आचार्य प्रशांत: जो तुम कर रहे हो वह तुम कर नहीं रहे, तुम्हें लग रहा है कि तुम कर रहे हो। पीछे से तुम्हारी वृत्तियाँ, तुम्हारा जो वह कलुषित मालिक बैठा है वह करवा रहा है, कौन सा मालिक? भगवान मालिक नहीं, कौन मालिक?
श्रोता: अहम्।
आचार्य: हाँ, वह जो अहम् बैठा है और जो पचास तरीके के शारीरिक, सामाजिक मालिक पीछे बैठे हैं वह करवा रहे हैं। तो जो तुम्हें लगता है कि तुम कर रहे हो वह भी तुम कर नहीं रहे। तुमने कुछ नहीं किया। तुम्हें लगता भर है कि तुम्हारे पास विकल्प था, विकल्प था ही नहीं। अगर विकल्प होता तो तुमने जो चुनाव करा तुम उसके अलावा भी कुछ कर पाते, पर वास्तव में तुम उस चुनाव के अलावा कोई चुनाव कर ही नहीं सकते थे क्योंकि वह चुनाव करने के लिए तुम्हें अच्छे से संस्कारित किया जा चुका था। तो बताओ विकल्प कहाँ है?
आपको अच्छे से संस्कारित किया जा चुका है कि जब आपके सामने काला रुमाल और सफेद रुमाल आए (रुमाल दिखाते हुए) तो सफेद रुमाल ही चुनना है, गोरा-गोरा, बागा छोरा। और आप कहो कि मेरे सामने काला और सफेद रुमाल आया और मैंने सफेद का चुनाव किया, तो झूठ बोल रहे हो कि नहीं बोल रहे हो? तुम्हारे सामने विकल्प था कहाँ? तुम तो पहले ही संस्कारित किया चुके थे। कुछ नहीं चुना तुमने, चुनने वाला कोई और है जिसने तुम्हें पट्टी पढ़ा दी है।
तो इसे कहते हैं कर्म में अकर्म को देखना कि जो तुमने कर्म करा, वह तुमने वास्तव में करा ही नहीं, वह तुमसे कोई और करा रहा है। समझ में आ रही बात? जैसे कोई छोटा बच्चा होता है, जब वह कोई गड़बड़ करता है तो सबसे पहले उससे क्या पूछते हो? 'कौन है, कौन है, किस घर से हो, माँ-बाप कौन है तुम्हारे, मम्मी-पापा ने यही सिखाया है?’
वैसे ही हम सब के पीछे हमारे पप्पा जी बैठे होते हैं। वह नहीं जिन्होंने देह को जन्म दिया, वह अंदर बैठे हैं। वह हमसे सब कुछ करा रहे हैं। छोटे बच्चों के कर्म को कर्म नहीं मानते ना, वह कुछ गड़बड़ भी करता है तो तुरंत क्या कहा जाता है? जा पेरेंट्स को लेकर के आना। क्यों कहा जाता है? क्योंकि उसका कर्म भी अकर्म है। वह जो कुछ कर रहा है, वो वह कर ही नहीं रहा है,उसके माँ-बाप करवा रहे हैं उससे।
छोटे बच्चे के मामले में यह बात हमें बिल्कुल ज़ाहिर होती है कि वह जो कर रहा है वह नहीं कर रहा है, वह बापू जी करा रहे हैं पीछे से। वह बड़ा हो जाता है तो हमें भ्रम हो जाता है कि वह जो कर रहा है स्वयं कर रहा है, वह कुछ नहीं कर रहा है स्वयं। उसकी नौकरी का चुनाव उससे कोई और करा रहा है। उसके जीवन का चुनाव उससे कोई और करा रहा है। वह क्या खाएगा, क्या पहनेगा, किस तरह की विचारधारा का अनुगमन करेगा, यह सब पीछे से उससे कराने वाला कोई और है।
तो उसका कोई भी कर्म उसका अपना हुआ कहाँ! सब कर्म अकर्म हैं और सब अकर्म कर्म हैं क्योंकि वह जो पीछे बैठा है ना उसे पीछे बैठने की इज़ाजत देने वाले तुम हो। तो वह जो पीछे बैठ कर के तुम्हारे कर्मों को अकर्म बना रहा है, उसको पीछे बैठने की अनुमति तुमने दी है। इसीलिए अकर्म कर्म है। कोई चीज़ अकर्म है इससे तुम मामले में बरी नहीं हो जाते, दोषमुक्त नहीं हो जाते क्योंकि उसे पीछे बैठे रहने की लगातार अनुमति देने वाले तुम हो। जिस दिन तुम चाह लो कि अब पीछे से मुझे कोई नियंत्रित नहीं करेगा, उस दिन से तुम आजाद हो जाओगे।
