हीन भावना का इलाज

Acharya Prashant

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हीन भावना का इलाज

प्रश्नकर्ता: हीन भावना से कैसे बचें?

आचार्य प्रशांत: क्या नाम है आपका?

प्र: उज्ज्वल

आचार्य: क्या करते हो?

प्र: अभी तो इंजीनियरिंग की है।

आचार्य: इसी साल?

प्र: २०१६ में।

आचार्य: कहाँ से?

प्र: आचार्य जी, सीतापुर से

आचार्य: लखनऊ में रहते हो?

प्र: अभी तो घर पर रहते हैं, सीतापुर के आगे ही।

आचार्य: तो वहाँ से (लखनऊ शिविर के लिए) आए हो?

प्र: जी

आचार्य: इंजीनियरिंग के बाद कुछ काम करा है क्या?

प्र: आचार्य जी, जहाँ जाते हैं, वहाँ मन नहीं लगता, बंधन-सा लगता है।

आचार्य: कितनी जगहों पर गए?

प्र: आचार्य जी, दो-तीन जगह गए हैं।

आचार्य: कितने-कितने दिन काम किया है?

प्र: एक जगह एक महीने किया था।

आचार्य: किस ब्रांच से हो?

प्र: मैकेनिकल। उसके बाद से हमें इंजीनियरिंग लाइन हीं पसंद नहीं आती।

आचार्य: देखो, हीन भावना को लेकर के या डर को लेकर के दो बातें हैं जो समझनी पड़ेगी, इनको साफ-साफ नहीं समझा तो ये दोनों बातें परस्पर विरोधी लगेंगी। पहली बात तो ये कि हीनता तथ्य हो सकती है और हमें इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा। मैं तुमसे नहीं कह रहा कि हीनता जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं। मैं तुमसे नहीं कहूँगा कि तुम किसी से कम नहीं, सबसे आगे तुम ही हो, सबसे बढ़िया तुम ही हो, सर्वश्रेष्ठ हो, परिपूर्ण हो, ऐसा कह दूँ तो ये तो मन को बहलाने वाली बात हुई न? तो हीनता तथ्य हो सकती है।

दो खिलाड़ी हैं, एक बेहतर खेल रहा है दूसरा उतना बेहतर नहीं खेल रहा तो दूसरा क्या हुआ? हीन हुआ न। दो छात्र हैं, एक मेहनत कर रहा है, अंक अर्जित कर रहा है दूसरा अंक नहीं ला पा रहा है तो दूसरा हीन हुआ न? प्रकृति को देखो, दुनिया, संसार को देखो तो यहाँ तो सब चीज़ों की परस्पर तुलना हो ही सकती है और जब भी तुलना होगी तो कुछ श्रेष्ठ निकलेगा और कुछ निकृष्ट, कुछ बड़ा निकलेगा कुछ छोटा, कुछ सफेद निकलेगा कुछ काला, तो अच्छा-बुरा, बड़ा-छोटा ये होता तो है, हम नहीं कह रहे कि तुम छोटे हो ही नहीं, हम नहीं कह रहे कि तुम में कोई बुराई है ही नहीं।

तुम यहाँ बैठे हो तुम्हारा कुछ वजन है, कितना वजन है? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)

प्र: ५८

आचार्य: आपका(दूसरे श्रोता से पूछते हुए) कितना वजन है?

श्रोता: मेरा ८८

आचार्य: ये ८८

तो वजन के पैमाने पर तुम हीन हो गए कि नहीं हो गए? बोलो? अभी तराजू के दो पलड़ों में आप दो लोगों को बैठा दिया जाए तो पलड़ा ही पोल खोल देगा, एक तरफ को झुक जाएगा। तराज़ू भी काहे को चाहिए? बच्चों का जो सी-सॉ झूला होता है, एकदम हवा में टंग जाओगे और ये ज़मीन से चिपक जाएँगे और फिर तुमसे कोई आकर कहे कि "न! तुम में है दम वही।" तो ये बात तो झूठी हो गयी। ऊपर जब वहाँ टंग गए हो तो लगा लो जितना दम लगाना हो, वहीं कूद-फांद करते रहोगे, नीचे तो गिर के ही आ पाओगे। समझ रहे हैं न?

