हिम्मत की राह चलने वालों को दीनता शोभा नहीं देती

Acharya Prashant

23 min
234 reads
हिम्मत की राह चलने वालों को दीनता शोभा नहीं देती
अगर हम जानते हैं कि हम अब जिस जगह पर आ गए हैं, वो काम ऐसा है कि वो ज़ुनून मुझे सोने नहीं देता, और मैं अपने आप को उसमें पूरी तरह झोंक सकता हूँ — तो बस, यही प्रमाण है। जिस मुक़ाम को पीछे छोड़ आए हैं, उसकी अभी चर्चा हम क्यों करें? छोड़ा आए तो छोड़ आए। हम जहाँ पर हैं, वो हमारी जिज्ञासा की विषयवस्तु होनी चाहिए न। या फिर जिज्ञासा इस बारे में होनी चाहिए कि, जिस जगह को छोड़ आए हैं — उसको लेकर के भी अभी इतनी जिज्ञासा क्यों है? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: अभी मैंने आपका आईआईएम बैंगलोर और आईएससी बैंगलोर में भी सत्र अटेंड किया था, लाइव। तो मैं ऐक्चुअली पीएच.डी. इन बायोकैमिस्ट्री हूँ, स्विट्ज़रलैंड से, और आईएससी में भी मैंने कुछ 3 साल गुज़ारे हैं रिसर्च के। तो आपने आज जो "आग" की बात की — कि आप अपने आप को झोंक दीजिए काम में — तो ये मैंने वैज्ञानिकों में हमेशा देखा है: पागलों की तरह काम करना।

3-3 बजे तक हमारा कैंटीन खुला रहता था आई.एस.सी. में, तो लोग बस काम ही काम किए जा रहे हैं। और कई *सीरियस,*कई तो ऑफ़ कोर्स टाइम पास भी करते थे, बट काफ़ी सारे वैज्ञानिकों को मैंने देखा है जो ऐक्चुअली में ज़ुनूनी तरीक़े से काम करते हैं — मतलब उनको होश ही नहीं कि अभी क्या टाइम हुआ है एंड ऑल दैट।

तो वो किस-किस स्तर के ज्ञानी कहलाएँगे? क्या हम उन्हें ज्ञानी कह सकते हैं? बिकॉज़ बाक़ी लक्षण मुझे नहीं लगता कि वो मैच करते हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो किसी भी तल के हो सकते हैं, वैज्ञानिक और वैज्ञानिक में बहुत अंतर होता है। हम वैज्ञानिकों की क्यों बात कर रहे हैं? किसी और की क्यों बात कर रहे हैं? वैज्ञानिक भी 50 तरीक़े के होते हैं। बाहर से तो उनका काम है — विज्ञान में शोध, खोज। वो भीतर से तो कई प्रकार के हो सकते हैं, हमें उनकी बात क्यों करनी है?

प्रश्नकर्ता: क्योंकि जब आप कह रहे थे कि, बस कुछ और सूझ-बूझ नहीं रखना…

आचार्य प्रशांत: मैं समझ गया, पर हमें उनकी बात क्यों करनी है?

प्रश्नकर्ता: क्योंकि मैं वहीं से हूँ।

आचार्य प्रशांत: “वहीं से हूँ” नहीं आप वही हो, अपनी बात करें तो मैं कुछ बात करूँ।

प्रश्नकर्ता: नहीं, मैं वहाँ से अब हट चुकी हूँ।

आचार्य प्रशांत: तो फिर उनकी बात अब तो और नहीं करनी चाहिए। जब हट चुके हैं वहाँ से, तो उनकी बात क्यों करें?

प्रश्नकर्ता: बट मेरे हज़्बैंड अभी भी हैं।

आचार्य प्रशांत: तो असली बात करिए ना। असली बात क्या है, वो बताइए।

प्रश्नकर्ता: तो असली बात यही है कि, मैं तो ख़ैर वहाँ से अपना साइंस छोड़ के — क्योंकि मैंने बहुत कुछ देखा जो मुझे ऐसा लगता था — हाँ, मैं ये कर पाऊँगी, साइंस में कुछ नई खोज करके हीलिंग कर पाऊँगी लोगों की। वही सोच के मैंने जॉइन किया था।