अब वह पीछे बैठ कर के तुम्हें कठपुतली की भाँति नचा रहा है, यह तुमने व्यवस्था रची है। वह तुमको नचा है पर उसको वहाँ बैठाया तुम्हीं ने है या ऐसे कह लो कि वह बैठा चाहे जैसे हो लेकिन उसे वहाँ से उठा कर भगा देने का विकल्प सदा से तुम्हारे पास है और अगर तुमने वह विकल्प अभी तक प्रयुक्त नहीं किया है तो हम तो यही मानेंगे कि उसे वहाँ तुम ही बैठाए हुए हो। इसीलिए अकर्म को कर्म मानो। अकर्म को कर्म मानो, तुम्हारी पूरी भागीदारी है, तुम्हारी पूरी ज़िम्मेदारी है। वह जो पीछे वहाँ बैठा हुआ है, तुम उसे हटाना चाहते तो कब का हटा देते। समझ में आ रही है बात?
हम में से ज़्यादातर लोग, सभी लोग, अकर्म में जीते हैं; अकर्म में। वास्तव में जिसका भी कर्म सकाम है, वह अकर्म ही है। मुक्त कर्म मात्र निष्काम कर्म होता है, यह अच्छे से समझिएगा। इसीलिए तो फिर कृष्ण कहते हैं ना ‘गहना कर्मणो गति’, कर्म की गति बढ़ी गहन है, कर्म की बात समझ पाना बड़ा मुश्किल है और यह बात कृष्ण कह रहे हैं। कृष्ण अगर किसी बात को कह रहे हैं कि भाई वहाँ चीज़ ज़रा मुश्किल है तो होगी मुश्किल और अर्जुन से कह रहे हैं।
क्योंकि जब भी आप कोई वासना पूरित कर्म करते हो तो वह आप नहीं कर रहे, वह पीछे से आपसे करवाया जा रहा है। आपको लग रहा है कि आप फलानी चीज़ के पीछे जा रहे हो लेकिन वह आप नहीं जा रहे, आपकी वृत्तियाँ आप से करवा रही हैं। तो आपका वह कर्म जो अभी सकाम कर्म है, कामना के पीछे आप जा रहे हो, वह सारा सकाम कर्म वास्तव में क्या है? अकर्म है, तो मैं कह रहा हूँ, सब सकाम कर्म अकर्म होता है और हमारे सारे कर्म सकाम ही होते हैं।
मुक्त कर्म मात्र निष्काम होता है, क्यों? क्योंकि जो पीछे बैठा है वह आपसे सब तरीके के कर्म करवा सकता है बस एक नहीं करवा सकता, क्या? वह सब आपको पीछे से प्रशिक्षण दे रहा है, पीछे से आपको प्रेरणा दे रहा है, पीछे से आपको आग लगा रहा है, ऊर्जा दे रहा है लेकिन लगातार आपसे यही कह रहा है कि जो करो अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए करो। उसको मात देने का फिर एक ही तरीका है, क्या? ‘अपनी कामनाओं की पूर्ति के कुछ नहीं करूँगा’
जिस दिन तुमने अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए कुछ करना छोड़ दिया, उस दिन तुमने वह जो पीछे तुम्हारा आततायी मालिक बैठा है उसको मात दे दी। जब तक तुम कुछ भी अपने लिए कर रहे हो, वास्तव में अपने लिए नहीं कर रहे. वह जो पीछे बैठकर तुम्हें नचा रहा है तुम उसके लिए कर रहे हो। मैंने कहा सब सकाम कर्म अकर्म है। कितनी मूर्खता की बात हुई ना सकाम कर्म करना! एक तो तुम अपनी ऊर्जा लगा रहे हो वह भी अपने लिए नहीं, वह जो पीछे बैठा है उसके लिए।
मैं पूछा करता था, आज से दस साल पहले का सवाल है आदिम, मैंने अपना एक सत्र ही ऐसे शुरू करा था, शायद आईआईटी दिल्ली में था। मैंने पूछा था कि एक नौकर है, वह बाजार जाए, मालिक ने भेजा है कि जाकर के तेल साबुन ले आओ। उसने अगर तेल साबुन पा भी लिया, उसको क्या मिला? उसको क्या मिला? गुलाम जो कुछ भी हासिल कर रहा है उसमें गुलाम को क्या मिला? मिला तो उसके पीछे जो मालिक है उसको ना!
