प्रश्नकर्ता: खलील ज़िब्रान कहते हैं कि हम मुक्त हैं, आज़ाद हैं लेकिन हमने बेड़ियाँ पहन रखी हैं और हम उन्हीं बेड़ियों से आज़ादी की कामना रखते हैं।
ये स्थिति आयी कैसे? हर कोई गुलामी में ही दिखता है और आज़ादी की कोशिश कर रहा है। ये जो द्वैत है इसका आधार क्या है, इसका स्त्रोत क्या है? और कौन है वो जो आज़ाद होने की कोशिश कर रहा है?
आचार्य प्रशांत: आप लगातार व्यस्त हैं, आप लगातार किसी दिशा में गति कर रहे हैं, कुछ-न-कुछ निरंतर चाह रहे हैं, कुछ-न-कुछ निरंतर सोच रहे हैं। एक पूरा ब्रह्मांड है मन के भीतर जिसमें आप इधर-से-उधर भाग रहे हैं। आप जो कुछ भी कर रहे हैं, जो भी सोच रहे हैं, जिधर को भी भाग रहे हैं, चाहत आपकी एक ही है आज़ादी!
अन्दरूनी फ़ितरत कुछ ऐसी है हमारी कि हम बर्दाश्त नहीं कर सकते बन्धनों में रहना। उस बन्धन को आप लाख जायज़ ठहरा लें, उसका कोई औचित्य ढूँढ लें, बुद्धि से उसको सार्थक प्रमाणित कर दें, लेकिन फिर भी बुद्धि से भी गहरा है जो आपमें, बुद्धि से भी नीचे और केन्द्रीय जो है आपके भीतर, वो राज़ी नहीं होने वाला। वो असहमत ही रहेगा, उसका मुँह उतरा रहेगा, स्थिर नहीं हो पाएगा वो। उसकी स्थिरता मात्र पूर्ण मुक्ति में ही सम्भव है।
जहाँ को भी आप जा रहे हैं, जा मुक्ति की तलाश में ही रहे हैं। जो भी दिशा आपने चुनी, जो भी सम्बन्ध आपने बनाया, जो भी दायित्व आपने पकड़ा, जो भी लक्ष्य आपको भाया, वो इसीलिए भाया क्योंकि पुराना कुछ था जो परेशान करता था, बाँधता था। और ये जो अपने नया पकड़ा है, ये आपको आश्वासन देता है कि पुराने से आज़ादी मिल जाएगी। ये आदमी का जीवन है।
हर नयी दिशा पुराने बन्धन से मुक्ति का वादा करती है, आशा देती है और हर नयी दिशा एक नया बन्धन बन जाती है। पुराने से छूटने के लिए आप जिधर को भी चलोगे, उधर आप पुराने को ही पाओगे एक बदले हुए रूप में, कह सकते हो कि एक नये रूप में।
दिशाएँ बदल लेने से वो कभी बदलता नहीं जिससे आज़ादी चाहिए। कारण समझेंगे, आपको जिससे आज़ादी चाहिए उसको आप पूरा देख नहीं पाते हो, आप उसको बाहरी समझते हो। आप कहते हो कि किसी स्थिति से आज़ादी चाहिए, किसी व्यक्ति से आज़ादी चाहिए, किसी जगह से चाहिए, किसी विचार से चाहिए।
आप ये नहीं देख पाते हो कि आप मौजूद हो उस जगह पर और आप हो उस व्यक्ति के साथ। वो व्यक्ति, वो जगह, वो घटना, वो विचार, अकस्मात ही, संयोगवश ही नहीं जुड़ा हुआ है आपसे। आपमें और उसमें कुछ साझा है, आपमें और उसमें कुछ एक है इसलिए वो मौजूद है आपकी ज़िन्दगी में। आप जैसे हो, आप वैसे न होते तो जिससे आप मुक्ति पाना चाहते हो, वो भी वैसा न होता। और आप जैसे हो, आप वैसे न होते तो मुक्ति पाने के लिए आपने जो अपनी बुद्धि से उपाय खोजे हैं आपने, वो उपाय न खोजे होते। आप और आपकी स्थितियाँ एक हैं, आप और आपके बन्धन एक हैं। लेकिन हम बन्धनों को हमेशा बाहर ही देखते हैं। हमें लगता है कि हम तो मुक्त हैं, मुक्ति स्वभाव है हमारा, बन्धन ऊपर से लाकर हम पर आरोपित कर दिये गए हैं। ये लगना भी बड़ी मज़ेदार और मीठी बात है क्योंकि आपको जो लग रहा है, वो बात ठीक है, लेकिन जिसे लग रहा है वो ठीक नहीं है।
समझिएगा, आत्मा कहे कि मैं मुक्त हूँ और मुझ पर बन्धन ऊपर से लाकर डाल दिये गए हैं, तो ठीक ही कहा। पर अहंकार जब आत्मा का स्थान लेकर के, आत्मा के कपड़े पहनकर के, आत्मा की शैली में आत्मा के संवाद बोलने लगे तो बात झूठी हो जाती है। आप कहते हो कि आप आज़ाद हो और परिस्थितियों ने आपको गुलाम बना रखा है; आप आज़ाद हो ही नहीं।
आप वो हो जिसने ये परिस्थितियाँ चुनी हैं गुलामी के लिए तो आप आज़ाद कैसे हो सकते हो? लेकिन आप कहोगे, ‘मेरी बात ठीक है, सारे शास्त्र यही कहते हैं कि मुक्ति मेरा स्वभाव है। सारे गुरु यही समझा गये हैं कि तुम मुक्त हो और सारी परतंत्रता मात्र एक आवरण है, एक झूठ है, एक गैर-ज़रूरी बोझ है जो तुमने अपने ऊपर डाल रखा है।’
जब शास्त्र कहते हैं कि तुम मुक्त हो तो वो इशारा कर रहे होते हैं आत्मा की ओर, आत्मा मुक्त है। लेकिन जब आप कहते हो कि आप मुक्त हो तो आप झूठ बोल रहे हो, क्योंकि आप जिसकी ओर इशारा कर रहे हो, वो मुक्त है ही नहीं।
आप बोल रहे हो न, आप अपनी बुद्धि से, विचार से, अपने व्यक्तिगत अनुभव से बोल रहे हो, ये अहंकार बोल रहा है आत्मा नहीं बोल रही है। आत्मा कहे, ‘मैं मुक्त हूँ’ तो बात ठीक है। आप कहो कि आपको आज़ादी पसन्द है या आप आज़ाद हो, तो बात बहुत झूठी है — न आपको आज़ादी पसन्द है न आप आज़ाद हो, और प्रमाण इसका ये है कि आप आज़ाद नहीं हो।
“हाथ कंगन को आरसी क्या?”
