इन छुपे बलात्कारियों को सज़ा कब? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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इन छुपे बलात्कारियों को सज़ा कब? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछले कुछ समय से महिलाओं के प्रति दुराचार की घटनाएँ बहुत सामने आ रही हैं। यह सब देख कर मन बहुत खिन्न है। कृपया कुछ कहें।

आचार्य प्रशांत: देखो, मैं तीन की बात करता हूँ हमेशा। एक होती है आत्मा, सच्चाई; दूसरे होते हैं सांसारिक प्रभाव और तीसरे होते हैं हम, मैं, अहम्। यह त्रिकोण देख पा रहे हो? इस त्रिकोण के एक कोने पर बैठा है 'मैं' और उसके सामने दो विकल्प हैं — या तो सीधी–सच्ची राह पर चले या सामाजिक, सांसारिक प्रभाव पर चले। तो 'मैं' है और 'मैं' को ही इन दोनों में से चुनना होता है। अब अगर 'मैं' हिंसक हो रहा है, राक्षसी हो रहा है, बर्बर हो रहा है, तो आत्मा को चुनकर तो नहीं हो रहा होगा।

जो प्रश्न पूछा है, प्रश्न कहता है, 'महिलाओं के प्रति दुराचार की घटनाएँ सामने आ रही हैं’। यह जो दुराचारी है, यह 'मैं' ही है न। कोई व्यक्ति है जो दुराचार करना चयनित करता है, वह चुनता है दुराचार होना। तो इस 'मैं' ने दुराचार करा, 'मैं' ने दुराचार करा। सच्ची राह चला होता तो दुराचार होता ही नहीं। तो अब इस त्रिकोण से आत्मा को तो हटा दो। तो यह जो दुराचार हुआ है, अब इसके दो दोषी हैं — एक तो वह संसार, वह समाज जिसमें व्यक्ति मौजूद है, जिसका व्यक्ति पर प्रभाव पड़ रहा है और दूसरा, वह व्यक्ति जिसने इन सब राक्षसी प्रभावों का अपने लिए चयन करा।

समझ रहे हो बात को?

जब हम कहते हैं कि किसी ने पाप करा, दुराचार करा तो दुराचार की इस प्रक्रिया में दो ताकतें शामिल हैं — एक तो वह व्यक्ति ख़ुद जिसने चुनाव किया कि मैं दुराचार करूँगा; दूसरा, वह सब प्रभाव जिन्होंने उस व्यक्ति को दुराचार करने के लिए प्रेरित करा। ठीक है? तो यह दो हैं जिन्होंने दुराचार करा है। और यह दोनों किस एक में समाए हैं? यह उस व्यक्ति के शरीर में समाए हैं। बात समझ में आ रही है?

यह बात समझ में आ रही है कि नहीं?

जब भी कहीं कोई दुराचार हो रहा है, वह दुराचार करने वाला एक नहीं है, कितने हैं? दो हैं। एक तो वह व्यक्ति स्वयं जो चुनता है दुराचार करना। और याद रखो, तुम पर कितने भी गंदे और कलुषित प्रभाव पड़े हो लेकिन तुम यह चुनाव कर सकते हो कि मैं दुराचार नहीं करूँगा।

तो आप इस बात को अपनी सफ़ाई में पेश नहीं कर सकते कि मैं क्या करूँ, मेरी तो पैदाइश और परवरिश ही एक गंदे माहौल में हुई है इसलिए मैं दुराचार बन गया। न! माहौल जैसा भी हो, आप ने दुराचार करा, इस बात की आपको सज़ा मिलेगी; आप दोषी हो। ये एक बात है। और दूसरी बात यह है कि दुराचार करने में बराबर की सहभागिता किसकी है? उस समाज की, उस दुनिया की जिसने इस व्यक्ति के मन को ऐसा बना दिया कि यह दुराचारी हो गया। क्योंकि व्यक्ति पर प्रभाव तो बाहर से ही पड़ रहे हैं न? कोई भी माँ के गर्भ से तो बलात्कारी पैदा होता नहीं या होता है? गर्भ से तो पशु पैदा होता है और पशु और चाहे जो कुछ करते हों पर बलात्कार तो नहीं करते हैं कि करते हैं?

तो निश्चित रूप से जो बलात्कार और हत्या कर रहा है, वह माँ के गर्भ से तो बलात्कारी नहीं पैदा हुआ था। उसको बलात्कारी बनाने में एक अहम भूमिका उस समाज की रही है, जिसमें वह घूम रहा है। और समाज माने लोग और सामाजिक व्यवस्थाएँ। लेकिन हम कह रहे हैं कि पूरा दोष समाज को भी नहीं दे सकते, क्योंकि हमारे सामने ऐसे उदाहरण हैं कि जहॉं समाज की हालत बहुत खराब थी लेकिन फिर भी व्यक्ति ने चुनाव किया कि वह गलत राह नहीं चलेगा, हिंसा की राह नहीं चलेगा, शोषण की राह नहीं चलेगा। तो दोष दोनों का है; दोष दोनों का है! उस व्यक्ति का जो अपराध करता है और उस समाज का जहॉं ऐसे व्यक्ति पैदा हो रहे हैं। दोष दो का है तो सज़ा भी कितनों को मिलनी चाहिए? दोनों को।

दोष अगर दो का है, तो सज़ा दोनों को मिलनी चाहिए। इन दोनों में से कमज़ोर कौन है? व्यक्ति। एक तो वह व्यक्ति है एक और दूसरी बात, वह अपराध करते सशरीर पकड़ा गया है। तो उसकी हालत अब और भी कमज़ोर हो गई। एक तो वह व्यक्ति है एक, अकेला और दूसरे, वह अपराध करते पकड़ा गया है सबूत के साथ। तो उसकी हालत और भी कमज़ोर हो गई। तो बहुत आसान है व्यक्ति को सज़ा दे देना। और वह सज़ा उसको मिलनी भी चाहिए, उस सज़ा का वह पूरी तरह अधिकारी भी है। क्योंकि सामाजिक परिवेश जैसा भी रहा हो, वो इंकार कर सकता था अपराध से। वह कह सकता था कि दुनिया कैसी भी हो, मुझ पर कैसे भी प्रभाव पड़ रहे हों, मैं अपने मन को गंदा नहीं होने दूँगा, मैं अपराध नहीं करूँगा।

उसने अपराध करने का चुनाव करा, इस नाते उसे सज़ा मिलनी चाहिए, कड़ी–से–कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। दे दो उसे सजा। पर यह तो आधी ही बात हुई या पूरी बात हो गई?