तो अपने आप को प्रेरित करने का, मोटिवेट करने का ये तरीका मत चला देना कि हम में तो साहब कोई कमी, कोई कमजोरी है ही नहीं। तथ्यों की दुनिया में कमियाँ होती हैं, कमजोरियाँ होती हैं, तुलनात्मक रूप से कोई हीन होता है और कोई श्रेष्ठ होता है, कोई छोटा होता है कोई बड़ा होता है, कोई पतला होता है कोई चौड़ा होता है। ईमानदारी इसमें है कि जहाँ तुम छोटे हो वहाँ स्वीकार करो कि "मैं तो साहब छोटा हूँ" और विनम्रता के साथ और सत्यता के साथ मानता हूँ कि मैं तो छोटा हूँ। ये मेरी बात का पहला पक्ष हुआ- कि हीनता तथ्य होती है और हम उस तथ्य की अवहेलना नहीं कर सकते।

लेकिन मेरी बात का एक दूसरा पहलू भी है, वो ये है कि हीनता सत्य कभी नहीं होती। तथ्यों की दुनिया में हीनता निश्चित रूप से है और जहाँ हमें हीनता दिखे हमें उसको अभिस्वीकृति देनी पड़ेगी, हमें मानना पड़ेगा, हमें एकनॉलेज करना पड़ेगा कि हीनता है। लेकिन तथ्यों की दुनिया सब कहाँ है? बाहर-बाहर, सतह पर। केंद्र पर कभी हीनता को मत आने देना। बाहर-बाहर हीनता हो सकता है कई बार रहे और दिखाई भी दे और दिखाई दे तो मानना की है लेकिन दिल में कभी, ह्रदय में कभी हीनता को मत आने देना, वहाँ कोई हीनता नहीं होती। हीनता सत्य नहीं हो सकती और ये दोनों बातें एक साथ याद रखनी होती हैं। तो तुमसे कोई पूछे? क्या तुम हीन हो? कहो, हूँ भी और नहीं भी। बाहर-बाहर से देखोगे तो निश्चित रूप से छोटा हूँ, हाँ भीतर न कुछ छोटा होता है न कुछ बड़ा होता है वहाँ तो बस एक शांत पूर्णता होती है। पूर्णता क्या छोटी होती है? क्या बड़ी होती है? छोटे और बड़े तो तुलनात्मक शब्द हैं और तुलना करने के लिए दो अपूर्णताएँ चाहिए। तुलना तो तभी होगी न जब दो अपूर्णताएँ हो, तो उनको नाप लोगे-जोख़ लोगे। पूर्णता के बारे में न तो ये कह सकते हैं कि छोटी है न तो ये कह सकते हैं कि बड़ी है, उसको तोलोगे किसके विरुद्ध? तो 'सही' तुम्हारे लिए दृष्टि यही है कि जैसे ही दिखाई दे- कहीं हीन हो कमजोर हो तुरंत मान लो कि हीन हूँ, कमजोर हूँ और हीनता कोई अच्छी बात नहीं। कमज़ोरी कोई पालने की चीज़ नहीं। अगर हीन हैं और कमजोर हैं तो कमज़ोरी को, भरसक कोशिश करेंगे हटाने की। हीन हैं तो हीनता पर विजय पाने की भरसक कोशिश करेंगे लेकिन साथ ही साथ ये याद रखेंगे कि ठीक जब हम हीन हैं तब भी हमारे भीतर कुछ है जो हीन नहीं हो सकता। फिर तुम में हीन होते हुए भी 'हीन-ग्रंथि' नहीं आएगी। हीन तो हो लेकिन हीनता की बीमारी से ग्रस्त नहीं हो और ये दो अलग-अलग बातें हैं इनको याद रखना जरूरी है।

