गुरुकृपा क्या होती है? || तत्वबोध पर (2019)

Acharya Prashant

9 min
220 reads
गुरुकृपा क्या होती है? || तत्वबोध पर (2019)

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति, पूजामूलं गुरुर्पदम्। मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरूर्कृपा॥

ध्यान का मूल, गुरु की मूर्ति है। पूजा का मूल, गुरु के चरण कमल हैं। मंत्र का मूल, गुरु के शब्द हैं। मोक्ष का मूल, गुरु की कृपा है।

—(गुरुगीता, श्लोक ७६)

प्रश्नकर्ता: गुरुकृपा क्या होती है?

आचार्य प्रशांत: अगर तुम सच-सच पूछोगे, वस्तुतः पूछोगे तो गुरुकृपा कोई विशेष चीज़ होती ही नहीं, क्योंकि वो सदा है, सर्वत्र है। मनुष्य के लिए जीवन ही गुरुकृपा है; सत्य ही गुरु है और जीवन ही गुरुकृपा है।

हमने अभी कहा था न कि जीवन ही एक भेंट है, एक ऐसा तोहफ़ा जिसमें तुम आगे बढ़ सकते हो, निर्मल हो सकते हो, उन्नत हो सकते हो। तुम्हारे उन्नयन के लिए तुम्हें जो भेंट दी गई है, उसका नाम है जीवन। जीवन ही गुरुकृपा है।

लेकिन जीव तो इंद्रियों का ग़ुलाम होता है और इंद्रियों को कभी कुछ ऐसा दिखेगा ही नहीं जो सदैव और सर्वत्र हो। तुम्हारी आँखों ने कभी कुछ ऐसा देखा है जो सदा हो और हर जगह हो, कुछ देखा है? इंद्रियाँ तो उसी का अनुभव कर पाती हैं जो कभी-कभी और कहीं-कहीं हो। तो फिर जीव के लिए गुरुकृपा के विशिष्ट मायने होते हैं।

हमने कहा, वस्तुतः तो गुरुकृपा बड़ी साधारण, बड़ी निर्विशिष्ट चीज़ है। अस्तित्व को ही गुरुकृपा मानो। लेकिन विशिष्ट जीव के लिए गुरुकृपा भी विशिष्ट चीज़ हुई।

क्या हुई गुरुकृपा?

गुरु का शब्द तुम्हारे सामने पड़ जाए, तुम पढ़ लो, ये गुरुकृपा है। उससे आगे बढ़ो अगर, तो गुरुकृपा है कि गुरु की वाणी तुम्हारे कान में पड़ जाए; वो गुरुकृपा है। अब ये देख रहे हो क्या हो रहा है? तुम्हारे लिए गुरुकृपा वही है जिसमें गुरु क्रमशः और साकार होता जाए। चूँकि तुम निराकार नहीं, इसीलिए तुम्हारे लिए गुरुकृपा भी निराकार रूप में बहुत अर्थ नहीं रखती।

आँखों के सामने गुरु का शब्द आ गया, तुम पर गुरुकृपा हो गई। और गुरुकृपा तो पहले भी थी, पर तुम तो आँखों पर चलने वाले आदमी हो, तो तुमको कृपा तभी उपलब्ध हुई, या कह लो कि तुमने कृपा तभी मानी जब आँखों के सामने ग्रंथ का शब्द पड़ गया।

लेकिन तुम्हारी इस ज़िद के कारण कि, "मैं गुरुकृपा तभी मानूँगा जब गुरु साकार होकर मेरे सामने आए", गुरु को साकार होना पड़ा। तुमने कहा कि, "मैं जानूँगा ही तभी जब शिक्षा शब्द रुप में मेरे सामने आए, मैं समझूँगा ही तभी जब शब्दों में समझाओ तुम", तो गुरु को शब्द का उच्चारण करना पड़ा।

समझ लो कि जैसे गुरु तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा है। गुरु अपनी प्रसुप्त स्थिति को छोड़कर जैसे चेतना धारण कर रहा है तुम्हारे लिए। और भूलना नहीं कि आज सुबह ही हम कह रहे थे कि चेतना सदा एक बोझ होती है।

