इक्को रंग कपाई दा || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर (2014)

Acharya Prashant

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इक्को रंग कपाई दा || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर (2014)

इक्को रंग कपाई दा

सब इक्को रंग कपाई दा,

इक आपे रूप वटाई दा | टेक |

अरूड़ी ते जो गदों चरावैं,

सो भी वांगी गाईं दा |

सभ नगरां विच आपे वस्से,

ओहो मेहर गराईं दा |

हर जी आपे हर जा खेले,

सदिआ चाईं चाईं दा |

बाग़ बहारां तां तूं वेखें,

थीवें चाक अराईं दा |

इश्क़-मुश्क़ दी सार की जाणे,

कुत्ता सूर सराईं दा |

बुल्ल्हा तिस नूं वेख हमेशा,

इह है दर्शन साईं दा |

उठ जाग

उठ जाग घुराड़े मार नहीं,

एह सौण तेरे दरकार नहीं | टेक |

कित्थे हैं सुलतान सिकंदर,

मौत न छडिया पीर पगम्बर,

सबमें छड़-छड़ गए अडम्बर,

कोई एथे पायेदार नहीं |

जो कुछ करसैं सो कुछ पासैं,

नहीं तां ओड़क पच्छो तासैं,

सुंजी कूंज वांग कुरलासैं,

खभां बाझ उडार नहीं |

बुल्ल्हा शौह बिना कोई नाहीं,

एथे ओथे दोहीं सराईं,

संभल-संभल क़दम टिकाईं,

फिर आवण दूजी वार नहीं |

– बुल्ले शाह

वक्ता: इस आने-जाने का क्या अर्थ है?

जब भी कुछ बचा हुआ रहेगा वो समय में आगे जाएगा| आप कुछ हैं इस पल में, और आप जो कुछ भी हैं उस से आपकी ज़रा भी आसक्ति है तो वो आगे जाएगा| पल बीत गया, उस पल का जो बचा है वो आगे जा रहा है, यह होता है पुनर्जन्म|

एक बात ध्यान से समझना, पुनर्जन्म में मृत्यु पूर्ण नहीं होती| आधा मरे होते हैं और आधा बच गया होता है, अवशेष रह जाते हैं| आप अभी कुछ हो, अगले क्षण में आप पूरे नहीं हो पा रहे, आपकी मृत्यु पूर्ण नहीं है, और आपका जन्म भी पूर्ण नहीं है| पूर्ण मृत्यु का अर्थ है- जो है वो अभी ख़त्म हो गया, आगे ले जाने के लिए कुछ शेष नहीं है| जब भी आगे ले जाने के लिए कुछ बचा रहेगा तो उस को ही कहते हैं कि चक्र अभी चल रहा है|

उसमें कोई वैसी बात नहीं है कि आदमी मरता है तो उसका कुछ रह जाता है देह के अलावा, जो एक दूसरी देह लेकर पैदा होती है, नहीं ऐसा कुछ नहीं है| चौरासी का फेरा मरने के बाद नहीं शुरू होता, वो अभी है, लगातार है, हमारे साथ ही चल रहा है| आप कभी कुछ हैं और कभी कुछ और जो कुछ भी हैं वो पूरी तरह नहीं हैं| इसलिए इस फेरे से निकलने का एक मात्र तरीका है, पूर्ण-मृत्यु| कबीर कहते हैं,

मरण-मरण सब कोई करै, मरण न जाने कोए|

मैं कबीर ऐसा मरा, दूजा जन्म न होए||

दूजा जन्म न हो उसके लिए पूर्ण-मृत्यु आवश्यक है| चूंकि हमारी मृत्यु पूर्ण नहीं होती इसलिए अगला, और अगला और अगला जन्म होता ही रहता है|

पूर्ण-मृत्यु से समझ रहे हो? जो है वो पूरी तरह से समाप्त हो जाए| अभी क्या है? और क्या है जो समाप्त हो सकता है? अहंकार, विचार, जो कुछ चलता रहता है| उसकी ज़रुरत है, और अभी है, जब नहीं है तो वो चिपका न रहे, कि पीछे से कुछ है जो चिपका चला आ रहा है|

क्या है जो पीछे से चिपका-चिपका चला आता है? अतीत! अतीत ने जो कुछ दे रखा होता है; स्मृतियाँ, धारणाएं|

यही है चौरासी का फेरा|

श्रोता १: जब शरीर है तो मृत्यु कैसे होगी?

