हमन है इश्क मस्ताना || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2018)

Acharya Prashant

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हमन है इश्क मस्ताना || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2018)

(आचार्य जी मस्त झूमकर गाते हैं…)

हमन है इश्क़ मस्ताना

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या? रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते, हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या?

ख़ल्क़ सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है, हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या?

न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से, उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बे-क़रारी क्या?

कबीरा इश्क़ का माता, दुई को दूर कर दिल से, जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या?

~ गुरु कबीर

आचार्य प्रशांत: एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति, एक-एक छंद और इसे आप चूँकि ग़ज़ल भी कह सकते हैं, इसीलिए एक-एक शेर अपनेआप में एक पूर्ण सूत्र है। उसको समझ लें तो प्रेम, सत्य, मन, आत्मा, जीवन सब स्पष्ट हो जाएँगे। गागर में सागर भरते हैं कबीर, चन्द लफ़्ज़ों में वो कह जाते हैं जो कहने के लिए बड़े-बड़े ग्रंथ, बड़े-बड़े शास्त्र पूरे न पड़ें।

कहाँ से शुरू करूँ, कहीं से भी कर सकता हूँ।

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते, हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या?

जीवन आदमी का अगर एक अनवरत भटकाव है तो कबीर ने बड़ी सहजता से बता दिया है कि क्यों भटक रहे हैं। हम भटक इसलिए रहे हैं क्योंकि प्यारे से बिछड़े हुए हैं।

सतही तौर पर कोई भी कारण लग सकता है, सतही तौर पर आप अपनेआप को कोई भी वजह, सांत्वना, दिलासा बता सकते हैं। पर वजह असली एक ही होती है सदा और वो वजह ये होती है कि जिसको पाना ही था, जिसको सदा से पाए‌ हुए ही हैं, जिस एक की चाह है, जिस एक को पाए बिना जी नहीं सकते — क्योंकि वो एक ही जीवन है हमारा, प्राण है हमारा; वो एक ही सत्व है हमारा, सार है हमारा — उससे दूरी है, उससे जुदाई है।

कबीर कहते हैं, ‘हमन को होशियारी क्या?’ हममें होशियारी होती बहुत है। अपनी होशियारी के चलते हम ख़ूब वजहें निकाल लेंगे। अपनेआप को बता देंगे, 'न, मैं तो इसलिए दौड़ में हूँ, मैं तो इसलिए गतिशील हूँ, मैं तो इसलिए भटक रहा हूँ, मैं तो इसलिए चढ़ाई चढ़ रहा हूँ, मैं तो इसलिए मारा-मारा फिर रहा हूँ।’

जैसे कि हम ख़ूब जानते हों कि हमें क्या चाहिए! जैसे कि आज तक हम जानते ही आए हों कि हमें क्या चाहिए। जैसे कि आज तक हमने जो चाहा और जिसका पीछा किया, उसके मिल जाने पर हमें बड़ी शांति मिल गई है। कबीर हमारे झाँसे में नहीं आने वाले। हमारे झूठ कबीर पर नहीं चलेंगे।

कबीर कहते हैं, 'भटक रहे हो क्योंकि प्यारे से बिछड़े हुए हो।' अब ये बात तुमको जँचती हो तो जँचे, न जँचती हो तो न जँचे। मान लो तो ठीक और तुम्हें लगे कि इसमें तुम्हारा अपमान है, तो भी ठीक। बात अपमान की तो लगती ही है।

हम छोटी-मोटी वजहें गिनाना चाहते हैं। हम कहना चाहते हैं, ‘पैसा कम है इसलिए भटक रहे हैं’; हम कहना चाहते हैं, ‘मकान बनवाना है, भविष्य को समृद्ध करना है, इसलिए भटक रहे हैं।’ हम कहना चाहते हैं, ‘स्वास्थ्य ठीक नहीं है, इसलिए भटक रहे हैं।’ हम कहना चाहते हैं, ‘जीवन में लक्ष्य नहीं मिला या पूरा नहीं हुआ, इसलिए भटक रहे हैं।’ हम कहना चाहते हैं, ‘किसी जीव का, मनुष्य का प्रेम नहीं मिला, इसलिए भटक रहे हैं।’

कबीर कह रहे हैं, ‘रहने दो, झूठ मत बोलो। तुम छोटी बीमारियाँ गिना रहे हो। तुम साबित करना चाहते हो कि तुम हल्के मरीज़ हो। तुम्हारी बीमारी बड़ी गहरी है, अटल बीमारी है तुम्हारी। तुम्हारी बीमारी ये है कि तुम स्वयं से ही जुदा हो। तुम्हारी बीमारी ये है कि जो बुनियाद है तुम्हारी, तुम उससे अलहदा हो गए हो। बड़ी भारी बीमारी है।’ और जब बताया जाता है कि इतनी बड़ी बीमारी है हमें, तो कुछ रुचता नहीं है। ज़रा बुरा-सा लगता है! जैसे किसी ने इज़्ज़त उतार लिये हो।

पर कबीर तो उतारेंगे ही, कबीर वो सबकुछ उतारेंगे जो झूठा है, नकली है, जो हमारे भ्रम और कष्ट का कारण है। अब धारणाएँ हमारी और इज़्ज़त हमारी, अगर वही हमारे कष्ट के कारण हों, तो कबीर उसे तुरंत उतार देंगे।

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से, जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या?

दुई का मतलब होता है — दूसरे को साक्षात् जानना, दूसरे में महत्त्व देखना, दूसरे से आकर्षित हो जाना और ये उम्मीद बाँधना कि दूसरा किसी तरीक़े से काम आ जाएगा, पार लगा देगा, तार देगा।

कबीर कह रहे हैं, जिन्हें इश्क़ से ज़रा भी मतलब हो, वो सबसे पहले तो ये उम्मीद छोड़ें कि इश्क़ की पूर्ति दुनिया से हो सकती है। दुनिया माने दुई, दुनिया माने द्वैत। द्वैत माने तुम और संसार, दो; मैं और संसार, दो।

ये बड़ी अजीब बात है। क्योंकि हमें तो जब इश्क़ करना होता है तो हम संसार की ओर ही देखते हैं। हम कहते हैं मिल जाए कोई आशिक़, कोई प्रेमी। और कबीर कह रहे हैं, ‘न, तुम दुई को दूर करो अगर इश्क़ से ज़रा भी मतलब है।’ दुई को दूर करो, संसार को दूर करो। ये अजीब बात है, संसार को दूर करो, तो आशिक़ कहाँ मिलेगा, प्रेमी कहाँ मिलेगा?

जवाब तुरंत ही आ जाता है, “जो चलना राह नाज़ुक है तो सिर पर बोझ भारी क्या?” बहुत नाज़ुक राह है इश्क़ की। तुम्हारा आशिक़ वो नहीं हो सकता जो तुम्हारे ख़यालों में आता हो, जो विचारों में आता हो, जो तुम्हारे सिर पर बोझ की तरह हो। आशिक़ वो है तुम्हारा जो सिर से बोझ हटा दे और ऐसा तुम्हें दुनिया में तो नहीं मिलेगा। दुनिया में तो जो भी मिलेगा वो सिर का बोझ ही बनेगा, पक्का, ये द्वैत का सिद्धांत है।

दुनिया में तुम्हें जो भी मिलेगा वो तुम्हारे सिर का बोझ ही बनेगा। हाँ, उम्मीद तुम्हें पूरी है कि दुनिया में ही कोई मिल जाएगा जो काम आ जाएगा, दुनिया में ही कोई मिल जाएगा जिससे शांति मिल जाएगी, जिससे पूरे हो जाओगे। कबीर कह रहे हैं, ‘नहीं-नहीं।’ जिन्हें आशिक़ी करनी हो वो सोचना, विचारना; होशियारी! सिर की तमाम गतिविधियाँ, मन की तमाम हरकतों, इन सब पर से अपना यक़ीन उठा लें।

जो अकारण है उसकी तरफ़ होता है इश्क़ और अकारण ही होता है इश्क़। मानसिक जोड़-घटाव का, गणित का कोई लेना-देना नहीं। जो इश्क़ तुम्हारे नियंत्रण में हो, तुम्हारी मर्ज़ी से हो, तुम्हारे चाहे अनुसार चलता हो वो जान लेना इश्क़ है नहीं।