गुरु समाधिस्थ है, गुरु की प्रसुप्ति अति गहरी है, लेकिन तुम्हारा कहना है कि तुम सुनोगे ही तभी, समझोगे ही तभी जब गुरु चैतन्य रूप में समझाए, तो फिर शब्द आता है तुम्हारे सामने। सोता हुआ जग करके शब्द उच्चारित करता है, ओंकार की ध्वनि होती है, जगत प्रणवमय हो जाता है। जिन्हें समझना होता है, वो इतने में समझ लेते हैं।

कई होते हैं जो कहते हैं, "हमें अभी भी समझ में नहीं आया", तो गुरु उनके पीछे-पीछे और चलता है। वो कहता है कि, "अगर तुमको लिखे हुए शब्द से नहीं समझ में आता, तो आओ सामने बैठ करके वाणी सुन लो।" ये तुम्हारे लिए और उच्चतर गुरुकृपा हुई। तुम्हारे लिए उच्चतर गुरुकृपा हुई और गुरु के लिए, समझ लो, और बोझ हो गया। पहले तो उसे सिर्फ़ उच्चारण करना था, अब वो सशरीर सामने बैठे और बोले। क्यों बोले? क्योंकि तुम्हारी ज़िद है कि तुम आमने-सामने बैठोगे, तभी तुम सुनोगे और समझोगे।

गुरु अपने स्वभाव के विरूद्ध जा रहा है। गुरु का स्वभाव क्या है? मौन। और तुम उसे विवश कर रहे हो कि वो बोले। गुरु का स्वभाव क्या है? समाधि। पर तुम उसे विवश कर रहे हो कि वो चैतन्य हो जाए।

तो बहुत होते हैं जिनका काम इतने में बन जाता है, वो कहते हैं, "गुरु के सामने बैठे, बातें सुनी, काम बन गया।" कुछ होते हैं फिर जो इतने में भी नहीं मानते, वो कहते हैं, "अभी तो कई इंद्रियाँ हैं जिन्हें गुरु का अनुभव नहीं हुआ; आँखों को हुआ, कान को हुआ, और तो हुआ ही नहीं।" तो फिर उनको समझाने के लिए गुरु को विवश होकर उनके जीवन में उतरना पड़ता है। गुरु को वो सब करना पड़ता है जो गुरु के स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध है।

सत्य असंग होता है, लेकिन फिर शिष्य की ख़ातिर गुरु को देह का, जीव का संग करना पड़ता है। सत्य अनिकेत होता है, लेकिन शिष्य की ख़ातिर गुरु को निकेतन भी ग्रहण करना पड़ता है—अनिकेत माने जो किसी घर में नहीं रहता—शिष्य की ख़ातिर गुरु घरवाला भी बन जाता है।

और गुरुकृपा का, तुम समझ लो, उत्कर्ष ही तब हो गया जब तुम गुरु को विचलित ही कर दो। ये बात सुनने में बड़ी अजीब लगेगी क्योंकि आत्मा तो अचल, अविचल होती है। सत्य का स्वभाव है अचलता, अकम्प, अडिग, अचल। ऐसा होता है सत्य। पर कई दफ़े तुम्हारी ज़िद होती है कि, "हम सुनेंगे ही तब जब गुरु भी हमारी ही तरह विचलित हो जाए", तब तुम्हारी ख़ातिर गुरु विचलित होकर भी दिखा देता है। यहाँ तक भी विचलित हो सकता है कि तुम्हारी पिटाई ही लगा दे। ये गुरुकृपा की पराकाष्ठा हो गई कि गुरु ने तुमको लगाए दो डंडे—क्योंकि सत्य तो सर्वथा अहिंसक होता है‌।

तुम्हारी ख़ातिर अगर सत्य को डंडा उठा लेना पड़ा, तो ये गुरु के प्रेम का ऊँचे-से-ऊँचा प्रमाण है। इतना चाहता है वो तुमको कि तुम्हारे ख़ातिर उसने अपना स्वभाव भी त्याग दिया। ऐसे होती है गुरुकृपा। अब बोलो, किस स्तर की चाहिए?

बहुत लोग होते हैं जो बैठे-बैठे बस सुनते हैं हर शिविर में। उनका यूँ ही सुनकर काम हो जाता है। और बहुत होते हैं जो पूछते जाते हैं, पूछते जाते हैं; वो पूछते जाते हैं, मैं बोलता जाता हूँ।

प्र२: जैसे गुरु का स्वभाव होता है मौन, तो क्या गुरु दृष्टि से और अपने वाइब्रेशन (कंपन) से भी शिक्षा देता है?

आचार्य: दृष्टि के बिना भी, कम्पन के बिना भी शिक्षा देता है। लेकिन शिक्षा ग्रहण करने के लिए कोई शिक्षार्थी तो उपलब्ध होना चाहिए न। शिक्षा तो तैर रही है चहुँदिश, पर सिग्नल (संकेत) के होने भर से क्या होता है? रिसीवर (अभिग्राही) भी तो चाहिए न।

अब मामला ज़रा उल्टा चलता है। आमतौर पर जब आपका रेडियो ना बोल रहा हो, तो आप रेडियो की मरम्मत कराते हो। आप यह तो नहीं कहते कि सिग्नल ग़लत है। आप यह तो नहीं करते कि जाकर रेडियो स्टेशन में शिकायत करें कि, "फ्रीक्वेंसी (आवृत्ति) बदलो, हमारा रेडियो तुम्हें कैच नहीं करता।"

गुरु-शिष्य के साथ खेल ही दूसरा हो जाता है। सैद्धांतिक तौर पर तो गुरु शिष्य को यही सीख देता है कि, "हम सिखा रहे हैं, तुम सीखो, और सीखना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है", लेकिन अंदर-ही-अंदर घटना उल्टी घट रही होती है। शिष्य में अगर इतनी सामर्थ्य ही होती कि वो ज़िम्मेदारीपूर्वक सीख सकता, तो वो शिष्य क्यों होता?

गुरु ऊपर-ऊपर शिष्य से कहता है, “सीखना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। तुम रिसीवर हो, तुम अपनी ट्यूनिंग (समस्वरण) करो ताकि तुम हमारा वाइब्रेशन (स्पंदन) पकड़ सको।” ये ऊपर-ऊपर से बोलता है गुरु, अंदर-ही-अंदर से दूसरी चीज़ हो रही होती है। गुरु देखता है कि इसका जो डब्बा है, वो कौन-सा सिग्नल पकड़ लेगा, कोई तो सिग्नल होगा जो इसका डब्बा पकड़ता होगा। और फिर गुरु अपने-आपको बदलता है, ताकि वो वही सिग्नल भेज सके जो तुम्हारी पकड़ में आए। होना उल्टा चाहिए, पर होता कुछ और है।

हमने तो प्रतीक भी ऐसे बनाए हैं न कि भक्त भगवान के पीछे-पीछे जा रहा है और भगवान बिलकुल मूर्तिवत् खड़े हैं, कुछ जबाव नहीं दे रहे। हमारे सारे प्रतीकों से भी ऐसा लगता है जैसे भक्त तो कितना आग्रही है, कितना उत्सुक है कि भगवान मिल जाएँ, और भगवान ही बिलकुल पाषाणवत् हैं, वो जवाब ही नहीं दे रहे। भक्त साधना करे जा रहा है, भगवान पिघल ही नहीं रहे। हक़ीक़त उल्टी है। भगवान साधना में लगे हुए हैं कि, "किसी तरह से इसके डब्बे का कुछ हिसाब पता चले तो मैं कोई सिग्नल भेजूँ जो इसको समझ में आए।"

तो अगर तुम पढ़ते हो कभी कि फलाने भक्त शिरोमणि ने सौ साल तक साधना की, तो वो तुम समझ लेना भगवान को सौ साल लग गए। ये भक्त इतना धुरंधर था कि इसकी अंदर की मशीनरी (तंत्र) पकड़ने में भगवान को ही सौ साल लग गए। और सौ साल बाद जाकर उन्होंने वो सिग्नल भेजा कि भक्त के रेडियो में कुछ बजा – ॐ।

लेकिन भक्त तो फिर भक्त ठहरे, उन्होंने दावा क्या ठोका? कि “भगवान सुन नहीं रहे थे। हमने सौ साल लगाए, हमने! श्रेय हमारा है।” तो लोग फिर कहते हैं, "भगवान तो भगवान हैं, इन भक्तराज की पूजा करो।" फिर भक्तों की पूजा की परम्परा चलती है। कहें, ये तो भक्त शिरोमणि थे!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories