प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं पश्चिम बंगाल से हूँ। मैं खुद को कमज़ोर, हीन सोचती हूँ ज़्यादातर समय। बहुत दिनों से हीन भावना से ग्रस्त हूँ। दूसरों से तुलना करने की वज़ह से ऐसा हो रहा है कि क्या हो रहा है मुझे कुछ समझ में नहीं आता। डिप्रेशन भी होता है, ईमानदारी की कमी भी दिखाई देती है। ‘मैं नहीं कर पाऊँगी’ ऐसा बोलकर के कामों से अपने आप को बचाना भी चाहती हूँ। मेरा मूल प्रश्न ये है — हीन भावना वास्तव में क्या है? और कैसे इससे बाहर आ सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: जिद्द, तगड़ी जिद्द, बहुत तगड़ी जिद्द। और कुछ नहीं है हीन भावना, बहुत-बहुत तगड़ी जिद्द। समझ रहे हो बात को? चलो, दिखाएँ क्या है हीन भावना।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आ जाओ बेटा, आ जाओ, आओ, इधर आओ बगल में (संस्था के सदस्य को बुलाते हैं)। मोटे तौर पर कद दोनों का लगभग एक ही बराबर है, उन्नीस-बीस कुछ होगा। अब इनकी परंपरा है, श्रेष्ठ मानव वो होता है जो चौपाया होता है। चौपाया हो जाओ, बेटा! ऐसे (चौपाये होने का इशारा करते हुए) हाथ पर जान, घुटने नीचे रखकर ऐसे हो जाओ, हाँ। (नीचे दोनों हाथ और घुटने टेककर बैठाते हुए) ठीक है?
इसमें इनको फ़ायदा ये मिलता है कि ये (एक कपड़े के तौलिए को उदाहरण के तौर पर उठाते हुए) पूरा रोटियों का डब्बा ही है, बहुत सारी रोटियाँ हैं ये। ये ऐसे दे दी। ठीक है? अब इनकी परंपरा, इनका स्वार्थ, इनका जिद्द सब मिलकर इनकी पहचान बन गए हैं। और इनकी दृष्टि में ये क्या हैं? तुम ऊपर आओ भागकर के, कूदकर आओ (स्टेज पर संस्था के एक सदस्य को बुलाते हैं)। अब वैसे तो हम दोनों तो उन्नीस-बीस थे, ये इक्कीस हैं। ठीक है?
अब मुझे इनके सिर पर टीप मारनी है। ठीक है? मार दी, मैं तो हीन हूँ नहीं, मुझे मारनी थी, मैंने मार दी (संस्था के सदस्य के सिर पर धीरे से हाथ मारते हुए)। तुम मारो (चौपाये बने हुए सदस्य से कहते हुए)। मारो, मारो, मारो, मारो। करो, प्रयास करो। नहीं हो पाएगा। तो अब इनके भीतर क्या जगेगी?
