गुरु वो जो तुम्हें घर भेज दे || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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गुरु वो जो तुम्हें घर भेज दे || आचार्य प्रशांत (2014)

आचार्य प्रशांत : गुरु की अनुकम्पा, या स्रोत का, या किसी का भी, कोई कर्म नहीं है। कुछ बातें समझ लो, इस बात को साफ़ साफ़। अनुकम्पा में, कोई चुनाव ही नहीं है। अनुग्रह, कृपा, अनुकम्पा, जो भी उसको बोलो। उसमें कोई चुनाव ही नहीं है कि तुम मनाओ कि काश मुझे भी उपलब्ध हो जाए। ऐसा कुछ नहीं है। सूरज की रोशनी की तरह है। और ये बड़ा अच्छा उदाहरण है, सूरज की रोशनी। पहली बात तो, सूरज की कोई विशेष इच्छा नहीं है, कि धरती को चमकाना है। सूरज का होना ही प्रकाश है। दूसरी बात, सूरज कोई चुनाव नहीं कर रहा है। जो कुछ भी ‘है’, उसे प्रकाश उपलब्ध ही है। तीसरी बात, तुम्हें कुछ कर कर के प्रकाश अर्जित नहीं करना है।

तुम क्या करोगे प्रकाश अर्जित करने के लिए? तुम्हारा होना ही काफी है। हाँ, अगर तुमने अपने आप को किसी कोठरी में क़ैद कर रखा है, तब ज़रूर तुम्हें कुछ करना होगा। और क्या करना होगा? बाहर आना होगा। और बाहर भी तुम क्यों आओगे? कोठरी में हो, वहाँ तुम्हारी सुरक्षा है, तुम्हारी आदत है, वहाँ तुम्हारे सम्बन्ध बन गए हैं। बाहर भी क्यों आओगे? तुम रोशनी की तरफ क्यों बढ़ोगे? इस बात को ध्यान से समझना। हम रोशनी का उदाहरण ले रहे हैं, उसे हम अनुकम्पा का, अनुग्रह का, प्रतीक बना रहे हैं। हम जानना चाह रहे हैं कि कोई अनुकम्पा की तरफ क्यों बढ़ता है, क्यों उसे उपलब्ध होता है। पहली बात तो ये है कि वो सदा उपलब्ध है, तुम्हें उपलब्ध होना है। तुम क्यों कर उपलब्ध होओ उसे? तुम उसे उपलब्ध सिर्फ इसलिए होते हो, क्योंकि तुम्हें उसकी याद आती है। मैं बड़े सरल शब्दों में बोल रहा हूँ।

अँधेरे में रहते आदमी के पास कोई कारण नहीं है रोशनी की तरफ जाने का, सिवाय इसके कि उसे रोशनी की याद आती है। इसी बात को मोटे और शास्त्रीय और क्लिष्ट शब्दों में भी कहा जा सकता है। पर उसको सीधे-सीधे ऐसे ही समझ लो, कि कुछ है, अंतर्मन में, गहरा बैठा हुआ, जो रह रह कर के, याद दिलाता है, रोशनी की। और फिर अचानक कभी ऐसा हुआ, कि तुम कोठरी में हो, और किसी ने थोड़ा सा रोशनदान खोल दिया। और फिर क्या हुआ? याद एक ताकत बन गयी, याद एक आवेग बन गयी। अब तुमने कहा, “रोशनदान खुला है, दरवाज़ा खुद खोलूँगा।” नहीं खुल रहा दरवाज़ा तो दीवारें ही तोड़ डालूंगा। पर रोशनी चाहिए। या कि खिड़की में से किसी ने किसी दिन झाँका, और उसके चेहरे को देख कर के तुम्हें रोशनी की याद आ गयी। उसे गुरु कहते हैं।

बात समझ में आ रही है? लेकिन जाना तो अंततः रोशनी की और तुम्हें ही है। क्योंकि तुम और रोशनी दो अलग अलग नहीं। पागल ही हो जो सोचे कि वो और सूरज का प्रकाश दो अलग-अलग चीज़ें हैं। नहीं। सूरज का प्रकाश नहीं हैं तो धरती पर कुछ नहीं है, जब धरती पर कुछ नहीं है तो तुम कहाँ से आ गए? तुम खुद सूरज का प्रकाश हो, तुम्हारी सारी ऊर्जा, धरती की सारी ऊर्जा का एकमात्र स्रोत है सूरज। उस ऊर्जा के रूप अनेक हो सकते हैं, पर मूलतः वो सूरज की ही ऊर्जा है। तुम खुद कुछ नहीं हो। तुम, सूरज की घनीभूत ऊर्जा हो जो इक्कठा हो गयी है, जिसने एक रूप ले लिया है। उस ऊर्जा को अपने प्रथम स्रोत की याद आती है। वो वही है। वो उससे अलग थोड़े ही कुछ है।

