आचार्य प्रशांत: देवी उपनिषद् के द्वितीय अध्याय में जो युद्ध है, वह लंबा चला, लगभग सौ वर्षों तक चला। उसमें देवताओं का नेतृत्व इंद्र के पास था और दानवों की ओर से महिषासुर था। सभी देवता हार गए और महिषासुर ही इंद्र बन बैठा। इंद्र, अर्थात् राजा, जो जगत में अधिकार रखेगा और उसकी व्यवस्था चलाएगा, महिषासुर ही बन बैठा। और बाकी सभी देवताओं के भी अधिकार महिषासुर ने छीन लिए। चंद्र, वरुण, अग्नि, मारुत – इनके सभी अधिकार महिषासुर ने ले लिए, और वही सम्राट हो गया।
तो कथा कहती है कि हारे हुए देवताओं ने ब्रह्मा जी को अपने आगे किया और फिर जाकर विष्णु और शिव के पास पहुँचे तथा अपनी विनती, याचिका की। उनकी विनती और सारा वृतांत सुनकर, विष्णु और शिव ने बड़ा क्रोध किया। विष्णु के क्रोध से उत्पन्न हुआ एक तेज़, जिसने एक नारी रूप ले लिया।
उसके बाद, सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियाँ उस रूप को प्रदान करीं। उस नारी के शरीर के अलग-अलग अंग भी सभी देवताओं द्वारा आए और तत्पश्चात उन्हें सभी देवताओं से शस्त्र, अलंकार और आभूषण आदि भी प्राप्त हुए। इस प्रकार, एक तेजोमय स्वरूप वाली महानारी, अर्थात महादेवी, इस तरीके से निर्मित या प्रकट हुईं। और देवी, जो प्रकट हुईं, अपने प्राकट्य के क्षण से ही कुपित हैं। प्रकट होते ही उन्होंने एक भयानक अट्टहास किया, जिससे आकाश काँप उठा, समुद्रों में हलचल मच गई और पृथ्वी डोल पड़ी, ऐसा वर्णन है।
अब यहाँ दो बातें सामने आती हैं: पहला कि देवी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ, और दूसरी कि जिस पर हमें चर्चा करनी चाहिए, वह है क्रोध। क्रोध से ही देवी का निर्माण हुआ है और देवी प्रारम्भ से ही कुपित हैं।
तो जितने भी देवता हैं, वे वास्तव में आपकी आंतरिक शक्तियों के प्रतिनिधि हैं। स्थूल जगत में कोई देवता नहीं होते; देवता तो सभी आपके भीतर ही हैं। वे धरालोक में नहीं हैं, देवलोक में भी नहीं हैं, और यदि आप देवलोक कहें तो इसे मानसलोक कह सकते हैं—आपके भीतर ही देवलोक है। देवलोक ही नहीं, दैत्यलोक भी, पाताललोक भी—जितने भी लोक हो सकते हैं, वे सब आपके अपने हैं।
तो ये आपकी ही शक्तियाँ हैं, पर ये शक्तियाँ तब हार जाती हैं जब वे बिखरी हुई रहती हैं। वे बिखरी हुई क्यों रहती हैं? क्योंकि वे सभी अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहती हैं। इसी को अहंकार कहते हैं, इसी को अस्मिता कहते हैं। और फिर, क्योंकि वे अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहती हैं, इसीलिए वे हार जाती हैं।
दैवीय हैं शक्तियाँ, अच्छाई की ताकतें हैं, लेकिन उनमें अभिमान है कि हमें तो अपना एक पृथक अस्तित्व बचाकर रखना है, तो फिर हार होती है।
लेकिन जब सामने फिर कोई भीषण आपदा आ ही जाती है तो उस आपदा के घात तले अभिमान को टूटना पड़ता है, अहंकार को झुकना पड़ता है। और फिर वो शक्तियाँ अपना पृथक अस्तित्व, अपनी अस्मिता छोड़ करके एक हो जाती हैं। जब एक हो जाती हैं तो उससे फिर देवी उत्पन्न होती हैं।