प्रश्नकर्ता: हीन भावना।
आचार्य प्रशांत: वो हीन भावना क्यों है? मैं उच्च हूँ, मुझे टीप मारनी थी मैंने मार दी। ये (नीचे बैठे सदस्य) नीच हैं, ये हीन हैं, ये नहीं मार पा रहे। मैं ऊपर, ये नीचे, क्यों? जिद्द है मैं ऐसा हूँ, ऐसा ही रहूँगा।
(नीचे झुके सदस्य को पीठ पर हाथ मारकर उठाते हुए और कहते हुए 'गीता') टीप मार।
(श्रोतागण ताली बजाते हैं।)
समझ आ गया? फ़ालतू विक्टिम कार्ड नहीं खेलने का। जिद्द है, और जिद्द के पीछे क्या है भारी? स्वार्थ है, तगड़ा स्वार्थ है।
तुम तो कुछ हो ही नहीं। सचमुच अनिवार्यत: तुम तो कुछ हो ही नहीं। तुम वही सबकुछ हो जो तुमने पकड़ रखा है। अगर तुम कहते हो कि तुम हीन हो तो हीनता भी तुमने? पकड़ रखी होगी। तुम्हारा चुनाव है, तुम्हारा स्वार्थ है। अन्यथा हीनता कहाँ से आ गई। जब तक मैं ये जिद्द पकड़े रहूँगा कि मैं तो चार पैरों पर ही चलूँगा, चौपाया हूँ मैं, तब तक तो मैं हीन। और वो जिद्द मैंने इसलिए पकड़ रखी है क्योंकि वो जिद्द पकड़ने के कारण मुझे आसानी से रोटी मिल जाती है।
हीनता अहंकार की अकड़ है। हीनता अहंकार की दुर्बलता नहीं है। हीनता अहंकार की सबलता है। वो इतना मजबूत है कि अकड़ा ही हुआ है। कह रहा है कि भले ही कितना दुख मिले, मैं अपनी अकड़ नहीं छोड़ूँगा, भले ही दुनिया में जगह-जगह मुँह की खानी पड़े, हार झेलनी पड़े। टीप मारनी थी, टीप नहीं मार पा रहे, हार झेलनी पड़ रही है। फिर भी मैं अपनी अकड़ नहीं छोड़ूँगा।
तुम हीन कैसे हो? तुम्हारे पूर्वाग्रह तुम्हें रोक रहे हैं। तुम्हारे अंधविश्वास तुम्हारा बंधन है, तुम हीन थोड़े ही हो। तुम कहते हो — अब तुम आ जाओ। इधर आओ। तुम क्या वहाँ गुफ़्त गू कर रहे हो? (संस्था के एक सदस्य को बुलाते हैं) कोट पकड़ो पीछे से, कॉलर। पकड़ो, पकड़ो, पकड़े रहना। (सदस्य आचार्य जी के कोट को पीछे से पकड़ते हुए)
मुझे आगे जाना है, मैं जा नहीं पा रहा हूँ। मैं कितना बेबस हूँ, मैं कितना विवश हूँ, मुझे आगे जाना है, मैं जा नहीं पा रहा हूँ। लालच है, कोट है, इतने हज़ार का आया था। पकड़े रहो। (आचार्य जी ने कोट उतार ही दिया और आगे चल दिए) ये वेदांत है, ये वेदांत है।
“बंधन कटे पिघले जंजीरें, आत्मज्ञान का भीषण ताप।”
मैं तो कुछ हूँ ही नहीं। मैं ज़बरदस्ती इसको अपनी पहचान का हिस्सा बनाए हुए हूँ वर्ना ये मैं थोड़े ही हूँ। “नाहम देहास्मि।” मैं ये नहीं हूँ। और तू मुझे बंधक बना सकता है सिर्फ़ किसी चीज़ को पकड़कर। तू जिस चीज़ को पकड़ेगा, मैं उस चीज़ को ही त्याग दूँगा। बना बंधक। तू जिस चीज़ को पकड़ेगा, मैं उस चीज़ को ही छोड़ दूँगा। बना बंधक। कैसे बना लेगा? कौन-सी हीनता? कौन-सी मजबूरी? कैसी दुर्बलता? सब लालच, स्वार्थ और अकड़ की बात है। नहीं रोक सकते।
ऐसे भी लोग हुए हैं — ये तो कोट है — हाथों में बेड़ियाँ बाँध दी, उन्होंने हाथ काट दिया। हाथ ही नहीं हैं, काहे में बेड़ियाँ लगाएगा तू। लोग हुए हैं, उन्होंने शरीर ही त्याग दिया। बोले, ‘किसको बंधक बनाएगा?’ कैसी मजबूरी? लालच होता है। (दाँत दिखाते हुए) मैं कहूँ हे हे हे, तो फिर दुनियादार बने रहो। पीछे से ताऊ जी धरे बैठे हैं, जा नहीं पा रहे हैं।
आ रही बात समझ में?
