हर काम के साथ परिणाम की उम्मीद क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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हर काम के साथ परिणाम की उम्मीद क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्नकर्ता: सर, हर प्रयास के साथ हम कुछ-न-कुछ उम्मीद क्यों लगाए रहते हैं?

आचार्य प्रशांत: ऐसा है नहीं। फिर वही पूछूँगा — प्रेम में होते हो, किसी से गले मिल रहे हो, तो कुछ उम्मीद भी रख रहे हो क्या?

जब कार्य ही खुद में परिणाम है, जब आप कार्य में गहराई और पूर्णता से हैं, तब वहाँ कोई उम्मीद नहीं होती। तुम शाम को खेलने जाते हो, जब खेल रहे हो तो क्या यह उम्मीद कर रहे हो कि, "खेलने के आधे घण्टे बाद मुझे कुछ इससे मिल जाएगा"? खेलना अपने आप में ही तो अपना परिणाम है न? खेलने से आगे तो कोई और अपेक्षा नहीं? खेल अपना परिणाम खुद है। उससे आगे तो तुमने कोई उम्मीद नहीं रखी।

तो ऐसा है नहीं कि तुम जो भी कुछ करते हो, उससे तुम आगे की अपेक्षा करते हो। हाँ, तुम्हारे निन्यानवे-प्रतिशत कर्म ऐसे हैं जो पूर्ण और गहरे नहीं होते, उनमें आगे के लिए अपेक्षाएँ होती हैं। और आगे के लिए अपेक्षाएँ तभी होती हैं, जब अभी जो कर रहे हो उसमें कोई आनंद ना हो। अगर अभी जो हो रहा हो वो पूर्ण हो और उसमें पूरा संतोष हो, तो तुम्हारे मन में आगे के लिए अपेक्षा आएगी ही नहीं, बिलकुल नहीं आएगी। आगे के लिए अपेक्षा आने का अर्थ ही यही है कि अभी जो हो रहा है वो पूर्ण नहीं है, कुछ है जो कमी है, कुछ है जो छूट रहा है।

तो ऐसा मत सोचो कि जीवन ऐसा होना चाहिए। कोई ज़रूरी नहीं है कि ज़िन्दगी ऐसे ही जी जाए कि अभी जो कुछ हो रहा है उसमें तो कोई मज़ा नहीं, और आगे की उम्मीदें पाल रखी हैं। पर तुम्हें तो बताया ही यही गया है कि दुनिया उम्मीद पर चलती है। दुनिया उम्मीद पर नहीं चलती है, दुनिया अभी है। उम्मीद पर सिर्फ़ कल्पनाएँ चलती हैं। उम्मीद क्या है? कल्पना ही है न? उम्मीद एक कल्पना ही तो है न कि आगे कुछ हो जाएगा?

तो तुम देखो कि तुम्हारी सारी अपेक्षाएँ पैदा कहाँ से होती हैं। तुम्हारी सारी अपेक्षाएँ पैदा ही इसीलिए होती हैं क्योंकि तुम इस क्षण से बुरी तरह से असंतुष्ट हो। जब इस क्षण से कोई संतुष्टि नहीं मिल रही तो तुम आगे के लिए उम्मीदें पालते हो। जो अभी में पूरा-पूरा डूबा होगा, उसको वक़्त कहाँ है जो आगे के लिए सोचे?

प्र: तब हम भविष्य के बारे में कब सोचेंगे?

आचार्य: तुम देखो कि तुम भविष्य के बारे में क्यों सोचते हो फिर समझ जाओगे कि सोचें ना सोचें, कि क्या करें कि क्या ना करें। मुझसे जल्दी से निर्णय मत माँगो। पहली चीज़ मैंने यही कही थी कि निर्णय मैं नहीं दूँगा।

तुम देखो पहले कि जो तुम्हारा मन है, वो भविष्य या भूत में क्यों घूमता रहता है। वो इसलिए घूमता रहता है क्योंकि वर्तमान में वो होना नहीं चाहता। इसलिए वो या तो याददाश्त में जाता है या अपेक्षा में जाता है। या तो याददाश्त में जाएगा जो भूत में है, या अपेक्षा में जाएगा जो भविष्य में है। और भूत और भविष्य दोनों ही कल्पनाएँ हैं। दोनों ही सिर्फ़ छवियाँ हैं, दोनों में कोई हक़ीक़त नहीं; मर गए, ख़त्म हो गए। एक ख़त्म हो चुका है और एक अभी आया ही नहीं।

