हम पैदा क्यों होते हैं? क्या जीवन का कोई लक्ष्य है? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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हम पैदा क्यों होते हैं? क्या जीवन का कोई लक्ष्य है? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: एक तरफ़ तो आप कहते हैं कि तुम इसलिए पैदा हुए हो कि तुमको मुक्ति मिले और प्रकृति भी चाहती है कि तुम मुक्त हो जाओ, लेकिन दूसरी तरफ़ आप कहते हैं कि प्रकृति तुमको बाँधकर रखना चाहती है। तो इन दोनों बातों में तो विरोधाभास है।

आचार्य प्रशांत: बढ़िया सवाल। देखो, जब मैं कहता हूँ प्रकृति तुमको बाँधकर रखना चाहती है — अच्छा हुआ तुमने पूछ लिया — तो उससे बेहतर तरीक़ा कहने का ये है कि तुम प्रकृति से बँधे-बँधे रहना चाहते हो।

एक उदाहरण देता हूँ। उसका उपयोग मैं पहले भी कर चुका हूँ, पर सुन्दर रूपक है इसलिए उसका उपयोग मैं दोबारा कर लूँगा।

प्रकृति माँ है, हम कहते ही हैं माँ है। प्रकृति को हम माँ कहते हैं न कि प्रकृति माँ है, हम सब उससे पैदा हुए हैं। तो प्रकृति माँ है, तुम बच्चे हो उसके। प्रकृति ने तुम्हें जन्म दिया है, प्रकृति ने तुम्हें ये देह दी है, इस हद तक तुम प्रकृति से जुड़े हुए हो।

और आरम्भ में प्रकृति से तुम्हारा जुड़ाव लाज़मी है, होना ही था, जैसे हर छोटे बच्चे का अपनी माँ से जुड़ाव होता है शुरुआत में। लेकिन प्रकृति एक अच्छी माँ है। उसने तुमको वो सारे औज़ार दिये हैं, क्षमताएँ दी हैं, उपकरण दिये हैं जिनके माध्यम से तुम एक स्वस्थ युवक बन सकते हो, बड़े हो सकते हो। अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम प्रकृति माँ द्वारा दी गयी क्षमताओं का इस्तेमाल करते हो या नहीं करते हो।

अक़्सर लोग नहीं करते हैं। क्यों नहीं करते हैं? वजह है। प्रकृति के द्वारा दी गयी क्षमताओं का इस्तेमाल अगर तुम करोगे, तो तुम्हें प्रकृति से दूर जाना पड़ेगा। और प्रकृति की गोद से दूर जाना हमें डरा देता है, क्योंकि हम उसी गोद में पैदा हुए हैं, वहाँ हमें सुरक्षा की अनुभूति होती है। जैसे एक घर है और उसमें माँ है। घर क्या है? मान लो ये संसार वो घर है — जो यह भौतिक संसार दिखायी देता है वो घर है — और उसमें माँ है। माँ कौन है? प्रकृति है। और तुम कौन हो? तुम बच्चे हो।

अब जब तक तुम बच्चे हो तब तक तो प्रकृति तुम्हारा पालन-पोषण कर रही है, लेकिन प्रकृति बहुत अच्छे से पालन पोषण करती है। उसने तुमको बुद्धि दी है, तुम मनुष्य हो। और उसने तुमको एक चेतना दी है जो समझ सकती है, जो मुक्त हो सकती है। उसने तुमको ये सब दिया है।

अब उसके बाद ये निर्णय तुमको करना होता है कि जो तुमको सब उपहार मिले हैं प्रकृति से, जो औज़ार मिले हैं प्रकृति से, उनका इस्तेमाल करके तुम घर से बाहर निकल करके आकाश पूरा उड़ोगे या घर की चार दीवारों की सुरक्षा में ही क़ैद रह जाओगे। तुम जो भी फैसला करो, प्रकृति तुम्हारे फैसले का सम्मान करती है।

भाई होते हैं न, कई ऐसे पूत। वो तीस साल के हो जाएँ, चालीस साल के हो जाएँ वो अपनी माँ की गोद में ही घुसे रहते हैं। माँए उनको लात मारकर निकाल थोड़े ही देती हैं, या निकाल देती हैं? तुम्हारी उम्र बहुत बढ़ गयी, लेकिन तुम अभी भी अपने पुश्तैनी घर में ही घुसे हुए हो, माँ का आँचल छोड़ ही नहीं रहे, तो माँ इतनी निर्मम तो नहीं हो जाने वाली कि कहे कि चल निकल जा यहाँ से।

