विचारों की बेचैनी से मुक्ति कैसे पाएँ

Acharya Prashant

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विचारों की बेचैनी से मुक्ति कैसे पाएँ

प्रश्नकर्ता: सर, मन शान्त नहीं है। सवाल तो है नितनेम से पर उन सवालों के जवाब ले पाऊँ, ऐसी मैं नहीं हूँ। सवाल लिखूँगी तो बेईमानी हो जाएगी। माफ़ करिएगा।

आचार्य प्रशांत: आदमी का कर्ता भाव बड़ा सघन होता है। ‘मैं’ सवाल लिख रही हूँ। ‘मैं’ जवाब सुनूँगी। ‘मैं’ जवाब नहीं सुनूँगी। ‘मुझे’ पता है मेरा मन कैसा है और कुछ समय बाद भी कैसा होगा। ‘मुझे’ ये भी पता है कि उत्तर कहाँ तक जा सकता है और मन के साथ क्या कर सकता है। ‘मैं’ बड़ी जानकार, बड़ी होशियार हूँ।

अगर तुम्हारे मन को वैसा ही रहना है जैसा वो अभी है, अगर मन की दशा, जो सवाल पूछते वक्त है, वही उत्तर, समाधान सुनते वक्त है तो वो वचन दो कौड़ी के होंगे जो तुम सुन रही हो। जिस हालत में पूछा, वही हालत रह गयी अगर सुनने के बाद भी, तो जो सुना वो यूँही था, बस प्रलाप, बकवास। फिर सुना क्या? फिर बोलने वाले ने बोला क्या? कुछ ऐसी बात कही है तुमने कि किसी डॉक्टर से कहो, ‘अभी तबियत बहुत खराब है, आपकी दवाई न ले पाऊँगी। देखिए जब तबियत ठीक हो जाएगी तब दवाई खाऊँगी।’ कितनी होशियार हो तुम!

वो दवाई दो कौड़ी की होगी जो इस बात पर निर्भर करती है कि तुम पहले ही स्वस्थ हो। पर नहीं, हमने तो तय ही कर रखा है कि हमें वैसा ही रहना है अन्त में भी, जैसे हम आते हैं शुरू में। तुम्हारे शब्द तुम्हारे मन के संकल्प को उद्घाटित कर रहे हैं। तुम ये सोचकर ही आती हो कि कुछ हो जाए, मुझपर अन्तर नहीं पड़ना है। साफ़ मन के साथ आऊँगी, अन्तर नहीं पड़ने दूँगी, साफ़ ही मन के साथ जाऊँगी। और आज खट्टे मन के साथ आयी हूँ तो अन्तर नहीं पड़ने दूँगी। मन की खटास कहीं घुल न जाए। खट्टे मन के साथ आयी हूँ, खट्टे ही मन के साथ लौटूँगी।

तुम्हारे शब्दों से तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे बड़े विनम्रता से कह रही हो कि अगर मैंने सवाल लिखा तो बेईमानी हो जाएगी। 'क्षमा कीजिएगा, आज कुछ न पूछ पाऊँगी।' विनम्रता है नहीं कहीं इसमें। शब्दों पर आवरण है विनम्रता का, भीतर घना अहंकार है। तुम कह रही हो, 'सर, आपकी सामर्थ्य ही नहीं। मेरा मन खट्टा है, खट्टा ही रहेगा।' और भूलना नहीं कि बात मेरी नहीं है। तुमने ऊँचे-से-ऊँचे वचनों को छूकर के कह दिया कि तुम अक्षम हो। तुमने कह दिया, नितनेम पढ़ी तो है, पर उसका कुछ लिखूँगी नहीं, उससे कुछ होगा नहीं। तुमने ऊँचे-से-ऊँचे सन्तों को भी दुर्बल, बिलकुल दुर्बल करार दिया; 'कोई ताकत नहीं उनमें। नितनेम भी मेरे मन के आगे हारी हुई है।'

बात सिर्फ़ प्रश्नकर्ता की नहीं है, हम सारे ही ऐसे हैं। हम कहते हैं, 'जब स्थितियाँ अनुकूल होंगी तब पाठन करेंगे। जब स्थितियाँ अनुकूल होंगी तब भजन करेंगे। जब मन स्थिर होगा तब सत्संग करेंगे।' जब स्थितियाँ अनुकूल हैं तो पठन-पाठन से क्या मिलना? जब मन पहले ही स्थिर है तो काहे को सत्संग कर रहे हो? पर होशियारी, और उस होशियारी के पीछे चतुराई कि मन की स्थिति कहीं बदल न जाए। साफ़ है, हमने साफ़ करी है तो साफ़ रहनी चाहिए। और खराब है तो खराब रहनी चाहिए। अब तुम पूछो अपनेआप से कि तुम्हारा क्या स्वार्थ है खट्टे मन को खट्टा रखने में, असली प्रश्न ये है। जो कहे कि मन खट्टा है और मन की खटास झेली नहीं जाती।