ये पार्थक्य की माँग क्या है? वो माँग ऐसी है, जैसे समझ लो कि सत्य सेनापति हो। एक सेना है जिसमें सत्य अगुआ है, मुखिया है, सेनापति, और सैनिक हैं बहुत सारे। सब सैनिकों द्वारा आदर और प्रेम है अपने सेनापति को, लेकिन हर सैनिक अपनी एक स्वतंत्र सत्ता भी बनाए रख रहा है। वो हटने को, मिट जाने को तैयार नहीं है। वो कह रहा है, “मैं अच्छा काम कर रहा हूँ, मैं सत्य का नेतृत्व स्वीकार करता हूँ, लेकिन मेरा अपना एक वजूद, एक हस्ती ज़रूर रहेगी।”
क्या होगा ऐसी सेना में? ऐसी सेना में ये होगा कि शक्तियाँ कभी एक होकर सत्य हेतु पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं हो पाएँगी। ऊपर से तो दिखाई देगा कि सब शक्तियाँ सत्य को समर्पित हैं, लेकिन व्यवहार में हो यह रहा होगा कि वे शक्तियाँ जितनी सत्य को समर्पित हैं, लगभग उतनी ही स्वयं को भी समर्पित हैं। वे अपना अस्तित्व बचाने के लिए भी बड़ी सतर्क हैं—और जब अपना अस्तित्व बचाना हो, तो उसमें भी बहुत ऊर्जा लगती है।
सैनिक अगर अपनी ऊर्जा युद्ध की जगह अपने किसी व्यक्तिगत लक्ष्य की ओर लगा रहा है, तो युद्ध में क्या होगा? युद्ध का जो लक्ष्य है, वो सत्य ने दिया है सेना को—कि तुम लड़ो। यदि सैनिक पूरी तरह से समर्पित हो सेनापति को और सेनापति द्वारा दिए गए लक्ष्य को, तो वह अपनी शत-प्रतिशत ऊर्जा किसमें लगाएगा? सिर्फ़ लक्ष्य में।
लेकिन अगर सैनिक के पास एक छुपा हुआ व्यक्तिगत लक्ष्य भी है, तो क्या वह अपनी पूरी ऊर्जा युद्ध में लगा सकता है? वह छुपा हुआ लक्ष्य क्या होता है? यह कि उसकी जो व्यक्तिगत सत्ता है, वह भी नष्ट न हो। तो कुछ ऊर्जा युद्ध में लगती है, और बहुत-सी ऊर्जा उस व्यक्तिगत सत्ता को बनाए रखने में लग जाती है। और जब ऊर्जा उसमें लगती है, तो आप युद्ध हारते हैं।
हम जीवन में किसी भी बड़े लक्ष्य को पा इसीलिए तो नहीं पाते न — क्योंकि लक्ष्य को पाने के लिए ऊर्जा का एकाग्र होना बहुत ज़रूरी है। किस दिशा में एकाग्र होना? लक्ष्य की दिशा में — कि आपके पास जो भी है, वो लक्ष्य की ओर समर्पित हो जाए, उधर को ही बहे।
लेकिन हमारे पास यह जो हमारा रेत का महल होता है, जिसे हम अपना व्यक्तित्व कहते हैं — इसको लेकर बड़ी आशंका होती है, बड़ा डर होता है, और बड़ा आग्रह होता है। हमें इसे बचाना होता है। अब जब इसे बचाना है, तो क्या होगा? कितनी ऊर्जा लगेगी इसे बचाने में? बहुत, बहुत सारी ऊर्जा लगेगी। तो जो तुमने लक्ष्य बनाया था, उसे फिर कैसे जीतोगे?
ऐसे समझो — तुम्हारे हाथ में तलवार है और सामने एक बड़ा बलवान विरोधी खड़ा है, दैत्य जैसा। बहुत चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है सामने। और तुम्हारे पीछे तुमने एक रेत का पुतला रखा हुआ है, जिसे तुमने अपना नाम दे दिया है। तुम्हारे आगे है तुम्हारा लक्ष्य — और बहुत ऊँचा लक्ष्य है, घनघोर चुनौती है। और तुम्हारे पीछे तुमने एक रेत का पुतला रख छोड़ा है — कमज़ोर, टूटने को तैयार, लेकिन जिससे तुम्हारी गहरी आसक्ति है — और तुम कह रहे हो, “नहीं, सामने वाली लड़ाई तो मुझे लड़नी ही है, लेकिन मेरी शर्त ये है कि पीछे मेरा जो व्यक्तित्व है, मेरा रेत का पुतला है, वो ढहना नहीं चाहिए।”
तो अब कल्पना करो — तुम लड़ाई कैसे करोगे!