तुम अगर माँ का पल्लू पकड़ कर बैठे हो तो माँ कहेगी, ‘ठीक है, बैठा रह भाई।' हालाँकि माँ को भी निराशा रहेगी तुमसे, लेकिन फिर भी वो तुमको रोटी-पानी देती रहेगी जैसे कि इस देश के बहुत सारे नौजवानों को तीस का, चालीस का होकर भी घर पर रोटी-पानी मिलता रहता है। वो कुछ नहीं करते, वो बस माँ का पल्लू पकड़ कर घर पर बैठे हुए हैं।

लेकिन ये तो सोचो कि माँ की इच्छा क्या है। माँ की इच्छा क्या है वो प्रकट हो जाती है माँ ने तुमको जो भेंट दी है, जो उपहार दिये हैं उससे। अगर मैं तुमको उपहार में एक कलम दूँ, तो मेरी इच्छा क्या है, बताओ? कि तुम लिखो। मैं तुमको उपहार में एक तलवार दूँ, तो मेरी इच्छा क्या है, बताओ? कि तुम लड़ो। तो प्रकृति ने तुम्हें जो उपहार दिये हैं, तुम्हारी माँ ने तुम्हें जो उपहार दिये हैं उसी से तुम समझ लो कि माँ की इच्छा क्या है तुमसे।

प्रकृति ने तुम्हें उपहार क्या दिया है? एक ख़ास उपहार दिया है जो सिर्फ़ मनुष्यों को दिया है; जानवरों को नहीं दिया। क्या उपहार दिया है? बुद्धि का और बोध का, चेतना की ऊँचाई का, समझदारी का। तो माँ ने ही उपहार दे दिये हैं, पर हम में से ज़्यादातर लोग इतने नालायक बेटे होते हैं कि माँ ने जो उपहार दिये हैं उनका इस्तेमाल हम करते नहीं। हम कहते हैं, ‘मम्मी-मम्मी, मैं तो यहीं पर पला लहूँगा। मुझे कहीं नहीं जाना।’ तो हममें से ज़्यादातर लोग प्रकृति से ही जीवनभर चिपके रह जाते हैं।

प्रकृति से चिपकने का क्या अर्थ हुआ? कि यही जो घर है न संसार इसकी इस चीज़ से चिपक गये, उस चीज़ से चिपक गये। जैसे एक छोटा बच्चा होता है। उसके सामने जो भी कुछ लाओ, वो हाथ बढ़ा देता है और पकड़ लेता है। हम में ज़्यादातर लोग ऐसे होते हैं कि हम पूरा जीवन बिता देते हैं बस चीज़ों को पकड़ने में।

जिस चीज़ से डरना नहीं चाहिए उससे डर जाते हैं। जैसे छोटा बच्चा, किसी दाढ़ीवाले को देखा तो रोना शुरू कर दिया; वैसे ही हम होते हैं। जिस चीज़ से डरना नहीं उससे भी डर रहे हैं, जिस चीज़ की ओर आकर्षित नहीं होना चाहिए हम वहाँ भी आकर्षित हो जाते हैं, जहाँ घुसना नहीं चाहिए हम वहाँ घुस जाते हैं। देखा है छोटे बच्चों को कोई प्लग प्वाइंट होगा और वो जाकर के उसमें उँगली दे देगा। वैसे ही हम करते हैं जीवनभर, जहाँ छेद देखा वहाँ उँगली देना शुरू कर दिया।

हममें और छोटे बच्चे में कोई अन्तर आया? हम ये करते रह जाते हैं। ये हमारी ज़िन्दगी की कुल कहानी है। प्रकृति भी हमें देखकर ऐसे माथा पीटती है कि ये कैसा पैदा हो गया! जितनी मैंने इसको नियामतें बख़्शी थी, जितनी मैंने इसको भेंटें दी थीं, इसने सब बर्बाद कर डालीं, कुछ इस्तेमाल नहीं किया।

‘इसको कलम दी थी एक नयी कहानी लिखने के लिए और ये कलम नाक में डाला करता है अपनी, या उससे कान खुजाता है। इसको तलवार दी थी असली दुश्मनों का मुकाबला करने के लिए और ये तलवार लेकर के सड़क के पिल्लों को दौड़ा रहा था कल।'

