प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप की सारी बातें सुनी, पहले भी सुनी हैं ये, बुक्स भी बहुत पढ़ीं, काफ़ी टाइम (समय) से पढ़ रहा हूँ। तो मेरे जीवन में तथ्य ये है कि जब ऐसे लोग सामने आ जाते हैं न, कहीं न कहीं आप इन्फीरियर फ़ील (हीनभाव) करते हो। जैसे मैं एक उदाहरण देता हूँ। मेरे एक कज़िन (चचेरा भाई) हैं, वो एक वकील हैं। तो जब एक फैमिली फंक्शन में आए तो उनके पास अच्छा खासा पोर्श (महंगा कार मॉडल) गाड़ी है। मुझे पता है गलत तरीके से कमाया है, इतने कम समय में नहीं कमा सकते, बाकी कुछ पुश्तैनी भी है। तो लगके सारे लोग उनके आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं, उनका अच्छा लाइफस्टाइल देखकर। आपने एलोन मस्क की बात की, इतना तो नहीं पता। फिर भी हमारे आस-पास देखें तो, इस तरह के जो भोगवादी किस्म के लोग होते हैं, इनके आगे... ये बात सही है आपकी सारी बात मन को जँचती है कि ये गलत है, फिर भी कहीं अन्दर जो जानवर बैठा है, वो इन्फीरियर (हीन) फील करता है कि काश! ये सब एक बार चाहे दिखाने के लिए कि दुनिया मिल जाए तो क्या है, एक बार हो तो।
आचार्य: इसका कोई इलाज़ नहीं है न। अगर तुम जानवर ही हो तो इसका कोई इलाज़ नहीं है। इसका इलाज़ तो सिर्फ़ तभी है, जब ऊँची चेतना के इंसान बन पाओ। और उसके लिए तुमको आना होगा वेदान्त की ओर, उपनिषदों की ओर और कोई तरीका नहीं है। वरना ये जो बात है चकाचौंध में फसने की, हीन भावना में फसने की, ईर्ष्या में फसने की, ये सब तो एक छोटे बच्चे में भी होती है।
तुम्हारे घर में एक बच्चा हो छोटा दो तीन साल का, उसका छोटा भाई बहन पैदा हो जाए। अभी तक बच्चे को जो ध्यान मिलता था जो मोह-ममता मिलती थी, वो उसके छोटे भाई को मिलनी शुरू हो जाए। जो बड़ा बच्चा है, वो दो-तीन साल का है, छोटा अभी नया-नया पैदा हो गया है। तो जो बड़ा वाला है इसको बड़ी ईर्ष्या हो जाती है।
ये तो हम मां के पेट से लेकर पैदा होते हैं ये वृत्तियाँ। इसलिए तो फिर ये जो गर्भ से शिशु पैदा होता है, जो पशु जो पैदा होता है, शिशु माने पशु। वो जो पैदा होता है, उसको इंसान बनाने के लिए जीवन शिक्षा की ज़रूरत होती है। वो जीवन शिक्षा अगर तुम्हें नहीं मिली है सही किताबों से, सही लोगों से, सही संगति से तुम्हारा वास्ता नहीं रहा है तो जानवर ही रह आओगे। और फिर इस तरह के लोग तुम पर हावी रहेंगे कोई पैसा दिखाकर, कोई ताकत दिखाकर। तुम उनके आगे ज़लील सा अनुभव करते रहोगे।
प्र: आचार्य जी, उपनिषद् भी पढ़ते हैं, वो बात भी ठीक लगती है, समझ आती है। पर ये बात, तथ्य भी नकार नहीं सकते कि उनके पास है।
आचार्य: मत नकारो। मेरी बला से। नहीं नकार सकते तो मत नकारो, इसमें क्या करूँ मैं। उपनिषद् भी ठीक लगते हैं। उपनिषद्स टू आर राइट। और क्या उनके अलावा सही लगता है? एब्सोल्यूट (पूर्ण) को एब्सोल्यूटली (पूर्णतया) ट्रू (सत्य) मानना होता है, ऑलसो ट्रू (यह भी सत्य) नहीं मानना होता। 'नहीं आपकी बात भी ठीक है, पर उनकी बात भी ठीक है', तो तुम उधर ही चले जाओ।
प्र: आचार्य जी आपने अभी एलोन मस्क पर बात की है, तो इसमें एक तर्क यह भी आता है कि एलोन मस्क इनकेस (यदि) अगर अर्थ (पृथ्वी) पर मास एक्सटिंग्शन (सामूहिक विनाश) होता है तो वो तो हमें बचा ही रहा है।
आचार्य: मास एक्सटिंग्शन (सामूहिक विनाश) नेचुरल (प्राकृतिक) तरीके से होने की क्या संभावना है? 0.0000001 प्रतिशत, और जो काम करे जा रहे हैं इंसानों के द्वारा, इन धनपतियों के प्रभाव में, उसके कारण मास एक्सटिंग्शन होने की क्या संभावना है? सौ प्रतिशत, तो बचाया जा रहा है या जलाया जा रहा है तुमको। ये कैसा सवाल है? मास एक्सटिंग्शन अपने आप बिल्कुल हो सकता है, कल को कोई एस्टोरॉयड (उल्का पिंड) आकर के पृथ्वी पर टकरा जाए, पूरी मानव जाति खत्म हो जाएगी। लेकिन उसकी संभावना क्या है? वन इन अ मिलियन (दस लाख में एक)। और इंसान जिस तरीके से जी रहा है और कंज़म्शन (उपभोग) कर रहा है और बच्चे पैदा कर रहा है, उसके कारण मास एक्सटिंग्शन की क्या संभावना है? सौ प्रतिशत, और वो भी सौ-दोसौ साल के अन्दर ही अन्दर, ज़्यादा बोल रहा हूँ हो सकता है। हो सकता है कि दस-बीस-पचास साल के अन्दर-अन्दर। तो ये क्या तर्क है कि मास एक्सटिंग्शन से हमको बचाया जा रहा है।
ये ऐसी सी बात है कि कोई अभी तुम्हारा गला रेत दे और कोई पूछे क्यों मार दिया इसको? बोले, ‘मारा थोड़ी है, ये अस्सी की उम्र में मरने वाला था, मैंने उस मौत से इसको बचा दिया है। अब ये अस्सी की उम्र में नहीं मरेगा न’। हां, ये बात तो सही है, अब ये अस्सी की उम्र में नहीं मरेगा। ‘मैंने इस पर एहसान किया कि नहीं किया कि इसको अस्सी की उम्र में जो मौत होती उससे बचा दिया’। ये कौनसा तर्क है?