कैसी होगी तुम्हारी लड़ाई? तुम काम कर रहे हो, संघर्षपूर्ण काम है, चुनौतीपूर्ण है। तो तुम काम कर रहे हो — और अचानक तुम्हें याद आता है कि “अभी जो किया, उससे कहीं मेरे रेत के पुतले में दरार तो नहीं आ गई?” और उसमें दरार तो आएगी ही, बार-बार आएगी — वो चीज़ ही रेत की बनी है।
और तुमने अपना ध्यान अपने शत्रु से हटा लिया — अब तुम अपने पुतले को बचाने और उसे फिर से बनाने में लग गए।
युद्ध में तो तुम्हें चाहिए अपने चारों ओर ऐसी चीज़ें जो टूटें नहीं। ढाल कैसी होनी चाहिए? जो टिके, न टूटे। हथियार कैसे होने चाहिए? भरोसेमंद — मजबूत। लेकिन हम जीवन के युद्ध में उतरते हैं अपने अहंकार के साथ — और यह अहंकार ही तो है जो बार-बार टूटेगा ही टूटेगा। इसी को मैं ‘रेत का पुतला’ कह रहा हूँ — यही तुम्हारा ‘रेत शरीर’ है।
दुश्मन सामने खड़ा है — उसके पास जबर्दस्त हथियार हैं। और तुम क्या बचाने के आग्रह के साथ खड़े हो? अपने उस रेत के पुतले को! और दुश्मन ठठाकर हँसता है — क्योंकि तुम अपने उस रेत के पुतले को अपनी सारी ऊर्जा से, अपनी दोनों बाँहों से घेरकर खड़े हो गए हो — कि इसकी कोई क्षति न हो जाए।
लेकिन क्षति तो होगी ही। और जब होगी — तो तुम फिर उसे बनाने में लग जाओगे। और पीछे से दुश्मन तुम्हें पीट रहा होगा।
ये तो छोड़ो कि तुम्हारी सारी ऊर्जा लक्ष्य की ओर नहीं जा रही — तुम्हारी तो निन्यानवे प्रतिशत ऊर्जा बस अपने रेत के पुतले को बचाने में जा रही है। तो ज़िन्दगी की कोई भी लड़ाई तुम लड़ोगे कैसे? जीतना तो बहुत दूर की बात है — लड़ाई लड़ भी नहीं पाओगे। सारा समय बस अपनी कमज़ोरियों को बचाने में बीत जाएगा।
और इसीलिए हमारे भीतर कोई देव-दानव युद्ध होता ही नहीं — क्योंकि दानव को असल में कुछ करना ही नहीं पड़ता। वो तो पहले से ही विजयी है। जब तुम्हारे पास थोड़ी-सी भी ऊर्जा नहीं बची, तो तुम दानव से लड़ोगे कैसे?
दानव से भिड़ने के लिए कुछ ऊर्जा चाहिए। और तुम्हारी तो सारी ऊर्जा जाती कहाँ है? "उसने मुझे ऐसा कह दिया!" "मेरे अहंकार पर चोट लग गई!" "मुझे कैसे नज़र आया?"
पूरा दिन इन ही बातों में निकल जाता है। और जब पूरा दिन इसी में चला गया, तो कोई सार्थक काम तुम कर ही कहाँ पाए?
और ऐसे ही करते-करते पता भी नहीं चलेगा — ज़िन्दगी बहुत छोटी होती है — कब सारे महीने, साल बीत गए, पता नहीं चलेगा।
तुम जो अपनी individuality, अपनी वैयक्तिकता को बचाना चाहते हो — वही अंततः तुम्हारा सबसे बड़ा अभिशाप बन जाती है।
अब देखो देवी कैसे प्रकट हुईं, और कब प्रकट हुईं?