श्रोता: आधी बात है।

आचार्य: यह तो बिलकुल आधी बात है। दो लोगों ने मिलकर एक अपराध करा। दोनों बराबर के साझीदार थे उसमें। इन दोनों में से जो कमज़ोर था, उसको तुमने पकड़ लिया और ख़त्म कर दिया। यह इंसाफ़ अगर है भी तो बस आधा और भूलो नहीं कि वह जिसको तुमने अभी पकड़ा नहीं, वह ऐसे कई और लोगों को अपराधी अभी बनाएगा।

जो इसमें अपराधी व्यक्ति था, उसको तो पकड़कर तुमने सज़ा दे दी, बहुत अच्छा काम करा, वह सज़ा का हकदार था। लेकिन जो बड़ा अपराधी है, जो फैक्ट्री है, जिसमें से सब अपराधी पैदा हो रहे हैं, उसकी ओर तो तुमने ध्यान ही नहीं दिया। उसको तो तुमने बा–इज़्ज़त बरी कर दिया। इतना ही नहीं हुआ है, आगे की बात हुई है — कहीं ऐसा तो नहीं कि वह जो बड़ा अपराधी है, उसने अपना अपराध छुपाने के लिए इस छोटे और अकेले अपराधी को ख़ुद ही सज़ा दे दी हो? अरे बाप रे! बड़ा अपराधी जिसका नाम है समाज। वह इस अपराध में अपना किरदार छुपाने के लिए जल्दी से छोटे अपराधी को पकड़कर सज़ा दे देता है और छोटे अपराधी को सज़ा दे करके कहता है, 'मैंने अपराध को ख़त्म कर दिया।‘

तुमने अपराध को नहीं ख़त्म किया है, तुमने एक अपराधी को ख़त्म किया है और अभी तुम ख़ुद पचास और अपराधियों को पैदा करोगे। तुमने अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के लिए एक आदमी को सज़ा दे दी। उस एक आदमी को सज़ा मिलनी भी चाहिए थी, लेकिन उस एक आदमी को सज़ा देने भर से नहीं होगा। यह अभी अधूरी सज़ा दी गई है। काम करा है कम–से–कम चार सौ लोगों ने मिलकर, तुमने सज़ा दे दी है, बस एक को या चार को। यह काम चार हज़ार ने किया था, उनको सज़ा कौन देगा?

पर तुम उनको सज़ा नहीं दोगे। दो कारण हैं — पहली बात तो वो छिपे हुए हैं और दूसरी बात, वह बहुत ताकतवर हैं। न तो हमारे पास ज्ञान की वो आँख है, जो देख पाए कि यह चार हज़ार अपराधी कौन हैं जो छुपे हुए हैं और न हमारे पास सच्चाई का दम रखने वाला वह हिम्मती सीना है कि इन चार हज़ार अपराधी को हम पकड़कर सज़ा भी दे पाएँ। तो हम वह काम करते हैं जो आसान हैं। हम एक व्यक्ति को पकड़कर सज़ा दे देते हैं और अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। हम कहते हैं, ‘हो गया इंसाफ़।’ इंसाफ़ हुआ नहीं है, इंसाफ़ अभी होना शुरू हुआ है।

उस एक आदमी को सज़ा दे दी तुमने, अच्छा करा पर यह इंसाफ़ की शुरुआत भर है, अभी पूरा इंसाफ़ होना बाकी है। बताओ कि अगर एक समाज बार–बार, बार–बार इस तरह के अपराधियों को पैदा कर रहा है, तो समाज की उन ताकतों को सज़ा क्यों नहीं मिलने चाहिए जो इस तरह के लोगों को पैदा कर रही हैं? और अगर तुम उनको सज़ा नहीं दोगे तो तुम कितने लोगों को मारोगे? जो ताकतें ऐसे लोगों को पैदा कर रही हैं, वह बार–बार, बार–बार ऐसे ही लोगों को पैदा करती ही रहेंगी। और फिर कह रहा हूँ, वह ‘ताकतें’ हैं, उनको सज़ा देने में हमारे हाथ–पाँव काँपते हैं, हिम्मत ही नहीं है हमारी कि हम उनकी और उँगली उठा सकें। तो उनका फिर हम नाम ही नहीं लेते।

समझ में आ रही है, बात?

यूँ ही नहीं कोई व्यक्ति किसी महिला को भोग की वस्तु समझने लगता। हम कई बार कह देते हैं कि दरिंदगी करी, हम कई बार कह देते हैं कि बड़ा पाशविक काम करा, जानवरों जैसा काम करा। पर बताओ मुझे, क्या जानवर भी ऐसा करते हैं कि पूरी योजना बनाकर, साजिश बनाकर के, षड्यंत्र बनाकर के एक महिला को फसाएँ, फिर बलात्कार करें, फिर हत्या करें और फिर उसके शव को जला दें। कोई जानवर ऐसा नहीं करता है। किसी जानवर के मन में यह ख्याल नहीं आएगा।

