधाजनक) है।

तो रहना इस पृथ्वी पर इंसान को जानवरों को है ही अगर उसका मन नहीं बदला है तो वो हर तरीक़े से कंज़म्प्शन करना चाहेगा और कंज़म्प्शन की उस प्रक्रिया में वो जानवरों और जंगलों को किसी भी तरह छोड़ने वाला है नहीं। हाँ, ये हो सकता है कि वो काटकर खाना कम कर दे क्योंकि उसको लैब मीट मिलने लगा है। ‘कोई बात नहीं, लैब मीट मिल रहा है ज़िन्दगी और आसान हो गयी है।’ तो और बच्चे पैदा करते हैं तो और जंगल काटते हैं और जंगल काटते हैं तो जानवर अपनेआप ही मर जाएँगे। पहले स्लॉटर हाउस में मरा करते थे अब वो हैबिटेड डिस्ट्रक्शन की वजह से मर जाएँगे तो एक और तो मैं यही कह रहा हूंँ कि मेरी कामना यही कि हम जो लीगल और टेक्निकल रूट ले रहे हैं वो सफल रहें कि हम रेगुलेशन ले आते हैं जिससे कि लोग डर के मारे कानून के डर के मारे जानवरों पर अत्याचार न करें और हम टेक्नोलॉजी ले आ दें जिससे कि लोगों को माँस के विकल्प उपलब्ध हो जाएँ और वो अत्याचार न करें। और इससे निश्चित रूप से हमें कुछ सफलता मिलेगी भी लेकिन जो मूल वजह है अगर वो वजह आदमी के मन में हिंसा का बढ़ना तो वो हिंसा क्यों बढ़ रही है उसके मूल कारणों पर जाए बिना अगर हम दूसरे तरह के प्रयास करेंगे लीगल, टेक्निकल इत्यादि-इत्यादि तो मुझे डर है कि हमें बहुत सफलता मिलेगी नहीं और अगर सफलता मिल भी गयी तो उस सफलता को ख़त्म करने के न्यूट्रलाइज करने के इंसान नये-नये तरीक़े खोज लेगा।

अब जैसे एनिमल वेलफेयर की जो बात की, पश्चिम में एनिमल वेलफेयर भरपूर है वहांँ पर आप किसी पशु पर जरा सी क्रूरता कर दें सड़क पर तो जुर्माना आपको भरना पड़ेगा इसी तरीक़े से उनके स्लॉटर हाउस हैं वो वेल रेगुलेटेड (सुनियन्त्रित) हैं, ये सब है। लेकिन

प्र: सभी नहीं। यहाँ तक कि यूएसए , कैलिफोर्निया वगैरह में।

आचार्य: भारत से ज़्यादा मैं भारत की तुलना में कह रहा हूंँ।

प्र: भारत में तो पूरी तरह अराजकता है।

आचार्य: तो भारत से बेहतर है हालत। लेकिन जानवरों पर अगर हम कुल क्रूरता देखें कि पृथ्वी के जानवर हैं और उन पर एक भारतीय कितनी क्रूरता करता है और एक अमेरिकी कितनी क्रूरता करता है तो अमेरिकन वेल रेगुलेटर एनवायर्नमेंट होने के बावजूद जानवरों पर शायद दस गुनी ज़्यादा क्रूरता करता है एक औसत भारतीय की अपेक्षा। तो रेगुलेशन (विनियमन) निश्चित रूप से आपने बिलकुल ठीक कहा एक चिड़िया पिंजड़े में बन्द है अगर हम रेगुलेशन के माध्यम से कुछ ऐसा कर सकें कि उसको थोड़ी जगह मिल जाए, थोड़े पंख फैला सके वो तो बहुत अच्छी बात होगी और आप जब बोल रही थीं मैं कल्पना कर रहा था मुझे सुनने में ही राहत महसूस हो रही थी कि अगर वैसी चिडिया मैं ही वो चिड़िया बन गया उतनी देर के लिए। मैं मुड़ नहीं सकता, मैं हिल नहीं सकता और मुझे आकर के कोई दयालु आदमी थोड़ी जगह दे दे तो मैं कितना उपकार मानूँगा! तो बहुत कितनी अच्छी बात कर दी।

तो ये निश्चित रूप से एक प्यारी बात है आवश्यक बात होनी चाहिए। लेकिन मैं दोहराकर कहूंँगा, ‘आशंका मुझे ये है कि इंसान का मन जिस दिशा में जा रहा है और उसके ऊपर जो प्रभाव काम कर रहे हैं, अगर उनको मूल रूप से सम्बोधित नहीं किया गया, अगर उनकी जड़ को ही ठीक नहीं किया गया तो हम हिंसक होने के नये-नये तरीक़े इजाद कर लेंगे।’

प्र: शायद आप ठीक कह रहे हैं। मैं जिस दृष्टिकोण से देखती हूंँ कि ये बेचारे जानवर अपनेआप तो नहीं बढ़ते हैं तादाद में आज की तारीख में‌ हम जो हंड्रेड बिलियन जानवरों को साल में काटते हैं ये अपनेआप नहीं पैदा होते, ये सब आर्टिफिशियल‌ इनसेमिनेशन (मानवकृत) से पैदा होते हैं चाहे वो मुर्गी हो, चाहे वो भैंस हो, गाय हो कुछ हो तो अगर हम इनको इनके माँस को सब्स्टिट्यूट कर सकें किसी और से तो न ये पैदा होंगे, न इनकी क्रूरता होगी।

अब पहले मुझे याद है सन् दो-हज़ार में सोय मिल्क जो हम कभी-कभी इस्तेमाल करते थे वो किन्ही किंचित दुकानों में मिलता था कोई बड़ी-बड़ी दुकानों में डिपार्टमेंटल स्टोर वगैरह में एक ही कम्पनी का आता था गोदरेज का और किसी को आता नहीं था। और कोकोनेट मिल्क का काम था सिर्फ़ खाने में डालने का कोई पीने के काम में नहीं लाता था। अब हम देखते हैं इतने प्रकार हैं और मेरे घर के बगल की परचून की दुकान मिलता है इसका उपभोग कितना बढ़ा है और इसने कितना रिप्लेस किया और कितना ये बड़ी-बड़ी दूध की कम्पनी घबराई हुई हैं जो अब वो भाग भागकर कोर्ट जा रही हैं इन छोटे-छोटे स्टार्टअप जो हैं वो कोकोनट मिल्क, ओट मिल्क, सोय मिल्क को चैलेंज करने के लिए कि तुम कहांँ से आ गये तो ज़रूर कुछ तो हम ठीक कर रहे होंगे जो दूसरों को इतना विचलित कर रहे हैं।

आचार्य: थोड़ा सा मैं इसमें से डेविल्स एडवोकेट (छिद्रान्वेषी) कहते हैं, मैं उसको करूँगा और इसलिए क्योंकि मैं चाहता हूँ कि ये काम आगे बढ़े और ये इरादा सफल हो।

देखिए, अगर हम कुल खपत पशु-दूध की देखें तो वो सोय मिल्क के आगमन के बाद से कहीं ज़्यादा बढ़ी ही होगी। मेरे पास आँकड़े नहीं हैं, और आँकड़े मुझे लगता है देखने चाहिए जैसे हम दो-हज़ार-सोलह को अगर एक कटऑफ़ ईयर लें कि उसके बाद से हम आँकड़े देखें तो सोय मिल्क आ गया हमारे पास, हमारे पास कोकोनेट मिल्क आ गया, आलमंड मिल्क आ गया; इनके आने के बाद से क्या पशु के दूध की खपत कम हुई है?