ये कोई दशा अच्छी है ही नहीं कि मन खट्टा है। जो ये कहेगा, वो कहेगा, 'सर, मन खट्टा है, आज तो विशेषतया बात करूँगी आपसे। आज तो एक नहीं, पाँच पंक्तियों पर बोलिए। आज तो दिल खुला हुआ है।’ पीड़ा मन को खोल देती है, अगर श्रद्धा हो। अन्यथा वही पीड़ा मन को बन्द भी कर सकती है। दोनों ही काम होते हैं। विरह दो काम करती है। सन्त का मन है तो विरह उसे खींचेगी केन्द्र की ओर। पीड़ा विरह ही तो है। सन्त का मन है तो विरह उसके लिए बड़ी शुभ सिद्ध होगी। वो योग के गीत गाएगा। और अपनेआप को और निकट पाएगा। पर अगर अहंकार ग्रस्त मन है तो विरह में कहेगा कि अब तो दूर हूँ, किसके गीत गाऊँ? वो है ही नहीं पास तो उसके गीत क्या गाने?

अन्तर समझना। एक मन कहता है कि आज वो पास नहीं है तो और गाऊँगा उसको। दूसरा मन कहता है, ‘जब वो पास ही नहीं है तो गाने से क्या लाभ?’ तुम्हारा सवाल दूसरे मन का सवाल है कि सर, आज मन खट्टा है तो आज आपसे कोई चर्चा न करूँगी।

जब फरीद कहते हैं कि “जिस तन विरह ना उठे, सो तन जान मसान” तो आधी ही बात कहते हैं क्योंकि विरह तो हर तन में उठती है। हर मन विरह का ही तो मारा हुआ है। हर दर्द, हर पीड़ा, हर क्लेश कहाँ से आता है? दूरी से आता है। लेकिन तुम केन्द्र से दूर खड़े हो। किधर को मुँह करके? केन्द्र को मुँह करके या विपरित दिशा? दूरी तो है, ठीक? होगी कोई परिस्थितियों की बात कि दूरी कायम हो गयी। परिस्थितियों पर किसी का वश नहीं चलता। दूर तो खड़े हो पर मुँह किधर को है? दूर हो बहुत चाँद से, पर अगर चाँद की ओर देख रहे हो तो समझ लो पहुँच ही गये चाँद पर। एक टक देख रहे हो चाँद को तो चाँद पर ही हो। और दूर हो चाँद से लेकिन अन्धेरों की ओर देख रहे हो तो जीवन में सिर्फ़ अन्धेरा ही रहेगा।

तुम्हारे नज़रिये, तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर करता है सबकुछ। ये सान्त्वना अपनेआप को कभी भी मत दीजिएगा, मात्र बहाना है कि जब थोड़ा फ़ुर्सत होंगे तब पढ़ लेंगे, जब थोड़ा शान्त होंगे तब सत्संग कर लेंगे। क्या मूर्खता है ये? 'सर, आज का दिन पूछिए मत कैसा बीता। सुबह से लेकर शाम तक घुड़दौड़ लगी रही। तो इस कारण दिन ढलते अवलोकन नहीं लिख पाये।' क्या बात कर रहे हो! जो दिन ऐसा बिते जिसमें संसार मन पर खूब हावी रहा हो, उस दिन तो खासतौर पर लिखनी है। वही तो दिन है, वही तो परीक्षा है, वही घड़ी है। पर तुम्हारा तर्क बड़ा उल्टा चलता है। तुम कहते हो, ‘व्यस्तता इतनी थी, मन पर बोझ इतने थे, इतनी दिशाओं से खींचा जा रहा था कि आज लिखा ही नहीं।’ शाबाश! लगता है तुम बड़े होशियार हो।