हीन होना एक बात है और हीनता के मनोविकार से ही ग्रस्त हो जाना बिल्कुल दूसरी बात है। हीन तो सभी होते हैं किसी न किसी मामले में। कोई ऐसा है जो बिल्कुल ही हीन नहीं? किसी भी क्षेत्र में? किसी भी कोटि में? किसी भी पैमाने पर? साहब मैं तो नहीं हूँ। पचास ऐसे पैमाने निकल आएँगे जिस पर मैं बहुत हीन हूँ और आप सब भी होंगे हीं। इसी तरह से हम सब भी किसी न किसी तरीके से श्रेष्ठ भी होते हैं। तो ये जानना कि तुम किन क्षेत्रों में श्रेष्ठ हो? किस तरीके से हीन हो? ये एक बात होती है और स्वयं को हीन मान हीं लेना बिल्कुल दूसरी बात होती है। स्वयं को अगर तुमने हीन मान लिया तो मैं कह रहा हूँ- ये मनोविकार है। तुम रोगी हो गये। ये नहीं होने देना है और दोनों अतियाँ खतरनाक है। एक अति, जो 'हम होंगे कामयाब', 'यस आई एम परफेक्ट' वाली अति है वो कहती है मुझमें तो कोई हीनता है ही नहीं और दूसरी अति है जो कहती है कि मैं तो हृदय से बीमार हूँ, मेरा तो केंद्र ही बीमार है, मेरी तो सत्ता ही बीमार है। मेरी हीनता ही मेरी पहचान है। हमें इन दोनों अतियों से बचना है। ये बात साफ हो पा रही है?

न तो ये कहना है कि मुझ में कोई कमी, कोई खोट नहीं और न ही ये कह देना है कि मेरी कमियाँ और मेरी खोट हीं, मेरा सत्य हैं, मेरी पहचान हैं। दोनों में से कोई बात मत कह देना, फंस जाओगे। न इधर को जाना न उधर को जाना। इस मामले में बहुत सतर्क रहना। बाहर की हीनता भी तुम तभी मिटा पाओगे, जब भीतर तुम को पता हो कि तुम में कोई खोट, कोई कमी नहीं तब भीतर वो जो हीन हो ही नहीं सकता। न वो हीन है न वो महान है, न वो लघु है न दीर्घ है। उसकी कृपा से बाहर के सारे दोष मिट जाते हैं।

बाहर के दोष मिटा भी पाओ इसके लिए आवश्यक है कि भीतर पहले तुम निर्दोष रहो।

जब पता है कि भीतर-भीतर कोई दोष, कोई विकार, है ही नहीं तो फिर बाहर जितने दोष और विकार होंगे उनको मिटाने की तुम्हें ताकत मिल जाएगी।

पर अगर तुमने ये मान लिया कि हम तो पूरे ही बीमार हैं, बाहर-भीतर एक से बीमार हैं तो अब बीमारी दूर कौन करेगा? शरीर से भी तुम बीमार पड़ते हो तो जानते हो न तुम्हारी बीमारी कौन हटाता है? तुम्हारे भीतर का स्वास्थ्य तुम्हारी बीमारी से लड़ता है और उसको फिर पराजित कर देता है। तुम दवाई भी खाते हो तो दवाई बस इतना करती हैं कि स्वास्थ्य को सहारा देती हैं कि वो बीमारी को पराजित कर सके। पर जिसके भीतर स्वास्थ्य का केंद्र ही न हो, जिसके भीतर प्राण ही न हो, उसकी बीमारी मिट सकती है क्या? समझ रहे हो? तो बीमारी को भी तुम्हारे भीतर का स्वास्थ्य ही हराता है। तुम्हें दोनों बातें याद रखनी हैं- मैं बीमार तो हूँ लेकिन स्वास्थ्य भी भीतर मौजूद है और ये स्वास्थ्य ही है मेरा जिसकी शरणागत हो जाऊँगा तो बीमारी जीत लूँगा, बीमारी हटेगी फिर। बात आ रही है समझ में?

हीन भावना लगती हो तो स्वीकार करना कि हाँ, साहब हम में कमियाँ हैं और फिर कहना "होंगी कमियाँ, हम भी कुछ हैं!" कमियाँ अपनी जगह हम हमारी जगह और हम वो हैं जो सब कमियों से बहुत आगे के हैं। हम कमियों की हस्ती को स्वीकार करते हैं, हम झूठ नहीं बोलेंगे कमियाँ तो हैं लेकिन हमें ये भी पता है कि हमारे पास कुछ ऐसा है जिसमें कोई कमी हो ही नहीं सकती। फिर तुम बीमार होते हुए भी बीमार रहोगे नहीं। आ रही है बात समझ में? तो दिल में स्वास्थ्य रहे, पूर्णता रहे और उसके सहारे बाहर के सब दोषों को, कमियों को, और बीमारियों को जीत लोगे तुम।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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