वक्ता: चिपकना नहीं है| जैसे, कमल का पत्ता है उस पर बूँद रखी भी हुई है, पर चिपकी नहीं है| तो शरीर है, मन के कटोरे में सामग्री तो रहेगी, लेकिन जब उसका उपयोग ख़त्म हो जाए तो कटोरा पूरी तरह साफ़ हो जाए| इस पूरी तरह साफ़ होने को ही कहते हैं, पूर्ण-मृत्यु| उसमें कुछ चिपका न रह जाए, पूरी तरह साफ़ ही हो जाए|

शरीर चिपकने नहीं आता, मन चिपकता है शरीर से| देहाभिमानी मन होता है, मन न चिपके| तुमने यह तो नहीं सुना न कि मनाभिमानी देह होती है| मन किसी भी वस्तु से चिपक सकता है, देह भी उसके लिए एक वस्तु है, विचार भी उसके लिए वस्तु है, अतीत उसके लिए वस्तु है, उसे तो चिपकने का बहाना चाहिए| तो ये जो चिपकू मन है, यही कुछ और बनकर पैदा होता है| इसलिए हिन्दुस्तान में यह बात हमेशा से कही गयी है कि वासनाएं ही शरीर लेकर पैदा होती हैं| तुमने साधारण तौर पर भी सुना होगा कि अतृप्त इच्छाएं अगर रह गयी हैं तो दोबारा जन्म होगा|

अब बात समझ में आ रही है? क्योंकि अभी कुछ चिपका हुआ है| इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारी अगर अतृप्त इच्छाएं हैं तो दूसरा देह लेकर पैदा होगे, वो बात लाक्षणिक है| लेकिन इशारा किधर है उस बात को समझो| तुम्हारी जो अतृप्त इच्छाएं हैं, जो अपूर्णताएं हैं वही समय में तुम्हें आगे बढ़ाती हैं, उन्हीं के कारण समय जीवित है| अतृप्ति न हो तो समय नहीं रहेगा, इसी को कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘समय का ख़त्म होना, द एन्डिंग ऑफ़ टाइम’|

समय की धारा तभी तक चल रही है जब तक कहीं कोई प्यास बची हुई है| प्यास ख़त्म, समय ख़त्म|

मरने पर इसलिए इतना ज़ोर है कि, ‘मरो हे जोगी मरो, मरण है मीठा| ऐसी मरनी मरो जिस मरनी गोरख मर जीठा’|

यह कहा गया है कि ऐसा मरो जैसा मरकर गोरख जी उठा| क्योंकि अभी तो जैसे तुम जी रहे हो, वो एक अधूरापन है| मरना ज़रूरी है, ख़त्म करना ज़रूरी है| हमें ख़त्म करना नहीं आता, पुराना कुछ होता है उसको हम ढोए-ढोए फिरते हैं| जिसे ख़त्म करना नहीं आता, समाधान नहीं आता, उसका हश्र वेदना है|

श्रोता २: कहा जाता है कि हम पंचतत्व से बने हैं| जब यह पंचतत्व हमसे छिन जाता है तो शरीर मर जाता है| कृपया इस पर रोशनी डालें|

वक्ता: शरीर की कोई मृत्यु नहीं होती| शरीर कहाँ मरता है? आपने कभी शरीर को मरते देखा है क्या? मन मरता है| आपका शरीर है, मेरा शरीर है, इसका एक-एक अणु-परमाणु अमर है| आप मर जाएं, मैं मर जाऊं, हम राख बन जाएँगे| मरा क्या? मन|

शरीर तो पूर्णतया अमर है क्योंकि शरीर पदार्थ है| दो ही चीज़ें अमर हैं- आत्मा और शरीर| मन मरता है| क्या कभी शरीर को डरते देखा है मृत्यु से? आपके नाखून कांपते हैं क्या? नाखून कहने आते हैं कि हमें डर लग रहा है? मृत्यु से डरता है, मन| अगर शरीर मरता होता तो शरीर को डरना चाहिए था, पर मन डरता है|

शरीर अमर है| जो भी कुछ होता है, शरीर में जरा आती है, जरा कहाँ है समय में? और समय कहाँ होता है?

