प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अगर मुक्ति हमारा स्वभाव है तो जैसे हमें भूख और प्यास लगती है वैसे ही हमें मुक्ति की छटपटाहट क्यों नहीं लगती?
आचार्य प्रशांत: इसीलिए नहीं लगती क्योंकि मुक्ति को तो भूख और प्यास नहीं लगती न। तुम अपने आप को वो बना लेते हो जिसे भूख और प्यास लगती है। अगर तुम मुक्तिमात्र ही होते तो तुम क्या कहते कि मुझे भूख लगी है, प्यास लगी है?
फिर शरीर को भूख लगती, प्यास लगती, मन-बुद्धि उस भूख-प्यास की तृप्ति का इंतज़ाम करते रहते। एकसाथ तुम दोनों बातें नहीं कह सकते कि कहो कि मैं वो हूँ जो सदा-सर्वदा मुक्त है और साथ-ही-साथ उसी साँस में तुम ये भी कह दो कि मैं वो हूँ जिसे भूख-प्यास लगती है। अब गड़बड़ हो जाएगी।
सत्य को भूख-प्यास लगती है क्या? कि सत्य इधर-उधर घूम रहा है, ‘थोड़ा पानी दे दो भाई।’ हम वही बन जाते हैं जिसे भूख-प्यास लगती है। शरीर से हम वो हो जाते हैं जो शरीर के काम हैं और मन से हम वो हो जाते हैं जो मन के संस्कार हैं।
मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है लेकिन स्वभाव में जीना है या नहीं जीना — ये तुम्हारा चुनाव है। आवश्यक नहीं है कि सब मुक्ति को चुनें। मुक्ति स्वभाव है इसीलिए सदा उपलब्ध है पर तुम उसको चुनोगे ही, ये कोई आवश्यक नहीं है। तुम कुछ और भी चुन सकते हो। ये इंसान की स्थिति है। ये इंसान पैदा होने की विडंबना है।
हम चाहें तो इसके खिलाफ़ नारेबाज़ी कर सकते हैं, फ़रियाद कर सकते हैं, पर अब ऐसा ही है। जो इंसान पैदा हुआ है उसको दुर्भाग्यवश ये विकल्प मिला हुआ है कि स्वभाव में चाहे तो जिए और न चाहे तो न जिए। कोई फ़र्क नहीं पड़ जाने वाला।
जो लोग स्वभाव में नहीं जी रहे वो भी अस्सी-अस्सी साल, सौ-सौ साल जीते हैं। जो स्वभाव में नहीं जी रहे, वो भी नौकरियाँ कर रहे हैं, रुपया-पैसा कमा रहे हैं, समाज में इज़्ज़त के हकदार हैं। जो स्वभाव में नहीं जी रहे, बल्कि ज़्यादा संभावना ये है कि उन्हीं के पास रुपया-पैसा ज़्यादा होगा। जो स्वभाव में नहीं जी रहे अक्सर तुम उन्हीं को ज़्यादा चुस्त-तंदुरुस्त, बलिष्ठ भी पाओगे।
तो कोई बाहर से ज़बरदस्त सूचना नहीं आने वाली, कोई चेतावनी नहीं आने वाली कि तुम गलत जी रहे हो। किसी महॅंगी शॉपिंग मॉल में चले जाऍं आप दक्षिणी दिल्ली के, हाइ एंड शॉपिंग मॉल और वहाँ पर जो छोटे बच्चे घूम रहे हों, आप उनको देखिएगा। वो डिज़ाइनर बेबीज़ हैं।
आपके समय में बच्चे जैसे होते थे छुटपन में, उनकी तुलना में ये आज के बच्चे कहीं ज़्यादा तंदरुस्त हैं, वज़न भी ज़्यादा होगा, गोरे-चिट्टे भी ज़्यादा हैं, बाल भी ज़्यादा मुलायम दिखाई देंगे। एक-एक विटामिन, एक-एक मिनरल का ख़याल रखा जा रहा है। ये पहले नहीं होता था।