कर्म और अकर्म की यही बात है। तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमें तुम्हें कुछ नहीं मिलना क्योंकि वह तुम्हारे पीछे जो अंदरूनी बाप बैठा है वह करवा रहा है तुमसे, जो मिलेगा उसको मिलेगा, और वह मिथ्या है इसलिए मिलता है उसे भी कुछ नहीं है। तो ले देकर कि किसको क्या मिला? किसी को कुछ नहीं मिला। ‘खाया पिया कुछ नहीं, ग्लास थोड़ा बारह आना’, यह हमारी ज़िंदगी की कुल कहानी है।
खूब दौड़े, खूब दौड़े, किसने क्या पाया? अरे! पाया तो किसी ने कुछ नहीं। हमने तो नहीं ही पाया, हम यह भी नहीं कह सकते कि हमारा शोषण करके किसी और ने पाया। नहीं! कभी सुना है कि माया किसी को लूट करके अमीर हो गई, कभी सुना है ऐसे? इतना तो हम सुनते हैं कि ‘माया महा ठगनी हम जानी’ यह तो सुना पर यह सुना कभी कि ठग–ठगकर के उसने अपना बड़ा, ट्रिलिनेयर हो गई माया? इतने को ठगा, ठगती ही जा रही है आदिकाल से, तो माया को तो सबसे बड़ी धनकुबेर होना चाहिए था। यह सब फोर्ब्स बिलिनेयर तो पानी भरते उसके आगे पर ऐसा तो कभी होता नहीं क्योंकि माया तुमको तो ठग लेती है, तुमसे लूट लेती है खुद भी कुछ पाती नहीं। कुछ समझ में आ रही है बात?
हम बहुत कुछ हासिल करने निकलते हैं, यह करते हैं वह करते हैं, इसको पाया उसको छोड़ा, यहाँ चढ़ गए वहाँ से उतर गए, इसका मुँह तोड़ा, इसकी टाँग खींची, यह सब करते हैं। इस पूरे खेल में हमें क्या मिला, कुछ मिला? और जब तुम्हें लगे कि तुम्हें कुछ मिला तो अपने–आप से पूछना, “वाकई वह मुझे मिला या मेरी डोर जिसके हाथ में है, जो नचाए पड़ा है मुझे उसको मिला?” ना तुम्हें मिला, ना उसको मिला। तुम्हारे लिए बस इतना लेकिन लाभप्रद है जानना कि तुम्हें नहीं मिला। तुम्हें तो नहीं ही मिला, किसी और को मिला हो चाहे ना मिला हो। समझ में आ रही है बात?