तो यह बात जानवरों की नहीं है, यह बात सामाजिक ताकतों की है। कौन है जो व्यक्तियों के मन में इस तरह के भाव भर रहा है? कौन है जो हमारे मन को इतना गंदा और इतना वासनायुक्त बनाए दे रहा है कि हमें इस तरह के विचार आते हैं? बताओ कौन है वो? यह सब विचार हमें हमारे शरीर से नहीं आ सकते। जंगल के कबीलों के पास भी शरीर होता है, वह इस तरह की हरकतें नहीं करते। इसका मतलब, अगर किसी अपराधी के मन में ऐसे विचार आ रहे हैं, तो विचार उसको उसके शरीर से तो नहीं आ रहे। समझो, वह विचार उसको समाज से आ रहे हैं।

अब ख़ुद सोचो कि किसी व्यक्ति के मन में यह सारे विचार कहॉं से आ रहे हैं और जहॉं से यह विचार आ रहे हैं, सबसे पहले उनको सज़ा मिलनी चाहिए कि नहीं? ज़हर की यह जो धार है, यह जहॉं से शुरू हो रही है, उस स्रोत को सज़ा क्यों नहीं देना चाहते? गौर करो एक बार! अभी इतने सारे इस तरह के मामले सामने आए हैं, अब तो तकरीबन रोज़ सामने आ रहे हैं। यह लोग कौन हैं? इनके मन को इतना गंदा किसने बनाया? कहॉं से सीख रहे हैं, यह सब कुछ करना ये? क्या यह विचारणीय विषय नहीं है? और ख़तरनाक बात सुनिएगा, जहॉं से यह अपराधी सीख रहे हैं बर्बर अपराध करना, वहीं से आप भी बहुत कुछ सीख रहे हैं। जिन जगहों से नारी के शरीर का भोग करने की प्रेरणा इन अपराधियों को मिल रही है, उन्हीं जगहों से आपके घर में भी प्रोग्राम रिले करे जा रहे हैं।

एक बलात्कारी की मूल प्रेरणा सुख होती है। यही होती है न? सुख। और विपरीत लिंगी के युवा शरीर को भोगने में सुख तो मिलता ही है। उस सुख की तरफ़ जाने वाले घातक रास्ते से आदमी को आज तक अगर किसी ने रोका — कर्तव्यों की शिक्षा ने, धर्म के संस्कारों ने, अध्यात्म के बोध ने। लेकिन अगर समय ऐसा आ गया हो जहॉं पर सुख ही आख़िरी कसौटी बन गया जीवन की सफलता की, तो कोई व्यक्ति क्यों नहीं जाएगा किसी भी कीमत पर सुख को हासिल करने, बोलो?

बोलो?

जब सुख को, हैप्पीनेस को ही पूरी व्यवस्था ने, समाज ने, देश ने जीवन का चरम लक्ष्य मान लिया हो तो फिर तो जिस भी दाम सुख मिलता हो, लेना चाहिए। तो यह जा रहे हैं सब सुख की तलाश में, बी हैप्पी। और जो सुख आपको बाज़ारों में बेचा जा रहा है, क्या वह सारा का सारा सुख भोग का नहीं हैं, कंजंप्शन का नहीं हैं?

जीडीपी की विकास दर गिरी हुई है, हमारे सब उद्योगों के महापुरुष, इंडस्ट्रियल नायक–नायिकाएँ परेशान हैं कि इकॉनमी में कंजंप्शन क्यों नहीं हो रहा। कह रहे हैं कि यह जो मंदी आई है, जो स्लोडाउन है, यह डिमांड साइड स्लोडाउन है; लोग कंज्यूम नहीं कर रहे हैं। हमें सिखाया जा रहा है, कंज्यूम करो, कंज्यूम करो। कंज्यूम करो माने भोगो, क्यों भोगो? क्योंकि भोग के सुख मिलता है। तो लो, लोग भोग रहे हैं; बलात्कार कर तो रहे हैं।

और क्या होता है भोग।

आप कहेंगे, ‘नहीं साहब, चीज़ें भोगनी चाहिए, व्यक्ति नहीं भोगने चाहिए।’ पागल, एक बार तुमने किसी के मन में भोग का सिद्धांत बैठा दिया, अब तुम उसको यह नहीं कह पाओगे कि कुछ चीज़ें भोगो और कुछ मत भोगो। तुमने उसको यह पट्टी पढ़ा दी है कि भोगना ही जीवन में सबसे ऊँची बात है तो अब वह भोगेगा, खुल्लम–खुल्ला भोगेगा। हॉं, इतना हो सकता है कि जो चतुर–चालाक होंगे, वह छुप–छुपकर भागेंगे; पकड़े नहीं जाएँगे। उनके अपराध कभी सामने नहीं आएँगे। और जो गरीब, गवाँर, सड़क के लोग होंगे उनको इतनी बुद्धि नहीं होगी कि चुप–छुपकर भोगना होता है तो वह पकड़े जाएँगे और मारे जाएँगे। पर इस भोग की पूरी हिंसा के पीछे जो सिद्धांत बैठा हुआ है, वह यही है कि आदमी पैदा हुआ है सुख कमाने के लिए।

देखो न आजकल की पूरी शिक्षा को, चाहे वह स्कूल की हो, कॉलेज की हो या फिर वह धर्म–गुरुओं द्वारा दी जा रही शिक्षा हो, सब जगह एक ही बात है — तुम और ज़्यादा सुख पा सकते हो ऐसा करके। जिसको देखो वही अपने सुख को बढ़ाने में लगा हुआ है। जो ही चीज़ है, वह किसलिए है? ताकि उसको खाया–पिया जा सके, कंज्यूम किया जा सके। प्रकृति का कर लिया न पूरा दोहन, यह क्या किया है? कंज्यूम ही किया है न, भोग लिया न? जब तुम एक आदमी को सिखा रहे हो कि हर चीज़ भोगने की है तो वो औरत के ज़िस्म को ही कैसे छोड़ देगा, वह उसको भी भोगेगा। और भोगने में कभी–न–कभी ऐसा पल भी आएगा कि आंतरिक विवेक बिलकुल शून्य हो जाएगा। बात सामाजिक हद से आगे बढ़ जाएगी।