तो आप स्वभाव विरुद्ध भी जी रहे हो तो भी बहुत संभव है कि आप धन-संपदा से भी पूरे हों और तन-संपदा से भी पूरे हों। तो अब बताओ चेतावनी कैसे मिलेगी? शरीर भी बताने नहीं आएगा कि कुछ गलत हुआ है और समाज भी बताने नहीं आएगा कि कुछ गलत हो रहा है।
आप स्वभाव विरुद्ध ही जी रहे हो लेकिन शरीर कैसा है? मस्त हट्टा-कट्टा। बल्कि उनसे ज़्यादा हट्टा-कट्टा जो साधना में जी रहे हैं, जो वियोग का अनुभव कर रहे हैं, जो मालिक की याद में तड़प रहे हैं; उनसे ज़्यादा हट्टा-कट्टा है आपका शरीर।
तो आपको तो तर्क भी मिल जाएगा कि भैया हम किसी स्वभाव की, किसी मुक्ति की बात नहीं करते। हमको देखो और तुम अपनी हालत देखो। चेहरे पर बारह बजे हुए हैं, उजड़े हुए हो। और सामाजिक तौर पर भी बिल्कुल संभव है कि आप जी रहे हो स्वभाव विरुद्ध; उसके बाद भी बंगला है, गाड़ी है, इज़्ज़त है, सब है।
तो आपको कैसे पता चलेगा कि आपके साथ कुछ गलत हो रहा है? कोई तरीका ही नहीं है पता लगने का। इतना ही नहीं है, अब वाजिब सवाल ये है कि आप पूछें, ‘पता लगे भी क्यों?’ जब शरीर भी ठीक है, पैसा भी है और इज़्ज़त भी मिली हुई है तो स्वभाव का क्या आचार डालना है!
जब सबकुछ ठीक ही चल रहा है तो स्वभाव लेकर करेंगे क्या? और मैं ये खौफ़नाक बात आपको बताए देता हूँ। स्वभाव में जिओ न जिओ, ये सब मिल सकता है — अच्छी सेहत, लंबी उम्र, पद-प्रतिष्ठा, बढ़िया पति या पत्नी। ये सब मिल सकते हैं बिना स्वभाव में जिए।
अब तो आपके सामने भी बड़ी हैरत खड़ी हो गई होगी कि अगर ये सबकुछ मिल ही सकता है बिना स्वभाव में जिए, तो ये अध्यात्म किसलिए है? ये खत्म करो शिविर वगैरह।
जी हाँ, सबकुछ मिल सकता है बिना अध्यात्म के। तो अगर कोई अध्यात्म में इसलिए आया हो कि उसको इन सब चीज़ों में से कुछ चाहिए; कि थोड़ी सेहत ठीक हो जाए या थोड़ा कारोबार बढ़ जाए या अच्छी नौकरी लग जाए या अच्छा कुछ पति-पत्नी वगैरह मिल जाए या ज़िंदगी में तरक्की हो जाए, तो उसको निराशा ही मिलेगी।
अध्यात्म से ये सबकुछ नहीं मिलने वाला। बल्कि जो लोग आध्यात्मिक नहीं हैं, उनके पास आप ये सब चीज़ें ज़्यादा बहुलता में पाओगे। तो सवाल खड़ा हो गया। शिविर तो अभी शुरू भी नहीं हुआ पूरे तरीके से और उसके औचित्य पर ही प्रश्न लग गया। फिर ये है किसलिए? किसलिए? पता नहीं।
देखिए, दिनरात मैं समझाता हूँ, सिर पटक-पटककर समझाता हूँ — मत मारो जानवरों को, मत खाओ मांस। और लोग तर्क वगैरह देते हैं कि देखिए, आप ऐसे मत समझाइए। आप बताइए कि मांस खाने से शरीर को क्या नुकसान होते हैं?
वो बात है ही नहीं। देखो, असली बात तो ये है कि जो लोग दूध, मांस, अंडा, मछली खा रहे हैं खूब, ज़्यादा हट्टा-कट्टा तो तुम उन्हीं को पाओगे। बात शरीर की है ही नहीं। बात कहीं और की है।
शाकाहार की तरफ़, विगनिज्म की तरफ़ आप अगर इस वजह से आ रहे हो कि इससे आपके तन को फ़ायदा होगा, तो शीघ्र ही आपको पता चलेगा कि तन को कुछ विशेष फ़ायदा नहीं होता इससे। कुछ फ़ायदा होता होगा, कुछ नुकसान भी होता है।
उदाहरण के लिए विटामिन बी-१२ बिना दूध के पाना ही बड़ा मुश्किल है। या तो दूध में मिलेगा या मांस में मिलेगा। और पाओगे कहाँ? या फिर उसका कृत्रिम रूप से उत्पादन हो तो कुछ फोर्टीफाइड फूड्स हों, उसमें मिलेगा।
कुछ लोग कहते हैं कि नहीं, हम साबित करेंगे कि इंसान प्राकृतिक रूप से शाकाहारी है। वो बात भी गलत है। इंसान प्राकृतिक रूप से शाकाहारी नहीं है। इतने लोग हैं जो मांस पर ही जी रहे हैं और जीते ही जा रहे हैं। उनका कुछ नुकसान थोड़े ही हो गया। प्रकृति बिल्कुल नहीं कह रही है कि आप शाकाहार करो। प्रकृति वाला तर्क झूठा है।
दुनिया के बड़े-बड़े उद्योगपतियों को देख लो, धनिकों को देख लो, राजनीतिज्ञों को देख लो, वैज्ञानिकों को देख लो; पाओगे उसमें से नब्बे प्रतिशत वही हैं जो मांस खा रहे हैं। तो मांस खाना अगर शरीर के लिए और मस्तिष्क के लिए खराब ही होता तो आठ-नौ-सौ हैं नोबेल प्राइज़ विजेता, उसमें से मुट्ठी भर को हटा दो तो बाकी सब मांस भक्षी ही हैं।
तो मांस खाने का बुद्धि पर और मस्तिष्क पर और शरीर पर कोई कुप्रभाव पड़ता है — ये तर्क बहुत दूर तक नहीं जाएगा। प्रभाव पड़ता है, बिल्कुल पड़ता है। डॉक्टर जानते हैं इस बात को, वो मना करते हैं। लेकिन फिर भी वो तर्क बहुत दूर तक नहीं जाएगा।
जो तर्क दूर तक जाता है वो दूसरा है। वो प्रेम का है, वो करुणा का है, वो चेतना का है। जो उस तर्क पर चल रहा है सिर्फ़ वही छोड़ पाएगा मांस को।
जो मांस को इसलिए छोड़ रहा है कि मांस खाने से मेरा वज़न कुछ कम हो जाए; वो पाएगा कि मांस छोड़ने से वज़न कम नहीं हुआ तो मांस फिर से खाना शुरू कर देगा। कई लोग शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से मांस और दूध इत्यादि छोड़ना चाहते हैं। वो बहुत लंबे समय तक नहीं छोड़ पाऍंगे। क्योंकि बात प्रकृति की नहीं है, बात स्वभाव की है। आप स्वभाव विरुद्ध भी जी रहे हो तो भी प्रकृति खुश रहती है। अच्छा एक बात बताइए, आपने किसी से विवाह कर लिया बिना उससे प्रेम करे। प्रेम स्वभाव है न?
आपने बिना प्रेम के ही विवाह कर लिया। भारत में तो खासतौर पर नब्बे प्रतिशत मामलों में ऐसा ही होता है। तो क्या प्रकृति गर्भाधान से मना कर देगी? प्रकृति कहेगी ऐसा कि प्रेम नहीं है इसीलिए अणु-शुक्राणु मिलेंगे तो बच्चा नहीं पैदा होगा? ऐसा होगा क्या?
प्रकृति स्वभाव की परवाह ही नहीं करती। वो तो बलात्कार में भी स्त्री को गर्भवती कर देती है। प्रेम हो न हो, बच्चा पैदा होना चाहिए। बलात्कार से होता हो तो बलात्कार से हो। तो गड़बड़ हो गई न।
अब स्वभाव पर, प्रेम पर चलने का लाभ क्या, अगर सबकुछ हो जा रहा है बिना करुणा के, बिना प्रेम के, बिना आनंद के, बिना मुक्ति के; इस संसार के सारे धंधे चल सकते हैं बिना प्रेम, आनंद, मुक्ति और करुणा के, तो फिर ये सब चाहिए ही क्यों? इस शिविर का औचित्य ही क्या?
सांसारिक सफलता के लिए नहीं है अध्यात्म। बल्कि जो लोग अध्यात्म में बहुत समय देना शुरू कर देते हैं; मैं आपको पहले से ही आगाह कर देता हूँ, सांसारिक सफलता में थोड़ा पीछे छूटने लग जाते हैं क्योंकि संसार भी कहता है कि समय लगाओ, समय लगाओ, समय लगाओ।
तुम संसार से समय चुराकर के अगर अध्यात्म में लगाओगे तो संसार की दौड़ में तो पीछे होने ही लग जाओगे। जितनी बातें कह रहा हूँ, सबका आपसी संबंध स्पष्ट हो पा रहा है आपको?
बिना स्वभाव में जिए भी तन-मन फल-फूल सकते हैं। और ये बात कितनी राहत की है! और ये बात कितनी खौफ़नाक है! कितनी खौफ़नाक है! है न? न प्रेम हो, न करुणा हो लेकिन फिर भी आप दिखने में भी सुंदर हैं, बलिष्ठ भी हैं, सामाजिक रूप से सफल भी हैं और प्रतिष्ठित और धनवान भी हैं।
ये बात राहत की भी है और ये बात?
प्रश्नकर्ता: खौफ़नाक है।
आचार्य प्रशांत: खौफ़नाक भी बहुत ज़्यादा है। अब ये आप पर निर्भर करता है कि ये बात आपको राहत की लगती है या खौफ़ की। कैसी लग रही है?
प्रश्नकर्ता: खौफ़ की।
आचार्य प्रशांत: जितने लोगों के चेहरे आप पत्र-पत्रिकाओं में देखते हैं कि ये संसार के सबसे आकर्षक और सुंदर लोग हैं, क्या वो स्वभाव में जी रहे हैं? नहीं जी रहे। लेकिन देखो कितने आकर्षक हैं!
जिन लोगों के चेहरे आप अखबारों में देखते हैं कि ये देश के शीर्ष नेतागण हैं, क्या वो स्वभाव में जी रहे हैं? नहीं जी रहे। पर देखा उनमें कितनी सत्ता, कितना बल है।
जिनके चेहरे आप बिज़नेस मैगज़ींस में देखते हैं कि अग्रणी उद्योगपति हैं, 'फोर्ब्स-फाइव-हंड्रेड' या दुनिया के सबसे अमीर लोग, वो क्या स्वभाव में जी रहे हैं? नहीं जी रहे। पर कितना पैसा है। तन-मन-धन सब कुछ मिल जाता है बिना स्वभाव पर चले। ये स्वभाव तो चीज़ ही दो कौड़ी की लग रही है! (हँसते हुए)
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कई बार पता होने के बावजूद हम गलत को चुन लेते हैं, फलस्वरुप एक ग्लानि का भाव हमेशा बना रहता है। इससे बाहर कैसे निकलें?
आचार्य प्रशांत: वो भी भाग्यवान हैं जिन्हें कम-से-कम भीतर-भीतर पता हो कि उन्हें कष्ट है। कि जो खुले में मुस्कुराते हों और कमरा बंद करके रोते हों। पर ऐसे भी बहुत कम हैं।
इंसान के साथ त्रासदी ये है कि वो अपने आप को भी समझा लेता है कि वो सुखी ही है, हैप्पी है। और बिल्कुल भूल जाता है कि ये झूठ है जो उसने स्वयं को समझा रखा है। रोंगटे खड़े कर देने वाली बात है ये।
आप जो बात बोल रहे हो, वो भी बड़ी फिल्मी है; कि जिसमें एक इंसान मुखौटा पहनकर के समाज को अपना सुखी चेहरा दिखाता है लेकिन दावत उठने के बाद अकेला बिस्तर पर ऑंसू बहाता नज़र आता है। वो भी बात शायराना है। वो बात भी यथार्थ में देखने को नहीं मिलती।
यथार्थ में ये होता है कि व्यक्ति वास्तव में स्वयं को ये समझा लेता है कि वो सुखी ही है और सब ठीक चल रहा है। वो समझा ही ले जाता है अपने आप को। और वो तब तक सफल रहता है अपनी आत्म प्रवंचना में, अपने सेल्फ डिसेप्शन में, जब तक जीवन उसे बहुत बुरी ठोकर न दे दे।
अब गड़बड़ ये है कि आवश्यक नहीं है कि जीवन आपको उतनी बड़ी ठोकर दे। बिल्कुल हो सकता है कि अपना आप साठ वर्ष या अस्सी वर्ष का जीवन झूठ में जीते हुए भी बिना ठोकर खाए काटें, गुज़ार दें। साठ-अस्सी साल होते कितने हैं!
