यस्वतंरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।१७।।
किन्तु जो लोग सत्य में ही अनुरक्त, तृप्त और संतुष्ट हैं उनके लिए तो कर्तव्य कर्म नहीं बचते।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १७
आचार्य प्रशांत: सुंदर बात कही है! पिछला श्लोक समाप्त हुआ था ये कहने पर कि जो लोग कामनाओं के ही पीछे भागते हैं, वो अपना जीवन व्यर्थ गँवाते हैं। और अगले श्लोक में शुरुआत में ही कह रहे हैं, ‘लेकिन’, ‘किन्तु’ से शुरुआत हो रही है, ‘लेकिन जो लोग सत्य में ही अनुरक्त, तृप्त और संतुष्ट हैं, उनके लिए तो कर्तव्य कर्म नहीं बचते।‘ और इससे बड़ी रिहाई क्या हो सकती है? समझ रहे हो?
ये जितने कर्तव्य कर्म विधान में हैं, समाज में चलते हैं, नैतिकता में चलते हैं, ये सारे-के-सारे उनके लिए हैं जो अपनी वासनाओं के पीछे भागते हैं। ऐसो को ज़रा रास्ते पर रखने के लिए नीति बनाई जाती है, वही नीति फिर मोरैलिटी कहलाती है। क्योंकि पता है कि कामना अंधी होती है, व्यक्ति कुछ भी करेगा। उसे कुछ भी करने से रोकने के लिए फिर नैतिकता होती है, एथिक्स (आचार नीति) होते हैं। कुछ कर्तव्य बता दिए जाते हैं, कोई किरदार थमा दिया जाता है, एक पहचान दे दी जाती है, एक पात्र बना दिया जाता है तुम्हें कि तुम ऐसे हो, तुम्हें ऐसे जीवन जीना है। तुम पिता हो, तुम इस-इस तरीके से व्यवहार करोगे। तुम माँ हो, तुम्हें ऐसे-ऐसे करना है। तुम किसी जगह पर नियुक्त हो, कर्मचारी हो, तुम्हें इस-इस तरीके का – या तुम नागरिक हो देश के, तो तुम्हें ऐसे-ऐसे काम करना है। और सामान्य मनुष्य को ये सारे बंधन, ये सारे कर्तव्य निभाने पड़ेंगे क्योंकि वो कामनाओं में जीता है।
जो कामनाओं में जिएगा उसको सज़ा ये मिलेगी कि उसे बहुत सारे कर्तव्य दे दिए जाएँगे। वो कर्तव्य हैं ही इसीलिए क्योंकि कामना अंधी है, तुम इधर-उधर ही न भाग जाओ बहुत ज़्यादा, छिटक न जाओ, बिलकुल फिसल न जाओ तो तुमको फिर कर्तव्य बताए जाते हैं।
लेकिन जो निष्कामकर्म में जी रहा है उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता, उसे अब किसी भी कर्तव्य का पालन नहीं करना पड़ता। क्यों? क्योंकि उसने वो कर्तव्य पकड़ लिया है जो ऊँचे-से-ऊँचा है, अब उसके आगे कौनसा कर्तव्य? उसको सारे कर्तव्यों से रिहाई मिल जाती है, कोई कर्तव्य नहीं बचा अब उसके लिए। उसे अब कोई ज़िम्मेदारी, कोई रिस्पॉन्सिबिलिटी बाँध नहीं सकती; वो ऊपर पहुँच गया। वो किसी बहुत ऊँचे दर्ज़े का काम अब उठा चुका है, तो उसको छोटे-मोटे काम अब बाँधते नहीं हैं। और ये बड़े सौभाग्य की बात होती है, ये कितना बड़ा पुरस्कार मिल गया।