हीनता नहीं होती है, स्वार्थ होते हैं। हीनता के माध्यम से कुछ मिल रहा होता है।
ये मत देखो कि हीनता से नुकसान क्या हो रहा है। तुम यहाँ पर एक तरह से शोषित बनकर प्रदर्शित कर रहे हो, तुम विक्टिम बनकर दिखा रहे हो कि तुम्हारा नुकसान क्या हो रहा है। मैं कह रहा हूँ झूठ! तुम बताओ तुम्हारा फ़ायदा क्या हो रहा है। तुम्हारा ज़रूर कोई फ़ायदा है हीन बने रहने में, तुम इसलिए हीन बने हुए हो। वो फ़ायदा छोड़ दो, हीन नहीं रहोगे। ये (कोट) फ़ायदा था, छोड़ दिया, मुक्त हूँ।
जो भी चीज़ आपको सता रही है, उसमें आपकी सहमति शामिल है। देखिए आपका स्वार्थ कहाँ है? आपके हर दुख में आपका स्वार्थ मौजूद है। आपकी हर बेबसी, हर कमज़ोरी में आपका लालच मौजूद है। छोड़ दो लालच को, कोई हावी नहीं हो सकता तुम पर।
समझ में आ रही है बात ये?
जो तुम्हें पीछे पड़कर दुखी भी कर रहे हैं मान लो जैसे कहते हैं कि सांड पीछे पड़ता है लाल रंग के — लाल के पीछे नहीं पड़ता वो, उसको दिखता ही नहीं है लाल, पर मान लिया कि पड़ता है। और तुम कह रहे हो, ‘अभी नई-नई तो खरीदी है लाल की,’ और भाग रहे हो और वो सींगो से पीठ एकदम (रगड़) रहा है। ये हमारी ज़िंदगी है। अनासक्ति का क्या अर्थ होता है? विवेक वैराग्य माने क्या होता है? लाल शर्ट उतार दो, सांड की सींग पर डाल दो, जा तू हनीमून मना, मुझे मुक्त कर। ये थोड़े ही कहोगे, ‘मैं सांड से हीन हूँ।’ स्वार्थ छोड़ दो, कैसी हीनता।
उपनिषद् इतना समझाते हैं न, ‘तुम अनंत हो।’ जो अनंत है वो किसी से छोटा हो सकता है क्या? जो अनंत है वो दुर्बल हो सकता है क्या?
नहीं। दुर्बलता फिर क्या है? अहंकार ही दुर्बलता है, अहंकार ही विवशता है, अहंकार ही हीनता है। अहंकार माने स्वार्थ, लालच। कहीं से जाकर के कुछ ले लो, किसी से कुछ मिल रहा है मिलता रहे।
‘मैं बहुत हीन हूँ।’ अच्छा! कैसे हीन अनुभव करते हो? ‘मैं कॉलेज स्टूडेंट हूँ।’ अच्छा, तो? बोल रहे, ‘वो जैसे आप यहाँ इतने लोगों के सामने बोल रहे हो, मुझे कभी किसी के सामने कुछ बोलना पड़ता है बीस लोगों के सामने भी, मेरी टाँगे काँपने लगती हैं, मैं क्या करूँ, आइ फील सो इनफीरियर (मैं बहुत हीन महसूस करता हूँ)।’
अच्छा! अपने घर में दीवार के सामने भी बोलते हुए टाँगे काँपती हैं क्या? बोलो। तो टाँगों में कंपन क्या बोलने की वज़ह से हो रहा है? अगर बोलने की वज़ह से हो रहा होता तो घर में सिर्फ़ दीवार है, ऐसे (पीछे स्टेज की दीवार की ओर इशारा करते हुए) घर में दीवार है उसके सामने बोल रहे होते, तब भी कंपन हो रहा होता। हो रहा होता न? तो टाँगे क्यों काँप रही हैं? बोलो।
क्योंकि सामने ये जो बीस बैठे हैं, तुम्हारा लालच है उनकी तालियों में, तुम्हें उनसे कुछ चाहिए, इसलिए तुम्हारी टाँगे काँप जाती हैं। जिस दिन ऐसे हो जाओगे कि मैं यहाँ पर सच बोलने आई हूँ, तुम्हें ताली देनी हो ताली दो, गाली देनी हो गाली दो, भगना हो भग जाओ, उस दिन टाँगे नहीं काँपेगी। कोई इन्फ़िरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स (हीन भावना) नहीं रहेगा। पर स्वार्थ है। स्वार्थ क्या है? सब फिर मेरे को कूल बोलेंगे। यू से हाउ आइ लुक (कहिए मैं कैसा दिख रहा हूँ)। मेरी कैंपस में अच्छी इमेज हो जाएगी। है न?