मैं कुछ बातें सामने रख रहा हूँ, मुझे नहीं मालूम मैं उनको पूरी तरह समझा सकता हूँ या नहीं। पर अगर आप में ज़रा भी अंतर्दृष्टि होगी तो आप संबंध बैठा पाएँगे। दुनिया की आबादी का बहुत बड़ा तबका है, जो अब यह कहने में गौरव महसूस करता है कि पदार्थ है और सिर्फ़ पदार्थ है और पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वह अपनेआप को आधिकारिक तौर से, ऑफिशियली घोषित करते हैं एथीस्ट (नास्तिक) या एग्नोस्टिक (संशयवादी)। मुझे नहीं मालूम कि उनमें से कितने लोग समझते भी हैं कि वह क्या कर रहे हैं। मुझे नहीं मालूम उनमें से कितने लोगों को नास्तिकता का वास्तविक अर्थ भी पता है। पर इतना उन्होंने बिलकुल विश्वास के साथ घोषित कर दिया है कि सिर्फ़ और सिर्फ़ मटीरियल है। अगर सिर्फ़ और सिर्फ़ मटीरियल है तो किसी भी चीज़ को सम्मान क्या देना, मटीरियल तो मटीरियल है, मॉलिक्यूल (अणु) है; चाहे कोई मटीरियल हो।

अब कोई भी चीज़ श्रद्धा और सम्मान की हकदार कहॉं रही? फिर तो अपना शरीर भी क्या है? मटीरियल, और सामने वाली स्त्री का शरीर भी क्या है? मटीरियल। अब कौन–सा सम्मान, कौन सी श्रद्धा! द सेक्रेड हेज गॉन टॉटली आउट ऑफ इक्वेशन, नथिंग इज सेक्रेड। कोई भी चीज़ अब ऐसी नहीं बची है कि उसको हम कह दे कि यह पवित्र है, इसको छू मत देना। जब कुछ पवित्र नहीं है, तो फिर हम हर चीज़ को गंदा करे जा रहे हैं। कुछ भी पवित्र नहीं है। हम कहते हैं, कुछ भी नहीं है, जिस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं। कुछ भी नहीं है, जिस पर जाकर के मल नहीं त्यागा जा सकता अपना। तो वही चल रहा है।

भोग की ओर प्रेरित करने वाली ताकतें दिन–ब–दिन और–और–और मजबूत होती जा रही हैं। और भोग से रोने वाली ताकतें, भोग को रोकने वाली ताकतें बिलकुल कमज़ोर होती जा रही हैं। अब तो समय इंस्टेंन्ट ग्रेटीफिकेशन (तत्काल संतुष्टि) का है न। ‘ओ यस अभी! लुक फॉर योर हैप्पीनेस इन दिस मोमेंट (इसी क्षण में ही खुशी पाओ)।’ तो बलात्कारी अब क्यों न कहे कि ‘बाद में सज़ा हो, चाहे मौत हो, आई लिव इन दिस मोमेंट एंड ऑन माय हैप्पीनेस ऑन डेट इज़ गॉल ऑफ़ माय लाइफ (मैं इसी पल में जीता हूँ और मेरी खुशी ही मेरे जीवन का उच्चतम लक्ष्य है)? जीवन है ही इसलिए कि अपने सुख की ओर बढ़ो और वह सुख तुम्हें कब पाना है? इसी पल में। तो इसी पल में सुख पा लो, आगे जो होगा देखा जाएगा। आगे की परवाह करना तो मूर्खों का काम है। हम क्यों सोचें कि आगे सज़ा होगी।’ यह लो, यह है बलात्कारी का गणित।

मुझे अचंभा होता है, एक टीवी चैनल में लिखा आ रहा था, बलात्कार की बेचारी पीड़िता के साथ, उस पर नाम लिखा आ रहा था, 'बिटिया'। मान लो उसका कुछ नाम है, कुछ भी नाम है, कोई भी काल्पनिक नाम ले लो, रेखा। तो वैसे भले ही उसका नाम आता तो वह कह देते रेखा, पर अब कुछ मामला ऐसा हुआ था कभी तो उसके साथ अब लिखा आ रहा था रेखा बेटिया। ‘रेखा बिटिया के अपराधियों को सज़ा दो।’ ऐसा बड़ा–बड़ा स्क्रीन में लिखा हुआ आ रहा था। ‘रेखा बिटिया के अपराधियों को सज़ा दो।’ और उसके तुरंत बाद एक रियलिटी शो चला दिया जिसमें छह साल की लड़की नाच रही है और उसके इर्द–गिर्द छह–सात पुरुष नाच रहे हैं। और वह गाना क्या है, जिस पर वो नाच रही है? मुझे ठीक से याद नहीं पर एक नंबर का कामोत्तेजक गाना। और उस पर तुम छह साल की लड़की को नचा रहे हो और सबसे ज़्यादा दु:खद बात, उसी लड़की के माँ–बाप ऑडियंस में बैठकर ताली बजा रहे हैं।

और इस न्यूज़ चैनल को समझ में भी नहीं आ रहा कि थोड़ी देर पहले तुम बिटिया बोल रहे थे और अब जो बिटिया है, उसको तुम क्या कर रहे हो! अब बलात्कार होगा कि नहीं होगा? जाकर सज़ा दो न इस न्यूज़ चैनल को और जाकर सज़ा दो उस फ़िल्म के प्रोड्यूसर को जिसकी फ़िल्म में वह गाना था और जाकर सज़ा दो उस अभिनेत्री को जो उस गाने पर अर्धनग्न नाची थी और सज़ा दो उन सब लोगों को जो उस फ़िल्म का दो–दो सौ, तीन–तीन सौ का टिकट लेकर देखने गए थे और उस प्रोड्यूसर की जेब में तीन सौ करोड़ों का मुनाफ़ा भरा था।

उनको सज़ा क्यों नहीं दे रहे?