तुम एक साधारण आदमी को देखो, तो उसकी ज़िंदगी क्या है? एक भीतरी संघर्ष है लगातार, कामनाओं और कर्तव्यों के बीच। सबकी ज़िंदगी में यही तो झंझट है न? कामनाएँ आपको एक तरफ़ खींचती हैं और कर्तव्य आपको दूसरी तरफ़ खींचते हैं। पतिदेव की कामना है कि पाँच-सात हैं, उनकी तरफ़ जाना है और कर्तव्य ये है कि एक पत्नी-व्रत का पालन करो। अब वो भीतर-ही-भीतर संघर्षरत है, भीतर-ही-भीतर उनके चिथड़े हुए जा रहे हैं, गृहयुद्ध चल रहा है खोपड़े में, यही तो है न? अपनी इच्छा कुछ और है लेकिन बच्चों के प्रति भी तो दायित्वों की पूर्ति करनी है, तो दिल पर पत्थर रखकर बच्चों के लिए दायित्वों की पूर्ति कर रहे हैं। लेकिन उससे जीवन में चिड़चिड़ाहट आ गई है, खिसियाए हुए हैं। बच्चे को जो चाहिए वो दिला तो दिया पर दो थप्पड़ मारकर।
देवी जी घर में हैं, वो अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर तो रही हैं पर साथ-ही-साथ दिनभर खिसियाई रहती हैं कि पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो गई यही चूल्हे-चौके में, तुम्हीं लोगों की ख़ातिरदारी करती रह गई। अरे! अगर तुम्हें ख़ातिरदारी करने में प्रेम होता तो इतनी शिकायत क्यों करतीं? इसका मतलब है वो जो भी ख़ातिरदारी करी, वो बस कर्तव्यवश करी। किसी ने बता दिया ये तुम्हारा कर्तव्य है, तो करना पड़ा दिन-रात; प्रेमवश नहीं करा था, कर्तव्यवश करा था।
तो जिनके जीवन में सच्चाई नहीं होती, जिनके जीवन में कृष्ण के प्रति प्रेम नहीं होता, उनको सज़ा ये मिलती है कि उन्हें कर्तव्य निभाने पड़ते हैं।
आपको मिलेंगे ऐसे लोग जो जीवनभर कुछ नहीं कर रहे हैं। बस क्या? 'साहब! हम तो अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाते हैं।' ये उनको सज़ा मिली है, प्रेम नहीं था न उनके पास। कौनसा प्रेम? कृष्ण के लिए प्रेम। प्रेम नहीं था तो उनको सज़ा ये मिली है कि अब जीवनभर बस ज़िम्मेदारियाँ उठाओ। कृष्ण बहुत हँसते हैं कर्तव्यों पर और बार-बार हँसते हैं। कृष्ण की सुनें तो कर्तव्य सज़ा हैं, नासमझी की सज़ा हैं। जो समझ से भरा जीवन नहीं बिताते, उन्हें फिर कर्तव्यों पर चलना पड़ता है और आम-आदमी का यही हाल है। पीठ झुक जाती है, क्या करते हुए? कर्तव्य निभाते हुए।
क्या हुआ मुँह पर ये श्मशान क्यों फैला रखा है? ‘अजी साहब! आपको हमारी दुखभरी कहानी क्या पता। अभी छः बहनों की शादी करी थी, दस साल लग गए उन्हें निपटाने में, और अब छह बेटियाँ हैं, उनको निपटाना है।’ तुम एक बात बताओ, ये छह बहनों की शादियों का नर्क झेलते समय, तुम्हें इतना समय मिल कहाँ से गया कि बीच में तुमने पत्नी को निपटा दिया और छह बेटियाँ पैदा कर दी? ‘आप पूछिए मत! देखिए मेरी पूरी ज़िंदगी आदर्शों पर चलती है। पिताजी मरते वक़्त मुझसे बोलकर गए थे कि ये मेरी कामना की निशानियाँ, ये छह बेटियाँ, ये तुमको देकर जा रहा हूँ।’
अब पिता जी मरे क्यों थे? पत्नी ने छह के बाद मना कर दिया था तो इधर-उधर सातवीं की तलाश कर रहे थे, उसी प्रक्रिया में फिसल कर गिर गए तो मर गए। अब ये बता रहे हैं कि मैं कर्तव्य निभा रहा हूँ। तो कर्तव्य सज़ा है नासमझी की। कर्तव्यों का निर्माण करा ही इसीलिए गया है क्योंकि हम अंधे लोग हैं। जो अंधा नहीं है उसे कोई कर्तव्य नहीं चाहिए, वो जानता है जीवन कैसे जीना है। उसे क्या बता रहे हो तुम कि ‘तुम्हारा ये दायित्व है, ये ज़िम्मेदारी है’? वो सुनेगा ही नहीं। कहेगा, ‘हटाओ, मैं जानता हूँ। कोई मेरे साथ का है, उसकी अगर सेवा करनी है तो इसलिए करूँगा कि प्रेम है, इसलिए नहीं करूँगा कि कर्तव्य है। और अगर मैं किसी की सेवा कर रहा हूँ सिर्फ़ कर्तव्य की खातिर तो वो सेवा नहीं है, वो ज़हर है, दंड है।’
भारत ऐसे ही थोड़े ही दुनिया की हार्ट अटैक कैपिटल है! हृदयाघात भारत में जितना होता है उतना कहीं नहीं होता। हम सब दिल के मरीज़ हो गए हैं यही कर्तव्य निभाते-निभाते। आप सोचते नहीं हैं कैसे होता होगा?पर कैपिटा कार्डियक डिसीज़ (प्रति व्यक्ति हृदय रोग) जितनी भारत में है, उतनी विश्व में कहीं नहीं है। आप भारतीय इतना तो खाते-पीते हैं नहीं। अगर ज़्यादा खाने-पीने, कोलेस्ट्रॉल वगैरह से ही होती, तो फिर तो अमेरिका में ज़्यादा होनी चाहिए। भारत में ही इतना दिल का दौरा और दिल की बीमारी क्यों पड़ती है? क्योंकि हमारे पास प्रेम नहीं है; कर्तव्य, ड्यूटीज़ , ज़िम्मेदारियाँ दबाकर हैं। जिसको देखो वो बस जी रहा है तो कर्तव्यों के लिए।
‘देवी जी शिविर में आ जाइए!’
‘मैं नहीं आ सकती।’
‘क्यों?’
‘मैं माँ हूँ।’
ये जवाब क्या है? ये कैसा जवाब है? 'मैं माँ हूँ'; क्यों हो माँ? माँ होने का मतलब है शिविर में नहीं आ सकती तो माँ क्यों हो तुम? नहीं होती माँ। ‘नहीं, वो भी कर्तव्य था, उसमें मुझे कोई सुख नहीं था। वो मुझे बताया गया था कि पतिदेव जो चाहें वो पूरा करना होता है। कर्तव्य है वो आदर्श पत्नी का, तो मैंने पूरा किया। मैं माँ हूँ।'
कृष्ण कह रहे हैं, ‘माँ-वाँ कुछ नहीं हो, चेतना हो तुम। समझो इस बात को सबसे पहले। और तुम्हारे जीवन का उद्देश्य इधर-उधर अपने कर्तव्य निभाना नहीं है, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य मुझ तक आना है। आदमी हो, औरत हो, बच्चा हो, बूढ़ा हो, सबको मुझ तक आना है। तुम इसलिए पैदा हुए हो; नहीं तो ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हो।‘ देखो, मैं सुख के विरुद्ध बोलता हूँ इसलिए नहीं कि तुम दुखी हो जाओ। मैं कह रहा हूँ सुख से बेहतर आनंद है। अब मेरे साथ त्रासदी ये है कि जब मैं कहता हूँ, ‘सुख हटाओ’, तो आनंद तो आता नहीं, दुख आ जाता है। सुख हट जाता है, आ जाता है दुख; मैं तलाश रहा हूँ आनंद। दो-चार चेहरे तो आनंद के दिखाई देते हैं, बाकियों का ऐसा रहता है, काँप रहे हैं, हिल रहे हैं, गिर जाएँगे। ये बढ़िया बात है, इतनी कोई डरने की ज़रूरत नहीं है; गीता है, हॉरर स्टोरी (डरावनी कहानी) थोड़े ही है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा प्रश्न था सांख्ययोग से। सांख्ययोग में हम पढ़ रहे थे कि जो आत्मा है वो अज्ञेय है, प्रकृति से परे है वो। और इन्द्रियों से हम उसे नहीं जान सकते। और उसी सांख्ययोग में फिर कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि, ‘तू प्रकृति से परे चले जा, अपने-आपको आत्मा मान।’ और अब संशय ये है कि मनुष्य जो है, वो प्रकृति में पैदा हुआ है और आत्मा प्रकृति के परे है तो फिर वो अपने-आपको क्यों कहे कि ‘मैं आत्मा हूँ’?
आचार्य: क्योंकि प्रकृति में रहे-रहे दुख मिलता है। पहली बात तो ये कि सांख्ययोग में आत्मा जैसा कोई शब्द है नहीं। हाँ, गीता का जो दूसरा अध्याय है सांख्ययोग, उसमें आगे जाकर के आत्मा की बात है। पर वो सांख्ययोग से वास्तव में नहीं आ रही है। सांख्ययोग प्रकृति और पुरूष की ही बात करता हुआ द्वैतात्मक दर्शन है। पर उसी सांख्ययोग को थोड़ा और आगे बढ़ा दो तो उसमें फिर जो मुक्त पुरुष होता है, उसको आप आत्मा कह सकते हो। तो ये सफ़ाई रखनी ज़रूरी है।
और दूसरी बात कि व्यक्ति प्रकृति से आगे बढ़े ही क्यों? क्योंकि प्रकृति के भीतर परेशान है वो, और कोई बात नहीं है। तुम अगर प्रकृति के भीतर ही आनंदपूर्वक रह रहे हो तो मत निकलो बाहर। पर अर्जुन है न प्रकृति के भीतर, प्रकृति के भीतर क्या है? मोह है न, अर्जुन को खूब सारा मोह है। वो बैठा हुआ है प्रकृति में मोहग्रस्त, हालत खराब है। अर्जुन जैसी हालत रखनी है? अर्जुन की क्या हालत है? अर्जुन की हालत ये है कि शरीर काँप रहा है, हाथ से कुछ उठाया नहीं जा रहा, दिमाग सुन्न पड़ा हुआ है, टाँगे ऐसी हो रही हैं कि खड़ा नहीं रह सकता; ये सब प्रकृति के भीतर रहने के कारण हो रहा है अर्जुन के साथ। आपको भी आना है प्रकृति के भीतर? यही हालत करनी है?
सोचो कि ये हालत होगी कि ये माइक काँप रहा है, गिरा जा रहा है। फिर कहो कि, ‘लेकिन मैं क्यों छोड़ूँ प्रकृति के गुणों को?’ मत छोड़ो! माइक को छोड़ दो, गिरने दो, टूटने दो। देखो ये आदर्शों की बात नहीं है कि ये एक अच्छी चीज़ है इसलिए करनी है। अच्छी चीज़ करने का नाम अध्यात्म नहीं है, उपयोगी चीज़ करने का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म आपको आदर्शवाद नहीं सिखा रहा है, अध्यात्म किसी विचारधारा का नाम नहीं है; अध्यात्म बहुत व्यावहारिक बात है। आप दुखी हो, उस दुख से कैसे आज़ादी मिलेगी ये अध्यात्म बताता है। ये इतनी व्यावहारिक बात है। अब तुम पूछो, ‘फिर मैं अध्यात्म क्यों लूँ?’ तो इसका कोई उत्तर बचा क्या?
तुम चिकित्सक के पास जाओ और कहो, ‘नहीं, बाकी तो सब ठीक है कि आपने मेरे टेस्ट कर लिए, रिपोर्ट्स आ गयीं, उधर डायग्नोसिस हो गया है और उसके बाद आपने ये पर्चा लिखकर के दिया है। लेकिन एक बात बताइए, मैं ये दवाईयाँ क्यों खाऊँ?’ तो चिकित्सक कहेगा, ‘आपको असल में इन दवाइयों की ज़रूरत ही नहीं है; उधर मनोविज्ञान विभाग है, उधर जाइए।’ अरे भाई! तुम रोगी हो इसलिए खाओ और क्यों खाओ।
समस्या ये होती है कि जहाँ शरीर की बीमारी होती है वहाँ पर आप एमआरआई कराओगे, आप एक्सरे कराओगे, आपकी पैथोलॉजी की रिपोर्ट आ जाएगी, वहाँ पर प्रमाण के साथ लिख दिया जाता है। साहब मान लीजिए आपका हीमोग्लोबिन बहुत गिर गया है, सात-आठ के स्तर पर आ गया है, आपको एनीमिया है, प्रमाणित कर दिया गया है। या कि आपके शरीर में फ़लाना पैथोजन (जीवाणु) है, वो डिटेक्ट (पता लगना) हो गया है, वो पॉज़िटिव आ गया है। आपको ये वाला वायरस लगा हुआ है, ये लीजिए हो गया प्रमाणित।
तो वहाँ आप इंकार नहीं कर सकते, वहाँ डॉक्टर के साथ बहसबाजी नहीं कर सकते क्योंकि बात वैज्ञानिक तरीके से, बिलकुल प्रकट तरीके से, इन्द्रियों के तरीके से प्रमाणित होकर सामने आ गई है। और हम इन्द्रियों पर ही चलने वाले लोग हैं। तो जब भौतिक तरीके से, इन्द्रियगत तरीके से कोई चीज़ प्रमाणित हो जाती है और आपके डायग्नोसिस में लिखकर आ जाती है, तो आपको मजबूर होकर के मानना पड़ता है। नहीं तो कौन मानेगा कि उसको कैंसर है? किसी को सुख होता है पढ़ने में कि कैंसर है? पर जब रिपोर्ट में लिखकर आ जाता है कि है कैंसर, तो मजबूर होकर के मानना पड़ता है।
अध्यात्म मन के बारे में है, वहाँ कोई रिपोर्ट आपको नहीं बताएगी कि आपका जो काम क्वोशेंट (गुणक) है न, वो बहुत बढ़ा हुआ है आजकल; आप वासना के मरीज़ हो। उसकी नार्मल रेंज कितनी होनी चाहिए? सिक्स टू ट्वेल्व (छह से बारह तक)। आपकी कितनी है? बहत्तर-सौ। ऐसी कोई रिपोर्ट जनरेट (बनना) हो नहीं सकती। या कि भ्रम में नार्मल रेंज होनी चाहिए फाइव टू ऐट (पाँच से आठ तक), आप बैठे हुए हो आठ-सौ-छियत्तर पर।
ऐसी कोई रिपोर्ट काश आ पाती तो पूरी दुनिया आध्यात्मिक हो जाती, साफ़-साफ़ लिख दिया जाता अगर क्वॉन्टिफाय करके, संख्यागत होकर, कि ये देखो ये हालत है तुम्हारी भीतर से। वैसी कोई रिपोर्ट बनती नहीं तो भीतर से हम कितने बदहाल हैं ये मानना हमारी अपनी आंतरिक ईमानदारी पर निर्भर कर जाता है। आप अगर मानोगे आप बीमार हो तो आप बीमार हो। आप नहीं मानोगे कि आप बीमार हो तो आप बिलकुल दावा कर सकते हो, ‘नहीं, मुझे तो कोई समस्या नहीं है।‘
डॉक्टर के सामने आप ऐसा नहीं कह सकते ‘मुझे कोई समस्या नहीं है।’ वो आपके मुँह पर आपकी रिपोर्ट चिपका देगा और कहेगा, ‘देखो! तुम्हें ये समस्या है कि नहीं है, ये रही *रिपोर्ट*।’ अध्यात्म में वैसी कोई रिपोर्ट नहीं आती न, तो हमारे लिए सुविधा हो जाती है, हम कह देते हैं, ‘मुझे कोई समस्या नहीं, मुझे कोई समस्या नहीं, मैं डरता थोड़े ही हूँ। नहीं, मैं तो नहीं डरता।’
ऐसे मैंने एक के साथ किया था वही पुराने कॉलेजों में, याद आ गया। तो डर पर ही वो पूरा सत्र था। कॉलेज में एक्टिविटी हुई थी, वो फ़ियर पर थी। एक ने बोला, ‘ये सब बेकार की बात है। डर तो कोई चीज़ ही नहीं होती, मुझे ये सब नहीं पता तो भी मैं डरता नहीं हूँ।’ ‘अच्छा! अच्छी बात’, मैंने कहा। और ये सब जब मैं दो घंटे समझा चुका, उसके बाद में वो बोलता है, ‘मुझे तो कुछ नहीं लगता।’ मैंने कहा, ‘फिर तो मैंने जो सब बताया, वो तो बेकार ही गया। ऐसा कर अब तू आकर बता यहाँ स्टेज पर।’ और पीछे बैठा हुआ था, बोला, ‘नहीं-नहीं, कुछ नहीं।’
मैंने कहा, ‘नहीं-नहीं, अब मैं तेरी कुर्सी पर आकर बैठूँगा, तू यहाँ आकर बता दे कि डर का पूरा खेल क्या है।’ अब उसको यहाँ पर खड़ा करा, मैंने कहा, ‘समझा दे कि कैसे डर नहीं लगता।’ यहाँ खड़ा किया तो पसीने-ही-पसीने, काँप रहा है, लगे कि गिर न जाए, एम्बुलेंस न बुलानी पड़े।
पर ऐसा आप हमेशा नहीं कर सकते कि साफ़-साफ़ प्रमाणित कर दो कि तुम झूठ बोल रहे हो कि तुममें डर नहीं है। वैसा प्रमाणित किया जा सकता है, कभी-कभार, किसी मास्टर की उपस्थिति में। उसका काम होता है तुम्हारे झूठ को झूठ साबित कर देना। वो कभी-कभार ही हो पाएगा। नहीं तो आप बेखटके ये दावा पाले रह सकते हो कि मैं तो डरता नहीं हूँ। और बहुत लोग होंगे, कहेंगे, ‘नहीं, मैं तो बेईमान नहीं हूँ। नहीं, मैंने तो नहीं करा। मैं बिलकुल भी बेईमान नहीं हूँ।’ फिर जो गुरु या शिक्षक होता है, उसको उनपर ऊर्जा लगाकर, दो-दो, तीन-तीन घंटे लगाकर सिद्ध करना पड़ता है कि तू बहुत बड़ा बेईमान है। फिर वो बड़ी तकलीफ़ के साथ मानता है, ‘हाँ, तो मैं हूँ बेईमान। माने बेईमानी मेरे भीतर छुपी हुई है।’ हाँ, तू मान नहीं रहा था पर तू बेईमान है। पैथोलॉजी की रिपोर्ट में इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती। वहाँ पर रिपोर्ट अपना लिखकर आ गई, तुम्हें माननी ही पड़ेगी। अध्यात्म में तो बहुत आसान है। ‘नहीं, मुझे तो कोई तकलीफ़ है ही नहीं। नहीं, मैं बेईमान थोड़े ही हूँ।’
आप अगर ईमानदार हों तो आपकी ज़िंदगी का एक-एक काम आपको बताएगा आप क्या हो। आपको कोई काम करना था, वो काम करने की बजाय आप सो गए। अब कोई शक बचा है कि आप कितने गहराई से बेईमानी में धँसे हुए हो? नहीं। लेकिन कोई आकर आपको बोल देगा बेईमान, तो आपको अपमान लग जाएगा। क्योंकि कागज़ पर प्रमाणित नहीं करा जा सकता न।