हमने प्रकृति द्वारा दिये गये उपहारों का ऐसे ही तो इस्तेमाल किया है। प्रकृति ने तुम्हें बुद्धि की भेंट दी थी न, तुमने बुद्धि से क्या किया? तुमने सारे जंगल काट डाले, नदियाँ ख़राब कर दीं, पहाड़ गन्दे कर दिये। वही बोल रहा हूँ न तलवार लेकर के पिल्ले दौड़ा रहे हो। अब पिल्ले कूँ-कूँ-कूँ-कूँ करके भाग रहे हैं और तुम्हारे पास एक ज़बरदस्त तलवार है। उस तलवार का क्या नाम है? बुद्धि, प्रज्ञा और तुम उसका इस्तेमाल पिल्लों को मारने के लिए कर रहे हो।

वो तलवार तुमको दी गयी थी षडरिपु का संहार करने लिए — तुम मान को मारो, तुम मद को मारो, माया को मारो, मात्सर्य को मारो, मोह को मारो, उसकी जगह तुम पिल्ले मार रहे हो। और प्रकृति बैठी हुई और ऐसे देख रही है कि ये देखो, ये क्या पैदा हो गया!

तो ये चुनाव तुम्हें करना है, दोष प्रकृति पर मत डाल देना। ये चुनाव तुम्हें करना है कि तुम्हें जो कुछ मिला है प्रकृति से तुम उसका उपयोग किसलिए करोगे। तुम्हें उसका उपयोग करना है प्रकृति से ही आगे जाने के लिए, जैसे माँ के लिए बड़ी खुशी की बात होती है कि जिस गाँव में वो रहती थी, पढ़-लिखकर उसका बेटा गाँव से आगे कहीं दूर, किसी ऊँची जगह पर चला गया। वैसे ही प्रकृति चाहती है कि तुम भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके, अपनी क्षमता, अपनी चेतना का इस्तेमाल करके प्रकृति से ही आगे निकल जाओ।

प्रकृति से आगे निकलने का क्या मतलब हुआ? कि तुम चिपको नहीं अब प्रकृति की चीज़ों से। तुम्हारी चेतना मुक्ति माँगती है। किससे? इन्हीं सब चीज़ों से जो प्रकृति में पायी जाती हैं। तो एक ओर तो प्रकृति ने तुम्हें जन्म दिया है, दूसरी ओर उसी प्रकृति से तुम्हें आगे निकल जाना है। यही उस जन्म की सार्थकता है। प्रकृति ने ही तुम्हें जन्म दिया है लेकिन ये जो जन्मदात्री प्रकृति है ये स्वयं भी यही चाहती है कि तुम जन्म लेकर के अपनी माँ से आगे निकल जाओ। चिपको नहीं माँ से।

माँ की खुशी इसमें नहीं है कि चालीस साल का पूत भी चिपका हुआ है और पल्लू में मुँह दिये हुए है। माँ की खुशी किसमें है? कि पूत निकल करके दुनिया पर राज कर रहा है। दुनिया पर राज करो! दुनिया पर राज करने का क्या मतलब होता है? आध्यात्मिक अर्थ में बोल रहा हूँ, प्रधानमंत्री बनने की कोशिश मत करने लग जाना।

प्र: बुद्ध पुरुष सबकुछ छोड़ कर फिर साधना के लिए निकले थे, जैसे सिद्धार्थ गौतम या महावीर। अगर महलों की सब सुख-सुविधा में उन्हें सार दिखना बन्द हो गया था तो बाद में उन्हें साधना किस चीज़ की करनी पड़ी?