हम सज़ा की माँग करते हैं घर बैठकर के। एक न्यूज़ चैनल पर सज़ा की माँग चल रही है, दूसरे न्यूज़ चैनल पर एक रियलटी शो चल रहा है, जिसमें हद दर्जे की काम–लोलुपता दर्शायी जा रही है। आपको यह विरोधाभास दिखाई नहीं देता? फिर आप कहते हो, 'अरे–अरे–अरे! वह लोग बड़े खराब हैं, जो बलात्कार करते हैं।' वह लोग निश्चित रूप से खराब हैं जो बलात्कार करते हैं पर पूरी बात करो! उनकी बात कौन करेगा जो पूरे देश में बलात्कार का माहौल बना रहे हैं; और देश में नहीं, पूरी दुनिया में। उनकी बात कौन करेगा?

उन फिलॉस्फर , इंटेलेक्चुअल दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों की बात कौन करेगा जिन्होंने हमें समझा दिया है कि खुशी के लिए ही तो जिया जाता है? उन लिबरल्स (उदारवादियों) की बात कौन करेगा जिन्होंने किसी भी चीज़ को सेक्रेड मानने से इंकार कर दिया है? उन उद्योगपतियों की बात कौन करेगा, जो हजार तरीक़े के विज्ञापन देकर के हमें भोग की तरफ़ प्रेरित करते रहते हैं। और भूलियेगा नहीं, अधिकांश विज्ञापनों में एक अर्धनग्न लड़की ही होती है जो आपको भोग के लिए उकसा रही होती है।

पुरुषों के रेजर का भी विज्ञापन पूरा नहीं हो सकता, जब तक उसमें एक जवान लड़की आकर के अपनी अदाएँ न बिखेरे। पुरुषों के अंतर वस्त्रों का, चड्डी और बनियान का भी विज्ञापन नहीं हो सकता अगर उसमें कोई लड़की नहीं घूम रही। ऐसे विज्ञापनदाताओं को सज़ा कौन देगा, बताओ? और ऐसे विज्ञापनदाता क्या एक के बाद एक श्रंखलाबद्ध बलात्कारी नहीं पैदा कर रहे? जवाब दो!

इंटरनेट फ्री हो गया है, ठीक? निकलो सड़क पर, यह जो सर्वहारा तबका है – मजदूर हो, रिक्शावाला हो, छोटा किसान हो, सबके हाथ में एंड्रॉयड है। और हर फ़ोन पर पॉर्न चल रही है। और पॉर्न माने यही नहीं कि तुमको पॉर्न वेबसाइट पर जाना है। लोग कहते हैं, 'यह पॉर्न वेबसाइट प्रतिबंधित होनी चाहिए।' पॉर्न वेबसाइट प्रतिबंधित कर दोगे, टीवी को कैसे प्रतिबंधित करोगे और फिल्मों को कैसे प्रतिबंधित करोगे? अब यह नहीं हुआ है कि लोग या तो फ़िल्म देखते हैं या पॉर्न देखते हैं; अब यह हुआ है कि फ़िल्म ही पॉर्न है। उसको भी बैन कर दो।

अख़बारों की भी जो वेबसाइट्स हैं, उनमें जाकर के देखो। अभी एक में था, एक युवती का नाम और उसमें आगे लिखा हुआ है, कुछ भी काल्पनिक नाम ले लो उसका – स्नेहा, दीज कर्व ऑफ स्नेहा विल मेक यू ड्रूल। स्नेहास कर्व विल मेक यू ड्रूल। ड्रूल माने जानते हो क्या होता है? लार टपकाना, और यह बात एक पॉर्न वेबसाइट नहीं कह रही, यह प्रतिष्ठित समाचार–पत्र की वेबसाइट बोल रही है कि स्नेहा के उभार देखकर के तुम लार टपकाना शुरु कर दोगे। यह समाचार–पत्र की हैडलाइन है, यह न्यूज़ आइटम है! जाकर इस समाचार पत्र के मालिक को और इस समाचार पत्र में विज्ञापन देने वालों को क्यों नहीं सज़ा देते? यह कितने बलात्कारी पैदा कर रहे हैं, कुछ हिसाब है?

यह ड्रूल माने क्या होता है? तुमने कैसे लिख दिया? क्या यह महिलाओं का अपमान नहीं है? कहॉं है हमारा इंटेलीजेंसिया? कहॉं है हमारे लिबरल्स? कैसे लिख रहे हो, स्नेहाज कर्व विल मेक यू ड्रूल? और यह हॉट माने क्या होता है? ‘विच ऑफ दीज़ बेब्स इज़ दी हॉटेस्ट?’ ये हॉट माने क्या होता है, बताओ? हॉट माने यही न, कामोत्तेजक? किसको देखकर के तुम में कामोत्तेजना आ जाती है। जब यह लिखा जाता है, तब इनको कोई सज़ा क्यों नहीं देता?

और मैं यह सब इसलिए नहीं बोल रहा हूँ क्योंकि मैं हिंदुत्व का पैरोकार हूँ या भारतीय संस्कृति का पक्षधर हूँ। मुझे एक बात पता है कि अगर आपके मन में बार–बार कचरा भरा जा रहा है तो आप जीवन में कोई सार्थक काम नहीं कर सकते। और बार–बार आपको स्त्री के शरीर को भोगने के लिए लालायित करा जा रहा हो, यह मन में कचरा ही भरने की बात है। मैं बिलकुल आध्यात्मिक दृष्टि से इनका विरोध कर रहा हूँ। न हिंदू बनकर कर रहा हूँ और न संस्कृति का ध्वजारोहक बनकर कर रहा हूँ। मैं बहुत सीधे–साधे इंसान की तरह पूछ रहा हूँ, यह जो तुम कर रहे हो, इससे तुम बलात्कारियों की ही फसल नहीं पैदा कर रहे हो तो और क्या कर रहे हो?