तुम सन्तों के वचन की ताकत जानती हो? तुमने पहले ही तय कर लिया कि तुम जो सुनोगी उसका क्या, कैसा और कितना प्रभाव पड़ेगा तुमपर। तुमने सब नापतौल लिया। बड़ी व्यापारी हो, तराजू लेकर के चलती हो। तुम्हें पहले ही पता है कि तुम जो वचन लिखोगी, उस पर मैं तुमसे जो बात कहूँगा उसका तुम्हारे मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? तुमने पहले ही निर्धारित कर लिया? तुम पहुँच गयी निर्णय पर कि आज तो ये जो भी बोलेंगे वो बेकार ही जाना है तो भला है कि बोलें ही न। तुमने तो नाप लिया मुझे, अच्छे से नाप लिया। और अहंकार ठीक यही तो करता है। वो सबको नापे रहता है। वो नापने का धागा ही लेकर फिर रहा होता है और सबको नापता रहता है। उसके लिए कुछ भी बियोंड मेजरमेंट (माप से परे) नहीं है।

दर्जी देखे हैं? पहले हुआ करते थे। उनकी जेब में हमेशा एक इंची टेप होता था। जो ही मिलता, उसी को नाप लेते थे। उनके लिए कोई और कुछ था ही नहीं, कुछ इंचों के अलावा। ‘तेईस इंच, साढ़े-तेईस इंच, नाप लिया। यही इस व्यक्ति का सच है, मैंने नाप लिया।’ ऐसा तो मन है। थोड़ा तो श्रद्धा रखो उसमें, जो अचिन्त्य है, जो अननुमेय है। अननुमेय समझती हो? अननुमेय वो जिसके बारे मे तुम कोई गेस वर्क (अंदाज़ा) नहीं कर सकती, कोई अनुमान नहीं लगा सकती। तुमने इस सम्भावना को बिलकुल ही खारिज कर दिया कि इस कमरे में ऐसा भी कुछ हो सकता है जो तुम्हारे अनुमान के आगे हो। तुम पहले ही अनुमान लगाकर आ गयी! पर वही, हम इतने होशियार हैं कि हम सब तय कर डालते हैं। हम ज्ञानी ही भर नहीं हैं, हम भविष्य द्रष्टा हैं, त्रिकालदर्शी हैं। क्या होगा सब जानते हैं।

बच्चे की तरह अपनेआप को अस्तित्व के हाथों में सौपना सीखो कि मैंने तो सौंप दिया अब जो होगा, भला ही होगा। वो जैसे छोटा बच्चा चुपचाप आ जाता है माँ के पास। उसको नहीं गणित बैठाना है कि अब आगे जो होगा वो मेरे लिए ठीक है कि नहीं है। जो भी होगा ठीक ही होगा। छोटे से दिमाग को अपने इतना कष्ट मत दिया करो। नापतौल, हिसाब-किताब। वो खरगोश देखे थे जो गोद में आकर चुपचाप सो जाते थे? दो मिनट नहीं लगता था। तुम उन्हें लिटाते थे, थोड़ा सा हिलाते थे और वो सो ही जाते थे। तुम्हें हज़ार शक हो सकते हैं कि वो तो सो गया और किसी के हाथ में चाकू हो तो? होगा चाकू। वो चैन से सो रहा है, चैन से मर भी लेगा। उसने छोड़ दिया अपनेआप को। जब सन्तों के साथ रहो तो अपनेआप को उनकी गोद में छोड़ दिया करो। तुम्हारे विचार की वहाँ कीमत नहीं है। तुम्हारे समर्पण की कीमत है। तुम मालिक नहीं हो कि तुम फैसला करो कि कब जपुजी को उठाना है, कब नितनेम को उठाना है। तुम नहीं मालिक हो, वो मालिक हैं। तुम जाओ उनके पास और बैठ जाओ, आगे क्या होगा वो जानें।

ये मनोरंजक किताबें नहीं हैं जो तुम्हें पढ़ने को दी हैं। ये तुम्हारे मन को घर दिया है, आश्रय दिया है। चुपचाप इनके पास चले जाया करो और छोड़ दिया करो अपनेआप को। हर समय सही समय है। हर स्थिति सही स्थिति है। सत्य में होने का कोई उचित समय होता है? बोध के लिए कोई मुहूर्त निकलोगे? प्रेम के लिए मनोदशा पर निर्भर रहोगे? तो फिर तो ज़िन्दगी बड़ी खाली बीतेगी। क्योंकि मन से पूछ-पूछकर करोगे तो वो क्षण कभी आएगा ही नहीं जब मन कहे कि अब ठीक है, अब हम तैयार हैं समर्पित होने को। अहंकार कभी न मानेगा। मन को समझाना दूसरी बात है पर मन से ही अनुमोदन लेना बिलकुल अलग बात है। वो गुलामी है। कि जब तू कहेगा, तब पढ़ूँगी। और जब तू नहीं कहेगा, तब नहीं पढ़ूँगी। वो कभी नहीं कहेगा, पक्का मानो।