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है कि सार दिखना बन्द हो गया था। इतना समझ आने लगा था बस कि जो वो जानना चाहते हैं, जो छुपा हुआ है, वो महल के भीतर रहते-रहते तो प्रकट या उद्घाटित नहीं होने वाला। महल के बाहर क्या होगा ये वो नहीं जानते थे, पर इतना उनको स्पष्ट हो गया था कि महल के भीतर घुटन है।

जैसे कि तुम एक धुँए वाले कमरे में फँस जाओ। जो ही दरवाज़ा सामने दिखता है उसको खोलकर के भागते हो न बाहर? अब बाहर क्या मिलेगा तुम बहुत साफ़-साफ़ जानते नहीं, पर भीतर रहा नहीं जाता। इस तरीक़े से उन्होंने गृह त्याग किया था। ये दिखने लगा था कि कुछ भीतर है जो छटपटा रहा है, मुक्ति के लिए, ज्ञान के लिए। और वो मुक्ति और वो ज्ञान राजमहल में और गृहस्थी में सम्भव होता दिख नहीं रहा था।

प्र: आचार्य जी, कुछ लोग अध्यात्म की ओर नैचुरली इनक्लाइंड (प्राकृतिक तौर पर झुकाव रखने वाले) होते हैं। तो क्या प्रकृति यानि माँ ने कुछ लोगों को ऐसा ख़ास उपहार दिया है?

आचार्य: नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा कुछ भी नहीं है कि कुछ लोग कोई ख़ास भेंट लेकर के पैदा हुए हैं। तुम कह रहे हो कि कुछ लोग स्पिरिचुअलि इनक्लाइंड होते हैं। कुछ किसी दूसरी तरफ तो इनक्लाइंड होते हैं न? जो जिधर को इनक्लाइंड है, तलाश उस इंक्लिनेशन (झुकाव) में मुक्ति को ही रहा है।

इंक्लिनेशन का मतलब होता है डिज़ायर (इच्छा)। कुछ लोग, तुमने कहा, अध्यात्म की ओर झुके होते हैं, दूसरे लोग मान लो किसी और दिशा में झुके हैं। कोई पैसे की ओर झुका है, कोई शराब की ओर झुका है। वो जिधर को भी झुका है, माँग वो ही चीज़ रहा है जो ये व्यक्ति माँग रहा है जो तथाकथित तौर पर अध्यात्म की ओर झुका है।

आध्यात्मिक हर व्यक्ति जन्म से ही होता है, बस आध्यात्मिक साधना तुम करोगे या नहीं करोगे, कीमत चुकाओगे या नहीं, मेहनत करोगे या नहीं, ये चुनाव तुमको करना होता है। तड़प और प्यास तो सबमें होती है, बचपन से होती है, पैदा होते से ही होती है। ये निर्णय करना तुम्हारे हाथ में है कि तुम्हें वो प्यास बुझानी है या नहीं बुझानी है। अपनेआप से प्रेम हो तो उस प्यास को बुझा लो, नहीं तो अपनेआप को और तड़पाओ।

तुम्हें लगी हो प्यास पानी की और उस दशा में तुम्हारा इंक्लिनेशन शराब की ओर हो जाए, तो देख लो क्या होता है। पहले ही प्यासे थे, शराब और पी लोगे तो गला, पेट, पूरा तुम्हारा जिस्म आग की तरह जलेगा। हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं। ऐसी दिशाओं में झुके हुए हैं जो दिशाएँ हमें वो नहीं दे सकती जो हमें उस दिशा से चाहिए। तो चाहिए तो सबको एक ही चीज़, पर तलाशते उसको ग़लत-ग़लत जगहों पर हैं।

और अगर तुम्हारा सवाल ये है कि क्या कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्राकृतिक रूप से सही जगह ही तलाशने पहुँच जाते हैं, तो ना! सही जगह कभी तुमको यूँही संयोगवश नहीं मिल जानी है। वो तो दाम देकर के पानी पड़ती है। जो ही पैदा हुआ है, उसका झुकाव किसी-न-किसी अंट-शंट, अनर्गल दिशा में ही होगा। वो अनर्गल दिशा भौतिक भी हो सकती है और तथाकथित रूप से आध्यात्मिक भी। तुम्हें धीरे-धीरे अपनी सब दिशाओं को, उन दिशाओं की ओर तुम्हारे झुकावों को हटाना पड़ेगा, नकारना पड़ेगा — यही अध्यात्म है।

अध्यात्म किसी एक तरफ़ के विशेष झुकाव का नाम नहीं है, अध्यात्म अपने सारे ही झुकावों को तिरोहित करने का नाम है। जो आदमी धन-दौलत या वासना की ओर झुका हुआ हो, उसे धन-दौलत वासना तिरोहित करनी पड़ेगी, और जो आदमी कहता है वो अध्यात्म की ओर झुका हुआ है, उसे अपना अध्यात्म तिरोहित करना पड़ेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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