एक फिनोमिना (घटना) होता है इकोनोमिक्स में जिसमें किसी प्रोडक्ट के सब्स्टिट्यूट के आने से उस प्रोडक्ट (उत्पाद) की अपनी माँग और ज़्यादा बढ़ जाती है। किसी प्रोडक्ट के सब्स्टिट्यूट के आने से उस प्रोडक्ट की अपनी डिमांड और ज़्यादा सीमेंटेड (मज़बूत) हो जाती है। तो वो बहुत जल्दी एक एक्वलिब्रियम (संतुलन) आ जाता है वो नाइनटी-टेन तरह का एक्वलिब्रियम आ जाता है जिसमें वो जो टेन परसेंट है उस प्रोडक्ट का सब्स्टिट्यूट या उस कम्पनी का कॉम्पिटिटर इकॉनमिक कम्पनी कॉम्पिटिटर की तरह देखती हैं कि उस प्रोडक्ट का सब्स्टिट्यूट या उस कम्पनी का कॉम्पिटिटर आ गया है उसने एक्चुअली ये काम करा है कि उस नब्बे प्रतिशत को और ज़्यादा मज़बूत रीइनफोर्स कर दिया है और इन दोनों ने मिलकर के अब इनकी दोनों की जो आपस में घर्षण है, जो टसल है उसने ये काम कराया कि उसने मार्केट साइज़ को ही एक्सपेंड (विस्तृत) कर दिया है जो ओवरऑल साइज़ , जिसे कहते हैं न साइज़ ऑफ़ द पाई उसको ही बढ़ा दिया है।

तो ऐसे हो रहा था पहले समझिए कि सौ यूनिट्स का मार्केट था और वो सौ के सौ यूनिट मोनोपोलाइज थे दूध के द्वारा। अब ये जो दूध के सब्स्टिट्यूट आये उन्होंने क्या करा कि ये बात तो कभी चैलेंज करी ही नहीं कि दूध तुम्हें चाहिए ही क्यों उन्होंने आकर के इस धारणा को और रीइनफोर्स कर दिया कि भाई दूध तो चाहिए ही होता है तुम एक काम करो तुम जानवर के दूध की जगह न तुम कोकोनट का दूध ले लो बराबर का सफ़ेद है, स्वाद भी वैसे ही देता है सबकुछ।

तो उसने इस चीज़ को कभी चैलेंज नहीं किया कि तुम्हें उस दूध की ज़रूरत नहीं है उन्होंने बस उसका अल्टरनेटिव डाल दिया नतीजा ये हुआ कि पहले सौ यूनिट्स की मार्केट थी और सौ यूनिट उसमें पशु का ही दूध उसको मोनोपलाइज़ (एकाधिकार) करे हुए था। फिर जो मार्केट हो गयी वो डेढ़ सौ यूनिट की हो गयी और उस डेढ़ सौ यूनिट में से पन्द्रह यूनिट मिल्क सब्स्टिट्यूट की हो गयी। अब उसमें मिल्क कितना हो गया एक-सौ-पैंतीस तो मिल्क कम नहीं हुआ मिल्क सौ से बढ़कर बल्कि एक-सौ-पैंतीस हो गया। क्यों? क्योंकि जो मूल टेंडेंसी है इंसान की कि मैं कुछ ऐसा खाऊँ-पिऊँ जिसमें राजसिक भाव आये, मज़ा आ गया।

जैसे आपने कहा न कि वो अपने प्लांट मीट भी खाया तो आप उसको खा नहीं पायीं क्योंकि वो बिलकुल जानवर के माँस जैसा था। अब किसी को वो जानवर का माँस अगर चाहिए चाहिए और उसको हड्डी से माँस नोचने में ही एक पाशविक मज़ा एक पर्वर्स प्लेजर आता है कि देखो कितना मज़ा आता है जब मैं हड्डी से ऐसे माँस नोंचता हूँ और हमारे भीतर एक ऐसा राक्षस बैठा होता है जिसको इस चीज़ में है जिसको इस चीज़ मे बहुत मज़ा आता है। तो उस राक्षस को तो हमने कहीं चैलेंज नहीं करा वो राक्षस तो बैठा हुआ है हमने उसको क्या कह दिया कि ये जो है लैब ग्रोन (प्रयोगशाला में उगा) है ये प्लांट मीट है, इसको तुम ले लो। वो राक्षस तो बैठा ही हुआ है और वो राक्षस बैठा है तो वो अपने लिए शिकार खोजेगा ही खोजेगा आपने इस दिशा में रोका वो किसी और दिशा में खोजेगा। ये तक हो सकता है कि कुछ समय के लिए वो जानवरों पर हिंसा थोड़ी कम कर दे और अपनी हिंसा की दिशा इंसानों पर ही मोड़ दे या किसी और दिशा मोड़ दे मान लिजिए पेड़ों की ओर जंगलों की ओर मोड़ दे मछलियों की ओर मोड़ दे कुछ भी कर सकता है।

प्र: मुझे लगता है कि जो किसी भी प्रकार की हिंसा हिंसा कुछ नहीं देखती है इंसान हो, पेड़ हो दूसरे लोग हों जो व्यक्ति जानवर के साथ बुरा होता है वो घर में अपनी बीवी को भी मारता है अपने बच्चे को भी मारता है वो समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों पर भी हिंसा करता है। हिंसा कोई भी भाषा या प्रजाति नहीं जानती। आप सही कह रहे हैं कि हमें मूल कारण पर चोट करना चाहिए कि इतना आक्रोश और हिंसा क्यों हो रही है। लेकिन सचमुच वो एक ऐसा क्षेत्र है जहांँ मुझे नहीं पता कि कैसे हम वो करें तो हम तरीक़े ढूँढते रहते हैं कि कैसे हम सब्स्टिट्यूट करें, कैसे हम कानून को मज़बूत करें।

आचार्य: आपकी जो पूरी लेजिस्लेटिव (विधानसभा) है वो इंसान है और इंसान माने इंसान का मन, जिस तरीक़े से वो सोचता है और जैसे उसकी चेतना है। तो जिन्हें नियम बनाने है वो इंसान, जो एग्ज़ीक्यूटिव हैं आपने उनको नियम बना के दे दिया पर कार्रवाई और अमल तो उनको करना है वो भी इंसान जैसे आपने कहा कि वो थाने वाले हँस रहे थे कि अरे, क्या कुत्तों की भी करना पड़ेगा, उसके बाद जिन्हें जाकर फ़रियाद करनी है, कम्पलेंट लिखानी है वो भी इंसान वो कम्पलेंट न लिखायें तो उसका एग्ज़ीक्यूशन कैसे होगा और जो राइट्स एक्टिविस्ट्स (अधिकार कार्यकर्ता) हैं जो कि मैं उनकी मैनुअल राइट्स की बात नहीं कर रहा जो कह रहे हैं, ‘साहब, मेरा खाने का फ़्रीडम है, मेरा ये है, मेरा वो भी इंसान।’

जब तक इनके मन को हम सम्बोधित नहीं कर रहे हैं तब तक फिर कहूँगा मुझे ….

