ज्ञान बंधन कैसे हुआ? आचार्य प्रशांत, शिव सूत्र पर (2019)

Acharya Prashant

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ज्ञान बंधन कैसे हुआ? आचार्य प्रशांत, शिव सूत्र पर (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ सूत्र हैं; ‘ज्ञानं बन्धः’ – ज्ञान बंधन है। तो इस पर बहुत विचार किया था तो पता चला कि जो जानते हैं हम उसकी वजह से ही दुख में हैं। तो फिर बात ये उठी कि यहाँ पर भी तो हम कुछ जानने के लिए ही आए हैं और वो सहायक है, फ़ायदा हो रहा है। तो क्या सभी ज्ञान बंधन है?

फिर आगे एक और सूत्र मिला; ‘ज्ञानं जाग्रतः’ – ज्ञान जागृति है। फिर आगे और मिला; ‘ज्ञानं अन्नं’ – ज्ञान अन्न है। और इसी से सम्बन्धित एक और है; ‘विद्या’ शब्द उपयोग हुआ है, इंग्लिश में ‘नॉलेज’ बोला है कि ‘विद्यासंहारे तदुत्थस्वप्नदर्शनम्’ व्हेन नॉलेज इज़ डिस्ट्रॉयड, द ड्रीम इज़ सीन (जब ज्ञान का नाश होता है तो स्वप्न के दर्शन होते हैं)।

तो ज्ञान, विद्या – कौन कब सहायक है ये सब?

आचार्य प्रशांत: ‘ज्ञानं बन्धः’ ऐसा कहते हैं शिव सूत्र। उसको तुम समझना कि ज्ञानी ही बंधन है। ज्ञान किसको है? ज्ञान किसके लिए है? जो ज्ञानी बन गया हो, जो ज्ञान से अपना नाता जोड़ ले, नाम जोड़ ले, अपनी पहचान जोड़ ले, जो कहे कि मुझे परिभाषित करता है मेरा ज्ञान। मैं कौन हूँ? वो मेरे ज्ञान से निर्धारित हो रहा है। मैं कौन हूँ? वो जिसके पास ज्ञान है – ये ज्ञानी अब बंधन में है।

ज्ञान तो बेचारा अपनेआप में दुर्बल है, पंगु है, अचेतन है, क्या कर लेगा? आँकड़ा मात्र है, सूचना मात्र है। ज्ञान बंधन उसके लिए बन गया जो अपने-आपको ज्ञान के तल पर परिभाषित करने लग गया, जो कहे लग गया कि मैं वो हूँ जो मैं जानता हूँ। ‘मैं वो हूँ जो मैं जानता हूँ’, और जानते कैसे हो तुम? जानने का तुम्हारे पास जो उपकरण है वो अपनेआप में बड़ा बंधन है। कुछ भी जान पाओगे तुम अगर तुम्हारे पास मस्तिष्क न हो, मेधा न हो या स्मृति न हो? और मस्तिष्क माने शरीर। और जानने के लिए जिन उपकरणों का तुम सहारा लेते हो वो बड़े सीमित – आँख, कान, नाक। और जानने की जो प्रवृत्ति है वो भी आती अपूर्णता के ही भाव से है – ‘मैं वो हूँ जिसे कुछ पता नहीं है, तो क्यों न मैं ज्ञान इकट्ठा करूँ और ज्ञान के माध्यम से मैं अपनेआप को परिभाषित कर लूँ?’

वास्तव में जो अपनेआप को ‘ज्ञानी’ कहे उसने अपने-आपको ज्ञानी कह करके ये सिद्ध कर दिया कि वो अल्पज्ञानी है। ज्ञान के दम पर नहीं जिया जाता। ज्ञान सहायक होता है सांसारिक निर्वाह के लिए। पर तुम संसार में अपना निर्वाह भर थोड़े ही करने आए हो, तुम संसार में हो ताकि अंततः तुम संसार से मुक्त हो सको, संसार से पार जा सको। तुम्हें ऐसा थोड़े ही करना है कि संसार में टिके रह जाओ। ज्ञान संसार में टिके रहने में तुम्हारी सहायता कर देता है। संसार के पार नहीं ले जा पाएगा क्योंकि सारा ज्ञान ही ‘सांसारिक’ है। असली नहीं हो सकता ज्ञान।