प्र: इसमें आचार्य जी, एक मैट्रिक (मानक) उपलब्ध है इंटरनेट पर कि एक अर्थ ओवरशूट डे होता है, उसमें ये बताया जाता है कि इस वक्त जितना हम इस्तेमाल कर रहे हैं, जितनी हमारी आबादी है, उसके लिए हमें 1.7 टाइम्स ऑफ अर्थ चाहिए (एक दशमलव सात गुना पृथ्वी चाहिए)।
आचार्य: ये 1.7 ग्लोबल एवरेज (वैश्विक औसत) है, 'माइंड यू (याद रखना)'। अगर तुम अमेरिका का लोगे तो शायद दस होगा ये आँकड़ा। बात ये है कि जो ये वेटेड एवरेज (भारित औसत) निकल रहा है, जो 1.7 आ रहा है, तो वो वेटेड एवरेज पॉपुलेशन (जनसंख्या) के ऊपर है। पॉपुलेशन हिन्दुस्तान जैसे देशों की ज़्यादा है और हिन्दुस्तान में अभी अगर सिर्फ़ हिन्दुस्तान का लोगे तो 1.7 नहीं आएगा, वो 0.4-0.5 आएगा। इसलिए ग्लोबल एवरेज जो है, वो अभी फिर भी सिर्फ़ 1.7 है। 1.7 भी 1 से ज़्यादा है, 1 मतलब कि आपको अपने आप को चलाने के लिए एक अर्थ (पृथ्वी) की ज़रूरत पड़ेगी। 1.7 का मतलब है कि आपकी आबादी कुल जितनी है, और जितना कंज़म्शन कर रही है, उसके लिए आपको 1.7 पृथ्वियाँ चाहिए। कहाँ से लाओगे वो? दूसरी पृथ्वी। एक से ऊपर वाली जो है।
अगर एलोन मस्क के देश जाओगे, अमेरिका, तो वहाँ प्रति व्यक्ति जितना उपभोग होता है (पर कैपिटा कंजप्शन), उसके लिए तो 1.7 भी नहीं दस पृथ्वियाँ चाहिए। दस भी शायद कम बोल रहा हूँ, अगर आँकड़े चेक किए जाएँ तो बीस भी निकल सकता है। और बीस भी क्या है? बीस भी अमेरिका की आबादी का एवरेज (औसत) है। अब उसमे भी अगर तुम, बिलियनर्स (अरबपतियों) का कंज़म्शन लोगे, तो वो आंकड़ा बीस से उठ करके बीस हज़ार हो जायेगा।
हर बिलियनेयर (अरबपति) जितना कंज़म्शन कर रहा है, उतना कंज़म्शन अगर पृथ्वी का प्रत्येक व्यक्ति करने लगे तो तुम्हें बीस हज़ार पृथ्वियाँ चाहिए। उतना माल, उतनी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए। लेकिन हर व्यक्ति का आइडियल (आदर्श) यही होता है। क्या? कि मैं भी एक दिन उस बिलियनेयर जैसा हो जाऊँगा और हर व्यक्ति हो गया उसके जैसा, तो बीस हज़ार पृथ्वियाँ चाहिए। ले आओ जहाँ से ला सकते हो। होना ये नही चाहिए कि सबके सब लोग, उनके जितना कंज़म्शन करे। होना ये चाहिए कि उनके कान पकड़ करके उनको नीचे लाना चाहिए कि तुम इतना उपभोग नहीं कर सकते। इतना कंज़म्शन करना अलाउड नहीं है, अनुमति नहीं क्योंकि तुम सिर्फ़ खुद नहीं कर रहे हो कंज़म्शन , तुम दुनिया भर के लिए क्या बन रहे हो, एक उदाहरण बन रहे हो, एक रोल मॉडल बन रहे हो।
प्र: तो आचार्य जी, आपने आखिरी में बताया कि उनके कान पकड़ कर, उनको आपको नीचे लेकर आना चाहिए, लेकिन अभी हो तो यही रहा है कि उनकी ही देखा देखी, हम उनके पीछे-पीछे चल रहे हैं। तो एक जवान आदमी या कोई एक इंडिविजुअल (व्यक्ति) है, वो, मान लो मैं भारत में रहता हूँ, तो मैं क्या कर सकता हूँ कि भाई, मेरा कंज़म्शन कम रहे?
आचार्य: कंज़्यूम करने वाला मन होता है। लोगों का मन ठीक करना पड़ेगा। ये जो यहाँ पर कर रहे हैं इसके लिए सौ बार बोलता हूँ कि दुनिया का सबसे ज़रूरी काम है, आदमी का मन ठीक कर दो, उसका कंज़म्शन अपने आप कम हो जाएगा।