प्र: होलसम सॉल्यूशन (संपूर्ण समाधान) नहीं होगा।

आचार्य: होलसम सॉल्यूशन भी नहीं होगा और जो हम बाक़ी सॉलूशंस निकाल रहे हैं वो बहुत ज़रूरी हैं, बहुत ज़रूरी है लेकिन हम उन पर शायद निर्भर नहीं कर सकते। वो फिर वैसा ही होगा कि ह्यूमेन किलिंग ऑफ़ एनिमल्स , (जानवरों का मानवीय कत्ल) मैं उस उस फ्रेज़ को पढ़ता हूँ और मेरा खून बिलकुल एकदम जमने लग जाता है कि किसी ने बोल कैसे दिया है कि जानवरों का मानवीय कत्ल। मानवीयता, इंसानियत के साथ जानवरों की हत्या। तुम क्या कह रहे हो? तो हम उस तरीक़े के फिर पाखंड में आ जाएँगे कि उसे पूरा ख़्याल रखो और बड़े मानवीय तरीक़े से फिर उसकी गर्दन काट दो।

प्र: जो आप कह रहे हैं मैं जो देख रही हूंँ कि अधिकारों की पहुँच तो है लेकिन वो जानवर के प्रिज्म से नहीं वो मानव के प्रिज्म से होना चाहिए कि इसलिए मत करुणा अपने दिल में लायें कि जानवर को ज़रूरत है बल्कि अपनी ज़िन्दगी को एक पायदान ऊपर करें और एक ऐसी लाइफ़ जियें जिससे हम ख़ुद भी ज़्यादा सन्तुष्टि, स्वास्थ्य प्राप्त कर सकें और अपने पर्यावरण को कम क्षति करें किसी और के लिए नहीं, अपने ख़ुद के लिए और उसमें एक विज्ञान और ज्ञान दोनों देखें।

आचार्य: अपने ख़ुद के लिए जब हम कहते हैं कि अपने ही बेहतरी के लिए जानवरों के साथ बेहतर व्यवहार करो तो फिर ये पता होना भी ज़रुरी है कि अपनी बेहतरी निहित किसमें है कि मैं जो हूँ मैं चीज़ क्या हूँ और वाक़ई कौनसी चीज़ है जो मुझे फ़ायदा देगी।

प्र: देश की ज़्यादातर जो जनता है मगर हम दस्त हो बच्चे को, चाहे उल्टियांँ लग रही हों दूध पिलाते चले जाते हैं और डॉक्टरों की हिम्मत नहीं होती थी बताने की कि इस बच्चे को दूध मत दो भैंस का दूध पीने। भैंस का दूध क्या होता है, वह‌ चार पेट वाला भारी हड्डियों वाला जन्तु है जिसका दूध ऐसे ही चार पेट वाले भारी हड्डियों वाले बछड़े के लिए भगवान ने या प्रकृति ने बनाया है। अब हम उसको पिला दें एकल पेट वाले बच्चे को, मानव शिशु को तो दिक्क़त तो आनी है, हम कहाँ उसका दूध जो चार सौ किलो का भैंसा बनने वाला था उसका दूध हम ऐसे किसी को पिला दें जो सत्तर किलो का इंसान बनेगा तो ये भी एक समस्या है।

उसके पोषक तत्व मैच ही नहीं करेंगे, उसको तोड़ने के एंजाइम्स ही हमारे अन्दर नहीं होंगे।

पहले मैं देखती थी कि डॉक्टर्स घबराते थे ऐसा बोलने से अब मेरी ही सर्कल में बहुत सारे डॉक्टर्स हैं जो ख़ुद कहते हैं उन्होंने कोरोना के समय पर भी बताया है कि यहांँ तक कि कैंसर इंस्टीट्यूट के डॉक्टर हैं हमारे परिचित जिन्होंने स्पेसिफिकली कहा है कि बीफ (गाय का माँस) तो मतलब गाय का माँस लगभग तम्बाकू के सामान ही है और ये एक सत्यापित कैंसर कारक है। जहांँ तक दूध है चाहे वो डायबिटीज को बढ़ाने के लिए हो इतने सारे शोध तो मूल रूप से हम अपने शरीर में ज़हर डाल रहे हैं सिर्फ़ अपने ज़बान के स्वाद के लिए और शायद ये क्योंकि हमारी मनोविज्ञान में स्थापित हो चुका है कि ये खाना अच्छा खाना होता है, ‘अरे, फल खायें, सब्ज़ी खायें, है न।’

तो लेकिन साइकी में शायद एक मानसिकता हमारे अन्दर विदेशों से आ गयी है।

आचार्य: इसलिए वो जो पीरियड (समयावधि) है पिछले बीस-तीस साल का वो बहुत महत्वपूर्ण है।

प्र: जो इंटरनेट एक्सप्लोजन (इंटरनेट विस्फोट) हुआ है और हमें दूसरों से दैट्स व्हेयर आय स्टार्टेड (ये वही है जहाँ से मैंने शुरू किया था) क्योंकि ये सब हमने दूसरों से ज़्यादा सीखना शुरू कर दिया है हम नकलची बन गये हैं और हम अपने उसको छोड़कर जो हमारा एक बिलकुल प्राकृतिक सब बढ़िया लाइफ़स्टाइल जिसमें हमारे अब हम देखते हैं मैं आपको एक उदाहरण और देती हूंँ, पहले महिलाएँ बड़ी आसानी से बच्चे पैदा किया करती थीं, ज़्यादातर सर्जरी के बगैर सामान्य प्रसव हुआ करता था । अब हम देखते हैं हर महिला को सिजेरियन की आवश्यकता हो रही है वो क्यों हो रही है? क्योंकि जब डेयरीज में किसी भैंस का बच्चा पैदा होता है उसको हम फेंक देते हैं उठाकर बच्चे को तो अगर वो नर हुआ तो वो तो सीधे काफ‌ लेदर बहुत बढ़िया बढ़िया बटुआ और बैंड वगैरह बनने में चले जाता है। तो भैंस के अन्दर ये क्षमता होती है कि वो अपने दूध को रोक ले और वो दूध वाले को न दूहने दे। अब उस समय कोई भैंस से क्या डील करे है? न कि उसको पुचकार दे या कुछ करके उसका दूध निकाल ले उतना ही ज़रूरत, समय नहीं होता किसी के पास सब बहुत व्यस्त हैं आजकल।

तो वो एक ऑक्सिटोसिन का इंजेक्शन लेते हैं पूरे ऑक्सीटोसन बिलकुल नक़ली, नक़ली ऐसे ही मिलता है फार्मेसी से नहीं मिलता, अवैध उसका पूरा सर्कुलेशन की शृंखला ही अलग है उसको वो ठोक देते हैं और उससे भैंस को प्रसव पीड़ा होती है, दिन में दो बार, सुबह और शाम। हम किसी जीव को प्रसव पीड़ा दिन में दो बार देते हैं उसका गर्भाशय संकुचित होने लगता है, ऑक्सिटोसिन एंजाइम हॉर्मोन की वज़ह से और वो अपना दूध रोक नहीं पाती उस समय को दूध छोड़ देते हैं बस इतनी सी सहूलियत के लिए हम उसको इतनी पीड़ा दे देते हैं। और वो ही ऑक्सिटोसिन अब ये रिसर्च भारत में की ही नहीं गयी है पाकिस्तान तक में की गयी हैं लेकिन भारत में नहीं की गयी है कि उसका क्या दुष्प्रभाव है जो महिलाओं पर आ रहा है लेकिन तथ्य बताते हैं, रिसर्च कोई करे, न करे कि पहले जब महिलाएँ आसानी से बच्चे पैदा कर देती थीं जो हर एक को सिजेरियन की आवश्यकता होती है क्या प्रसव जटिताएँ होते हैं वो क्यों होते हैं? अवैध ऑक्सीटोसिन के बढ़ते प्रयोग को ही मैं इसमें मुख्य कारक मानती हूंँ जो हर भैंस की डेयरी में इस पूरे देश में इस्तेमाल होता ही होता है शत-प्रतिशत। मैं फिर भी एक भविष्य ज़रूर देखती हूंँ जो उज्वल होगा मेरी शायद ये सोचे बगैर हमारे अन्दर काम अगले दिन उठकर खड़े होकर वापस काम पर लगने की शक्ति ही नहीं आएगी।

आचार्य: भविष्य उज्जवल हो ये चाहते हम सब हैं लेकिन जैसा वर्तमान है उसमें क्या चीज़ है जो बिलकुल ग़लत हो रही है उस पर उंगली रखे बिना तो जो भविष्य है वो बस अतीत का पुनर्चक्रण होगा जैसा अतीत था भविष्य वैसा बनता जाएगा न।

प्र: तो एक जो जिन दो कोणों से सोचने की क्षमता मेरी थी वो मैं कर रही हूँ। मुझे लगता है कि इसमें जो एक मुख्य पहलू नदारद है वो मुझे लगता है कि आप अच्छे से बता पाएँगे।