अभी अगर स्मृति लोप हो जाए तो फिर क्या होगा तुम्हारी पहचानों का, अगर सारी पहचानें ज्ञान से ही आतीं हैं तो? कहाँ जाओगे? बहुत बड़े हो और वो सारा बड़प्पन कहाँ बैठा हुआ है? वो मस्तिष्क की कुछ कोशिकाओं में, कुछ रसायनों में बैठा हुआ है स्मृति बनकर। गई अगर स्मृति तो फिर क्या करोगे? स्मृति गई है, स्मृति के साथ-साथ क्या तुम भी चले गए? मुक्त वो, बुद्ध वो जिसने ज्ञान से परे अपनी पहचान पा ली। जिसने ज्ञान से आगे का ज्ञान पा लिया, या बस इतना ही कह दो कि जो ज्ञान से मुक्त हो गया, उसको जानना ‘ज्ञानी’। जो ज्ञान से मुक्त हो गया उसको कहना कि ज्ञानी है।

कोई भी ज्ञान आत्मा के विषय में नहीं होता। जिसे आध्यात्मिक ज्ञान कहते हो, विद्या, वो भी होता तुम्हारे ही विषय में है। ‘अविद्या’ संसार के विषय में, ‘विद्या’ अहंकार विषय में। ये तुम्हें तुम्हारे बारे में बता सकते हैं। और तुम अहम् हो, तुम आत्मा बनकर तो ज्ञान पाने निकलते नहीं न, आत्मा को ज्ञान की क्या ज़रूरत? ज्ञान तुम्हें झूठ के बारे में ही बता सकता है। तो आध्यात्मिक ज्ञान एक विशेष तरह का ज्ञान होता है जो तुम्हें बता देता है कि सारा ज्ञान झूठा है – झूठा कह लो या सीमित कह लो। जितना तुमने आज तक ज्ञान इकट्ठा किया होता है, अविद्या भी और विद्या भी, अध्यात्म वो ज्ञान है जो आजतक के तुम्हारे सारे संचित ज्ञान की कलई खोलकर रख दे। इसीलिए अध्यात्म आत्मज्ञान है, विशेष कोटि का ज्ञान है। हर तरह का ज्ञान तुम्हारी पहचानों को और पक्का करता है, और सबल करता है। आध्यात्मिक ज्ञान अकेला है जो तुम्हारी पहचानों को गलाता है, मिटाता है।

एक दूसरे सूत्र में तुमने पूछा कि जाग्रत अवस्था में ज्ञान है, स्वप्न में विकल्प हैं, ठीक है? जाग्रति की इसीलिए महत्ता है – जाग्रति में तुम तथ्यों को जान सकते हो। सपने में भी संसार होता है, लेकिन समझाने वालों ने हमेशा कहा है कि सपनों से बाहर आओ। क्योंकि सपनों का जो संसार है उसमें तुम कोई नयी खोज नहीं कर रहे। अंतर साफ़ समझ लो – चेतना की जाग्रत अवस्था में भी एक संसार है और जब तुम सोए हुए हो, सपनों में खोए हुए हो तो भी एक संसार है। फिर क्यों बार-बार तुमसे कहा जाता है कि ‘उठो, जगो, चेतो’? क्योंकि तथ्यों का पता तुम्हें सिर्फ़ जाग्रति में लग सकता है, सपनों में नहीं। संसार सपनों में भी है, पर वहाँ कोई तथ्य नहीं है, वहाँ तो बस पुरानी बातें हैं, वहाँ तुम कोई नयी खोज नहीं कर पाओगे, वहाँ तुम्हें कुछ ऐसा नहीं पता लगेगा जो तुम्हारी मुक्ति में सहायक हो जाए।

स्वप्न भी मुक्ति में सहायक तब बनते हैं जब तुम जगने के बाद सपनों पर विचार करते हो। सपना माने कल्पना, कल्पनाओं के लिए ही कहा गया ‘विकल्प’। और जाग्रति माने तथ्य।