बट जब असलियत में जाते हैं, तो फिर पता लगता है कि — ओके, सब कुछ बायस होता है। आपका अल्रेडी एक प्रोजेक्ट, जो भी आपकी फ़ंडिंग एजेंसी है उसके हिसाब से — यू नो सो लॉट ऑफ़ थिंग्स ... तो वो मुझे समहाउ सैटिस्फैक्शन कभी मिला नहीं उसमें, सिर्फ़ पब्लिकेशन करने में।

आचार्य प्रशांत: नहीं, यहाँ तक ठीक है, सुनिए — कि आपको एक काम में वो नहीं मिला जो आपको तृप्त करे, तो प्रश्न फिर ये है कि उसको छोड़ के अब आप उससे कोई ऊँचा काम कर रही हैं न?

प्रश्नकर्ता: आय थिंक सो।

आचार्य प्रशांत: फिर ठीक है, सब बढ़िया है। कोई भी व्यक्ति पहले ही प्रयास में उच्चतम तल तक पहुँच जाए, या बड़ी गहराई पा ले — ये ज़रूरी नहीं है। आप किसी जगह पर थे, उसको छोड़ के आप उससे बेहतर काम में खुद को डुबो पाएँ हैं, तो ये तो शुभ बात है। बहुत अच्छी बात है।

प्रश्नकर्ता: हाँ, मतलब मेरे हिसाब से तो बेहतर है, क्योंकि मैं बिल्कुल भी रिग्रेट नहीं करती हूँ कि मैंने साइंस छोड़ा है। बट अगर मैं साइंटिफ़िक दुनिया की तरफ़ से देखूँ तो...

आचार्य प्रशांत: क्यों देखें? हम क्यों देखें? हम वो देखेंगे न — हम कहाँ पर हैं? अगर हम जानते हैं कि हम अब जिस जगह पर आ गए हैं, वो काम ऐसा है कि वो ज़ुनून मुझे सोने नहीं देता, और मैं अपने आप को उसमें पूरी तरह झोंक सकता हूँ — तो बस, यही प्रमाण है।

जिस मुक़ाम को पीछे छोड़ आए हैं, उसकी अभी चर्चा हम क्यों करें? छोड़ा आए तो छोड़ आए। हम जहाँ पर हैं, वो हमारी जिज्ञासा की विषयवस्तु होनी चाहिए न। या फिर जिज्ञासा इस बारे में होनी चाहिए कि, जिस जगह को छोड़ आए हैं — उसको लेकर के भी अभी इतनी जिज्ञासा क्यों है?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: नहीं क्या, प्रश्न ही यही था आपका पूरा?

प्रश्नकर्ता: नहीं, घर में हैं न इसीलिए।

आचार्य प्रशांत: अरे, तो वो घर में हैं तो वे आकर के पूछेंगे न अपने बारे में! देखिए, सिर्फ़ इसलिए कि पति हैं या पत्नी है — कुछ नहीं हो जाता। मीलों की जैसे दूरी हो — उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में, इतनी बड़ी-बड़ी दूरियाँ हो सकती हैं। तो ऐसा बिल्कुल न सोचा जाए कि कोई मेरे घर में रहता है, मैं उसके साथ रहता हूँ — तो मैं उसके हाल से वाक़िफ़ हूँ। ऐसा कुछ नहीं होता है। हम अपने ही हाल से…

प्रश्नकर्ता: बिल्कुल भी नहीं हूँ।

आचार्य प्रशांत: हाँ। तो फिर हमें उनके बारे में क्या प्रश्न करना है? अपना हाल सिर्फ़ वही जान सकते हैं। जब हम उनका हाल नहीं जान सकते, तो हम उनके हाल के बारे में सवाल भी कैसे करें? हम प्रश्न इसीलिए किसके बारे में करना चाहते हैं? अपने बारे में करना चाहते हैं।

प्रश्नकर्ता: तो अभी जैसे अब मैं साइंस में थी तो ऑफ़ कोर्स हम भी बहुत अच्छे से भूल जाते, टाइम का होश नहीं होता था। बट अभी मैं ऐक्चुअली हीलिंग कर रही हूँ — जस्ट डाइट बदल के।