श्रोता १: मन में

वक्ता: शरीर पर चोट लगती है, क्या वो चोट अनुभव होगी अगर मन सोया हो? तो पीड़ा किसे होती है, शरीर को या मन को?

श्रोता २: मन को|

वक्ता: शरीर का बहुत बड़ा ऑपरेशन चल रहा हो, शरीर खोल दिया गया हो, क्या शरीर आपसे कहने आएगा कि मुझे दर्द हो रहा है?

सारा खेल मन का है, शरीर का कुछ नहीं| ये जो पंचभूत की आपने बात की वो प्रकृति है, और प्रकृति अमर है| प्रकृति कहाँ मरती है?

श्रोता १: जो बुद्ध का महानिर्वाण है, उसमें तो शरीर की बात भी की गयी है| वो क्या है फिर?

वक्ता: बहुत अंतिम बात है और बहुत सूक्ष्म-सा अंतर है, हमारे लिए इसमें जो काम की बात है वह यह है कि हमें ख़त्म करना नहीं आता, हम पूर्णविराम लगाना नहीं जानते| पूर्णविराम लगाना सीखिए| ख़त्म सो ख़त्म, मुर्दों को मत ढोइये, मन को कब्रिस्तान मत बनाइये कि उसमें अतीत के मुर्दे भरे हुए हैं और आप उनको ढो रहे हैं| मन को हल्का रखिये, ताज़ा रखिये|

श्रोता ३: आपने कहा कि हमारा जन्म भी पूर्ण नहीं, और हमारी मृत्यु भी पूर्ण नहीं क्योंकि हम हर पल मर रहे हैं|

वक्ता: देखो, अहंकार न तुम्हे पूर्ण जन्म लेने देगा और न तुम्हें पूर्ण मरने देगा, वो दोनों से डरता है| मरने के नाम से बहुत खौफ़ खाता है, और जन्म से भी उतना ही खौफ़ खाता है| क्योंकि जन्म का क्या अर्थ होता है? नया जन्म| कोई जन्म अधूरा या पुराना नहीं होता| हमें यह तो दिखाई देता है कि हम मरने से डरते हैं, आपने गौर नहीं किया होगा कि हम जन्मने से भी उतना ही डरते हैं, और जो जन्मने से डर रहा है, स्वाभाविक है कि मरने से भी डरेगा|

मरने से मत डरो, मरने से बिल्कुल मत डरो| ताज़ा होने का अर्थ ही क्या है? नया जन्म! ‘ताज़ा’ माने नया जन्म| ताज़ा हम सब रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता| यह कैसे संभव है? नहाने जाते हो, नहाने की क्या प्रक्रिया है? नहाकर आते हो तो चेहरा चमक रहा होता है| क्यों चमक रहा होता है? चेहरे के ऊपर जो पुरानी, बासी कोशिकाएं होती हैं, वो नहाकर हट जाती हैं, तभी तो कुछ नया, ताज़ा, चमकता हुआ सामने आता है| अब तुम यह तो चाहते हो कि ताज़ा रहें, पर जो पुरानी मरी हुई कोशिकाएं हैं जो अतीत से चली आ रही हैं, उनसे बड़ी आसक्ति हो गयी है| अगर तुम पुरानी कोशिकाएं हटा नहीं सकते तो चेहरा खिलेगा कैसे?

श्रोता ३: आपने कहा हम अतृप्त हैं पुरानी प्यास बुझाने के लेकिन स्मृतियाँ कैसे जाएंगी?

वक्ता: चिपकने की बात करी है| ये एक कटोरा है, इसमें एक रसायन भर सकते हो जो इसके साथ रासायनिक प्रतिक्रिया करे, अब वो चिपक गया है उस से| और दूसरी तरफ तुम उसमें पानी भर सकते हो, पानी उलीच दिया, कुछ क्षण बाद पानी का कोई निशान नहीं बचेगा|

फिर से कह रहा हूँ, मन में कुछ सामग्री है, इसमें नहीं कुछ बुराई है, मन उस सामग्री से चिपक गया है| सामग्री तो रहेगी, क्यों नहीं रहेगी सामग्री? यह पढ़ रहे हो, मन में सामग्री जा रही है, ठीक है| उस से गाँठ बाँध लेने में, उस से सम्बन्ध स्थापित कर लेने में दिक्कत है|

श्रोता ३: उस सामग्री को हटाएं कैसे?

वक्ता: मन अपने आप हटा देगा| मन को ऐसा रखो कि वो उस से पहले ही जुड़ा हुआ है जिस से पहले ही उसे जुड़ना है, फिर वो छोटी-मोटी चीज़ों से चिपकने की कोशिश नहीं करेगा| मन जब उसके पास नहीं होता है जहाँ उसे होना चाहिए, तो वो छोटी-मोटी चीज़ों से जा-जाकर जुड़ना शुरू कर देता है| जैसे, बच्चे को माँ न मिल रही हो तो वो गुड्डे-गुड़ियों से नाता जोड़ ले| तुम बच्चे को उसकी माँ दे दो, वो इधर-उधर की चीज़ों से जुड़ेगा ही नहीं|

‘माँ’ माने स्रोत|

श्रोता ४: सर ध्यान के पल आते हैं और जाते हैं|

वक्ता: ध्यान के जो पल आते हैं वो तुम्हारे कारण नहीं आते हैं| वो वही है जो कुरान कहती है, कि वो वह आवाजें हैं जो ऊपर से आती हैं| तो उसने अपना काम किया, आवाजें भेजीं, उन क्षणों के बाद तुम क्या करते हो वो तुम्हारी करतूत है, तुम उस पर ध्यान दो| हम में से कोई ऐसा नहीं है जिसको ध्यान के कुछ क्षण उपलब्ध न होते हों| जिसे ध्यान बिल्कुल भी न मिलता हो वो मर जाएगा, पागल हो जाएगा| तो हम में से हर कोई ऐसा है जो कभी-कभार शांत हो जाता है, वो शान्ति एक स्मरण पत्र है कि यह हो सकता है, बताओ चाहिए या नहीं चाहिए| तुम्हें बीच-बीच में दिया जाता है कि ऐसा संभव है, अब बताओ, ज़िन्दगी ऐसी बितानी है| अब ‘हाँ’ बोलो तो और मिलेगा|

श्रोता ४: वो ‘हाँ’ से निरंतर हो जाता है?

वक्ता: जितना छुटकारा गहरा होगा, ध्यान उतना ही पक्का होगा| जब तुम निरंतर कह रहे हो, तो अपनी स्थिति में होकर कह रहे हो| तुम निरंतर उसे कहते हो कि समय चल रहा है और ध्यान निरंतर है| तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? क्योंकि तुम्हारा मन ऐसा है जिसमें सब चलता ही रहता है| तो तुम कल्पना भी क्या कर रहे हो? यह कि एक स्थिति ऐसी आएगी जिसमें घड़ी चलती रहेगी और तुम समाधिस्थ होगे| ‘समाधि’ का अर्थ यह नहीं कि घड़ी चल रही है, समाधि का अर्थ है कि घड़ी रुक गयी| बाहर चल रही है और भीतर रुक गयी, समय बचा ही नहीं| इस सवाल में कुछ अच्छा नहीं है कि क्या निरंतरता मिल जाएगी| निरंतरता की बात ही तभी उठती है जब भीतर विचलन हो, जब समय बह रहा हो, उथल-पुथल हो, बदलाव हो|

– ‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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