और यह सब करने वाले जो भी लोग हैं, उनको समर्थन देने वाला देश का आम–आदमी है। इस आम–आदमी को सज़ा कौन देगा? विज्ञापनदाता जो भी होगा, उस विज्ञापन को देखकर के उस उत्पाद को ख़रीदने वाले तो हम ही हैं न? हमें सज़ा कौन देगा? फ़िल्म चाहे जिसने बनाई हो, उस फ़िल्म का धंधा चमकाने वाले तो हम ही हैं न; हमें सज़ा कौन देगा?

कितने ही नेता हैं अब जिनकी राजनीति चल ही इस पर रही है कि 'मारो, हिंसा; मारो, हिंसा’। उनकी बात सुन–सुनकर के अगर आदमी भी हिंसक हुआ जाता हो तो उन नेताओं को सज़ा कौन देगा? और यह कहकर के, मैं दोहरा रहा हूँ, तेहरा रहा हूँ, मैं बचाव नहीं कर रहा हूँ उनका, जो बलात्कार इत्यादि करते रहते हैं। उन्हें सबसे पहले सज़ा दो, कड़ी–से–कड़ी सज़ा दो, पर सिर्फ़ को सज़ा मत दो। अगर तुम वास्तव में चाहते हो कि यह अपराध रुकें, तो समस्या की जड़ तक पहुँचो, समस्या के मूल तक पहुँचो। समस्या का मूल यह है कि बहुत मूर्ख लोगों के हाथ में ताकत है और धन है। और वह इस स्थिति में बैठ गए हैं कि वह सब जनता को प्रभावित कर सकते हैं। मीडिया के कॉलमिस्ट (स्तंभलेखक) भी वो हैं और मीडिया के मालिक भी वही हैं। इन सबमें साझा क्या है? एक चीज़ — अध्यात्म से इन्हें कोई सरोकार नहीं, सच्चाई की इन्हें कोई तलब नहीं, बोध–ग्रंथों के प्रति इनमें कोई श्रद्धा नहीं।

सप्ताहांत शुरू हो गया न, आज क्या है दिन? (श्रोता से पूछते हुए।) शनिवार है। शनिवार की रात है, अभी पौने एक बजने वाला है। इस वक्त चले जाओ दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, किसी डिस्को थीक के सामने खड़े हो जाओ और वहॉं लड़के–लड़कियों की हालत देखो; हालत देखो बस। और मैं फिर बोल रहा हूँ, मैं यह सब कुछ संस्कृतिनिष्ट होने के नाते नहीं बोल रहा हूँ। संगीत अच्छी बात है, नाचना अच्छी बात है — अपने समय में मैं भी डिस्को थीक खूब गया हूँ। तो मुझे यह नहीं समस्या नहीं है कि ‘अरे, अरे! कम कपड़े क्यों पहने लिए किसी लड़की ने? और अरे, अरे! अगर तुम बाहर निकली हो तो अपने भैया के साथ ही निकलना’। मैं वह सब नहीं कह रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ, उनकी हालत देखो, उनके मन की हालत देखो। उनमें तुम्हें कोई गहराई नज़र आती है? उनके शरीर के प्रति उनका रुख़ क्या है, यह देखो।

शरीर अगर दूसरे को आकर्षित करने की चीज़ बन गया तो तुमने शरीर का व्यापार ही कर डाला न। एक जैन मुनि भी नग्न घूमता है और भारत में तो बहुत परंपरा रही है साधुओं के, संतों के, अघोरियों के निर्वस्त्र घूमने की। लेकिन उनका निर्वस्त्र घूमना एक था, वह शरीर के पार निकल गए थे इसलिए निर्वस्त्र हो गए थे। और डिस्को थीक के सामने यह जो नग्नता का प्रदर्शन हो रहा है, यह बिलकुल दूसरी बात है। यह शरीर के पार नहीं निकल गए हैं, यह शरीर को भोगने की आशा में नंगे हुए जा रहे हैं। लल्लेश्वरी भी वस्त्रों का त्याग करी थी; वह एक बात थी। पर डिस्को थीक में इस वक्त जो लड़की अधनंगी नाच रही है, वह लल्लेश्वरी नहीं है; उसने अपनेआप को भोग की वस्तु बनाया है। उसे किसने सिखाया कि स्त्री का शरीर ऑब्जेक्टिफाई किया जा सकता है? बोलो, किसने किया सिखाया? गर्भ से तो वो ये ज्ञान लेकर नहीं आई थी। उनको भी सज़ा दो न जिन्होंने लड़कियों को सिखा दिया है कि तुम्हारा शरीर भोगने की चीज़ है। उनको सज़ा कौन देगा?

मैं चाहता हूँ कि उनको भी सज़ा मिले क्योंकि मैं नहीं चाहता कि बलात्कार की जैसी घटनाएँ आजकल देखने को मिल रही है, ऐसी बार–बार हों। जनमानस तो तृप्त होकर के बैठ गया है। ‘लोगों ने बलात्कार किया, हत्या की, उनको गोली मार दी गई। चलो–चलो–चलो, चैप्टर क्लॉज्ड, कहानी ख़त्म!’ कहानी ख़त्म नहीं हुई है अभी। यह कहानी अभी चलती रहेगी, इंतज़ार करिए। कल, परसों, नरसो किसी दिन फिर से आपको अखबार में इसी से मिलती–जुलती घटना आपको दोबारा पढ़ने को मिलेगी।

आपने ज़हर की एक बोतल फोड़ी है बस, ज़हर का उत्पादन करने वाली फैक्ट्री लगातार उत्पादन करे जा रही है और आपको ख़बर भी नहीं है कि वह फैक्ट्री कहॉं है और कौन उसका मालिक है। मैं चाहता हूँ कि सबकी बेहतरी के लिए, सब की शांति के लिए और महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए हम समस्या के मूल तक पहुँचे। उपभोक्तावाद, पदार्थवाद और धर्म के प्रति अवमानना का भाव हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा। उसके प्रमाण बिलकुल स्पष्ट हैं। अगर हम अभी भी नहीं चेतना चाहते तो हमारी मर्ज़ी। और भूलिएगा नहीं कि यह सब चीज़ें एक–दूसरे से जुड़ी हैं। आज के समय की सारी समस्याओं को देखो आप और सब समस्याओं में आपको यही केंद्रीय तत्व नज़र आएगा — पदार्थवाद, उपभोक्तावाद, हैप्पीनेसवाद।