जब हालात इतने विकट हो गए कि देवताओं को मजबूरन अपनी वैयक्तिकता छोड़नी पड़ी। चाँद और सूरज — जिनकी अपनी-अपनी अलग पहचान थी — उन्हें एक हो जाना पड़ा।
चंद्रमा ने कहा, “दैत्यों को हराना ज़्यादा ज़रूरी है। मैं चाँद बना रहूँ या नहीं, ये ज़्यादा ज़रूरी नहीं है।” और फिर चाँद ने अपनी सारी शक्ति देवी को समर्पित कर दी — मतलब, चाँद जैसा कुछ रहा ही नहीं। वही सूर्य ने किया — अपनी सारी ऊर्जा छोड़ दी — ताकि एक साझा, केंद्रीकृत शक्ति का निर्माण हो।
और ऐसे ही सभी देवताओं ने — अपने-अपने गुण, अपनी-अपनी विशेषताएँ — सब समर्पित कर दीं। जो कुछ भी उन्हें देवता बनाता था, वही छोड़ दिया — ताकि एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो सके जिसमें कोई विभाजन, कोई अलगाव न हो।
देवता मिटे, तभी देवी प्रकट हुई।
अगर अपने भीतर के दानव को हराना है, तो वही करना होगा जो देवताओं ने किया था—अपना सब कुछ युद्ध को देना होगा, खुद को बचाने को नहीं। जिस रेत के पुतले को तुम ‘मैं’ कहकर बचाते रहते हो, उसे तो युद्ध में उतरने से पहले ही तोड़ देना चाहिए।
यही तो कबीर कह रहे हैं—सच्चा सूरमा वो है जो युद्ध में जाने से पहले ही अपना सिर काटकर रख देता है। देवता यही भूल कर बैठे थे, सिर लिये-लिये युद्ध में चले गए। अब जब सिर साथ होगा, तो शत्रु सबसे पहले वही काटेगा। वही सिर, वही अहंकार, वही रेत का पुतला। और तुम उसे बचाने में लग जाओगे। सारी ऊर्जा वहीं चली जाएगी, कोई युद्ध नहीं लड़ पाओगे।
जीवन हार जाओगे क्योंकि खुद ‘मैं’ को बचाने में ज़िन्दगी गँवा दी। जीवन को जीतना हो तो खुद को हार लो। युद्ध में हार से बचना हो तो स्वयं को बचाने की कोशिश त्याग दो। जो स्वयं को बचा ले जाएगा, वो हार को नहीं बचा पाएगा।
दोनों में से एक ही चीज़ बचा सकते हो: या तो तुम बचोगे या हार बचेगी।
अगर तुम पा रहे हो कि जीवन ऐसा जिया है तुमने कि तुम बचे ही जा रहे हो, तो ये फिर पक्का है कि युद्ध नहीं बच रहा है। सारे युद्ध तुम हार रहे हो। बस इतनी तुम्हारी कुल उपलब्धि है कि सब युद्ध हारते गए लेकिन स्वयं को, अपने इस झूठे रेत के पुतले को लगातार बचाते गए। ये कौन सा तुमने तीर चला लिया भाई?
यह गलती पूरी तरह से मानवीय है, सभी करते आए हैं, यहाँ हम देख रहे हैं कि देवता भी यही कर रहे थे। पर देवताओं के साथ एक बात हमेशा रहती है कि वो कितना भी भटक जाएँ, मदोन्मत हो जाएँ, बहक जाएँ, लेकिन जब चोट पड़ती है, हार मिलती है, वो कम-से-कम तब सुधर जातें हैं। "ये नहीं कि गलतियाँ नहीं करते देवता, ये कि गलतियाँ करने के बाद, चोट खाने के बाद कम-से-कम सुधर जाते हैं देवता।"
दानव तुम्हारा वो हिस्सा है जो बार-बार चोट खाता है, बार-बार धूल चाटता है, लेकिन फिर भी निर्लज्ज और हठी की तरह खड़ा हो जाता है, अपनी पुरानी गलतियाँ और कर्म दोहराने के लिए। उसे दानव कहते हैं। वह राक्षस है तुम्हारे भीतर का।
तो हमने कहा कि तुम्हारी जो Individuality है, जिसे तुम अपना व्यक्तित्व कह सकते हो, Personal self , तुम्हारी वैयक्तिकता, उसका त्याग किए बिना तुम न भीतर, न बाहर कोई वास्तविक युद्ध जीत सकते हो, क्योंकि तुम्हारी सबसे बड़ी कमज़ोरी तुम खुद हो।
स्वयं को बचाना एक असंभव उपक्रम है और हम उसी में लगे रहते हैं। खुद को तो नहीं बचा पाओगे, हाँ, खुद को बचाने के प्रयास में जो वास्तव में बचाया जा सकता था, उससे भी हाथ धो बैठोगे।
कैसा लगेगा ये जानकर कि रेत के पुतले को बचाने के लिए तुम युद्ध हार गए हो? और युद्ध हारने के बाद जब तुम उस पुतले की ओर देखते हो तो वो पुतला भी ढहा हुआ है। क्या बचा लिया? उस पुतले की तो प्रकृति है ढह जाना, तुम उसे कितना भी बचाते रहो, वो ढह जाएगा। हाँ, उसे बचाने के विफल प्रयास में, असंभव प्रयास में, तुमने वो भी गँवा दिया जो गँवाना आवश्यक नहीं था। जहाँ तुम्हारी संभावना थी जीत की, तुम उस संभावना से भी हाथ धो बैठे।
पुतले को तो बचा पाने की कोई संभावना बिल्कुल भी नहीं है। वहाँ शून्य संभावना है—मिथ्या है वो, माया है, वह बचने का नहीं। सत्य को पाना कितना भी कठिन हो, पर वहाँ सफलता की संभावना तो है। पुतले को बचाने के उपक्रम में तो जीत की कोई संभावना ही नहीं है—तो क्यों ऐसे झंझट में पड़ना?
तो इस तरह से फिर देवी अपना प्राकट्य पाती हैं। देखो, तुम्हारे भीतर जो कुछ भी है, वह रहेगा, क्योंकि वह प्राकृतिक है। व्यक्ति ही प्राकृतिक है। इसलिए अध्यात्म में प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे मिटाएँ कैसे। और हमारे पास जन्म से क्या होता है? हमारी वृत्तियाँ: काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, भय—यही सब। तो प्रश्न यह नहीं कि इसे मिटाएँ कैसे, बल्कि यह कि इन वृत्तियों को किसी उदात्त लक्ष्य को समर्पित कैसे करें। यही प्रश्न होना चाहिए।
देवताओं और दैत्यों में अंतर बस यही है, न? शक्ति दोनों के पास है। गुण भी दोनों के पास हैं। लेकिन दैत्य उन गुणों को समर्पित करने को तैयार नहीं हैं। किसे समर्पित? सत्य को, ऊँचाई को।
इसलिए तुम पाओगे कि श्री दुर्गा सप्तशती में और तमाम अन्य पौराणिक कथाओं में क्रोध का भरपूर स्थान है—और दोनों ओर का क्रोध। आगे कथा में तुम देखोगे कि देवी भी क्रोध से भरी हुई हैं: उनकी आँखें अंगारे जैसी लाल हैं। और दानव भी क्रोध में भरे हुए हैं—महिषासुर भैंसे का रूप लेकर फुँकार रहा है, अपने खुरों के आघात से धरती को कंपा रहा है, वह भी एकदम क्रोधोन्मत्त है।
क्रोध, क्रोध में अंतर है — एक क्रोध वह है जो तुम करते हो सत्य की रक्षा के लिए, और एक वह जो तुम करते हो सत्य पर आघात करने के लिए।
अध्याय आरम्भ होता है और आरम्भ में ही शिव और विष्णु दोनों कुपित हैं। तो क्रोध अच्छा है या बुरा, ये प्रश्न ही बहुत काम का नहीं है क्योंकि क्रोध तो रहेगा। प्रश्न ये है कि तुम्हारा क्रोध किसको समर्पित है? ये प्रश्न व्यावहारिक है, विचारणीय है। तुम्हारा क्रोध किसके लिए है?