यही वजह है कि हम शरीर से स्वस्थ और मन से बीमार होते हैं। क्योंकि शरीर की बीमारी कागज़ पर प्रमाणित करी जा सकती है। जब वो प्रमाणित हो जाती है तो आपको फिर उस बीमारी से निजात भी दिलाई जाती है, तो आप शरीर से स्वस्थ हो जाते हैं। ज़्यादातर लोग शरीर से तो स्वस्थ होते ही हैं न? मन से सब बीमार होते हैं, क्योंकि मन की बीमारी का प्रमाण नहीं सिद्ध किया जा सकता।
जो मन से बीमार हैं वो अपने ही अहंकार में चल रहा है। ‘नहीं, भीतर से ठीक हूँ। किसने कह दिया? नहीं, किसने कह दिया कि मुझमें मद बहुत है? किसने कह दिया कि मैं भयानक रूप से भयभीत रहता हूँ या मैं अतिकामुक हूँ? किसने कह दिया? मैं तो नहीं मानता!’ जहाँ आपके मानने पर बात छोड़ दी जाएगी, वहाँ समझ लीजिए कि जो सच होगा वो तो आप कभी मानने से रहे। फिर ऐसे ही प्रश्न उठेंगे, ‘मैं गीता पढ़ूँ ही क्यों?”
प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न पिछले सत्र से है। आपने समझाया था कि प्रकृति में जो कुछ हो रहा है, वह कृष्ण का यज्ञ है। क्या हम इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि प्रकृति स्वयं ही प्रक्रिया है जो निरंतर गतिशील है? क्योंकि सत्य तो अकर्ता होता है, उसे प्रकृति को भी चलाते रहने का क्या प्रयोजन? कार्य चाहे सकाम हो चाहे निष्काम, कर्ता तो अहम् ही है न, तो प्रकृति सत्य का निष्काम कृत्य कैसे हो सकती है?
आचार्य: नहीं, कर्ता कोई तभी कहलाता है जब कर्म सकाम हो, अगर कर्म निष्काम हो तो आप कर्ता नहीं रह जाते। निष्कामकर्म के साथ अकर्ता होते हैं आप। तो सत्य अकर्ता ही है इसीलिए प्रकृति निष्काम चल रही है। प्रकृति के साथ उसकी कोई कामना नहीं जुड़ी हुई है। प्रकृति को चलाने के कारण कृष्ण कर्ता नहीं हो गए, वो तब भी अकर्ता ही हैं। कर्तृत्व कामना के साथ जुड़ा होता है, कर्म के साथ नहीं। समझो!
तुम कर्म कर रहे हो, इससे तुम कर्ता नहीं हो। तुम कामना कर रहे हो, इससे तुम कर्ता होते हो।
प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न पिछले सत्र से है। पिछले सत्र में आपने शब्दब्रह्म और पारब्रह्म के बीच में अंतर बताया था कि शब्दब्रह्म जो है, वो पारब्रह्म का साकार प्रतिनिधि है। और फिर शब्दब्रह्म से फिर पूरी माया उत्पन्न होती है। तो ये पारब्रह्म की तो बात कर नहीं सकते क्योंकि वो तो अकर्ता है, तो जैसे कृष्ण पूरी गीता में शब्दब्रह्म हैं या पारब्रह्म हैं?
आचार्य: शब्दब्रह्म हैं, शब्दब्रह्म।
प्र३: तो क्या शब्दब्रह्म के संकल्प से ही ये पूरी माया उत्पन्न होती है?
आचार्य: ठीक है।
प्र३: तो जैसे प्रश्न उपनिषद् में बताया गया था कि प्रजापति के संकल्प से प्राण और री उत्पन्न होती है तो ये प्रजापति और शब्दब्रह्म और हिरण्यगर्भ ये एक हैं?
आचार्य: बिलकुल एक हैं।
प्र३: तो ये भी हमें पता है कि जैसे हम ये नहीं पूछ सकते कि निराकार से साकार कैसे आ गया क्योंकि निराकार कॉसलिटी के आगे है।
आचार्य: देखो! इतने दिन हो गए हैं न राजदीप! हमेशा क्या पूछना होता है? ‘किसके लिए?’ किसके लिए ऐसा कहा?
प्र३: हाँ, मेरे लिए ऐसा कहा क्योंकि मैं देख रहा हूँ, इसलिए मुझे लग रहा है।
आचार्य: रुक जाओ! तुम अपने-आपको साकार मानते हो इसलिए विश्व तुम्हारे सामने साकार है। अन्यथा किसने कह दिया निराकार साकार बना भी है? तुम्हें कैसे पता निराकार साकार बना? क्या ये अपने-आपमें कोई वस्तुगत तथ्य है कि निराकार साकार बन गया? नहीं। ये बात वस्तुगत नहीं है, ये बात व्यक्तिगत है। तुम्हें लग रहा है कि साकार विश्व है, क्यों? क्योंकि साकार देह पर तुम्हारा बड़ा विश्वास है। नहीं तो किसने कह दिया कि साकार अस्तित्वमान भी है? कहाँ है साकार? बताओ कहाँ है साकार? कुछ नहीं है, कुछ नहीं, कोई नहीं है साकार।
प्र३: अगर ये बात है कि साकार बना ही नहीं है तो फिर...?
आचार्य: किसके लिए? किसके लिए? फ़ॉर हूम? मूल सिद्धांत है न, जितने भी फ़िनोमिना , दृश्य तुमको दिख रहे हैं, उनका अपना कोई स्वतंत्र आस्तित्व नहीं है। बात ये है – वो किसके लिए हैं? किसको वो प्रतीत हो रहे हैं? किसको उनका अनुभव हो रहा है? जगत का अनुभव किसको हो रहा है? तुमको हो रहा है। तो फिर जगत का निर्माता भी कौन है? तुम हो। साकार निराकार नहीं बन गया। तुम बैठे हो न साकार का निर्माण करने के लिए, तुमने करा है।
प्र३: तो अगर मैंने करा है तो मैं न भी करूँ?
आचार्य: बिलकुल। अष्टावक्र गीता सौ बार समझाकर कहती है न कि, 'ज्ञानी के लिए विश्व मिट जाता है।' उसका क्या अर्थ है?
प्र३: वो संकल्प नहीं करता।
आचार्य: वो स्वयं को अब साकार जानने का भ्रम देख लेता है। तो जब अपने साकार होने पर बहुत ज़ोर नहीं रहता तो फिर ये जो सामने साकार जगत है, ये भी फिर बहुत अर्थ नहीं रखता।
प्र३: ये जो पॉइंट आपने चुनाव में बताया कि अगर वो अपने साकार होने पर अपना ज़ोर नहीं रखता, ये कब होगा? मतलब ये तब होगा जब बहुत कष्ट मिलेगा साकार बने रहने से?
आचार्य: निर्भर करता है स्वयं से कितना प्रेम है, और उसकी तुलना में कृष्ण से कितना प्रेम है। मुक्ति से कितना प्रेम है? प्रेम बनाम प्रेम। एक प्रेम है जो तुम्हें अपनी कमज़ोरियों से, दुर्बलताओं से, देहभाव से है। और एक प्रेम होता है जो कृष्ण से होता है। जो प्रेम भारी पड़ता है वो तुम्हारी नियति का निर्धारण कर देता है।