इश्क़ तो इश्क़ तब है जब तुम्हें बावला कर दे; जब वो तुम्हारे नियंत्रण में न रहे, तुम उसके नियंत्रण में रहो। आपा खो जाए। अपने ऊपर से अपना क़ाबू गया, अब कोई और है जो तुम्हें चलाता है, संचालित करता है। तुम्हारी बाग-डोर किसी और के हाथ में है।

और किसके हाथ में है? किसी संसारी के हाथ में नहीं। ये नहीं कि उठा करके किसी इंसान को अपनी मालकियत सौंप दी और कहा कि भाई, इश्क़ में ऐसा ही तो होता है, दूसरा मालिक बन जाता है। इश्क़ में दूसरा मालिक नहीं बन जाता; याद रखना, इश्क़ तब है जब दूसरा खो जाए, दुई जब दूर हो जाए।

दूसरे को तुम कितना भी बड़ा बना लो, दूसरे के सामने तुम कितना भी हार जाओ, तुम मिटोगे नहीं, दूसरा-पन कायम रहेगा। इसीलिए जो साधारण इश्क़ होता है — जिसे इश्क़-ए-मिज़ाजी कहते हैं — वो असफल ही जाता है। थोड़े समय के लिए अहसास भले करा देता है कि जैसे जन्नत है, जैसे फूलों की बरसात है, जैसे आसमान में सौ इंद्रधनुष खिल गए हों, लेकिन बस थोड़ा ही समय के लिए। फिर सपना टूटता है, फिर ठेस लगती है। पर हम बड़े ज़िद्दी लोग हैं, हम फिर सो जाते हैं और कोई दूसरा सपना देख लेते हैं।

क्या है प्रेम? उसकी तरफ़ बढ़ना जो तुम्हें मिटा दे, वही है प्रेम। तुम मिटने को बेताब हो, लेकिन दुनिया में तुम्हें कोई ऐसा मिलेगा नहीं जो तुम्हें मिटा दे। पूछो, ‘क्यों?’ क्योंकि द्वैत कहता है कि दुनिया में एक के बने रहने के लिए दूसरे का बना होना ज़रूरी है।

दुनिया में अगर कोई तुम्हें ऐसा मिल गया है जो तुम्हें मिटा सकता हो तो तुम्हें मिटाने के लिए उसे भी मिटना पड़ेगा और ख़ुद मिटने को कौन राज़ी होता है! जब तक तुम हो तब तक संसार है, जब तक तुम हो तब तक दूसरा है, दूसरा क्यों चाहेगा कि तुम मिटो? तुम मिटे तो वो भी मिटा।

बात समझ में आ रही है?

एक बेचैनी हैं हम, एक कोलाहल हैं हम, एक उथल-पुथल हैं हम। एक प्रार्थना, एक पुकार हैं हम — हमें नहीं होना है! हमें जाना है! हम विदा होना चाहते हैं! और विदा होने का कोई मार्ग मिलता नहीं। विदा हो जाने की ये हसरत कहलाती है प्रेम। ‘मुझे जाने दो, मुझे छोड़ दो, मुझे आज़ादी चाहिए’ — ये जो आरज़ू उठती है दिल में, ये कहलाती है प्रेम।

वास्तविक प्रेम में इसीलिए कोई प्रेमी नहीं होता तुम्हारा, बस ये आरज़ू होती है, प्रेम होता है। यही पहचान है असली इश्क़ की, जिसको भक्ति में परम-प्रेम कहा गया है। जिसको सूफ़ी इश्क़-ए-हक़ीक़ी कहते हैं कि उसमें कोई तुम्हारा विशिष्ट प्रेमी नहीं होता। कोई होगा नहीं जिसकी ओर तुम इशारा करके कह सको कि ये प्रेमी है मेरा। प्रेम तो होता है, प्रेमी नहीं होता।

प्रेम तो होता है, प्रेमी नहीं होता। मिटने की ख़्वाहिश होती है, यही प्रेम है। अधिक-से-अधिक ये कह सकते हो कि मिट जाने के बाद जो तुम शून्य हो जाओगे, उससे प्रेम है तुम्हारा, उसी शून्यता को भगवत्ता भी कहते हैं।

समझ रहे हो?

“हमन दुनिया से यारी क्या?” देख रहे हो ये बात बिलकुल वही है, "दुई को दूर कर दिल से।" दुई को दिल से दूर करना और दुनिया से यारी न रखना, एक ही बात है। दुनिया से यारी तुम रखते ही इस चाहत में हो कि दुनिया में कोई आशिक़ मिल जाएगा, दुनिया में कोई प्रेमी मिल जाएगा, दुनिया से संतुष्टि मिल जाएगी।

जिसको इश्क़ हो गया उसको दुनिया से क्या लेना-देना? और ये पक्का जान लो कि तुम्हें अगर अभी दुनिया से बहुत लेना-देना है, बड़े दुनियादार आदमी हो, तो तुमने इश्क़ कभी जाना नहीं और इश्क़ तुम्हारे लिए संभव भी नहीं है। दुनिया में अभी फँसे पड़े हो। दुनियादारों के लिए नहीं होती आशिक़ी।

और बात करते-करते यूँ ही धीरे से सहजता में कबीर ये भी बता देते हैं कि गुरु कौन? जिस मिट जाने की तुम तलाश में हो, उस मिट जाने का मार्ग जो दिखा दे वो गुरु। ज़ाहिर-सी बात है जो स्वयं अभी मिटा नहीं वो तुम्हें मिटने का मार्ग बता सकता भी नहीं।

तो गुरु फिर दोनों हुआ : मार्ग भी और मंज़िल भी। चूँकि वो मिटा हुआ है इसलिए तुम्हें मार्ग बता सकता है और तुम मिटोगे जब तो उसके जैसे ही हो जाओगे तो मंज़िल भी तो वही हुआ। वो तो मिटा हुआ है, और तुम्हें मिटना है, तो तुम्हारी मंज़िल तो वही हुआ।

आ रही है बात समझ में?

न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से, उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बे-क़रारी क्या?

अनन्यता! अनन्यता — अपने ही शुद्धतम रूप को तलाश रहे हो तुम, अपने से अन्य किसी और को नहीं। अपनी ही अशुद्धि से हैरान हो तुम, वही बेकरारी है तुम्हारी, अपने ही दोषों से ऊबे हुए हो। अपनी ही बेचैनी से बेचैन हो और कुछ नहीं हटाना तुम्हें। तुम्हें चाहिए क्या? अपनी ही चाहतों से मुक्ति। बेचैन क्यों हो? क्योंकि बेचैनी बहुत है तुम्हें और बेचैनी पसंद नहीं?

“न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से।” ये जो बिछड़ने का भाव है ये बड़ा सताता है, चोट देता है, काट-काट खाता है। जान रहे हो इश्क़ क्या हुआ? अपने ही परिष्कार की चाह, अपने ही परिमार्जन की चाह। ये जो विकृत, मैली-कुचैली शक्ल बना रखी है, इस शक्ल के पीछे अपनी असली शक्ल का दीदार कर लेने की चाह — ये प्रेम है।

तुम आशिक़ हो अपने ही, और ख़ुद को ही ढूँढ नहीं पाते। तुम बौराए जा रहे हो कि एक बार, बस एक बार अपनी हक़ीक़त जान लूँ — मैं हूँ कैसा? मैं देख लूँ एक बार। तभी तो जिसको तलाश रहे हो उसे आत्मा भी कहते हैं। आत्मा माने 'मैं'। उसी की तो तलाश में हो, 'मैं' की। ‘कैसा लगूँगा मैं अगर मैं वैसा न हूँ जैसा अभी हूँ?’ — ये ख़याल ही पुलकित, रोमांचित कर देता है। जिसके ख़याल भर से पुलक उठते हो, उसके दर्शन हो जाएँ तो क्या होगा!

क्या-क्या तो इकट्ठा करे बैठे हो! कबीर कहते हैं, “सिर पर बोझ भारी”, और तुम हैरान रहते हो ये कल्पना कर-करके कि अगर इतना बोझ न हो तो कैसे रहोगे तुम!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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