सो वही कर रही हूँ मैं होल फूड, प्लांट-बेस्ड, यू नो — एक न्यूट्रिशन कंसल्टेंट हूँ। और एक वीगन कैफ़े चलाती हूँ बेंगलुरु में — जो आइसक्रीम बनाती हूँ विदाउट डेयरी, विदाउट शुगर, एंड होल फूड बेसिकली, तो इसमें मुझे बहुत-बहुत ज़्यादा मज़ा आ रहा है। बिकॉज़ मुझे कुकिंग का शौक है, मुझे इनोवेशन, नई-नई चीज़ें बनाने का शौक है।

सो देयर इज़ नो एंड टू यू नो — मैं जो कर सकती हूँ, मैं उसमें अच्छे से लीन हूँ, लिप्त हूँ। बट जो बाहर... मतलब जो फ़ैमिलीज़ हैं, वो लोग बोलते हैं — "ये क्या यार! तू अच्छा-ख़ासा..."

आचार्य प्रशांत: अगर आप उसमें इतना डूबी हुई हैं, तो आपको ये बातें सुनने की फ़ुर्सत कैसे मिली? और रेसिपी आप अच्छी बनाती हैं, विगन — दो-चार इधर भी भेजिए।

प्रश्नकर्ता: मैं लेकर आई थी, बेंगलुरु में आपके लिए लेकर आई थी लड्डू — बेसन के लड्डू।

आचार्य प्रशांत: और पूरा अपना सब मसाला भेज दीजिए! हमने बड़ा साम्राज्य बना रखा है विगन यहाँ। देखते हैं किसको पकड़ते हैं कि, बनाओ।

अरे! सबसे बड़ा वरदान ये होता है ना — सही काम में डूबने का कि दुनिया कुछ बोलती रहे, फब्तियाँ कसती रहे, लानतें भेजती रहे — हमें पता ही नहीं चलता। सोचिए, कोई आपको गालियाँ दे रहा था और आप यहाँ (कान में ईयरफ़ोन्स) पर ऐसे लगाए हुए थे, और निकल गए। क्या नुक़सान हुआ? पता ही नहीं चला।

सही ज़िन्दगी में डूबने से ये होता है न — फालतू लोगों की फालतू बातें पता ही नहीं चलतीं। दूसरे पर छींटाकशी करने का समय तो उसी के पास है — जिसके पास अपनी ज़िन्दगी में कुछ ऊँचा, अच्छा, सार्थक है नहीं। और आप सुनेंगी तो विचलित हो जाएँगी — मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप दूसरों की बातें सुनेंगी तो विचलित हो जाएँगी। मैं आपसे कह रहा हूँ —

आप विचलित जब होंगी — अपने काम से, तब आप दूसरों की बातें सुनने पहुँच जाएँगी। विचलन पहले भीतर आता है।

जब आदमी भीतर अपने काम से टूटा होता है न, तो वो इधर-उधर सुनने पहुँच जाता है कि — "अच्छा, कौन मेरे बारे में कैसी बातें कर रहा है?” यार, कर रहे होंगे बातें, क्या कर रहे हैं? आप मस्त माल बनाइए और भेजिए इधर-उधर। इधर-उधर से मतलब इधर।

प्रश्नकर्ता: आपकी पूरी टीम ने बहुत मज़े से सब कुछ खाया है, सब कुछ लेकर आई थीं?

आचार्य प्रशांत: ये आप क्यों दुखती रग पर हाथ रख रही हैं, ये महापेटू हैं! कुछ आए मेरे लिए — आपको क्या लगता है मुझ तक पहुँचने देते हैं? ख़ासकर खाने का माल। मज़ाल है कि पहुँच जाए मुझ तक! ऐसा होगा कि — इतना बड़ा मान लीजिए पूरा आया होगा — लड्डू कहीं से आया है — तो उसमें देखिए, आपका वज़न बढ़ जाता है और ये है, वो है। दूसरे, हमें देखना पड़ता है न — कि चीज़ कहीं अच्छी है, दुनिया में इतने दुश्मन हैं — किसी ने ज़हर-वहर न डाल दिया हो।

तो हमने क्या किया? हमने 30 लड्डू थे — उसमें से 29.5 सिर्फ़ टेस्टिंग के लिए खा लिए और ये आधा बचा है, अब आप आधा तो क्या ही खाएँगे? मैंने अपने कमरे में इतनी बड़ी अलमारी बनाई है — कि मेरा खाने का वहाँ रखना।

यहाँ बोधस्थल में मेरा यहाँ पर नीचे किचन होता था। एक ही होता था — वो सबके लिए होता था। तो जिनका कमरा उस किचन के सामने था, कुछ आए मेरे लिए पता ही नहीं चलता था कि आया हुआ है। — गायब! उस पर निशान लगा होता था — “आचार्य जी के लिए” तो वो भी गायब, कुछ नहीं। वहाँ किचन में बना के रख गया हो — तो भी गायब! आप बिल्कुल उसमें कुछ इस तरीक़े से भेजिएगा कि — कॉन्फ़िडेन्शियल या एक्सप्लोसिव — ताकि ये खोले नहीं।

प्रश्नकर्ता: तब तो वो आपके बाउंसरज़ ही उसे फेंक देंगे। वो आप तक पहुँचेगा कहाँ?

आचार्य प्रशांत: मैं कुछ करूँगा जुगाड़ — कम से कम इनके पेट में तो नहीं जाएगा।

मस्त रहिए, और मस्ती में कमी आ रही हो तो ये पूछिए — कि जो कर रही हूँ, उसमें अभी कहीं कुछ चूक है? वो आपसे कह रहे हैं कि — आप यहाँ थीं और यहाँ चली गईं (एक जगह से दूसरी जगह एक छोटी दूरी तय करते हुए) — ये कोई अच्छी बात नहीं है। ठीक है? और अगर आप उनकी बातों को सुन रही हैं, तो इसका मतलब ये है कि — आपको यहाँ से यहाँ नहीं आना चाहिए था। आपको यहाँ से यहाँ (एक लंबी दूरी) आना चाहिए था।

बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं — गजानन माधव मुक्तिबोध।

“हम हारेंगे इसलिए नहीं कि बहुत ज़्यादा बल्कि इसलिए कि बहुत-बहुत कम हम बाग़ी हुए।”

अगर कोई बाग़ी हारता है — तो वो इसलिए नहीं हारता कि वो बाग़ी है। अगर कोई बाग़ी हारता है — तो इसका मतलब ये है कि उसकी बग़ावत में बहुत कमी थी, इसलिए हारा है वो। तो जो बग़ावत करने निकले — उन्हें फिर पूरी बग़ावत करनी होगी। सबसे दुर्दशा होती है अधूरी बग़ावत करने वालों की।

ये सबको चेतावनी दे रहा हूँ — ये जो हाफ-हार्टेड रिबेलियंस होते हैं न, इन्हीं को फिर दुनिया अपने बूटों तले रौंद देती है। बग़ावत जब करना तो पूरी करना, पूरी — गो ऑल द वे, नहीं तो मत करना। पड़े रहो झींगुरों के चूहों की तरह, कोई बग़ावत ज़रूरी थोड़ी है, पर जब करो तो पूरी करो। कुछ भी पुराना साबुत छोड़ मत देना और पुराने माहौल की बातों से ज़रा भी रिश्ता मत बनाए रखना। फिर पूरा — अ टोटल रिबेलियन, अ टोटल डिसोसिएशन।

प्रश्नकर्ता: वैसे तो रिबेलियन तो मैं 100% हूँ — मेरे हिसाब से, लेकिन उसको कैसे नापा जाए कि मैं सही इसमें जा रही हूँ? जैसे अभी — आई डोंट थिंक आई एम अर्निंग इनफ़ टू से कि — हाँ, मैं सक्सेसफुल हूँ।

आचार्य प्रशांत: ये बस इन्हीं दोनों बातों से सब नप गया। पहला — कि नापने की ख़्वाहिश है और दूसरा — नापने के सन्दर्भ में आपने पहली बात...

प्रश्नकर्ता: मैं नहीं नाप रही हूँ।

आचार्य प्रशांत: अरे तो कोई और नाप रहा है, तो वो नापे ना, वो फीता उसको मुबारक हो — नाप जो भी नापना हो तुझे। इतने तरह के पगलन्ट होते हैं, वो फीता ले के कुछ भी नापे — अपना नाक नापे, अपनी कान नापे, कोई जा रहा है उसको ऐसे पीछे से नापे, तो आप क्यों नापी जा रही हैं?

मुझे तो नहीं पता — मैं अच्छा काम कर रहा हूँ, बुरा काम कर रहा हूँ मैं नहीं जानता। मुझे कुछ नहीं मालूम, मैं अपना काम कर रहा हूँ। ये बुरा भी हो बहुत सारा, तो भी मेरा ही है। इन बातों में कहाँ से कोई पैमाना ले के आए? आप पैमाना हो —यू आर द मेज़र। और पहली चीज़ आपने बोली — "आई एम नॉट अर्निंग इनफ़।" अब यहाँ लिखा हुआ है — “अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर करोति यः।”

आप पहली चीज़ बोल रही हैं — "आई एम नॉट अर्निंग इनफ़। सो हाउ डू आई नो वेदर आई एम इन द राइट वे एंड एक्चुअली सक्सेसफुल एंड डूइंग वेल?" इसी से पता चल जाता है कि अभी आशिक़ी बहुत बाल्यावस्था में है, शैशव काल चल रहा है अभी। "आई एम नॉट अर्निंग इनफ़" — इसका क्या बताएँ? अर्निंग इनफ़? आप क्या करोगे अर्न करके? दूसरों को दिखाओगे कि — "सी हाउ मच आई एम अर्निंग"? आपको कम पड़ रहा हो अपनी रोटी-पानी के लिए तो अलग बात है। कम पड़ रहा है?

प्रश्नकर्ता: कभी-कभी कुछ-कुछ महीने हो जाते हैं ऐसा।

आचार्य प्रशांत: नहीं, कुछ-कुछ महीने हो जाते हैं तो एंटरप्राइज़ मुनाफ़ा नहीं देती या रोटी-पानी में आपको कमी पड़ जाती है?

प्रश्नकर्ता: नहीं, मुनाफ़ा नहीं देती।

आचार्य प्रशांत: अरे यार।

प्रश्नकर्ता: मुनाफ़ा मतलब बड़े मुश्किल से रेंट-वेंट — ये सब कुछ जो भी देना है, सारा।

आचार्य प्रशांत: तो रेंट वहाँ से नहीं दे पा रहे हैं – तो अपनी सेविंग्स में से दे दीजिए।

प्रश्नकर्ता: सेविंग्स भी ऑलमोस्ट ख़त्म ही हो रही है।

आचार्य प्रशांत: ऑलमोस्ट ख़त्म हो रही है न?

प्रश्नकर्ता: थोड़ा तो दे ही रही हूँ।

आचार्य प्रशांत: हमारा ऑलमोस्ट बहुत लंबा-चौड़ा होता है। जो कर रही हैं चुपचाप करती चलिए, और अगर जिस माहौल में हैं उस माहौल में ज़्यादा परेशानी हो रही है — तो माहौल बदल दीजिए और इसका कोई इलाज़ नहीं है। कौन आएगा आपको भरोसा दिलाने कि जो आप कर रहे हो — वो बिल्कुल सही है? कोई तरीक़ा ही नहीं है भरोसा दिलाने का। आपके अलावा कोई और नहीं जान सकता कि आप जो कर रहे हो — उसमें आप कितने हो। सिर्फ़ आप जान सकते हो।

आप अगर जानते हो, तो आप पर किसी की बात का कोई फ़र्क़ पड़ना नहीं चाहिए। और अगर आप नहीं जानते हो, तो कोई और आकर के भले ही ताना ना मारे या कुछ ना बोले, तो भी आप पर फ़र्क़ पड़ जाएगा। आप खुद ही लगातार असमंजस में रहोगे — कि मैं जो कर रही हूँ, ठीक कर रही हूँ, नहीं कर रही हूँ? अर्निंग तो हो नहीं रही। सैलरी कैसे दूँ? ये, वो 50 बातें हैं।

अरे, बंद हो जाएगा न! जिस दिन बंद हो जाएगा, जाकर कहीं पर आप किसी वीगन कैफ़े में नौकरी कर लीजिएगा। आपको तो विगनिज़्म से प्यार है ना या मुनाफ़े से? तो जाकर कहीं नौकरी कर लीजिएगा, वहाँ तो सैलरी मिल जाएगी ना?

प्रश्नकर्ता: मैं सोचती नहीं हूँ।

आचार्य प्रशांत: नहीं, आप तो इतना ज़्यादा सोच रही हैं कि — "मुझे रेंट नहीं आ रहा, मैं रेंट कैसे दूँ, सैलरी कैसे दूँ?" पैसा नहीं आएगा तो नहीं आएगा, तो एक दिन सब बंद हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: कैफ़े बंद हो जाएगा या विगनिज़्म बंद हो जाएगा?

प्रश्नकर्ता: कैफ़े बंद होगा न।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो ठीक है। वीगन वग़ैरह का कहीं जा के कुछ कर लीजिएगा, या कहीं पर अपना कोई चैनल खोल लीजिए। उसमें वीगन रेसिपी बतानी शुरू कर दीजिए, उसमें तो आपका कोई रुपया नहीं लगेगा। इनकम भी चाहिए हो, तो कह तो रहे हैं — कहीं वीगन शेफ बन जाइए जा कर के। कंसल्टेंट बन जाइए, डायटिशियन बन जाइए, न्यूट्रिशनिस्ट बन जाइए।

प्रश्नकर्ता: वो तो मैं कर ही रही हूँ, उसी के वजह से थोड़ा-बहुत।

आचार्य प्रशांत: अगर सब कर ही रही हैं, तो परेशान क्यों हैं? मैं जिस भी चीज़ पर आपको बोलता हूँ, आप कहती हो — "मैं तो कर ही रही हूँ, मैं तो ठीक ही हूँ।"

शुरुआत आपने ये कह कर की थी कि — "वहाँ पर साइंटिस्ट होते हैं, उनका कितना इमर्शन होता है।" वहाँ से बात ये निकल के आई कि — आप वीगन लड्डू अच्छे बनाती हैं। पहले मन को इस बिंदु पर तो लाइए — जहाँ पर समस्या है। सब कुछ ठीक ही ठीक है, तो फिर हम बात क्यों कर रहे हैं? आप जितनी बार बोल रही हैं — "वो तो मैं कर ही रही हूँ, मेरा तो ये भी ठीक है, वो तो मैं जानती ही हूँ।" उतना ज़्यादा आप अपनी समस्या को और गले लगा रही हैं।

समस्या बस ये है — कि आप एक दुनिया छोड़ कर के आई हैं, लेकिन भले ही आपने उस दुनिया को छोड़ दिया है, लेकिन आपके मन में भी ये धारणा बैठी हुई है कि — "वही ऊँची और अच्छी दुनिया है।" भले ही आप स्वीकार करें या न करें। तो भीतर एक ग्लानि भाव है, अपराध भाव है, और हीन भाव है — कि अरे, वो जो साइंटिस्ट वग़ैरह हैं — वो ऊँचे होते हैं, और मैं क्या कर रही हूँ? मैं तो एक वीगन कैफ़े चला रही हूँ, वो भी चल नहीं रहा ठीक से।

घर में शायद पतिदेव हैं — जो वही विज्ञान का काम कर रहे हैं, और वो भी शायद आकर कुछ आपको बोल देते होंगे। आप खुद ही उनको देखती होंगी, तो तुलना करती होंगी। तो उनका जो स्टेटस है, रुतबा है, सैलरी है — उसके सामने अपने आप को हीन पाती होंगी। ये सब है — या इससे मिलता-जुलता कुछ है। मैं एक्ज़ैक्ट तो हो नहीं सकता, पर बात कुछ इसी तरह की है। और इस सारी बातों का एक ही जवाब है — “प्यार” लग के करिए ना, जो कर रहे हैं।

मैं मतलब, मैंने कितने-कितने, कितने लंबे साल बिताए हैं — जब ना कोई जानता था, ना कुछ था। अभी आज बात कर रहे थे — रिकॉर्डिंग करते थे तो उसमें आवाज़ नहीं होती थी। कई बार कोई रिकॉर्डिंग करने वाला होता ही नहीं था। तो मैं अपना मोबाइल फ़ोन ऐसे सामने किसी पत्थर से टिका के रख देता था — और बोलना शुरू कर देता था।

तो मुझे बहुत समझ में नहीं आता जब कोई बोलता है — "मुझे डर लग रहा है कि आगे मेरा क्या होगा?" मैंने बीसों साल गुज़ारे हैं। अब मुझे क्या पता था आगे मेरा क्या होगा? ऐसा ही था — मस्त चल रही थी ज़िन्दगी। बल्कि कई मामलों में तो मैं उन सालों को अभी मिस कर रहा हूँ। क्योंकि अब के इतने लोग आ गए हैं न, तो ख़्याल दिमाग में कभी आ जाता है — कि इनका देखना है। इस तारीख़ से पहले ये देख लो, वो देख लो, ये सब है।

आप जिस दौर से गुज़र रही हैं, वो एक बहुत अच्छा दौर है। ठीक है? अपने आपको दुनिया के मानकों — स्टैंडर्ड्स — पर मत तोलिए। आप जो कर रही हैं, करती जाइए, कोई उसको अच्छा बोले, बुरा बोले — ठीक है? आपको मौज है न? बस, हो गया। ले-दे के बस एक ही चीज़ गड़बड़ हो सकती है — लड्डू मस्त नहीं थे। और कुछ होता रहे, ना होता रहे — लड्डुओं में मौज़ आनी चाहिए। ठीक है? लड्डू खाएँ, लड्डू खिलाएँ। चिल मारीए।

प्रश्नकर्ता: ओके, धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: धन्यवाद कुछ नहीं। आपको इतना अच्छा तो कुछ लगा नहीं होगा। लेकिन मैं आपसे जो कह रहा हूँ, और आपकी स्थिति के और भी जितने लोग हैं, सबसे कह रहा हूँ — आप जिस जगह पर हो, वहाँ आपको कोई सांत्वना नहीं दी जा सकती।

"नाचन निकसी बापुरी, घूंघट कैसा होए।"

जो इस रास्ते पर निकल पड़े हैं, उनको अधिक से अधिक आप कहीं से कोई कहानी सुना सकते हो। थोड़ा कुछ आदर्श बता दिया, कुछ प्रेरणा, कुछ हौसला — ऐसे आपने कर दिया। पर ये रास्ता तो अब आपको ख़ुद ही चलना है न। ये आग का दरिया है, डूब के जाना है। आशिक़ी की सारी बात है, इश्क़ नहीं आसान, इतना समझ लीजिए — आपको ही गुज़रना है। जब गुज़रना ही है, तो मौज़ में गुज़ारिए। जब लठ खाना ही है, तो हँस-हँस के ही खाओ।

क्या कहते हैं साहब हमारे? — "सिर दिया, फिर रोना क्या रे?" या तो दिया नहीं होता। अब दे ही दिया है, तो अब जब बजे अच्छे से — तो हँस ही लो। ऑफ़ (23:00) की काली परछाईं लंबी होती जा रही है। संशय आते रहेंगे, बीच-बीच में घटाएँ छाती रहेंगी। ये सब लगेगा, होता है। क्या करोगे?

आप में से बहुत लोग हैं यहाँ बैठे हुए। इनका आप रिकॉर्डिंग डाल देते हैं, भजन-वजन। एक दिन ये रात में भाग गए थे। यहाँ से बस अड्डे पहुँच गए दिल्ली के, और फिर वहाँ से वापस आ गए — बोलते, “नहीं जाना।” रात में भागे थे बिल्कुल सत्र के बाद — कि सुबह की पहली बस पकड़ के भाग जाऊँगा। कितने दिन पहले की बात है? – एक साल हो गया। इस एक साल में कितनी बार भागे बीच में?

लगभग एक चौथाई संस्था हर हफ़्ते रात को भगती है, सुबह होते-होते ज़्यादातर वापस आ जाते हैं। तो बीच-बीच में अपने आप को यही बोल दिया करिए — "आज से ये वीगन बेकरी मेरी बंद, बप नहीं करना!" जुदाई इश्क़ को और गाढ़ा करती है।

बीच-बीच में न एक कृत्रिम जुदाई लानी ज़रूरी होती है। “नहीं, आज से नहीं करेंगे” भाई इतनी तकलीफ़ हो रही है, आँसू छलक आ रहे हैं — तो मत करो। मत ही करो, सब बंद कर दो और जब पाओगे कि बंद हो नहीं रहा — तो फिर समझ जाओगे कि अब निर्विकल्पता है, अब भाग तो सकते नहीं। मुसलों से अब क्या डरना, सर जब?