अकर्म कितनी हृदय विदारक बात है, समझ रहे हो! कि तुम करे तो जा रहे हो, करे तो जा रहे हो, ज़िंदगी अपनी तबाह कर रहे हो, करे जा रहे हो, करे जा रहे हो पर तुम जानते ही नहीं कि तुम जो कर रहे हो क्यों कर रहे हो। पा कुछ नहीं रहे, दु:ख सारे झेल रहे हो। हाथ कुछ नहीं आया, ज़िंदगी रोज गवाँ रहे हो। यह होता है अकर्म, और हमारे सारे कर्म अकर्म ही होते हैं।
हाँ, हमें यह गलतफ़हमी रहती है कि मैंने किया; तुमने किया नहीं तुम से करवाया गया। दो तरीके होते हैं अपनेआप को देखने के, या तो गुलाम की तरह देख सकते हो या नशेड़ी की तरह। अगर अपनेआप को गुलाम की तरह देखो तो कहोगे मैंने किया नहीं मुझसे करवाया गया और अपनेआप को नशेड़ी की तरह देखो तो तुम कहोगे कि मैंने किया नहीं मुझसे हो गया। दोनों ही स्थितियों में यह अकर्म है।
एक स्थिति में तुमसे तुम्हारा मालिक करवा रहा है, दूसरी स्थिति में तुमसे भाँग, गाँजा, धतूरा, शराब जो भी है वह करवा रही है। तुम शराब पीकर के जाते हो बहुत कुछ इधर–उधर कर देते हो उससे शराब को कोई लाभ होता है क्या? शराब को तो कुछ नहीं मिला, हाँ तुमने बहुत कुछ खो दिया। पर करवाया तुमसे किसने था? कराया शराब ने ही था। माया शराब जैसी है। कुछ खुल रही है बात?
ना हमारीं भावनाएँ हमारी हैं, ना हमारी खुशियाँ, ना हमारे आँसू हमारे हैं; कुछ हमारा नहीं है।
तुम रोते भी हो तो उस रोने का भी प्रशिक्षण पा चुके हो पहले इसलिए रोते हो। तुम कहोगे, 'यह आप अज़ीब बात कर रहे हो। देखिए कुछ ज़्यादा हो गया। किसने हमें दिया प्रशिक्षण रोने का? हमें तो किसी ने नहीं सिखाया।' अरे! जब तुम्हें सिखाया गया था तब तुम बेहोश तो इसलिए तुम्हें पता नहीं पागल! तुम्हें गर्भ में सिखाया गया था। तुम्हें पता भी नहीं है कि तुम्हें सिखा दिया गया। वह जो तुम्हें सिखाया गया है वह सबक तुम्हारी कोशिकाओं में भर दिया गया है, तुम्हारे खून में बह रहा है वह सबक। उसने सिखाया है।
कुछ हमारा नहीं, जिसको हम अपना बोलते हैं। इसीलिए तो ऋषि हँसते हैं इस छोटे से ‘मैं’ शब्द पर। कहते हैं, “क्या ‘मैं’! तुम हो कहाँ?” ‘मैं’ उच्चारित करने का तो अधिकार ही सिर्फ़ कृष्ण के पास है, जो ‘हैं’। हम होते ही नहीं हैं, हम ऐसे होते हैं जैसे प्याज के छिलके; हम हैं कहाँ? हम प्रतीत होते हैं, हम होते नहीं। जैसे बादलों में किसी को आकृतियाँ दिखें, वैसे ही आईने में हमें हमारा चेहरा दिखता है (हँसी)। क्यों, बादलों में कभी चेहरे नहीं देखे? वैसे ही आईने में रोज देखते हो। बादलों वाले चेहरे भी बनते–बिगड़ते रहते हैं एक दिन मिट जाते हैं, वैसे ही आईने में जो तुम्हें चेहरा दिख रहा है वह भी बनता–बिगड़ता रहता है एक दिन मिट जाता है। बस बादलों को मिटने में कुछ पल लगते हैं, तुम्हें मिटने में कुछ ज़्यादा पल लग जाते हैं तो तुम्हें लगता है कि तुम शाश्वत हो, तुम्हारा कोई अस्तित्व है, तुम ‘मैं’ हो। बादल इतना मूरख नहीं, वह कभी ‘मैं’ नहीं बोलता; चेहरे उसके पास भी हजार हैं।
तुम कितनी भी निकृष्ट कोटि की ज़िंदगी जी रहे हो फिर भी यह विकल्प तुमको हमेशा खुला रहेगा कि तुम ऊपर उठ सकते हो और इसीलिए कभी चैन से जी नहीं पाओगे क्योंकि तुम्हें पता है कि वह विकल्प है और तुम उसका प्रयोग नहीं कर रहे हो। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं क्या करूँ, मैं तो अब फँस गया हूँ, मैं तो ऊपर जा ही नहीं सकता, चूहेदानी के अंदर कैद चूहा हूँ। ना! तुम चूहेदानी के अंदर कैद चूहे नहीं हो। तुम गुड़ के ऊपर बैठी मक्खी हो। तुम उड़ सकते हो, तुम उड़ नहीं रहे क्योंकि तुम्हें लालच है। मत बोलो कि तुम चूहेदानी में कैद हो। तुम्हारी कैद बाहरी नहीं है चूहेदानी की तरह, तुम्हारी कैद भीतरी है मक्खी की तरह। आ रही है बात समझ में?