ममत्व तुममें रहेगा, प्रश्न ये है कि तुम्हारा ममत्व किसके लिए है? राग-द्वेष भी रहेंगे, भय भी रहेगा, लोभ भी रहेगा, किसका लोभ कर रहे हो? मुक्ति का लोभ कर रहे हो या बंधनो का? और मुक्ति का तरीका ही यही है, तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसको बाँध दो मुक्ति से क्योंकि और कोई विकल्प है कहाँ तुम्हारे पास? तुम तो जो हो, वो हो ही। तुम अपना शरीर परिवर्तित नहीं कर सकते।
तो अपनी वृत्तियों की हत्या नहीं करनी है—उन्हें सत्य का अनुगामी बना देना है। तुम जो भी कुछ कर सकते हो, करो—उसी दृष्टि से।
चिड़िया उड़कर जा सकती है तो उड़कर जाए। उसे अपने पंख नहीं काट देने हैं, उसे अपने पंखों का प्रयोग करना है सत्य की दिशा के लिए। कछुआ धीरे-धीरे चलकर, रेंगकर जाएगा, वो धीरे-धीरे जाए। विकल्प क्या है उसके पास? उड़ नहीं सकता, दौड़ नहीं सकता तो क्या करेगा? वो धीरे-धीरे जाएगा। बस दिशा ठीक होनी चाहिए। एक ही दिशा में जाओ, जो दिशा है तुम्हारी। शेर के पास ताकत है तो वो अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए जाए, कि रास्ते में जो भी कोई जीव मुझे रोकेगा, मैं उसको मिटा दूँगा, मेरे पास शक्ति है।
देवी का जो सिंह है दूसरे चरित्र में, वो लगातार कुपित है। बार-बार उसका वर्णन ही ऐसे आता है कि वो अपना सिर हिला रहा है, अपने गर्दन के बाल हिला रहा है और दैत्यों के चिथड़े करता जा रहा है, धज्जियाँ उड़ाता जा रहा है।
हमारे भीतर भी सिंह जैसा ही पशु है, हमें उसका कोप चाहिए, पर हमें उसका कोप वैसे ही चाहिए जैसे देवी के सिंह का था। देवी के अभियान में सम्मिलित होने हेतु कुपित है वो। वो कह रहा है कि देवी जो लड़ाई लड़ रही हैं वो मैं देवी के साथ लड़ूँगा और देवी जिस पर रुष्ट हैं, मैं भी उसी पर कुपित हूँ।
तो कोप है हममें, सबमें होता है। उस कोप को मारने की ज़रुरत नहीं है, उस कोप को सही दिशा देने की ज़रुरत है।
कोप की दिशा यह नहीं होनी चाहिए कि वो तुम्हारे अहंकार की रक्षा करे। निन्यानवे प्रतिशत कोप जो हम करते हैं, वो व्यर्थ है, वो नहीं किया जाना चाहिए। क्यों? क्योंकि हमें क्रोध उठता ही तब है जब हमारे रेत के पुतले में कोई टूट-फूट होती है, तो हमें बड़ी तकलीफ़ होती है और एकदम हम क्रोधित हो जाते हैं, है न? निन्यानवे प्रतिशत हमारा क्रोध व्यर्थ है, शायद निन्यानवे दशमलव नौ नौ प्रतिशत क्रोध हमारा व्यर्थ है।
तो इस अर्थ में ये कहा जा सकता है कि क्रोध मत करो। कौन सा क्रोध मत करो? जो तुम्हारे अहंकार की रक्षा के लिए उठता है, वो क्रोध मत करो। क्रोध करना निश्चित रूप से बुरा है, क्यों? क्योंकि अधिकांशतः हमारा क्रोध एक व्यर्थ प्रयोजन के लिए होता है।
पर एक दूसरा क्रोध भी हो सकता है और उसका हमको धर्म ग्रंथों में बार-बार दर्शन होता है।