श्रोता: ओखली में दे दिया।

आचार्य प्रशांत: मैं भी यही किया करता हूँ। कई बार घोषित कर चुका हूँ — "आज से संस्था बंद। सबको छुट्टी है, निकल जाओ यहाँ से, मुँह मत दिखाना, आज सत्र नहीं होगा।" कितनी बार बोला — "आज सत्र नहीं होगा, कोई सत्र नहीं होगा। अरे जब कोई सुनना नहीं चाहता, तुम लोग ठीक से काम नहीं करते, ये नहीं कर रहा, वो नहीं कर रहा — जिनके लिए सत्र हो रहा है, उनके पीछे पड़े-पड़े रहो — कोई सत्र नहीं होगा। सब बंद कर दो आज से, मैं बाहर जा रहा हूँ।" पता चलता है — सत्र शुरू होने से 15 मिनट पहले — अपना-सा मुँह ले के आचार्य जी वापस आ गए। "अरे, कैमरा लगाया कि नहीं?"

हिम्मत की राह चलने वालों को दीनता शोभा नहीं देती।

जो हिम्मत की राह चल रहे हैं न, दीन-हीन महसूस करने के लिए ये दुनिया बहुत कारण पैदा करेगी। पैसा नहीं आएगा, एंप्लॉयी छोड़ के भाग जाएँगे, रेंट के लिए हो सकता है आप पर दबाव पड़ जाए। कोई बोले — "ये जगह खाली कर दो।" घरवाले तंज कसेंगे, पुराने जो कलीग्स थे, वो कहेंगे — "हमारा तो प्रमोशन हो रहा है। हम अब अब्रॉड डिप्लॉयमेंट पर जा रहे हैं। तुम क्या कर रही हो? — अच्छा अच्छा... अच्छा, ये वीगन कैफ़े चलाती हैं। अच्छा, वो जो उधर गली में छोटा सा खोखा है — वो भी जो बंद हो रहा है?"

तो दीन अनुभव करने के लिए ये दुनिया आपको सौ कारण देगी। हमें क्या रहना है? सख़्त लौंडा? नहीं — सख़्त लौंडिया। रोना भी है तो चुपचाप पीछे जाकर रोएँगे तुम्हारे सामने नहीं रोएँगे। तुम हो कौन? तुम्हारी बातों से हमें आँसू भी आएँगे न — तो तुम्हें तो नहीं दिखाएँगे, और अगर तुम्हें दिखा भी दिए आँसू — तो फिर वो आँसू नहीं, आग बहेगी। तुम्हारे सामने अगर कभी रो पड़े — तो इसमें तुम्हारी ख़ैर नहीं है फिर। रोते जाएँगे लगाते जाएँगे, रो-रो के लगाएँगे।

जमे रहिए, डटे रहिए। यही गीता-सार है। सही काम एक बार पकड़ लिया — तो फिर पकड़ लिया। यही वो रिश्ता है, जो एक बार बन जाए तो नहीं तोड़ा जाता। वो आध्यात्मिक बात थी जो कही गई थी — कि भारत में पति-पत्नी का संबंध जन्मों का होता है, एक बार बन गया — तो टूटता नहीं।

भारत में तलाक जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं। पर हमने उसको शारीरिक चीज़ बना दिया — कि एक पति है यानी व्यक्ति, और एक पत्नी है यानी व्यक्ति, और इनका रिश्ता नहीं टूटेगा।

'पति-पत्नी' से आशय ही यही था — कि एक बार भीतर से, सच्चाई से प्रेम हो गया — तो अब ये रिश्ता जन्म का है। अब इसे नहीं तोड़ेंगे। ये रिश्ता है जो नहीं टूट सकता। तो अब रिश्ता बन गया है अब वो नहीं टूटेगा। क्या बताएँ — दुर्भाग्य है? बहुत। पर बधाई हो आपको। ठीक है, चलिए।

प्रश्नकर्ता: आपको लड्डू शीघ्र ही भेजूंगी।

आचार्य प्रशांत: सिर्फ़ लड्डू नहीं।

प्रश्नकर्ता: मतलब मैं आइसक्रीम बनाती हूँ।

आचार्य प्रशांत: और चीज़ें भी भेजिएगा, और भी कई चीज़ें। उस पर वो लिख दीजिएगा ज़रूर — एक्सप्लोसिव, फ्रैजाइल सब एक साथ लिख दीजिएगा।

प्रश्नकर्ता: ठीक है, धन्यवाद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories