प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपको ज्ञान कब प्राप्त हुआ?
आचार्य प्रशांत: ज्ञान किसी पल में घटने वाली कोई घटना नहीं है कि "एक सितंबर को शाम साढ़े-चार बजे ज्ञान हुआ"। ज्ञान लगातार होता रहता है, अनवरत प्रक्रिया है जिसका कोई अंत नहीं।
प्र: ये भी तो कहते हैं न कि बुद्ध को इस तारीख को बुद्धत्व हुआ?
आचार्य: जब ब्रह्म अनंत है तो ब्रह्मलीनता का कोई अंत कैसे आएगा? बताओ। जो अनंत है उसके सिरे पर कभी पहुँच पाओगे क्या? तो वो लगातार होता रहता है। जीवन के अनुभव, उन अनुभवों से सीखना, इसीलिए जीवन है। सीखते चलो अनुभवों से, जब तक अनुभवों से अलग ही ना हो जाओ, जब तक अनुभवों के पार ना निकल जाओ, अनुभवों से अछूते ना हो जाओ।
तो कोई एक नहीं है अनुभव, कि जवान थे तो एक अनुभव हुआ तो ज्ञान हो गया या कोई विशिष्ट घटना घटी। ऐसा कुछ नहीं।
प्र: तो जो अनुभवों के पार गया, उसमें और माइंड (मन) में कोई फ़र्क़ है? माइंड (मन) तो उन्हीं चीज़ों के पीछे ही भागेगा।
आचार्य: ये तुम आश्वस्त मत रहो। माइंड (मन) बहुत ज़्यादा ऊर्जावान या बलशाली होता नहीं है। तुम्हारी प्यास मन को ताक़तवर बना देती है। मन दौड़ता है, ये तो तुम कह देते हो। ये छुपा जाते हो कि मन को दौड़ाता कौन है। मन की टाँगों को ऊर्जा कौन देता है? वो ऊर्जा देते हो तुम।
तो ऐसा नहीं है कि तुम समझदार होते जाओगे फिर भी मन चंचल ही रहेगा और पागल ही रहेगा। तुम मन से जैसे-जैसे हटते जाते हो, मन वैसे-वैसे शांत, संयमित, शालीन होता जाता है। मन से भी पूछोगे कि "मन तेरा बोझ कौन है?", तो मन बोलेगा, "तू!" तुम मन से पूछोगे, "मन, तेरी बीमारी क्या है?', तो मन बोलेगा, "तुम।" 'तुम' माने? 'मैं'।
जैसे-जैसे मन से तुम एक ज़िम्मेदार रिश्ता बनाते हो, एक भद्र रिश्ता बनाते हो, वैसे-वैसे मन भी शांत, सरल, सहज होता जाता है। मन को बिगाड़ने वाले हम हैं और दोष देते हैं? मन को, कि मन उपद्रवी, मन चंचल, मन बंदर।
मन अहं की छाया मात्र है। अहं जितना विकृत होगा, अहं की छाया, 'मन', भी उतना विकृत होगा। और अहं का विकार है अपूर्णता। तुम जितना अपने-आपको ये जताओगे कि "मैं कमज़ोर हूँ, दुखी हूँ, शोषित हूँ", उतना ज़्यादा अहं-भावना विकृत रहेगी और उतना ज़्यादा मन उपद्रवी रहेगा।
प्र: आचार्य जी, पर हम जैसे शांत बैठे हैं, मज़ा आ रहा है पर बॉडी (शरीर) मूवमेंट (गति) करना चाहती है, जैसे आप कहते हैं, पर उसके आगे घुटने टेकने ही पड़ते हैं, थोड़ी-बहुत करनी ही पड़ जाती है।
आचार्य: कर लो।
प्र: तो ये कौन करवा रहा है?
आचार्य: ये शरीर है। तुम्हें क्या लग रहा है कि तुम शरीर को बाँध या थाम सकते हो? जब तुम्हें लग भी रहा है कि शरीर थमा हुआ है, तब भी शरीर में न जाने कितनी गतियाँ चल रही हैं। रक्त का प्रवाह जानते हो, शरीर में न जाने कितने अन्य द्रव्य हैं जो लगातार गति कर रहे हैं। दिल धड़क रहा है, आँखें झपक रही हैं। इन सबका भी तुम गतिमान होना रोक दो तो भी शरीर की एक-एक कोशिका अपने-आपमें गतिशील है।
तो शरीर तो अपनी गति में संलग्न है ही। तुम्हें उस पर पहरा नहीं बैठाना है; तुम्हें बस उसका समर्थन नहीं करना। तुम्हें ये नहीं कहना है कि शरीर की गति से तुम्हें कुछ लाभ हो जाएगा। जब तुम्हें लगने लगता है कि शरीर की गति के द्वारा तुम्हारी अपूर्णता मिट सकती है, तब तुम शरीर के समर्थन में आ जाते हो। ये समर्थन किसी लाभ का नहीं होता।
प्र: जब भी मैं ध्यान करता हूँ तो आँख बंद करता हूँ जैसे ही तो सिर मेरा डोलने-सा लग जाता है।
आचार्य: वो तुम कभी-कभार ध्यान करते हो इसलिए होता है।
प्र: ट्राई (कोशिश) तो हर बार करता हूँ।
आचार्य: निरंतर ध्यान में रहो फिर सिर नहीं डोलेगा।
प्र: कोई कहता है ये कोई चक्र है, मैं तो मानता नहीं।
आचार्य: ध्यान तभी उपयोगी है जब उसमें व्यवधान ना आए। कभी-कभार का ध्यान गड़बड़-ख़तरनाक हो जाता है। दिन में जो एकाध घण्टे का ध्यान होता है, ये उपयोगी कम, हानिकारक ज़्यादा होता है। ध्यान को जीने का आधार बनाना पड़ता है। उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जगते ध्यानस्थ रहना होता है, तब ध्यान सच्चा हुआ।
प्र: तो ध्यान एक जगह पर बैठकर, आँखें बंद करके बैठने का नाम नहीं है मतलब?
आचार्य: शुरुआत कर सकते हो। शुरुआत करने के लिए ये ठीक है कि कहीं बैठ गए सुबह-शाम, आँख बंद करी, कुछ धारणा करी। ऐसे ध्यान की शुरुआत तो हो सकती है, पर पाँचवी कक्षा में रुक नहीं जाना है। ये वाला ध्यान पाँचवी कक्षा वाली बात है। शुरुआत करने के लिए ठीक है, पर जल्दी ही इससे आगे बढ़ जाना है, और आगे बढ़ने का मतलब होता है अनवरत ध्यान।
प्र: अभी जैसे आपका वीडियो सुनते हैं न, आजकल मैं कुछ भी काम कर रही होती हूँ तो मैं वीडियो लगा देती हूँ, तो उस समय पर ऐसा ही महसूस होता है जैसे मेडिटेशन (ध्यान)।
आचार्य: तो अब आपका ध्यान थोड़ा विस्तृत हुआ। उसको और भी विस्तृत कर सकते हैं। आप सड़क पर हैं, आप मैदान पर हैं, आप रसोई में हैं, आप कुछ भी काम कर रहे हैं, आप दफ्तर में हैं, उस वक़्त भी संभव है ध्यानस्थ रहना। तब जानिए कि ध्यान सफल हुआ। तभी तो लुत्फ़ है, आनंद है।
प्र: लेकिन जैसे ही अपन समाज की एक्टिविटी (गतिविधि) में जाते हैं तब वो स्थिति नहीं बनी रहती है।
आचार्य: हाँ, तब और चौकन्ना हो जाना है। जैसे ही पाइए कि हमला हुआ; और चौकन्ना हो जाना है।
प्र: उठते-बैठते, खाते, चलते असली ध्यान आप किसको कहना चाहते हैं?
आचार्य: देखिए, आप अभी यहाँ बैठी हैं, तो आपने एक भावना बनाई है कि ये एक पवित्र-आयोजन है। आपने भावना बनाई है। उस भावना के कारण आप ध्यानस्थ हैं। उस भावना के कारण अगर मोबाईल बज रहा है तो आप तत्पर नहीं हो रहे बात करने को, बल्कि आप जल्दी से उसको बंद कर देना चाहते हो, है न? उस भावना के कारण, भले ही आपके घुटने थोड़े दर्द कर रहे हों, लेकिन आप इधर-उधर करके थोड़ा अपने-आपको अनुशासित किए हुए हो, है न? प्यास लग रही हो, या शौचालय की तरफ जाना हो, बहुत बातें होती हैं, नींद आ रही हो। वो सारी बातें अभी संयमित हैं, मर्यादित हैं क्योंकि आपने अपने-आपको कहा है कि ये अवसर पावन है। पावन है और महत्त्वपूर्ण है, है न? तो उस कारण अभी आपका ध्यान निरंतर है, है न?
सत्र थोड़ी देर में अर्धविराम लेगा और फिर आप ही अपने-आपको बता देंगी कि पावन-अवसर बीत गया। अगर पावन-अवसर बीत गया तो अब कौन-सा चालू हो गया? अपावन। समझिएगा। सत्र यदि पावन है तो सत्र के उपरान्त जो शुरू हो गया वो आपके ही अनुसार क्या हो गया? अपावन हो गया न, अपावन-अपवित्र। तो फिर ध्यान क्यों लगेगा? अपवित्र समय में और अपवित्र जगह पर कोई ध्यान लगाता है? ध्यान नहीं लगेगा। तो इसलिए ध्यान टूट जाता है हमारा।
अभी ध्यान लगा हुआ है क्योंकि आपने एक सुन्दर धारणा की है। उसी धारणा के कारण ध्यान लगा। और थोड़ी ही देर में आप एक दूसरी धारणा कर लेंगी, और उस धारणा के ही कारण ध्यान भंग हो जाएगा। धारणा मत बदलिए।
प्र: आपका मतलब अवेयरनेस (जागरूकता) ध्यान है?
आचार्य: धारणा, धारणा मतलब तुम क्या भाव रख रहे हो जीवन के प्रति।
प्र: मतलब ख़ुद चाहेंगे तो यही भाव परमानेंट (नित्य) बना रहेगा?
आचार्य: शाबाश! यानी कि बात अपने इरादे की है। ऐसे ही रहिए कि मौका पाक़ है, पवित्र है। ऐसे ही रहिए कि अभी सत्संग ही चल रहा है, और सामने बैठे हैं और देख रहे हैं।
प्र: अच्छा, मेरा गुरु मेरे सामने है।
आचार्य: बिलकुल, सामने बैठा है, देख रहा है।
प्र: तो ये ध्यान है?
आचार्य: ध्यान है। कोई मौका नहीं है जब वो जो सदैव है, सर्वत्र है, सदा है, सर्वथा और सर्वदा है, वो अनुपस्थित हो। यहाँ भी है वो, वहाँ भी है। अभी भी है और कभी भी है तो फिर कोई भी मौका या कोई भी जगह अपवित्र कैसे हो सकती है? और अगर वो पवित्र है तो वहाँ वैसे ही बैठूँगी जैसे सत्संग में। तो मैं गाड़ी चला रही हूँ, हाथ में भले ही स्टीयरिंग है लेकिन ये है तो सत्संग ही, क्योंकि यदि परमात्मा है तो सदा है और सर्वत्र है, तो फिर गाड़ी के अंदर भी तो।
प्र: हर वक़्त उसकी फील (अनुभूति) करना।
आचार्य: शुरुआत के लिए भावना, कुछ समय बाद भावना की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। आरम्भ में धारणा रखनी पड़ती है। बाद में वो धारणा परिष्कृत होते-होते इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि धारणा की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।
प्र: अभी प्रैक्टिस (अभ्यास) धारणा से करनी है?
आचार्य: धारणा।
YouTube Link: https://youtu.be/mTsNGaMRP4k&t=4s