एक बात कह रहा हूँ, पता नहीं अनुभव कर पाओगे या नहीं। अभी तो उस पर यकीन ही कर लो। जो जितना ज़्यादा भागे, उसे उतनी ज़्यादा ज़रूरत है। अगर मुझे ये देखना होता है कि कौन छिटका हुआ है, किसको कितनी ज़्यादा ज़रूरत है यहाँ बैठने की, तो मैं सिर्फ़ इतना देख लेता हूँ कि कौन भाग रहा है। जो जितना भाग रहा है, उसे उतनी ज़रूरत है। और एक बात और देखी है, वो वैसे भी पता है और अनुभव से भी उसकी पुष्टि होती है। जिन दिनों तुम्हारा मन फिसला हुआ होता है, उन दिनों तुम्हारा पढ़ने की ओर मन जाएगा ही नहीं। और ठीक उन्हीं दिनों तुम्हें पढ़ने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। पर उन्हीं दिनों तुम कहोगे, ‘मुझे पढ़ना नहीं है।’ तुम कोई बहाना खोज लोगे।

किसकी ज़िन्दगी में गड़बड़ चल रही है, ये देखने के लिए मुझे बस तुम्हारी अटेंडेंस (उपस्थिति) देखनी होती है। जिसकी अटेंडेंस (उपस्थिति) गिर रही होती है, मैं समझ जाता हूँ कि इसकी ज़िन्दगी में इस वक्त खूब ज़ोर चल रहा है इधर-उधर के प्रभावों का, इच्छाओं का, वासनाओं का। और कोई कारण है ही नहीं कि तुम यहाँ न आओ। तुम्हें किन्हीं वासनाओं ने खींच रखा है। तुम फिसले हुए हो।

बिलकुल पुष्टि हो गयी है इसके अनुभव से। कोई अगर देखूँ कि पिछले पन्द्रह दिन से आने से बच रहा है, तो समझ जाता हूँ कि अब जल्दी ही कुछ खबर आने वाली है। और खबर आ जाती है। बीसवें-पच्चीसवें दिन वही व्यक्ति आ जाता है और बता देता है, ‘ये हो गया है। बड़ी गड़बड़ हो गयी, फ़िसल गया, पता नहीं कैसे।’ पता नहीं कैसे नहीं। वृत्तियों ने पूरी साज़िश रची थी। और उस साज़िश का एक महत्पूर्ण हिस्सा ये था कि ज़रा सेशन (सत्र) में जाना बन्द करो। क्योंकि अगर सेशन में जाते रहे तो वो साज़िश सफल न हो पाएगी। तो पहला काम तुम्हारे साथ ये किया जाएगा कि तुम्हारा मन किसी-न-किसी तरीके से तुम्हारा यहाँ आना बन्द कराएगा।

वो अच्छा कारण दे देगा तुमको। तुमको लगेगा कि कुछ उचित सा ही कारण है। उस कारण के पीछे तर्क होगा। समय मिलना कम हो गया है, ये हो गया है, वो हो गया है। पर मैं तुमसे कह रहा हूँ, कैसा भी तर्क हो, जब भी मन तुम्हें ये सुझाव दे कि जाना बन्द करो, शामिल होना बन्द करो, तो समझ लेना कि वृत्तियाँ कोई षड्यन्त्र रच रही हैं। ऐसा षड्यन्त्र जो तुम्हें भी नहीं पता। पर रचा जा रहा है। तुम्हें पता भले ही न हो पर भुगतोगे तुम ही।

मैं फिर आगाह कर रहा हूँ। जब भी तुम्हारे खिलाफ़ कोई साज़िश रची जा रही होगी, उसमें पहला काम ये किया जाएगा कि तुम्हें यहाँ से दूर किया जाएगा। क्योंकि जबतक तुम यहाँ हो, तुम्हारे खिलाफ़ कोई साज़िश सफल होगी नहीं। ये जगह, ये सत्र तुम्हारा कवच है। जबतक ये तुम्हारे साथ है, तुम्हारे विरुद्ध कोई चाल चली नहीं जा सकती। इसीलिए जिसे भी तुम्हें फँसाना है, वो पहला काम यही करेगा कि तुम्हें यहाँ से दूर करेगा। जिसे भी तुम्हें फँसाना है, वो पहला काम ये करेगा कि किसी-न-किसी तरीके से तुम पढ़ना बन्द करो। क्योंकि जबतक तुम पढ़ रहे हो, तुम संसार के चक्कर में फँस नहीं सकते।