नहीं चाहिए अच्छी इमेज, इमेज रखो जेब में। जो मुझे बोलना है मैं बोलूँगी। मैं न तो तुम्हें खुश करने आई हूँ और न तुम्हें हर्ट करने आई हूँ, मैं यहाँ सच बोलने आई हूँ। अब बताओ कौन-सी इन्फ़िरियॉरिटी, कौन-सा फियर? है कुछ? है? अकेले में बोलते हुए जब तुम नहीं इनफीरियर अनुभव करते तो पब्लिक स्पीकिंग में इन्फ़िरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स कहाँ से आ गया, सोचो तो सही।
बैठते हो और मालूम है क्या करते हो? लोगों की आँखों में देखने लगते हो। एम आइ गुड? एम आइ गुड इनफ़? एम आइ फाइन? डू यू अप्रूव ऑफ़ मी? (क्या मैं अच्छा हूँ? क्या मैं काफ़ी अच्छा हूँ? क्या मैं ठीक हूँ? क्या आप मुझे स्वीकार करते हैं?) यही होता है न? क्यों चाहिए किसी से अप्रूवल? क्यों चाहिए? और जो तुम्हें अप्रूवल देगा, वो तुमसे भी कुछ लेगा न। ये तो टिट फॉर टैट (जैसे को तैसा) है।
आत्मज्ञान में स्वयं को खुद ही जान जाते हैं फिर दूसरों की नज़रों में अपनी पहचान नहीं तलाशनी पड़ती। फिर ये नहीं पूछते, एम आइ ओके? व्हाट डू यू थिंक ऑफ़ मी? फिर किसी से नहीं पूछना पड़ता व्हाट डू यू थिंक ऑफ़ मी। आईना है न, आईना बता देगा व्हाट डू आइ थिंक ऑफ़ मायसेल्फ़ (मैं अपने बारे में क्या सोचता हूँ)।
समझ में आ रही है बात?
आइ फील सो इनफीरियर नेक्स्ट टू द हॉट चिक इन कॉलेज (मैं कॉलेज में हॉट लड़की के सामने बहुत हीन महसूस करती हूँ)। अच्छा, व्हाई डू यू फील इनफीरियर? (आप हीन क्यों महसूस करते हैं?) क्या हो गया? वो साँस ज़्यादा ले पाती है? जब धूप खिलती है तो उस पर धूप ज़्यादा पड़ती है, ऐसा कुछ होता है? व्हाई डू यू फील सो इनफीरियर टू दैट हॉट चिक?
क्योंकि जो बंदा मुझे पसंद है, जब मैं उस हॉट चिक के साथ होती हूँ, तो बंदा उस चिक को देखता है। समझ में आ रहा है इन्फ़िरियॉरिटी कहाँ से आ रही है? कोई इन्फ़िरियॉरिटी नहीं है, स्वार्थ है, कामना है। नहीं तो प्रकृति भर है वही सब।
घास को कभी देखा बोलते हुए कि पीपल के पेड़ के सामने मुझे बड़ी हीनता अनुभव होती है? सुना? होता है क्या कभी? कुछ नहीं होता। हमने तो ये देखा है बिल्ली और कुत्ता होते हैं, तो बिल्ली कई बार कुत्ते को झापड़ मार देती है। जिन लोगों के पास होंगे उन्होंने देखा होगा। वहाँ वो ये नहीं सोचती मैं छोटी हूँ कि बड़ी हूँ, ‘हट! निकल।’ क्योंकि उसे कुछ चाहिए नहीं।
पर बगल में हॉट चिक होती है, कहते हो, हाउ सेक्सी, सी लुक, एंड यू नो एवरीथिंग। वो बंदा नहीं होता तो इन्फ़िरियॉरिटी नहीं होती। तुम्हें इन्फ़िरियॉरिटी उस बंदी की वज़ह से नहीं हुई है, उस बंदे की वज़ह से हुई है। क्योंकि वो उस बंदे की कामना तुम्हें भी है और वो बंदा भी सेक्स का पुजारी है। उसको इस लड़की की कामना है, सेक्सी वाली। अब आप भी सेक्सी बनने की कोशिश करोगे।