आचार्य: देखिए मैं बार-बार वहीं पर जाकर अटक जाता हूँ कि नब्बे के दशक के बाद से ख़ासतौर से भारत में क्या हुआ है, चल तो पहले से भी रहा था पर पिछले तीस सालों में विशेषकर क्या हुआ है अभी हम जब बात कर रहे थे कि कहाँ-कहाँ पशुओं पर हिंसा होती है तो एक जगह की हमने बात नहीं करी धर्म के नाम पर भी जो हिंसा होती है। तो अब मैं उस पर धर्म पर आता हूँ। ऐसा नहीं है कि धर्म की हालत पहले बहुत अच्छी थी और अभी ही ख़राब हुई है। लेकिन पिछले तीस सालों में ट्रू रिलीजियसनेस का, सच्ची धार्मिकता का बड़ा नाश हुआ है और कूड़ा-कचड़ा धर्म में पहले भी बहुत था, ज़बरदस्त था, वो कूड़ा-कचड़ा बचा रह गया है और वो कूड़ा-कचड़ा बचा ही नहीं रह गया वो और बढ़ गया है। अन्धविश्वास, पाखंड ये वो वो सब तो अपनी जगह क़ायम है।

जो सच्ची धार्मिकता होती है जिसको आध्यात्मिकता बोलते हैं जिसे इंसान थोड़ा बैठकर के शान्तिपूर्वक विचार करता है, ‘मैं कौन हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ, मुझे क्या सिर्फ़ लालच पर ही चलना है, डर-डरकर जीना है, दूसरे को सता-सताकर जीना है।’ ये धार्मिकता का कोर होता है, एकदम केन्द्र। वो चीज़ हो गयी है और ज़्यादा ख़त्म क्योंकि जब पूरी व्यवस्था को ही कंज़म्प्शन को ही बढ़ावा देना होता है तो कंज़म्प्शन के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा होती है एक सोचने विचारने वाला चित्त जो समझ सके जो ठहरकर के विचार कर सके। आप उसको आसानी से लुभा नहीं सकते कि आओ, मेरा माल खरीदो। किसी को अगर आपको लुभाकर के अपना माल बेचना है तो सबसे पहले आपको उसकी बुद्धि ख़राब करनी होती है। जैसे विज्ञापन आते हैं सारे ये क्या करते हैं? ये हमें मेडिटेटिव या कोंटमप्लेटिव , ये हमें विचारशील थोड़े ही बनाते हैं ये तो हमें ऐसे बाम्बार्ड करते हैं हमें सोचने-समझने का मौक़ा भी न मिले और हमें तरह तरह से ललचाते हैं।

तो अगर आपको एक देश की पूरी आबादी को ही बस एक कंज़्यूमर बेस (ग्राहकों का अड्डा) बना देना है, उसको कस्टमर ग्राहक ही बना देना है तो ज़रूरी है कि उस आबादी की सोचने समझने की ताक़त को कम किया जाए नहीं तो आपका माल नहीं खरीदेंगे। सोचने-समझने को कम करने के लिए वैसे ही बहुत सारी ताक़तें सक्रिय रहती हैं बाहर भी हमारे भीतर भी। काम-वासना भीतर बैठी है, लालच भीतर बैठा है, डर भीतर बैठे हैं, भ्रम, इग्नोरेंस सब भीतर बैठे हुए हैं पहले ही रहते हैं। एक चीज़ होती थी हमेशा जो इंसान को थोड़ा सा इंसान बनाकर रखती थी और वो मैं उसी को कह रहा हूँ आत्म विचार।

व्यक्ति थोड़ी शान्त ज़िन्दगी जीता था थोड़ी ठहरी हुई ज़िन्दगी जीता था जिसमें उसके पास ध्यान के लिए और ध्यान से मेरा मतलब ध्यान की कोई विधि वगैरह नहीं। चुपचाप मौन, ध्यान आप बैठे हैं सूर्यास्त हो रहा है आपने उतनी देर में अपने जीवन पर कुछ विचार किया, व्यक्ति वो किया करता था। अब वो जो सेल्फ़ इन्क्वायरी है, स्परचुलिटी का जो कोर है वो बिलकुल ध्वस्त हो गयी है, एकदम ध्वस्त हो गयी है। और सबसे ख़तरनाक बात ये है कि धर्म का मतलब पहले भी था अब और ज़्यादा यही सब रूढ़ी, रिवाज़, पाखंड, तरह-तरह की जो बिगोट्री होती है, कट्टरवादिता ये सब हो गया है धर्म का मतलब।

हम जिन जानवरों को बचाना चाहते हैं, मुझे जहाँ तक ध्यान है आप थीस्ट कहते हैं स्वयं को लेकिन हम जिन जानवरों को बचाना चाहते हैं वास्तव में उनको और हम इंसानों को भी बचाने का जो मूल जरिया है। देखिए वो अध्यात्म ही है। लेकिन अध्यात्म हो गया है ख़त्म और मैं स्वयं चाहता हूंँ कि जो सड़ा गला धर्म है वो मिटे धर्म में जो तमाम तरह की बुराईयांँ, कुरीतियांँ, बेकार बकवास चीजें आयी हुई हैं जिसमें पशुबली भी शामिल है वो सब तो हटना ही चाहिए। लेकिन धर्म का केन्द्र वही हमारी एकमात्र उम्मीद हो सकता है उसके अलावा कुछ नहीं है जो जानवर को बचा सके, इंसान को बचा सके और जब तक उसकी स्थापना नहीं होगी तब तक मामला गड़बड़ होता रहेगा। मैं इसीलिए युवा पीढ़ी को लेकर के और ज़्यादा सशंकित रहता हूँ क्योंकि इनके मन में और ज़्यादा ये बात डाल दी गयी है कि धर्म तो सड़ी-गली चीज़ है।

अब एक तरफ़ मैं सहमत भी हूँ इस बात से कि धर्म सड़ी-गली चीज़ है जिस तरह का धर्म आम जनता में प्रचलित है वो तो सड़ा-गला है ही लेकिन वास्तविक धर्म सड़ी-गली चीज़ नहीं होता है और वास्तविक धर्म ही है जो हमें बचा सकता है और वास्तविक धर्म को जवान लोगों तक ले जाने के ज़रिए खोजने होंगे, पूरा प्रयास करना होगा क्योंकि आपको भी उन्हीं से उम्मीद है, मुझे भी उन्हीं से उम्मीद है।

प्र: धर्म एक बहुत अमूर्त चीज़ है ये कुछ सम्यक् करने के सम्बन्ध में है। तो जो हमारे एक तरह से संविधान हमें देश की वो बताता है हमारे देश का मूलभूत आधार होता है, वैसे धर्म हमारे जीवन का होना चाहिए। हमें कुछ ख़राब नहीं करना है या किसी को मारना नहीं है, गाली नहीं देना है, ये किसी किताब में लिखा हो ज़रूरी नहीं है, ये हमारे अन्दर से आना चाहिए और यही धर्म है।

आचार्य: लेकिन उसमें दिक्क़त क्या आएगी? जैसे सैकड़ों बार मैं लोगों से अपील कर चुका हूँ क्या सही क्या ख़राब है इसकी परिभाषा जो है तय करने के लिए आदमी को थोड़ा शान्त और ठहरा हुआ होना चाहिए। है न? आपको बहुत स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि मुझे कुछ ग़लत नहीं करना है मुझे किसी जीवित चेतना के साथ कुछ ख़राब नहीं करना है। लेकिन जो लोगों के कुतर्क आते हैं वो तो ये सिद्ध करने पर तुले होते हैं कि अगर आप जानवर को नहीं खा रहे हो तो आप ख़राब आदमी है।