इतनी बार बोलता हूँ ना कि कोई मजबूर नहीं होता, कोई मजबूर नहीं होता। मजबूरी से बड़ा ढकोसला नहीं। जब तक तुम मजबूरी का रोना रोओगे, एक बात पक्की है—तुम्हें सुधारना नहीं। ना सुधरने वाले इंसान की पहली निशानी—मैं क्या करता, मेरी गलती नहीं है, मैं तो मजबूर था, मैं तो अकर्म कर रहा था। और जहाँ तुम बोलते हो कि यह तो अकर्म था तहाँ मुझसे गरमा-गरम मिल जाता है। फिर तुमको लगता है कि आचार्य जी क्रोधित हो रहे हैं, क्रोधित नहीं हो रहे हैं गीता पढ़ा रहे हैं। वह मेरा तरीका है तुमको गीता का श्लोक पढ़ाने का कि बेटा कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखो और दोनों को गरमा-गरम देखो।
अब क्या करूँ तुमको भाषा ही गरमा-गरम समझ में आती है तो। मैं तो श्लोक ही पढ़ा रहा हूँ। जिसको तुम अपना अकर्म कह रहे हो, मैंने नहीं किया, वह भी तुम्हीं ने किया क्योंकि उसको ना होने देने का विकल्प तुम्हारे पास था। तुमने उस विकल्प का इस्तेमाल नहीं किया इसीलिए ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। मैंने नहीं कहा, वह लंबे बालों वाले होते हैं ना, केशव महाराज, उन्होंने कहा है। कौन?
श्रोता: श्रीकृष्ण
आचार्य: हाँ, श्रीकृष्ण। समझ में आ रही है बात? तो मासूम नमूने बनकर मत खड़े हो जाया करो, “हम क्या करें! हमसे तो हो गया।” नहीं, तुमसे हो नहीं गया। “मैं तो कर रहा था, करते–करते सो गया।” रिपोर्ट क्यों नहीं भेजी? “आचार्य जी, मैं तो लैपटॉप पर सर रख के सो गया।” तुम कहीं सर रख के सोओ। एक क्षण आता है जब तुम फैसला करते हो कि सोना ठीक है। भले ही उस सोने के कारण तुम्हारी गाड़ी अब जाकर के भिड़ जाए हाईवे पर। लेकिन, भूलना नहीं, एक क्षण आता है जब तुमने फैसला किया होता है कि एक पल की नींद ले लेते हैं, एक पल की।
कितना भी गहरा नशा हो गया हो, लेकिन नशे की शुरुआत जब तुमने करी थी तब तुम नशे में नहीं थे, वह फैसला तुम्हारा था। गहरा नशा हो जाए फिर तुम कहो, “मैं क्या करूँ, गहरे नशे में मुझसे यह अपराध हो गया, मैं क्या करूँ!” अपराध के समय गहरा नशा रहा होगा, जब नशा करना शुरू किया था तब भी नशे में थे क्या? तब तो तुमने निर्णय किया था ना, चुनाव लिया था, तो जिम्मेदारी बेटा तुम्हारी है, पूरी है।