(श्रोतागण हँसते हैं)
ज़बरदस्ती यहाँ पर पोतोगे, ये करोगे वो करोगे। कितना भी पोत लो, अब उस जैसी लग नहीं रही, तो कह रही हो, आइ फील सो इनफीरियर। ये (होंठ पर लिपिस्टिक) मत पोतो। वो जो फ़ालतू में उसकी लड़के की तुमने अपने ऊपर चढ़ा रखी है प्रेत आत्मा, उसको उतारो। कोई इन्फ़िरियॉरिटी नहीं है।
हमारी कम्युनिटी में बहुत हैं — ‘मैं क्या करूँ, मैं मजबूर हूँ। ये संस्था वाले किसी की मजबूरी समझते ही नहीं।’ तुम मजबूर नहीं हो, तुम मतलबी हो और इसलिए हम कुछ नहीं समझेंगे। और हम भी तुम्हारी तरह ये मजबूरी का रोना रो रहे होते न, तो आज ये नहीं हो रहा होता।
(श्रोतागण ताली बजाते हैं)
यहाँ पर कोई आसमान से नहीं उतरा है, न जंगल से निकला है। यहाँ भी अगर दो-सौ, ढ़ाई-सौ लोग हैं, तो सबके परिवार हैं, और सब इंसान हैं, सबकी वृत्तियाँ हैं। सब इसी समाज से आए हैं। समाज के प्रभाव यहाँ भी पड़ते हैं। त्यौहारों के दिन यहाँ भी आते हैं। पर हम फैसले अलग लेते हैं। रोते नहीं हैं कि हम मजबूर हैं।
तुम अपने स्वार्थ के पक्ष में फैसला लेना चाहते हो, तो लो। पर सीधे बोलो कि हम स्वार्थी हैं, मतलबी हैं। ये क्यों बोल रहे हो मजबूर हैं।
कोई आकर के बोले कि आइ एम सुपीरियर उसको एक चाटा। कोई आकर के बोले, आइ एम इनफीरियर , उसको दो चाटें। क्योंकि भ्रमित तो दोनों ही हैं। पर दूसरा वाला सिर्फ़ भ्रमित नहीं है चालाक भी है, उसे सहानुभूति भी बटोरनी है।
प्रश्नकर्ता: ये जो इन्फ़िरियॉरिटी की बात हो रही है, ये अज्ञानता से भी तो आ सकता है।
आचार्य प्रशांत: किससे?
प्रश्नकर्ता: अज्ञानता से। क्योंकि मैंने देखा जब हेल्थ की बात हो रही होती है तो मैं काफ़ी कॉन्फिडेंट फील करता हूँ। लेकिन और किसी विषय पर बात होती है तो मुझे समझ नहीं आता है। शायद मैं एप में एक्टिव नहीं…
आचार्य प्रशांत: तुम ज़्यादा एक्टिव हो इसलिए तुम्हें समझ में नहीं आ रही। जो मैं बोल रहा हूँ इतना सरल है कि जो भी चुपचाप सुन लेगा समझ में आ जाएगा। तुम एक्टिव बैठे हो यहाँ पर, बहुत सारी एक्टिविटी तुमने करी हुई है अभी। तुम्हारी ऐप बंद ही नहीं हो रही भीतर, बैकग्राउंड में सब ऐप रन कर रही हैं।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर, मैं।
आचार्य प्रशांत: न, न, न, न, न! ‘मुझे समझ में नहीं आ रहा क्योंकि मैं उतना एक्टिव नहीं हूँ।’ कोई आज पहली बार भी आया हो न, उसको भी समझ में आ जाएगा।
प्रश्नकर्ता: नहीं, बात मैं पूरी समझ रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: तो फिर पहले झूठ काहे को बोला?