मैं तुम्हें जितने मौके देता हूँ निकटता के, उनके विरुद्ध तुम्हारे मन में जो भी तर्क उठते हों, हर तर्क, तुम्हारे संस्कारों की, तुम्हारे बन्धनों की साज़िश है। भूलना नहीं इस बात को। मैं तुमसे कहता हूँ, लर्निंग कैम्प में (शिक्षण शिविर) चलो। तुम्हारे पास तर्क होता है न चलने का। कोई बैठा है। मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हारे लिए ट्रैकर बनाये हैं, सम्मिलित हो जाओ उसमें और ये सब करो। तुम होते नहीं और होते भी हो तो करते नहीं।

चल रहा है खुफ़िया खेल। वृत्तियाँ हैं गहरी बैठी हुई, दबी हुई। उन्हें पसन्द ही नहीं आ रहा कि उनकी सफ़ाई होने को है। उन्हीं की तो सफ़ाई करनी है, उन्हें कैसे पसन्द आएगा? मैं तुमसे कहता हूँ कि लिखो कि कहाँ पहुँचे हो, अपने रिफ्लेक्शन (आत्म-अवलोकन), रोज़ लिखो। तुम्हारी वृत्तियाँ तुम्हें रोकती हैं, वो कहती हैं हम इक्स्पोज़ हो जाएँगे। हमारा खुलासा हो जाएगा, राज़फ़ाश हो जाएगा। वही तो होना चाहिए। पर तुम सबसे ज़्यादा इसी से डरते हो, ‘मेरे भेद खुल जाएँगे।’ उन्हीं को तो खुलना है। रखा क्या है तुम्हारे भेदों में, उन्हीं को तो जाने देना है।

मैं कहता हूँ, 'किताबें उठाओ, बुक रिव्यू (समीक्षा) लिखो।' तुम बचते हो, आनाकानी करते हो, छुपते हो। तुम इसलिए नहीं छुपते कि तुम्हें वो किताब पढ़ना पसन्द नहीं, तुम इसलिए छुपते हो क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई है जो अच्छे से जानता है कि अगर किताबें पढ़ी गयीं तो मैं बचूँगा नहीं। वो अच्छे से जानता है कि अष्टावक्र की संगति में मैं बचूँगा नहीं, ठीक वैसे जैसे सूरज की संगति में अन्धेरा नहीं बचता। तो इसलिए मेरे लाख कहने पर भी तुम अष्टावक्र के पास जाओगे नहीं, तुम नानक के पास जाओगे नहीं, तुम जपुजी को हाथ लगाओगे नहीं। तुम्हारे भीतर का अन्धेरा छटपटाने लगता है कि जपुजी को छुआ तो मेरी मौत हो जाएगी। तुम क्यों अपने अन्धेरे को बचाने पर तुले हो?

देखो, पैदा होने का मतलब ही होता है एक प्रकार की सज़ा, ठीक है? पैदा होने का मतलब ही होता है, जैसा सन्तों ने कहा है, भवसागर में गोते खाना, डूबना उतरना और अन्ततः खत्म हो जाना। तो वो तो तुम्हारे साथ हो ही रहा है। एक महीन सी डोर आयी है कहीं से, जो शायद ज़िन्दगी बचा दे। तुम्हें उसे पकड़ना है तो पकड़े रहो नहीं तो नियति क्या है, वो अच्छे से जानते हो। जो पूरी दुनिया की नियति है, वही तुम्हारी नियति है। सड़े-सड़े जीना और सड़े-सड़े मर जाना।

सतर्क रहो। भवसागर है। हज़ार हाथ हैं जो तुम्हें डुबोने के लिए ही तत्पर हैं। और वो सब ताकतवर हाथ हैं। और तुम्हें बचाने वाली डोर बड़ी महीन हैं। बड़ी महीन हैं। तुमने तय ही कर रखा हो डूबने का तो बहुत आसान है। जिस हाथ से बोलोगे, वही तुम्हें खींच लेगा और डुबो देगा। हर एक हाथ के पास एक तर्क है, उम्दा तर्क। जिस भी तर्क की बात सुनोगी, वही तुम्हें डुबो देगा।

बोलो, कैसे मरना है? चुनो, मरने के हज़ार तरीके दे रहा है संसार। बच्चे से आसक्त होकर मर लो, पैसे की कमी से मर लो, मन की खटास से मर लो, पति के मोह से मर लो, पत्नी के तानों से मर लो; कैरियर बना लो, ऐसे मर लो; माँ-बाप के आँसुओं से गल जाओ, ऐसे मर लो। हज़ार हाथ हैं, और वो हज़ार तरीकों से तुम्हें खींच रहे हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/8dwdAA_uw3c?si=I3sPUCVgCCEaAImI

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