हम अच्छी तरह जानते हैं कि क्लाइमेट चेंज अब वह क्लाइमेट चेंज नहीं है, अब वह क्लाइमेट कैटास्ट्रॉफी बन चुका है। बल्कि धीरे–धीरे तो यह बात साफ़ होती जा रही है कि शायद अब उससे बचा नहीं जा सकता। हमारा अंत निश्चित है, कुछ दशकों के बाद भीतर ही। वह कहॉं से आ रहा है? वह इसी से तो आ रहा है न कि मुझे अपनी खुशी के लिए भोगना है, भोगना है, भले उससे कितना भी कार्बन उत्सर्जित होता हो। मैं तो भोगूँगा, भले ही उसका कुछ भी परिणाम निकलता हो, मैं तो भोगूँगा। आपको इस भोगने वाले और बलात्कारी की मानसिकता में समानता नहीं दिखाई दे रही? बोलिए, आपको दिख नहीं रहा कि चाहे महिलाओं की सुरक्षा का मामला हो और चाहे क्लाइमेट कैटास्ट्रॉफी हो, उनका केंद्रीय स्रोत एक ही है। इसी तरीके से देखिएगा, यह जितने भी युद्ध चल रहे हैं, जितने भी जियोपोलिटिकल डिस्टरबेंसिस (भूराजनैतिक विवाद) चल रहे हैं, उनके केंद्र में क्या यही भाव नहीं बैठा है कि सत्ता भोग लें, किसी देश का तेल भोग लें, किसी देश के संसाधन भोग लें? बोलिए? यह सब एक–दूसरे से जुड़ी हुई बातें हैं। अगर आप थोड़ी साफ़ नज़र से गौर करेंगे तो आप को दिखाई देगा कि वह एक ही जगह से आ रही हैं।

सभी धर्मों का मूल तत्व एक है। उसको स्कूली बच्चों तक लेकर जाइए, मैं विनती करता हूँ। झूठे आदर्शों के नाम पर हमारे बच्चों को, युवा पीढ़ी को उपनिषदों से वंचित मत रखिए। अगर हमारे स्कूल की किताबों में अष्टावक्र मुनि का नाम भी नहीं हैं तो हम बहुत ज़्यादा रोगी समाज हैं। इस रोगी की समाज में बलात्कार और हत्या और अपराध नहीं होंगे तो क्या होगा? देश की तरक्की का मापदंड जीडीपी को बनाना छोड़िए। यह बहुत झूठा तरीका है देश की तरक्की को नापने का। आप कितने बहादुर हैं, इस बात का पैमाना अपनी अकड़ और अपने बल को बनाना छोड़िए। हम अपनी परवरिश और अपनी शिक्षा और अपने ऊपर पड़े हुए प्रभावों का निर्माण हैं। जब तक समाज से हम पर जो प्रभाव पड़ रहे हैं, वह साफ़ नहीं किए जाते; जब तक हमारी शिक्षा व्यवस्था — पूरा जो सिलेबस ही है, जो पाठ्यक्रम ही है — उसको बोध से प्रकाशित इल्यूमिनेट नहीं किया जाता, तब तक हम या तो जॉम्बीज़ पैदा करेंगे या रेपिस्ट।

मेरी मूल बात आप समझ रहे हैं?

जो बातें आपको अच्छी लगने लग गई हैं, उन्हीं बातों का दुष्परिणाम है वह सब कुछ जो फिर रात के अंधेरे में किसी टोल प्लाज़ा पर हो जाता है। हम इन दोनों बातों का संबंध नहीं देख पा रहे हैं, इसलिए हम गलतफहमी में हैं। जैसे कि कोई घर हो भोगवादी अमीरों का, हैप्पी हाउस और उसमें लगे हुए हैं बड़े–बड़े एयर कंडीशनर। और मई का महीना है और बाहर का तापमान है सैंतालीस डिग्री और एयर कंडीशनर चल रहे हैं और बाहर क्या फेंक रहे हैं वो? गर्म हवा। और एक मज़दूर औरत आई है, वह उसी हैप्पी–हाउस में काम करती है। वह अपनी छोटी–सी बच्ची को एक एयर कंडीशनर की छाँव में सुलाकर चली गई है। वह सुबह–सुबह आई थी, तब एसी नहीं चल रहा था। तो बाहर दीवार में एयर कंडीशनर की थोड़ी छाया थी, वहॉं नीचे उसने क्या करा? बच्ची को सुला दिया। एयर कंडीशनर फिर चलने लगे, पूरा घर ठंडा है, हैप्पी–हैप्पी है; टीवी चल रहा है, सब बढ़िया, कंजप्शन , भोग। और वही एयर कंडीशनर जो आपके घर को ठंडा कर रहा है, उसने उस छोटी–सी बच्ची को, उस मजदूर महिला की बच्ची को मार डाला। क्योंकि जितनी आपको ठंडक मिल रही है न, उससे दूनी गर्मी फेंक रहा है, वह एयर कंडीशनर बाहर। ऐसे हो रहे हैं अपराध।