अजीब बात नहीं है? आप कहते हो, ‘मैं आज़ाद हूँ, मुक्ति मेरा स्वभाव है।’ तुम कहाँ आज़ाद हो? बात खत्म, प्रमाण क्या देना है, स्वयं सिद्ध है।
कहाँ आज़ाद हो?
हमने ये सब चुना है जो हमें बन्धन में रखता है और बुद्धि कुछ ऐसी चकराई हुई है कि हम उसको तो छोड़ने को तो तैयार हैं — कभी-कभार जो लगता है कि बाँधे हुए है। उसको तो छोड़ने को तो कभी भी तैयार नहीं होते जो बँधने के लिए आतुर और तत्पर है। यही वजह है कि हमारी यात्रा गुलामी-से-गुलामी तक की है।
आप एक बन्धन छोड़ते हो तो दूसरा पकड़ लोगे। आप जब तक हो बन्धन अनिवार्य है। बन्धन को छोड़ने को तो एक बार को हम फिर भी रज़ामन्द हो जाएँगे, बँधे हुए को छोड़ने को रज़ामन्द नहीं होते। और जिसे बँधना ही है वो बेड़ियाँ तलाश लेगा, तुम लाख कोशिश करो उसे आज़ाद रखने की वो बेड़ियाँ तलाश लेगा। उसे बहाने मिल जाएँगे और उसके बहाने तर्कयुक्त होंगे, तुम उसके बहानों को गलत नहीं साबित कर पाओगे।
तो आप जो कुछ भी कर रहे हैं, जो कुछ भी रुचता है, जिधर को भी मन खिंचता है, मन खिंचता उधर को इसीलिए है कि मन को लगता है उधर आज़ादी मिल जाएगी। और जितना मन किधर को भी खिंचेगा, आप जान लीजिए कि एक नयी गुलामी की ओर ही खिंच रहा है।
आज़ादी जब भी मंज़िल बनेगी, वो बहुत बड़ी गुलामी है। और आज़ादी जब भी राह और आसमान बनेगी तब वो आज़ादी है। आज़ादी यदि मंज़िल है तो बात ज़ाहिर है कि राह गुलामी की है, क्योंकि आप कह रहे हो कि जहाँ राह खत्म होगी, वहाँ आज़ादी है। मंज़िल कहाँ आती है? जहाँ राह खत्म हो जाती है। तो आज़ादी यदि मंज़िल है तो निश्चित रूप से राह किसकी है? गुलामी की। क्योंकि गुलामी के ही तो खत्म होने पर आज़ादी है।
गुलामी की राह पर चलकर कोई आज़ादी तक नहीं पहुँचता। गुलामी की राह कभी खत्म नहीं होती, उस पर एक के बाद एक मुकाम आते रहते हैं और वो सारे मुकाम गुलामी के ही होते हैं। आज़ादी या तो त्वरित है या नहीं है। हमारा निर्णय है गुलामी, और वो निर्णय हमें बार-बार करना पड़ता है। क्योंकि वास्तव में वो निर्णय है स्वभाव विरुद्ध।
ज़िन्दगी उस निर्णय को उलट देने को, पलट देने को हमेशा तैयार है। प्रमाण इसका ये है कि आपको कष्ट मिलता है आप जब भी गुलामी चुनते हो। तो ज़िन्दगी लगातार आपको सन्देश दे रही होती है कि अपने निर्णय को पलट दो, लेकिन हम पूरे दम के साथ बार-बार वो निर्णय लेते हैं।
कुछ ऐसा नहीं हो रहा है हमारे साथ जो अकस्मात हो, पता होता है कि क्या चाह रहे हैं, और हो सकता है कि एक-दो दफ़े न पता चले, लेकिन जब वही राह और वही दुर्घटना बार-बार आप चुनें, तो ज़ाहिर है कि आपकी पूरी रज़ामन्दी है घायल होने में।
तो आपने पूछा कि ये स्थिति कैसे बन गयी। ये स्थिति ऐसे बन गयी कि हम उम्मीद में हैं, आज़ादी की उम्मीद ही गुलामी है। जो कुछ भी आप प्रयत्न करके बढ़ा रहे हैं, बना रहे हैं, संजो रहे हैं वो आप जिसकी उम्मीद में कर रहे हैं, आप निरन्तर उसको गवाएँ जा रहे हैं।