प्र: अजीब-अजीब से प्रश्न आते हैं मेरे पास भी कि अगर हम मुर्गियों को नहीं खाएँगे तो पूरे देश में मुर्गियाँ ही मुर्गियाँ हो जाएँगी। और कुछ अजीब इतने बेतुके सवाल कि मुझे लगता है कि ऐसे व्यक्ति ने अपना दिमाग कहीं रख दिया है या शायद सिर्फ़ बहस करने के लिए बहस कर‌ रहे हैं।

आचार्य: दिमाग नहीं रख दिया है, दिमाग उनका पूरी तरीक़े से सक्रिय है लेकिन दिमाग उनका ग़लत केन्द्र से सक्रिय है। तो वो जो केन्द्र है न, जो सेंटर यू आर कमिंग फ्रॉम (आप जहाँ से आ रहे हैं) उस केन्द्र को सही करना उसका डिस्प्लेसमेंट उसको सही जगह लाकर रखना अगर नहीं रखा गया तो हमारे पास बहुत तर्क होंगे बहुत बुद्धि होगी बहुत टेक्नोलॉजी होगी और उन सब का सिर्फ़ विनाशकारी इस्तेमाल करेंगे जैसाकि आज भी हम कर रहे हैं तो।

प्र: पशुबली के सम्बन्ध में ये हमारा जो धारा अट्ठाईस है प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूअल्टी टु एनिमल एक्ट का ये स्वीकृति करता है, कानून हमारे देश का स्वीकृति करता है कि यदि किसी जानवर को मारा जा रहा हो मानव भोजन के लिए तो उसको रिलीजियस (धार्मिक) तरीक़े से मारा जा सकता है यानि हलाल या झटका। उसका ग़लत मतलब लोगों ने निकाल लिया है कि हम तो मन्दिर में भी काटेंगे, सड़क पर भी काटेंगे, ईदगाह में काटेंगे, मस्जिद में काटेंगे, जहांँ पर भी कहीं ये ऐसा बिलकुल भी नहीं है।

हमारे देश के कई हाई कोर्ट्स ने इस पर रूलिंग्स (फ़ैसला) दी हैं कि एनिमल सैक्रिफाइस (पशुवध) बिलकुल ही निषेध है, नहीं कर सकते हैं। हमारे "प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूअल्टी टु एनिमल एक्ट" में सेक्शन इलेवन वन एल लगता है इसके ऊपर जो काॅग्निजेबल ऑफ़ेंस (संज्ञेय अपराध) है लेकिन लोग रिपोर्ट नहीं करते। अब मैंने ये मुहिम चलायी क्योंकि मैं उत्तराखंड में कई सारे हमारे मन्दिर वहांँ पर हुआ करते थे जहांँ पर भैंसों को काटकर पहाड़ के नीचे फेंक रहे हैं, कभी बकरों के मेमनों को ला रहे हैं उनको काट रहे हैं। और बेचारे बिलकुल ऐसे लोग जिन्होंने कभी नीचे उतरकर ट्रेन तक नहीं देखी है, पहाड़ में ही कहीं रहते हैं, बेटा चला गया फ़ौज में कोई एक पंडित ने बोला कि तो इसको बकरे को नहीं मारोगे, भैंस को नहीं मारोगे तो तुम्हारा बेटा सकुशल नहीं रहेगा।

भटके हुए लोग हैं ये, भटकाए गये हैं और इनको अंततः अगर हम समझाने बैठते कितना समझाते? किस-किसको समझाते? तो एक हाई कोर्ट का ऑर्डर लिया उसके बाद जिलों में जाकर, गांँव-गांँव में जाकर जनचेतना गोष्ठियाँ करीं, थोड़ी बहुत और हाईकोर्ट का ऑर्डर बता दिया, ‘भई, ये नहीं कर सकते।’

आज की तारीख में पिछले साल दशहरे पर रक्तदान शिविर लगे सोलह जगहों पर कि अगर खून बहाना है तो अपना बहाओ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दूसरों की जीवन बचाने के लिए बहाओ, ये चीज़ें हमने कई जगहों पर तो कर दी लेकिन अभी भी बकरा ईद पर हम ये नहीं कर सक रहे हैं।

आचार्य: क्यों नहीं कर पा रहे हैं बक़रीद पर ये?

प्र: बहुत अधिक विरोध है, अगर हम कहते हैं कि भाई, ये तो पार्क है बच्चों के खेलने का, यहाँ मत करिए तुझे हमारे धर्म में, हमारा तो अनुच्छेद पच्चीस है। अरे, भई! तो अनुच्छेद पच्चीस तो हमारा भी है या किसी का भी है, सभी का है, पूरे देश का है, बाक़ी भी तो अनुच्छेद हैं ज़रा वो भी तो पढ़ ले, भाई। जानवर को भी तो, अनुच्छेद इक्कीस भी तो है अनुच्छेद इक्यावन जी , आपके मौलिक कर्तव्य भी तो हैं, हम वो भी तो देख लें कि हम क़त्लेआम न मचा दें मगर जो हम क़त्लेआम देखते हैं और इस देश में या इस शहर की बात नहीं दुनिया भर में जो हम बकरा ईद पर देखते हैं वो इतना वीभत्स हो चुका है कि लोग अपने छोटे बच्चों को बैठाकर उनके मुंँह पर वो लगाते हैं, हमने कितने फेसबुक पर ऐसे वीभत्स फोटो देखे हैं छोटे बच्चों को बच्चे रो रहे हैं क्योंकि प्राकृतिक रूप से तो बच्चा घृणा करेगा न इस प्रकार की क्रूरता के साथ लेकिन हम उसकी मानवीयत को मार देते हैं।

यही चीज़ मैंने देखी जब मैं कसाई-बाड़ों वगैरह में जाती हूंँ कभी निरीक्षण, कभी भ्रमण भी, कुछ भी करने के लिए, कभी रिपोर्ट करने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को लाते हैं पाँच-छः साल के बच्चों को सात साल के बच्चों को और वो बच्चे बेचारे सहमे से कोने में बैठकर रो रहे हैं कुछ और मैं पूछा अगर, कितने ही और एक नहीं कई राज्यों में मुझे एक जैसा जवाब मिला है कसाइयों से, ‘मैडम, अभी नहीं आएगा तो बड़ा होकर ये काम करेगा नहीं।’ तो ये मूलतः अमानवीकृत कर देते हैं बच्चों को।

अब हम एक जगह एक और उदाहरण देती हूंँ आपको इनामूला बिल्डिंग नाम की देहरादून में है सेक्रेटेरिएट , जो हमारा सचिवालय है और जो हमारा जिला अधिकारी कार्यालय है उसके एक किलोमीटर के रेडियस में वहांँ पर कोई नहीं कभी गया था बिलकुल किलेबन्दी थी, मैंने जाना शुरू किया पुलिस ने साथ दिया, नहीं दिया, मैंने ख़ुद बॉडी गार्ड्स के साथ जाना शुरू किया और वहांँ के वीडियोज़ निकालकर बाहर दिखाये। वहाँ बच्चे भैंस के सिर के साथ फुटबॉल खेलते हैं तो ये बड़े होकर क्या बनेंगे? ये बड़े होकर टैक्स पेइंग सिटिजंस तो बनेंगे नहीं। ये तो वही करेंगे। उनको न चाकू से डर लगता है, न खून से डर लगता है इनको मज़ा आता है किसी का लुढ़कता हुआ सिर, उसकी पलटी हुई आँखें देखने में।

तो ये बड़े होकर आतंकवाद करेंगे शायद ऐसा मुझे लगता है। उतना न किया तो कम-से-कम अपने बीवी-बच्चों के, अपने पड़ोस के, अपने घर के आगे कोई ग़रीब आदमी जा रहा होगा, उसके प्रति क्रूरता करने से पहले सोचेंगे भी नहीं।