प्रश्नकर्ता: पहली बात तो मैं नर्वस बहुत ज़्यादा फील कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तुम नर्वस इसीलिए फील कर रहे हो।
प्रश्नकर्ता: वही, उसी की मैं बात कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, तुम जिसकी बात करो मैं समझ रहा हूँ। तुम भी विक्टिम बनना चाह रहे हो। यहाँ बात ये नहीं होती है कि तुम कुछ नया समझ गए। बात ये होती है कि तुमने जो पुरानी ऐप्स चालू कर रखी हैं, उनको बंद करा कि नहीं। पुरानी ऐप्स में तुम्हारा स्वार्थ है। मैं कुछ भी बोलता रहूँ, तुम पुरानी ऐप बंद ही नहीं करते।
मतलब समझ रहे हो न, क्या कहना चाह रहा हूँ? जो बोल रहा हूँ मैं वो बिल्कुल ऐसा है जैसे क्या बोलूँ… बीमारों को जो आहार दिया जाता है, खिचड़ी वो भी पीली वाली, दलिया। वो कोई बोले मुझे पच नहीं रहा है, ऐसा संभव ही नहीं है। जिस किसी को ये बात समझ में नहीं आ रही है, उस किसी ने बस अपने पुराने ऐप से लॉगआउट करने से (मनाही कर दी है), ‘नहीं करूँगा लॉग आउट पुरानी ऐप से।’
ये तुमने क्या तर्क दिया कि ज़्यादातर लोग सत्रों में ज़्यादा एक्टिव हैं और कम्युनिटी पर ज़्यादा एक्टिव हैं, इसलिए उनको समझ में आ रहा होगा। ये क्या तर्क दिया? ये कोई तर्क नहीं है। मैं बताऊँ तुम्हारा तर्क तथ्य से कितनी दूर है? हर महीने हज़ारों नए लोग जुड़ते हैं। बताओ फिर उनको कैसे समझ में आ जाता है।
प्रतिदिन ऐसे लोग होते हैं जिनके लिए पहला सत्र होता है क्योंकि वे आज ही जुड़े हैं। बताओ, उनको कैसे समझ में आ जाता है। बात इसकी नहीं है कि आप नए हो कि पुराने हो, बात इसकी है कि आप अपने स्वार्थ किनारे रखने को तैयार हो या नहीं। बैठ जाओ। (प्रश्नकर्ता को कहते हैं)
प्रश्नकर्ता: नमस्कार, सर। सर, जैसे आपने बताया है कि तथ्य सत्य का द्वार है। तो आज जो मैंने अभी सुना है उससे ऐसे लगता है कि मन जो है अहम् का द्वार है।
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले क्या होता है? मन थोड़े ही होता है। सबसे पहले क्या होता है?
श्रोतागण: अहम्।
आचार्य प्रशांत: अहम् के बाद ये सब आते हैं। आप अगर ये कहना चाह रहे हो कि मन की सामग्री को देखकर के अहम् की गुणवत्ता का पता चल जाता है, तो बिल्कुल ठीक है।
प्रश्नकर्ता: यही कह रहा था।
आचार्य प्रशांत: अगर आप ये कह रहे हैं तो ठीक है।
प्रश्नकर्ता: इससे पहले भी सत्रों में सुना था और आज बिल्कुल क्लियर हो गया।
आचार्य प्रशांत: आपका अहम् कैसा है, ये सीधे-सीधे कभी नहीं जाना जा सकता क्योंकि अहम् कुछ है ही नहीं। कैसे तुम उसका कुछ करोगे। जानने के लिए एक्स रे, सीटी; कुछ हो नहीं सकता उसका।
अहम् की गुणवत्ता क्या है ये देखने के लिए बस ये देखना होता है कि मन किन विषयों से संबंधित है।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मुझे यह जानना था कि आपने दिल्ली ही क्यों चुना ये काम करने के लिए? क्योंकि यहाँ पर इतना प्रदूषण है मैं तीन दिन से यहीं पर हूँ। यहाँ पर साँस लेना भी बहुत मुश्किल है।
आचार्य प्रशांत: अब वो सब परिस्थितिगत कारण थे। कुछ तो ये था कि मैं इस जगह को जानता था तो यहाँ पर शुरू में सुविधा थी काम शुरू करने में। कुछ ये था कि संस्था के पास न पैसा, न ज़मीन, तो मेरे पिताजी मेरे लिए एक मकान छोड़ गए थे उसी मकान में आज तक संस्था चल रही है। तो कहीं और जाते, तो क्या करते? बहुत सारी छोटी-छोटी बातें होती हैं, वो आप समझते नहीं हो न।
हमारे काम में हर तरीके के दबाव आ जाते हैं सामाजिक भी, राजनैतिक भी। किराए पर कुछ लेना, किसी को अपना लैंडलॉर्ड बनाना, बहुत खतरे का काम होता है। यहाँ मैं कुछ बोल रहा हूँ, और वो बात पहुँच गई बाहुबली जी के पास, बाहुबली जी को बुरी लग गई, वहाँ से उन्होंने लैंडलॉर्ड जी को फ़ोन लगवा दिया। हम वापस जाएँ, तो पता चला कि अब कल का सत्र नहीं हो सकता।
तो यही अपने आप में बड़ी नियामत थी कि मेरे पास एक ज़मीन थी और उस पर थोड़ा सा कंस्ट्रक्टेड कुछ कमरे मिल गए थे, तो यहाँ पर काम शुरू कर दिया। और कोई विशेष कारण नहीं है। मुझे हस्तिनापुर की धरती से कोई विशेष लगाव नहीं है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि अब दिल्ली से बाहर कहीं प्रस्थान किया जाए। ये आपका लोकधर्म का इलाका है। इस इलाके को हम पसंद नहीं आ रहे। कौन रोज़-रोज़ की धमकियाँ झेले। दूसरे, जहाँ काम कर रहे हैं, वो जगह भी बीहड़ सा ही है। तो वहाँ पर किसी भी दिन कोई भी घटना अब होने के लिए तैयार खड़ी है।
हो सकता है कि अब यहाँ से ‘जय राम जी’ की हो जाए। ज़रूर! वो तो बिल्कुल, ये सब आपका जो पूरा हिंदी हार्टलैंड है, ये बिल्कुल तैयार खड़ा हुआ है (हमला करने के लिए)। हर एक उस व्यक्ति पर जो यहाँ बैठा हुआ है कम-से-कम पाँच या दस हैं जो नफ़रत करते हैं और ज़्यादातर तो इसीलिए नफ़रत करते हैं क्योंकि वो एक व्यक्ति यहाँ बैठा हुआ है।
जिसके घर से या दोस्त-यारों में से कोई यहाँ आ गया, उसका घर-मोहल्ला सब रक्तपिपासु हो जाते हैं। जो आता है वो किसी काम का नहीं होता, लेकिन अपने पीछे दस दुश्मन बनवा देता है मेरे। बिल्कुल यही हो रहा है। सही बता रहा हूँ। ऐसा कोई नहीं है कि हमने बहुत सोच-समझकर के (दिल्ली चुना है)।
हमारे पास कई ऑप्शन्स हैं- ज़्यूरिक, शिकागो, दिस, दैट एंड देन वी फाइनली बॉयल्ड इट डाउन टू ग्रेटर नोएडा। ऐसा कुछ नहीं है। जहाँ किसी तरह जगह मिली वहाँ पर जो हो सकता था वो किया। लेकिन ये पक्का है कि जहाँ कर रहे हैं और जिन स्थितियों में कर रहे हैं, ऐसे नहीं चल सकता। बहुत ज़्यादा, दो, चार, पाँच लोगों की बात नहीं है। दो, चार, पाँच लोग हों तो अपने आत्मबल के दम पर चला लेंगे। संस्था दो-सौ से ऊपर लोगों की हो गई है। लोग आते हैं, नए आते हैं, वो इतनी कमर तोड़ मेहनत और आघातों के लिए नहीं आते हैं। तो देखते हैं।