हमारी सबसे बड़ी बेईमानी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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हमारी सबसे बड़ी बेईमानी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मैं आपको तकरीबन दो सालों से सुन रहा हूँ। उससे पहले से मैं डिप्रेशन से जूझ रहा था। लेकिन सुनने के बाद काफ़ी स्पष्टता आयी और मैं काफ़ी आगे बढ़ पाया हूँ। जो दवाइयाँ मैं पहले से ले रहा था वो काफ़ी कम हो चुकी हैं। तो अभी मैं उससे बाहर हूँ। जो बातें मुझे पहले प्रभाव डालती थीं वो मुझ पर अभी असर नहीं करती है। लेकिन मुझे लग रहा है कि मेरी जो सोच है वो अभी शार्प नहीं रही है और मैं एनालिसिस (विश्लेषण) नहीं कर पा रहा हूँ चीज़ों को। और जो सवाल आप बोलते हैं कि खुद से प्रश्न करो तो प्रश्न मेरे खुद से हो नहीं पा रहे हैं। तो मैं खुद को जब देखता हूँ तो मुझे लगता है कि कोई प्रश्न देख नहीं पा रहा हूँ, न ही कुछ समझ पा रहा हूँ। बस खुद में खोया रहता हूँ।

जैसे अभी भी सत्र चल रहा है तो कई बार मैं विचारों में कहीं चला जा रहा हूँ, समझ में नहीं आ रही बातें। कल बैठे थे नदी के किनारे तो बोला गया कि पढ़ो और उससे देखो, समझो, रिफ़्लेक्शन (सीख) लिखो तो उसमें बात नहीं आयी। मतलब मैं, मैं समझ नहीं पाया चीज़ों को। मैं अपने थॉट्स में खोया या फिर मैं चीज़ों को स्पष्टता से देख नहीं पा रहा हूँ। मुझे अपनी गलतियाँ भी नहीं समझ में आ रही हैं, मैं बहुत जल्दी भूलने लग गया हूँ। कभी-कभी कोई पाँच मिनट पहले समझी हुई चीज़ समझ में नहीं आती, याद ही नहीं रहती। मेरी जो प्रगति होनी चाहिए वो हो नहीं पा रही है। तो आपका मार्गदर्शन चाहिए कि अभी मैं इस चीज़ से निकलूँ कैसे।

आचार्य प्रशांत: ये जो दवाएँ कम करी हैं डिप्रेशन की, ये डॉक्टर से पूछकर करी हैं या खुद ही कर दीं?

प्र: सर, डॉक्टर को पूछकर कर रहा था वास्तव में। लेकिन फिर वो सर बहुत धीरे हो रही थी तो मैंने फिर किया मतलब थोड़ा सा। लेकिन सर, अभी इतना एकदम से कम नहीं किया।

आचार्य: सेल्फ़ ऑब्ज़र्वेशन (आत्म अवलोकन) में कह रहे हो देखता हूँ तो समझ नहीं पाता हूँ। वहाँ समझदारी नहीं चाहिए, वहाँ ईमानदारी चाहिए। क्योंकि वहाँ समझने के लिए कुछ है ही नहीं। यही तो नुस्खा है न? आप जो कर रहे हो आप भली-भाँति जानते हो कि आप क्यों कर रहे हो। बस आपने उस जानकारी को बेईमानी से ढँक रखा है। तो सोचना नहीं पड़ता देखना पड़ता है। इन दो का अन्तर साफ़ समझो। देखना है सोचने की क्या बात है? बस देख लो कि ये बेईमानी अभी करी मैंने।

तुम जानते नहीं क्या बेमानी करी है? बोलो। तो उसमें सोच क्या रहे हो? सोचकर तो बस इस निर्णय को हम दबाना, छुपाना चाहते हैं कि बेईमानी करी। या सोच-सोचकर के जो कुछ भी कर रहे हैं उसको जायज़ ठहराना चाहते होंगे। ज़्यादा सोचोगे तो हर चीज़ को सत्यापित कर लोगे, जस्टिफ़ाई (सत्य ठहराना) कर लोगे कि ठीक ही है ये तो। एक झटके में ऐसे (चुटकी बजाते हुए) बेमानी हुई, एक झटके में। ठिठक जाया करो बिलकुल। उसी क्षण पकड़ लो। उसी क्षण पकड़ा तो ठीक, नहीं तो बाद में सोचने से कोई फ़ायदा नहीं। भले ही सोच-सोचकर समझ भी जाओगे, ‘हाँ, तब मैंने बेईमानी करी थी।’

जीना तो त्वरित है न तो तुरन्त ही पकड़ लिया करो कि अभी बेईमानी हो गयी। और उसके बाद ये हौसला रखो कि पकड़ा नहीं कि ठीक किया। किधर को चले थे पकड़ लो कि ये कदम गलत दिशा में उठे हैं और फिर रुक भी जाएँ। जिधर को चले थे वहाँ पहुँच गये वहाँ पर सब मटियामेट भी कर आये और फिर शाम को बैठकर सोच रहे हैं, ‘गलत किया क्या?’ तो ये क्या लाभ इससे? ( चुटकी बजाते हुए) तभी, तभी माने तभी। समझ में आ रही है बात?

विचार का अध्यात्म में उपयोग है। लेकिन अध्यात्म आपको विचारक बनाने के लिए नहीं है। मैं बार-बार कहता हूँ विचार करो, खूब करो लेकिन विचारक बन जाना गड़बड़ हो जाएगी। विचार करना है ताकि जल्दी से और ईमानदारी से वहाँ पहुँच जाओ जहाँ सब बात साफ़ है, विचार की कोई ज़रूरत नहीं, दिख गया। दिख गया। अब सोच क्या रहे हो? देख लिया। इसीलिए हमने शुरुआत ही करी थी कि ज़्यादा मिस्टीफ़ाई (रहस्यमय) मत किया करो चीज़ों को। जो चीज़ जैसी है, सीधी है, सामने है, बोलो, ‘हाँ, ये तो है ही है।’ फिर उसमें कहो, ‘ये ऐसी है बट ... इफ़ ...लेकिन...किन्तु...परन्तु...।’ ये सबकुछ नहीं। जो चीज़ जैसी है बोल दिया, ‘ऐसी है।’ साफ़ हो रही है बात? कुछ और कहना चाहते हो? कहो।

प्र: ये जो देखना है उस समय, वो कैसे आपको दिख जाती हैं?

आचार्य: सबको दिख जाती है। एक बार निर्णय लो कि जो दिखेगा उसको अनदेखा नहीं करूँगा। कोई नहीं है जिसे नहीं दिखता। हाँ, हम बहुत कुशल हो गये हैं देखे हुए को भी अनदेखा करने में, सुने हुए को अनसुना करने में। जानते हो यहाँ पर एक बड़ी जादुई चीज़ चल रही है अभी। मैं जो बोल रहा हूँ, वो सब लोग अलग-अलग सुन रहे हैं। कुछ लोग जो सबसे काम की बातें हैं उनके लिए उनको अनसुना कर रहे हैं जान-बूझकर। मैंने इतने लोगों की इतनी बातें लीं, बोलते ही गया बक-बक तीन दिन से। तुम्हें क्या लगता है सबने सबकुछ सुना है? सबको सबकुछ याद है? न। जो कुछ आपके काम का था आपने भुला दिया है। कोई बिरला होगा जो वही याद रखेगा जो उसके लिए सबसे ज़्यादा उपयुक्त है। हम तो ऐसे हैं कि जो चुभता है उससे तत्काल दूर हो जाते हैं। दूर न हो पाये तो क्रोधित हो जाते हैं। क्रोधित होने की अनुमति न हो तो उपेक्षा कर देते हैं।

सब लोग सब बातें नहीं सुन रहे। और देखिएगा गौर से कि जो बात आप नहीं सुनना चाहते वो आपके ज़्यादा काम की होती है अक्सर। क्योंकि हम अज्ञान की हठ में होते हैं अक्सर। सदा नहीं कह रहा हूँ। ज्ञानी आदमी अगर किसी बात की उपेक्षा करे तो वो उसकी उपेक्षा इसलिए करेगा क्योंकि वो बात व्यर्थ है। पर अहंकारी आमतौर पर उसी बात की उपेक्षा करता है जो बात उसके लिए फ़ायदेमन्द है। फ़ायदेमन्द माने असली फ़ायदा रखने वाली। तो ये मत कहो कि आप कैसे कर लेते हैं, मैं क्यों नहीं कर पाता।

अभी मेरी बात अभी सुन रहे हो या नहीं? या बाद में सुनोगे? अभी सुन लोगे फिर बाद में विचार करोगे तब सुनाई पड़ेगी? अभी सुन लोगे न? अभी। बस ऐसे ही जैसे अभी सुन लिया वैसे ही तत्काल देख लिया करो। देख लिया, जिस सीमा तक हो। देखो, बहुत बार होता है कि देखा हुआ तत्काल नहीं समझ में आता तो विचार करना पड़ता है, मनन करना। होता है वो। मेरा ज़ोर इस बात पर है कि जो चीज़ स्पष्ट ही है उसको क्यों अनदेखा करते हो? तात्कालिकता पर मेरा ज़ोर कम है, ईमानदारी पर ज़्यादा है। ईमानदार रहो। फिर अगर तत्काल नहीं समझ में आ रहा तो विचार कर लो या किसी की सलाह ले लो। ठीक है? कि सुनी बात नहीं समझ में आयी तो बाद में सोचते रहे फिर भी समझ में नहीं आयी तो गये किसी और से पूछा। वो ठीक है।