आचार्य: इसमें तो कोई शक ही नहीं है कि इंसान तो एक ही है न। अगर वो एक जीवित चीज़ के साथ इतना हिंसक हो सकता है तो वो बाक़ी जीवित प्राणियों को क्यों छोड़ देगा? बिलकुल करते हैं ये सब हम करेंगे और जब सेंटर (केन्द्र) क्रूरता का होगा तो हम उसको जायज़ ठहराने के लिए, डिफेंड करने के लिए तर्क ले लेंगे तर्क ये होगा कि आप जीवित प्राणियों की बात करते हैं जीवित तो पेड़ पौधे भी होते हैं आप उनको भी क्यों खाते हो? अब इनको कौन समझाए! हालाँकि बहुत बार समझा चुका हूँ।

प्र: एक भैंस और एक बैंगन में जिसको अन्तर नहीं दिखता उसको कोई क्या समझा सकता है ये तो एक वो है।

आचार्य: और ये अन्तर कोई सब्जेक्टिव चीज़ नहीं है कि देख लो तुम्हें दिख जाएगा। आप अगर वैज्ञानिक तौर पर भी देखेंगे तो एक जानवर में और एक पेड़ या पौधे में बहुत अन्तर है। न्यूरोलोजिकल , बायोलॉजिकल दृष्टि से भी बहुत अन्तर है। दोनों को खाना या दोनों को काटना किसी भी दृष्टि से एक समान नहीं है और अगली बात अगर हम ये कह रहे हैं कि जो भी जीव चैतन्य है उनको सबको एक ही तल पर रखा जाना चाहिए। तो अगर कोई पौधा खाता है और अगर कोई भैंसा खाता है ये दोनों एक ही बातें हैं तो फिर भैंसा खाना और इंसान खाना भी एक ही बात होनी चाहिए। जिस तर्क के आधार पर बैंगन और भैसा एक ही चीज़ है उसी तर्क के आधार पर भैंसा और इंसान भी एक ही चीज़ हैं तो इंसान का माँस क्यों नहीं खाते हैं?

प्र: दक्षिण-पूर्व एशिया में वो भी खाते हैं। वो क्या-क्या खाकर, कीड़े-मकोड़े, ये-वो हर चलती हुई जीव वहांँ पर आप जाएँ तो बैंकाॅक वगैरह में चिड़िया नहीं है, वहाँ जंगल एकदम शान्त है क्योंकि एक भी चिड़िया नहीं है सबको खा गये। लेकिन जो भी हो मैं ये कह रही हूँ, जो भैंसा खाता है वो क्या इसलिए भैंसा खाता है कि बेचारे बैंगन को बहुत डर रहा होगा या घास बहुत परेशान हो रही होगी? तो वो ये भी जान लें कि भैंसा हवा खाकर तो बड़ा नहीं हुआ भैंसे ने भी तो उनको खाया तो हमने मूलतः दोहरी क्रूरता करी।

आचार्य: अगर आपको पेड़-पौधों से प्यार है और आप कह रहे हैं कि मैं उनको पेड़ पौधों को नहीं खाता तो भैंसें को खाता हूंँ तो एक भैंसा दस गुना ज़्यादा खाता है, घास और ये ग्रींस और तब जाकर के अगर वो चार सौ किलो का है तो उसने चार हज़ार किलो का घास, पत्ता, अन्न ये सब खाया तब बना है। और इतना ही नहीं है पानी का कंज़म्प्शन उसने ज़बरदस्त करा है तो ये दुनिया जिसमें पानी की इतनी कमी है जहांँ कह रहे हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी पर लड़ा जाएगा वहाँ पर माँस खाना फूड सफिशेंसी (भोजन की पर्याप्तता) की दृष्टि से भी और वॉटर रिसोर्सेस (जल संसाधन) की दृष्टि से भी, हर दृष्टि से ग़लत ही नहीं है, एक अपराध है। लेकिन आपको तर्क करना है तो कोई कुछ भी कर सकता है और करता रहेगा जब तक कि भीतर ही कुछ उनके सही नहीं हो जाता। उस सही होने को मैं अध्यात्म कहता हूँ।

जहाँ आपको ये बात बिलकुल ठीक-ठीक भीतरी तौर पर समझ में आ जाए कि देखो, बेईमानी करके कुतर्क करके फ़ालतू शब्द या बुद्धि चलाकर के कुछ मिलना है नहीं, आप नुक़सान तो अपना कर ही रहे हो और लगातार कर रहे हो उस समझ के साथ ही मुझे लगता है कम्पैशन , करुणा भी विकसित होती है और वही आख़िरी समाधान है। लेकिन वो आख़िरी समाधान तो बहुत धीरे-धीरे आएगा। हम उसका इंतज़ार नहीं कर सकते तब तक में आप जो कर रहे हैं वो बहुत-बहुत अच्छा काम है और मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ उस काम के साथ हैं और जितना आपको सहयोग, समर्थन मिल सकता है लोग दें, ये देश दे, जो कुछ भी करा जा सकता है इस काम को आगे बढ़ाने के लिए।

ये सबसे पुनीत काम है जो आप कर रही हैं ये काम आगे बढ़ें। सही नियम कानून स्थापित हों लोगों पर जोर पड़े नियमों को मानने का न्यायालयों में याचिकाओं और निर्णयों के माध्यम से सही एक माहौल बने जिसमें कम-से-कम जो हमें कानून उपलब्ध हैं, उनका समुचित पालन हो। ये बहुत आवश्यक है।

प्र: और जिसके अन्दर स्वयं की जाग्रति न हो वो कम-से-कम कोर्ट के ही।

आचार्य: हम कब तक इंतज़ार करें कि उसकी स्वयं की जाग्रति आए। वास्तव में आदमी के इतिहास में ऐसा कभी रहा नहीं है कि पूरी-की-पूरी जनसंख्या ही जाग्रत हो।

प्र: जी मेरे ख़्याल से ये युग ही ख़राब है। चूंँकि हम हमें इन समयों में जीना पड़ रहा है तो हम कम-से-कम अपनी ओर से जो भी कर सकते हैं, वो करने में अगर हम पीछे रह गये तो शायद नहीं ठीक होगा।

क्या सोचना है ये ज़रूरी नहीं है, हमें कैसे सोचना है ये बहुत ज़रूरी है तो अगर यही बन्द करवा दिया है जो आजकल के टीवी, इंटरनेट लोगों ने वो बताने लगे हैं ‘क्या’ सोचो, बजाय इसके कि ‘कैसे’ सोचो।

आचार्य: तो वो ये भी नहीं बता रहे है कि क्या सोचो वो उठाकर के विचार को बस घुसेड़ देते हैं उसमें वो इतनी भी तकलीफ़ नहीं उठाते कि आपको कहे कि मैं आपको बता रहा हूँ कि क्या सोचिए वो बस वहाँ से एक कंटेंट है वो आपके दिमाग के भीतर आ गया। हम बचते ही नहीं हैं, हम हैं ही नहीं, हमारी इंडिविज़ुअल (वैयक्तिक) सत्ता है ही नहीं, हम वही हैं जो हमें मीडिया दिखा रहा है या माहौल दिखा रहा है वही हम पूरे तरीक़े से बन जा रहे हैं और मीडिया और माहौल का लालच इसी में है कि लोग और ज़्यादा कंज़्यूम करें उस कंज़म्प्शन की चपेट में जानवर आ रहे हैं और बहुत तगड़े तरीक़े से आ रहे हैं। क्योंकि वो एक बहुत बड़ा रिसोर्स है जैसा आपने कहा उनकी हर चीज़ का एक इंडस्ट्रियल इस्तेमाल मौजूद है चाहे वो उसका दूध हो मास हो उसकी खाल हो, उसका फर हो, सींग, हड्डी, खुर उसके खून में से भी वो अलग-अलग तरीक़े की चीज़ें निकाल करके उसका लेबोरेटरी इस्तेमाल हो जाता है। तो जब ये रिसोर्स मौजूद हैं पृथ्वी पर तो जो लालची मन है वो इस रिसोर्स का इस्तेमाल तो करेगा न। एक तरीक़े से नहीं कर पाए दूसरे तरीक़े से करेगा, इस लालची मन को थोड़ा शान्त करना इसको ठिकाने लगाना।