जो कल्पनाओं के तल पर जी रहा है उसे बार-बार चोट लगेगी। तथ्य के तल पर जीने का मतलब है कि कम-से-कम तुम इतना तो मान रहे हो कि शरीर है, पदार्थ की सत्ता के प्रति तो तुम सचेत हो न, कल्पनाएँ तो पदार्थ की सत्ता के प्रति भी सचेत नहीं होतीं। तो कल्पनाएँ दुख देंगी। तुम कल्पना में हो, सामने पत्थर पड़ा है एक, पदार्थ है, और शरीर भी पदार्थ है – ये दोनों पदार्थ टकरा जाएँगे, चोट लगेगी, दुख होगा।

जाग्रति में कोई विकल्प नहीं होता, पत्थर माने पत्थर। और सपने में, बेहोशी में, पत्थर पत्ता भी हो सकता है और पत्थर लड्डू भी हो सकता है। तुम कुछ भी मान सकते हो उसको, लेकिन जो कुछ तुम मान रहे हो उसके कारण उस पत्थर से लगने वाली चोट कम नहीं हो जाने वाली।

तो इसीलिए समझाने वालों ने कहा कि ज़रा कम सोओ, उठ बैठो। दोनों तरह की जाग्रति की उन्होंने बात करी – एक जाग्रति वो जो चेतना की सोई हुई अवस्था से चेतना की जाग्रत अवस्था की ओर लाती है, और दूसरी जाग्रति वो जो तुम्हें चेतना की सारी अवस्थाओं के पार ले जाती है। सारी अवस्थाओं के पार भी जा सको उसके लिए आवश्यक है कि सबसे पहले तुम पहले स्वप्न, सुषुप्ति आदि से अपना रिश्ता जोड़ना ज़रा कम करो।

प्र: तो, ‘ज्ञानं जाग्रतः’ इसका जो अनुवाद था नॉलेज इज़ द वेकिंग स्टेट , असल जो आपने बताया कि इन द वेकिंग स्टेट इज़ द नॉलेज (ज्ञान जाग्रत अवस्था में है)। आगे एक और है, ‘ज्ञानं अन्नं’ नॉलेज इज़ फूड , ये इसके साथ है, द गुरु इज़ द मीन्स, द बॉडी इज़ द ऑफरिंग एंड नॉलेज इज़ द फूड (गुरु माध्यम है, शरीर का चढ़ावा देना है, और ज्ञान भोजन है)। तो ‘फूड’ किस उपलक्ष्य में है, जो ज्ञान है उसे ही जलाना है...

आचार्य: सारा ज्ञान मस्तिष्क को ही है न? और मस्तिष्क क्या है? जो आज तक तुमने खाया-पिया वही और क्या।

मस्तिष्क क्या है? ये सब जो तुमको अलग-अलग दिखाई देता है, उसको एक तल पर देखो। अन्न, देह, ज्ञान – सब भौतिक हैं। भौतिक माने भूतों से सम्बन्धित, पदार्थगत, सांसारिक। अन्न, देह, ज्ञान ये तीनों एक ही तल के हैं, तीनों क्या हैं? मटिरियल , भौतिक। और तीनों इसीलिए सदा तुमको अंतर-सम्बन्धित दिखाई देते हैं। कोई तुमको देही नहीं मिलेगा जो बिना अन्न के हो, और कोई तुमको देही नहीं मिलेगा जो बिना ज्ञान के हो। पशु भी अन्न की तरफ़ नहीं जा सकता अगर उसे ज्ञान न हो। बच्चा पैदा होता है उस क्षण भी वो ज्ञान से भरपूर होता है। बस वो ज्ञान उसे समाज ने नहीं दिया, वो ज्ञान उसे गर्भ ने ही दे दिया है, वो ज्ञान उसकी कोशिकाओं में विद्यमान है।

इसीलिए जो तुमको मिलते हैं पदार्थवादी, भोगवादी लोग, उन्हें आत्मा में भले ही श्रद्धा न हो, पर ज्ञान में भरपूर श्रद्धा होती है, क्योंकि ज्ञान भी क्या है? भौतिक। जो कुछ भौतिक है उसी के विषय में ज्ञान हो सकता है, आत्मा अज्ञेय है, आत्मा का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। संसार, शरीर और ज्ञान – ये तीनों साथ-साथ चलते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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