जो है सो अभी है। यहाँ तक कि उनके बारे में सोच भी तुम अभी ही रहे हो। वो कल्पनाएँ भी अभी ही हो रही हैं। उनका अस्तित्व नहीं है। भूत और भविष्य दोनों ही काल्पनिक हैं। लेकिन फिर भी हम वहीं जाना चाहते हैं। अब तीसरे साल में आ गए हो, ये हो गया है। मिलते हैं विद्यार्थी कई बार, कहते हैं, “सर, अब तो क्या है, कक्षाओं में क्या है, अब तो हम परलोक की तैयारी कर रहे हैं। ये कैंपस की चारदीवारे हैं, अब इनसे बाहर निकलेंगे, दूसरे लोक में पहुँचेंगे।”

तो अब परलोक की तैयारी चल रही है। अच्छी बात है।

तुम इस दुनिया में होते ही कब हो? पहले वर्ष में घुसते हो तो चौथे वर्ष की प्रतीक्षा कर रहे होते हो। वहाँ भविष्य बैठा हुआ है। कक्षा बारहवीं में होते हो तो सोच रहे होते हो दाखिला कहाँ मिलेगा, और आगे भविष्य बैठा हुआ है। तुम जहाँ पर भी हो उससे एक क्रम आगे पर ही तुम्हारा चित्त है।

प्र: तो सर, आप ये कहना चाहते हो कि हम अपने लक्ष्य के बारे में नहीं सोचें?

आचार्य: मैं कुछ नहीं कहना चाहता, मैं तुम्हारे सामने बस एक स्थिति पैदा करना चाहता हूँ जिसमें तुम यह समझ सको कि ये लक्ष्य वगैरह क्या हैं।

मेरा काम बस यहाँ पर कुछ ऐसा माहौल बनाना है, जिसमें तुम्हें ये समझ में आए कि ये लक्ष्य, ये आकांक्षा, ये भविष्य, ये सब मन में कब फँसते हैं। जब तुम बहुत-बहुत खुश थे, तब क्या तुम भविष्य के बारे में सोच रहे थे उस क्षण में?

जो तुम्हारा आनंद का क्षण था, गहरे आनंद का, क्या तुम तब सोच रहे थे ख़ुशी के बारे में? या वो क्षण ही काफी था?

श्रोतागण: वो क्षण ही काफ़ी था।

आचार्य: बस इसी से समझ लो कि यदि पूर्णता में, यदि आनंद में आदमी भविष्य के बारे में सोचना बंद कर देता है, तो भविष्य की सोच कब शुरू होती है? ठीक तब जब उसे अभी बहुत दुःख लग रहा होता है। क्योंकि अभी जो है वो बड़ा दुःख देता है, बड़ी उलझन देता है, तो इसीलिए मैंने एक कल्पना रची है आगे के लिए, कि आज तो बड़ा खराब है कल काश सुन्दर हो जाए।

ये समझ लो बस — मैं तुमसे कुछ नहीं कह रहा हूँ कि तुम सोचो कि ना सोचो, कि क्या करें, पर समझो बात को कि तुम क्यों सोचते हो आगे के बारे में, और आगे के बारे में सोच कर होगा क्या, ये भी देख लो, क्योंकि आगे का तो कोई अंत नहीं। स्थिति कोई भी हो उससे आगे की स्थिति लाई जा सकती है। मन में तुम लगातार भविष्य में जीते हो और भविष्य में जीना, नहीं जीने के बराबर है। क्योंकि एक वास्तविकता है, जो कि कहाँ है?

श्रोतागण: वर्त्तमान में।

आचार्य: भविष्य में जीना, जीवन को पूरी तरह से चूकना है। मर जाओगे, फिर कहोगे, "चूक गए! जीवन यहाँ था और हम सोचते रहे कि वो वहाँ है।"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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