प्रश्नकर्ता: वही डर पैदा करता है?
आचार्य प्रशांत: पर इतने तरीके आ गए हैं डर से दूर रहने के कि डर बड़ा होकर के, दृश्यमान होकर के आपके सामने आ जाए ये आवश्यक ही नहीं है; कि आप बहुत डरे हुए हैं ये भी आपको पता चले, इसके लिए बड़ा सौभाग्य चाहिए।
वरना आप दूसरों से ही नहीं, स्वयं से भी ये दावा सफलतापूर्वक कर लेंगे कि मैं तो निडर हूँ। आपको दिखाई दे कि आप वास्तव में डरे हुए हैं, इसके लिए बड़ा सौभाग्य चाहिए, इसके लिए कोई दुर्घटना चाहिए।
और दुर्घटनाऍं अब धीरे-धीरे आज के युग में कम होती हैं। हर चीज़ का इंश्योरेंस है। तो पहले तो फिर भी इंसान को ये नसीब और ये सुविधा उपलब्ध थी कि उसके झूठे दावों की पोल आसानी से खुल जाती थी।
आप कह रहे हो, ‘मैं निडर हूँ, मैं निडर हूँ, मैं निडर हूँ।’ एक गाँव से दूसरे गाँव जाने निकले। बीच में भेड़िया मिल गया, पोल खुल गई। अब दो गाँवों के बीच में न अँधेरा है, न जंगल है, न भेड़िया है; पोल खुलेगी ही नहीं। आप आसानी से अपने आप को ये बताए रह जाओगे कि मैं तो निडर हूँ। दूसरों को ही नहीं, खुद को भी।
आपको वाकई यही लगेगा कि मैं तो ठीक हूँ। ‘मैं निडर हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं प्रसन्न हूँ। कोई दिक्कत ही नहीं है।’ हर वो चीज़ जो आपको आपके झूठ का, खोखलेपन का, मिथ्या का, प्रपंच का एहसास करा सकती थी, उसको विकास ने, प्रगति ने, टेक्नोलॉजी ने ढ़क दिया है।
सबसे बड़ी दुर्घटना होती है मृत्यु। घर में चार बच्चे पैदा होते थे, उसमें से दो बचते थे। मृत्यु सामने ही खड़ी रहती थी। अब कहाँ मृत्यु है! मृत्यु है कहाँ?
और धीरे-धीरे विज्ञान वो स्थिति लाए दे रहा है जिसमें आप अपनी मृत्यु खुद चुनेंगे। नहीं तो मेडिकल साइंस ऐसी जगह पहुँच जाएगी जहाँ आप चाहें न तो मरें न। हाँ, अब कोई आपको बिल्कुल ट्रक के नीचे डाल दे और आपका रेशा-रेशा काट दे तो अलग बात है। अन्यथा आप बीमारी से नहीं मरने वाले, हर बीमारी का समाधान आ जाएगा।
आप चाहें तो डेढ़-सौ साल जिएँ, ढाई-सौ साल जिएँ और जब बिल्कुल ऊब जाऍं तो कहें कि अब मरना है। तो अब बचा कौन है पोल खोलने के लिए? कैसे खुलेगी पोल?
प्रश्नकर्ता: नेक्स्ट जेनेरेशंस पर! ये भी होता है। सीमस सो ।
आचार्य प्रशांत: आगे क्या होगा हम इस पर बहुत विचार न करें। हम ये देखें कि क्या जो मैं कह रहा हूँ हमारे ही साथ नहीं हो रहा? बात आगे की नहीं आज की है। जो मैं कह रहा हूँ वो आज भी हो रहा है।
आज इतने तरीके मिल गए हैं आदमी को दुख को छुपाने के, दुख से भाग जाने के कि उसे वास्तव में ये एहसास होना बहुत कम हो गया है, अपितु बंद ही हो गया है कि वो दुखी है।