तो तात्कालिकता महत्वपूर्ण है पर मैं असली महत्व ईमानदारी, सत्यनिष्ठा को दे रहा हूँ कि दिख गया है, जानते हो क्या है फिर भी छुपाये जा रहे हो, मान ही नहीं रहे। सबको ऐसे लोग थोड़े नापसन्द होते हैं न जो अपनी गलती नहीं मानते। होते हैं न? लोग आते हैं, कहते हैं, ‘वो बन्दा मुझे पसन्द नहीं है।’ क्यों? गलती नहीं मानता कभी अपनी। तो आप अपनेआप को कैसे पसन्द कर लेते हैं? यही तो कह रहा था, निर्मम रह स्वयं के विरुद्ध। जब जानते हो कि अपनी गलती है तो तत्क्षण मान क्यों नहीं लेते? ठीक क्यों नहीं कर लेते? ये बहसबाज़ी क्या है? खुद के साथ धोखा क्यों? ये कह रहा हूँ और ये भी जानता हूँ कि हमेशा तत्क्षण सच्चाई पता नहीं चलती है। कई बार समय लग जाता है।

जब समय लगना आवश्यक हो तब समय लगा लो। लेकिन जहाँ समय लगाने की ज़रूरत नहीं वहाँ क्यों डेलम पेल कर रहे हो? ये बहाना, वो नखरा। ऐसे होता है, ‘देखिए बात तो ठीक थी। पर इस मुद्दे के कई पहलू हैं। हम एक कमेटी बैठाते हैं उसके बाद फिर इस पर विचार करेंगे।’ ये जो मुद्दे के कई पहलू हैं न इनसे ज़रा बचकर रहा करो। कि जैसे हाथी सामने से चला आ रहा है। ये हाथी वाले उदाहरण का एक तरह से प्रयोग होता है। मैं बिलकुल उसके विपरीत तरीके से करता हूँ। हाथी सामने से चला रहा है। हाथी को देखा, तुम्हें समझ में आ गया कि क्या है? क्या है? हाथी है तो हाथी है। अब तुम कह रहे, ‘नहीं, देखिए साहब आपने देखी है सिर्फ़ सूँड़। मुद्दे के कई पहलू हैं। ये देखिए, ये क्या है? ये टाँगें हैं। आपने तो सूँड़ देखकर निर्णय ले लिया न। ये टाँगें भी तो हैं। और भी पहलू हैं । इतना बड़ा पेट और ये पूँछ। पूँछ देखिए, पूँछ।’ ये क्या हो रहा है? ये मुद्दे को उलझाने की कोशिश की जा रही है ताकि तत्काल निर्णय लेना न पड़े।

और ऐसे बहुत लोग होते हैं, कहते हैं, ‘जल्दबाज़ी में नहीं। देखो, सोचो, समझो, विचारो।’ मैं भी कहता हूँ, सोचो, समझो, विचारो। पर मैं कहता हूँ, तब सोचो, समझो, विचारो जब समझ में न आया हो। समझी हुई बात पर भी अभी और विचार करना है तो नीयत बेईमानी की है। हमारी समस्या ये नहीं है कि हमें बहुत सारी बातें समझ में नहीं आती। वो बहुत छोटी समस्या है। हमारी बड़ी समस्या ये है कि हमें जो बातें समझ में आ चुकी हैं हमने उनको भी गर्क कर रखा है, बेईमानी तले छुपा रखा है। तो ये मत कहिएगा कि आपकी समस्या अज्ञान है।

जो बातें आपको नहीं पता, उनके न पता होने से आपको बहुत नुकसान नहीं हो रहा है। छोटा-मोटा हो रहा होगा। आपको जो प्राणघातक नुकसान हुआ है जीवन में वहाँ पर हुआ है जहाँ आप जानते हैं कि सच्चाई क्या है लेकिन फिर भी उसको ढँके जा रहे हैं, ढँके जा रहे हैं, ढँके जा रहे हैं। खुद से ही छल किये जा रहे हैं। खुद को ही जानने नहीं देते कि बात तो असली ये है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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