जो आपको सुख दे रही हैं चीज़, वही न जाने कितनी बच्चियों की जान ले रही है। अपने सुखों पर गौर करिए। और इससे काम नहीं चलेगा कि नारेबाज़ी कर दी, कह दिया कि फ़लाने को फाँसी दे दो। यह सब अपना पल्ला झाड़ने के बड़े सस्ते उपाय हैं, बेईमानी की बातें हैं कि कहीं कोई बलात्कार हुआ है तो नारेबाज़ी कर आए कि अरे–अरे–अरे! यह तो गलत काम हो गया। गौर से देखिए कि इस तरह की नृशंस घटनाओं के वास्तविक ज़िम्मेदार लोग कौन हैं? वह व्यक्ति तो है ही जिसके हाथों से ही घटना होती है पर उस व्यक्ति के साथ–साथ और भी बहुत लोग हैं। जब आप अपनी हैप्पी पार्टी मना रहे हैं न घर में, ठीक उसी वक्त वह छोटी–सी बच्ची आपके ही एयर कंडीशनर के गर्म रेडिएशन से बाहर मर रही है और वह जब मर जाएगी तो आप ढूँढेंगे कि दोष किसको देना है और किसी–न–किसी को आप पकड़ ही लेंगे और दोषी बनाकर सज़ा भी दे देंगे। वास्तविक दोषी कौन है, उसको देखिए।

इतना ज़्यादा देह–केंद्रित और कंजप्शन सेंट्रिक, भोग–केंद्रित युग आ गया है कि अध्यात्म भी पूरा–पूरा देह से संबंधित हो गया है। आज के समय में जो दो–तीन तरह का अध्यात्म सबसे ज़्यादा चल रहा है, वह बताएँ देता हूँ, वो क्या है? एक हठयोग, कोई अगर बोले कि वह योग में रुचि रखता है, तो निन्न्यानवे दशमलव नौ नौ प्रतिशत संभावना है कि वह बात कर रहा है शारीरिक योग की, हठयोग की। अध्यात्म में भी आपने यही घुसेड़ दिया कि कैसे शरीर को बलिष्ट और तंदुरुस्त रखना है। बस यही अध्यात्म है? हठयोग अच्छी एक्सरसाइज (व्यायाम) है पर उससे मन थोड़ी शुद्ध हो जाएगा भाई! और यह बात मैं नहीं कह रहा, हठयोग–प्रदीपिका पढ़ लीजिए। दूसरे तरह का जो अध्यात्म प्रचलित है, वह है कि क्या खाओगे, कितने बजे उठना चाहिए, कौन–सी चीज़ के साथ कौन–सी चीज़ नहीं खानी चाहिए, क्या पहनना चाहिए, कब नहाना चाहिए, किस दिन घर के बाहर सोना चाहिए, कब अंदर सोना चाहिए, गले में माला कौन–सी डालना चाहिए।

जो चीज़ आपको देह से दूर ले जा सकती थी — एक ही क्षेत्र था जो आपको शरीर से थोड़ा दूर ले जाता; उसका क्या नाम था? अध्यात्म — बड़ी से बड़ी त्रासदी तब होती है, जब अध्यात्म भी शारीरिक बन जाता है और देखो आज के सब गुरुओं को, अध्यात्म के नाम पर शरीर की बात कर रहे होंगे। बार–बार बोलेंगे, 'वेल बीइंग, वेल बीइंग' और उस वेल बीइंग का एक ही मतलब होगा, क्या? शारीरिक वेल बीइंग। और वह अगर वह उसमें मानसिक वेल बीइंग की बात करेंगे तो उसका मतलब होगा हैप्पीनेस। वह कहते हैं, 'शरीर तंदुरुस्त रखो और मन को हैप्पी रखो।' यह अध्यात्म चल रहा है। अब बलात्कार नहीं होंगे तो क्या होगा? शरीर बढ़िया होना चाहिए और मन हैप्पी। इन दोनों को जोड़ो तो देखो क्या मिलता है? भोग। बढ़िया, मस्त आकर्षक जिस्म होने चाहिए और मन को खुशी मिलनी चाहिए। तो अब करोगे क्या?

रेसिपी (पाकविधि) बताने के कार्यक्रम आते हैं टीवी पर और वेबसाइट में छपती हैं रेसिपीज़। उनमें से निन्न्यानवे प्रतिशत वह होती हैं जिनमें जानवरों का कत्ल किया जा रहा है। और वहॉं पर बड़े ही स्वरूचिपूर्ण तरीके से, टेस्टफुल तरीके से बताया जाता है कि यह माँस कैसे भोगना है। यह जो लोग आपको माँस भोगने की शिक्षा दे रहे हैं, समझ रहे हैं न? माँस भोगो। किसी के शरीर में उँगलियाँ घुसेड़ दो पूरी, अब वो मुर्गी का भी शरीर हो सकता है और स्त्री का भी तो हो सकता है न। जब आपको यही बताया जा रहा है कि अपने सुख के लिए, अपने इंद्रियगत सुख के लिए ठीक है किसी के शरीर में उँगलियाँ घुसेड़ देना, उसमें हाथ डाल देना और उसको चबाकर खा जाना, कत्ल कर देना, भोग लेना, काट देना, निचोड़ देना, चूस देना। तो अब बलात्कार कितनी दूर है, बताओ न मुझे?

दुनियाभर में माँस की खपत कम हो रही है, हिंदुस्तान में चिकन–मटन बढ़ता ही जा रहा है। अंदाजे से नहीं बोल रहा, आँकड़ों से बोल रहा हूँ। जाओ और पूछो उनसे जो तुम्हें चिकन और मटन खाना सिखा रहे हैं। तुम्हें सज़ा कौन देगा? पूरी दुनिया वीगनिज्म की तरफ़ बढ़ रही है, विकसित राष्ट्रों की आबादी का एक अच्छा खासा प्रतिशत है, कहीं चार प्रतिशत, कहीं आठ प्रतिशत, कहीं उससे भी ज़्यादा; जो वीगन हुआ जा रहा है। हिंदुस्तान में तुम वीगन सामग्री खोज कर दिखा दो। यहॉं तो चिकन चाहिए। वह भी लोग जो पारंपरिक रूप से माँस नहीं खाते थे, चाहे ब्राह्मण हो, चाहे जैन हो — वहॉं भी अब चिकन चल रहा है। और फिर ताज्जुब होता है कि इतना बलात्कार क्यों बढ़ रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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