प्र: पहले ट्वेंटी फोर आर टी वी नहीं आया करता था लोगों के पास शाम को कुछ नहीं तो एक कप चाय पीते समय अपने साथ अपने साथ बिताने का एक घंटा होता था जब वो ख़ुद देखते थे कि मुझे क्या मैं इतने में खुश हूंँ अगर मैं छोटी गाड़ी में मैं खुश हूंँ तो मुझे बड़ी गाड़ी चाहिए क्यों मुझे यहांँ से वहांँ पहुंँचने के लिए और बेसिकली जस्ट थिंग इन लाइफ क्यों कर रहा हूँ मैं क्या करना चाहता हूंँ अपने अन्दर गहरा गोता लगाकर देखिए।

आचार्य: जब आपके पास बहुत कामनाएँ नहीं होती न तो आपको बहुत दौड़ने की ज़रूरत नहीं होती जब आपको बहुत दौड़ने की ज़रूरत नहीं होती तो आपके पास ठहरकर ज़िन्दगी को, देखने का जानवरों को, लोगों को देखने का, ख़ुद को देखने का समय होता है। जैसे ही माहौल आपके भीतर ज़बरदस्त रूप से डिज़ायर्स पैदा कर देता है ये पाओ ये करो ऐसे नहीं करोगे तो तुम पीछे रह गये तुम्हारे पास भी होना चाहिए अरे तुम अभी वहाँ घूम क्यों नहीं आया ये सब जैसे ही आपके भीतर बहुत सारे डिज़ायर्स पैदा कर दी जाती है अब आप रुकोगे नहीं कुछ देखने के लिए क्योंकि आपको लगेगा ये तो समय की बर्बादी है न रुकना। आप लगातार दौडोगे जब आप लगातार दौड़ोगे तो वो जो विचारशीलता है रिफ्लेक्टिवनेस वो बिलकुल ही ग़ायब हो जाएगी आपकी ज़िन्दगी से। अब आपके पास डब्बा बन्द मीट आएगा न आपके पास समय है न आपकी नियत है कि आप एक क्षण को भी विचारो कि ये क्या चीज़ है मेरे हाथ में कहाँ से आ गयी है वो वास्तव में क्या है और जो है उसके भीतर उसको खाने का वाक़ई मुझे कोई हक है मैं ये क्या कर रहा हूँ? उसके मास को मैं अपना माँस बना रहा हूँ अपनी ज़बान के लिये स्वाद के लिये मैं ये सब कर रहा हूँ और फिर मैं पचास तरीक़े के फ़ालतू तर्क देता हूँ, ये तो मैं प्रोटीन के लिए कर रहा हूँ ये तो मैं इसके लिए कर रहा हूँ फ़लाने अमीनो अम्ल होते हैं और ये सब बातें तो ये बातें भी कब जब कोई आकर के आपको थोड़ा सा चुनौती देता है आपको थोड़ा सा परेशान करता है तो आप इस तरह की बातें उसके ऊपर फेंककर के अपनेआप को जस्टिफ़ाइ करके (उचित ठहराकर) चल लेते हो। ये सब आपको नहीं करना पड़ेगा अगर आप के मन में इतनी हबड़-तबड़ न मची हो ये पाना है यहाँ पहुंँचना है अगर आप इतने डरे हुए न हो एक आन्तरिक इग्नोरेंस (अज्ञान) न हो इतनी ज़्यादा कि ख़ुद कुछ जान नहीं पा रहे भीतर से तो बाहर से जो कुछ आ रहा है बस उसको ही स्वीकार करके उसको अपनी ज़िन्दगी बना लिया।

तो एक लार्जर (बहुत बड़ी) चीज़ चल रही है इस युग में कि प्रोडक्शन बहुत ज़्यादा है और उस प्रोडक्शन को खपाने के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा है कंज़म्प्शन (उपभोग)के लिए क्योंकि जितनी प्रोडक्टिव कैपेसिटी (उत्पादन क्षमता) आज इंसान की है टेक्नोलॉजिकल रेवोलूशन (तकनीकी क्रान्ति) के कारण इतने प्रोडक्टिव तुम कभी थे ही नहीं न अब दिक्क़त है कि इंसान की कंज़्यूम करने की जो कैपेसिटी है वो बॉटल नेक (बोतल के गर्दन की तरह) है। उधर फैक्ट्री है, फैक्ट्री कितना भी माल पैदा कर सकती है लेकिन पैदा करके क्या होगा खरीदने वाला चाहिए खरीदने वाला तब खरीदेगा जब उसका मन करेगा खरीदने का तो माल बेचना है तो खरीदने वाले के मन को इस तरीक़े से बर्बाद कर दो कि वो हर समय बस खरीदने की सोचे। कैसे? उसको बोल दो कि तुम्हारी ज़िन्दगी का उद्देश्य यही है भोग और हैप्पीनेस लाइज इन कंजम्शन (भोग में ही खुशी है) उसको ये सिखा दो‌। अब ठीक है अब फैक्ट्री है फैक्ट्री उधर पैदा करती जाएगी और इधर हम खरीदने वालों को भी मजबूर करते जा रहे हैं खरीदने के लिए। उनको बोला गया है उनको बोला गया है यही अच्छाई है यही धर्म है इसीलिए मैं बार बार कह रहा हूंँ कि हमें वास्तविक धर्म चाहिए इंसान‌ एक सामाजिक प्राणी बाद में है, धार्मिक प्राणी पहले है तो अगर आप उसको सही धर्म नहीं देंगे तो ग़लत चीज़ को धर्म समझ लेगा।

आज सबने ये समझ लिया है कि कंज़म्प्शन इज़ धर्म भले ही वो इस बात को इन शब्दों में न बोलते हों लेकिन भीतर भाव यही है कि भोगना ही धर्म है हैप्पीनेस इज़ रिलिजन। हैप्पीनेस इज़ रिलीज़न, मनी इज़ गॉर्ड यही चल रहा है। इस चीज़ को चुनौती देनी होगी, वो काम कर रहे हैं लेकिन वो काम पता नहीं कितने समय में रंग लाएगा। तब तक ज़रूरी है कि और जितने तरीक़ों से सम्भव हो एक तात्कालिक राहत तो हमारे बेज़ुबान साथियों को मिलनी ही चाहिए।

आपने जो बात बोली थी कि कॉलेज कैंपसेस में आ रहे हैं, शेल्टर्स (आश्रय स्थल) बन रहे हैं मैं वाक़ई उस बात से सहमत हूँ हम वैसा होता बिलकुल देख रहे हैं हमारे प्रयासों से। शायद दसों हज़ार लोग होंगे जो माँस खाना छोड़ चुके हैं और उनमें से पिचानवे प्रतिशत जवान लोग ही हैं तो मैं उस बात से सहमत भी हूँ। मैं उनको जानता भी हूँ इसका अनुभव भी है लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि जितना ज़्यादा मास वगैरह का इस्तेमाल ये पीढ़ी कर रही है उतना पिछली पीढ़ी ने नहीं किया था तो एक और तो इन्हीं लोगों से उम्मीद है दूसरे यही लोग सबसे बड़ी बाधा भी हैं। तो वो दोनों ही चीज़ें रखनी पड़ती हैं लेकिन ये बात बिलकुल सही है कि जो जवान आदमी समझने के कारण आउट ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग फ्लैश कंजम्शन और एनिमल क्रुएलिटी (पशु क्रूरता) को त्यागता है उसका संकल्प ज़्यादा पक्का होता है बजाय उसके जिसने कि धार्मिक होने के कारण कहा था कि मैं शाकाहारी हूँ।

जो लोग धार्मिक होने के कारण शाकाहारी थे वैसे घरों के बच्चे तो जब बाहर निकलते हैं, हॉस्टल वगैरह में जाते है तो फटाफट वो बीयर और मुर्गा चालू कर देते हैं। लेकिन बाद में जब वो छोड़ते हैं जैसे आपने कहा आपने छोड़ा जब वो ख़ुद छोड़ते हैं तब उनके पास एक सॉलिड बेस होता है, सही कारण होता है और वो फिर दूर तक चलता है तो ऐसे नये लोगों की नयी-नयी खून की ऐसी पूरी-की-पूरी सेनाएँ तैयार करनी होंगी जो बीड़ा उठाए ख़ुद को बचाने का इंसानियत को जानवरों को बचाने का। आपकी संस्था में भी अधिकांश जो लोग हैं वो

प्र: वीगन लाइफ़ स्टाइल फॉलो करते हैं, "पीपल फाॅर एनिमल्स" में ज़्यादातर लोग माँसाहार मुक्त जीवन शैली अपनाते हैं।

आचार्य: और पैंतीस साल से कम की उम्र के ही होंगे ज़्यादातर।

प्र: हर उम्र के हैं। कुछ बिलकुल यंग बच्चे भी हैं स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हैं इंटर्न की तरह आते हैं संस्था में वॉलेंटियर करते हैं उनके लिए भी ऑपरचुनिटी (अवसर) है। कई तरह के काम होते हैं एनिमल वेलफेयर में जैसा कि हमने कहा कि स्कूल-कॉलेज में भी कैंपस होते हैं बड़े-बड़े गेटेड कॉलनीज होती हैं कुत्ते तो वहांँ भी रहते हैं, चिड़िया तो वहांँ भी आती है, बन्दर तो वहांँ भी आता है कुछ नहीं तो अपने एरिया के ही जानवरों को।

आइआइटीज़ में या किसी भी और कॉलेज में अगर हम एक छोटा सा क्लब सा बना लें जहांँ पर हम इस प्रकार की बहुत सारी डॉक्यूमेंट्रीज़ हैं अब तो अवेलेबल (उपलब्ध)। ठीक है आप बूचड़खाने नहीं जा सकते आप देखिए 'अर्थलिंग्स' आप देखिए 'ग्लास वल्ड्स' इस तरह की डॉक्यूमेंट्रीज़ है जिसको देखना पेनफुल तो होगा लेकिन ज़िन्दगी भर के लिए आँखें तो खुल जाएँगी तो उनको हम शो केस करें इन क्लब्स में इस तरह की एक्टिविटीज़ करें।

हमने जब शुरू किया था देयर वॉज हार्डली एनीवन (उस समय बहुत ही कम लोग थे) बट चलते गये और कारवांँ बनता गया टाइप। तो अब कोई व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में है वो और कुछ नहीं तो अपने आसपास के जानवरों का तो भला कर सकता है और कैसे वो अपनी खान-पान और अपने अपने उपभोग के माध्यम से अहिंसक हो सकता है और कैसे अगर वो कुछ लोगों को जोड़ने की क्षमता रखता हो तो या हम अगर उसको किसी और लोगों से जोड़ पाएँ तो वो एक समूह बना सकता है। छोटा सा समूह जब तक नहीं बनेगा तब तक हम लॉ , इनफोर्समेंट एजेंसीज भी ऐसे ही निरस्त रहेंगी उदासीन रहेंगी उसके लिए। अगर डीएम के पास कोई एक ही व्यक्ति जाकर बार-बार शिकायत करता रहे जिले के बारे में तो वो कहेगा कि ये व्यक्ति के साथ कुछ समस्या होगी लेकिन अगर कोई समूह जाए तो तब इसका एक बड़ा प्रभाव पड़ेगा और हमारे राजनेता भी तब सुनते हैं जब कोई बड़े नम्बर जा रहे हैं उनके पास अगर कोई नेटवर्किंग करके इतना बड़ा समूह बना सके कि हम पोलिटिकल ओपिनियंस को।

अब आज की तारीख में पाँच स्टेट मेंइलेक्शन हो रहे हैं किसी ने अपने मेंडेट में न पर्यावरण , न वन, न वन्य जीव, न जानवर के बारे में। तो अच्छा होता है कि अगर हम एक संस्था से कोई भी संस्था से जुड़े अपने शहर की संस्थाओं को जानें कि कौन है जो शेल्टर चला रहे हैं, कौन है जो आउटरीच कर रहे हैं, कौन है जो वीगन लोग हैं। हर शहर में कोई-न-कोई तो निश्चित रूप से होता है और नहीं तो कोई कुत्तों का फीडर होता है सड़क के कुत्तों को खाना खिलाने वाले लोग।

आचार्य: सोशल मीडिया पर मान लीजिए मिल गया कोई विगनिज़्म पर वीडियो और उस पर आपने एक बड़ा भावुक सा कमेंट लिख भी दिया तो भी उससे बहुत बात नहीं बनेगी। (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) अब समय आ गया है, मैं फिर कह रहा हूँ, ठोस कार्रवाई करने का ठीक है। तो आपके शहर में आपको जो संस्थाएं उपलब्ध हों जो सही काम करती हों उनको जोड़ने का माध्यम बनें।

(प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) और बताइए और कुछ ऐसा तो नहीं है जो हम भूल रहे हैं।

प्र: (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) व्हाट कैन यू डू एज़ एन इंडिविजुअल, एज़ एन ऑर्गेनाइजेशन इन ए कॉलेज मेक देट थिंग सो देट व्हाट कैन यू डू। आप एक व्यक्ति, एक संस्था, एक कॉलेज के तौर पर जो कर सकते हैं उसे स्पष्ट करें ताकि आप वो कर सकें जो आपको करना है।

आचार्य: (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) ठीक है? और उसके अलावा कोई चीज़ मिस हुई?

प्र: (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) नहीं? हम काफ़ी चर्चा कर चुके हैं। (आचार्य जी को सम्बोधित करते हुए) डू यू थिंक इट वाज़ ऑलराइट? (क्या आपके हिसाब से ये ठीक थी?)

आचार्य: वंडरफुल (शानदार)। बस अब इसका इम्पैक्ट देखना चाहता हूँ। आइ रिअली वांट टू सी कॉन्क्रीट एक्शन ऑन ग्राउंड (मैं वास्तव में इसका एक मज़बूत क्रियान्वन देखना चाहता हूंँ)

प्र: बहुत धन्यवाद।

quote: 1. इंसान माने इंसान का मन जिस तरीक़े से वो सोचता है और जैसे उसकी चेतना है। 2. जो सच्ची धार्मिकता होती है जिसको आध्यात्मिकता बोलते हैं जिसे इंसान थोड़ा बैठकर के शान्तिपूर्वक विचार करता है, ‘मैं कौन हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ, मुझे क्या सिर्फ़ लालच पर ही चलना है, डर-डरकर जीना है, दूसरे को सता-सताकर जीना है।’ ये धार्मिकता का कोर होता है, एकदम केन्द्र। 3. मतलब अगर हम जो युवा पीढ़ी है इसको ये दिखा सकें कि तुम जो खा रहे हो वो वास्तव में चीज़ क्या है। वो कोई इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट (औद्योगिक उत्पाद) नहीं है वो किसी की देह है, किसी का शरीर है जिसके तुम्हारे जैसा खून था जो जीना चाहता था लेकिन उसकी गर्दन काटी गयी ताकि तुम थोड़ी देर के लिए जुबान का स्वाद ले सको। ये चीज़ उनको अगर दिखायी जाए तो उस पर काफ़ी फ़र्क पड़ता है।

YouTube Link: https://youtu.be/lx6_867iiVI

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