लेकिन यात्रा लम्बी है, स्रोत से बिछड़े काफी समय हो गया। पहले नाते को छोड़े कर के और हम दस नाते बना लेते हैं। बड़ी पहचानें इक्कठी कर लेते हैं, बड़े लेबल लगा लेते हैं। बड़े गंभीर मसले ज़िन्दगी में आ जाते हैं। हज़ार बातें हैं जिनमें उलझ जाते हैं। और वो जो हम हैं ही, वो जहाँ से हम आये हैं, उसको भूलने लग जाते हैं। भूल तुम सकते नहीं, याद आनी पक्की है, क्योंकि तुम वही हो। तुम्हारी सारी चेतना उसी से उद्भूत है। तुम कुछ भी देखोगे, याद तुम्हें उसी की आएगी। क्योंकि तुम्हारा देखना भी, उसी के होने से है। तो देखने मात्र से, साँस लेने मात्र से, एक एक कदम के उठाने से, तुम्हें याद उसकी आनी ही आनी है।

गुरु वो, जो सामने ही सूरज का रूप ले के खड़ा हो जाए। जो पैगम्बर हो सूरज का। पैगम्बर समझते हो? जो पैगाम ले के आया है। जो सन्देश ले के आया है। और उस सन्देश में और कुछ नहीं लिखा होता, बस इतना ही लिखा होता है। क्या? क्या लिखा होता है?

श्रोता : घरवापस आ जाओ

आ अब लौट चलें

वक्ता : ठीक है। ऐसे ही कह लो। कम बैक होम , आ अब लौट चलें।

एक अक्षर भी लिखा हो सकता है, सिर्फ एक अक्षर – मैं । बस हो गया। तुम्हें याद तो पहले से ही आती है, बस इशारा काफी है। इतना ही बस लिखा है- मैं । तुम तुरंत पहचान जाओगे किसने लिखा है। तुम तो तैयार ही बैठे थे। तुम्हारे सारे कष्ट, सारी बेचैनी, वापस लौटने की ही तो तैयारी है।

तो जैसे ही कोई आएगा, और उधर की बात सुनाएगा, तुम तुरंत आकर्षित हो ही जाओगे। आकर्षण, ध्यान रखना, इसीलिए नहीं है कि उस व्यक्ति में कुछ ख़ास है। आकर्षण इसलिए है, क्योंकि, वो वहीं से आ रहा है, जहाँ से तुम ही आये हो। वो तुम से तुम्हारे ही घर की कहानी कह रहा है। तो तुम्हें सुनने में तो मज़ा आएगा ही ना?

तुम अपना घर छोड़ के पड़े हो, और कोई आया है, और तुमसे तुम्हारे ही घर की कहानी कह रहा है, सुनोगे नहीं? सुनोगे ना? पूरे चाव से सुनोगे। बस यही है गुरु। गुरु वो नहीं जो तुमको बुला के अपने पास बैठा ले। गुरु वो है जो तुमको तुम्हारे घर भेज दे। और घर सबका एक ही है। कबीर कहते हैं कि पारस पत्थर होता है, वो तो ये करता है कि लोहे को सोना बना देता है। और संत ये करता है कि तुमको तुम बना देता है। बड़ा अंतर है। पारस *में,* और संत *में ,* बड़ो अन्तरो *जान,* वो लोहा कंचन *करे ,* वो कर दे आप समान।

मन प्रमाण मांगता है ना? गुरु प्रमाण है। मन तो कहता है, “कैसे मान लूँ कि ये सम्भव भी है?” गुरु प्रमाण बनके सामने खड़ा होता है, “हाँ है, रोशनी है, मैं प्रमाण हूँ इस बात का कि रोशनी है, मैं प्रमाण हूँ इस बात का कि मुक्ति है, मैं प्रमाण हूँ इस बात का कि प्रेम हो सकता है, कि जीवन आज़ादी में जिया जा सकता है, कि उड़ा जा सकता है।” और तुम्हें उस प्रमाण की ही तलाश थी। तुम्हें भी बहुत नहीं चाहिए। तैयार ही बैठे हो। बस मन थोड़ा सवाल जवाब करता है तो ठीक है, उसके लिए।

तुम उससे आये हो जो परम-मुक्त है। तो हमारे होने में भी मुक्ति पूरी है। हमें मुक्ति है कि हम बेवक़ूफ़ बने रहे। पूरी मुक्ति है, आज़ादी है। और हमें ये भी आज़ादी है, कि हम वापस मुड़ जाएँ स्रोत की तरफ। आज़ादी पूरी है। तुम कर सकते हो। जो मुक्त से आया है, उसे मुक्त की मुक्ति का कुछ अंश उसे मिला हुआ है। पूरी आज़ादी है अहंकार को, कि किसके साथ जा के संयुक्त हो जाता है।

अभी कुछ दिन पहले लोग आये थे, तो उनसे मैंने कहा था कि “*ईगो इज़ द फ्रीडम टू रीमेन एन इडियट*”। पूरी आज़ादी है, बेवक़ूफ़ बने रहने की। उसी का नाम अहंकार है। और ये भी आज़ादी है कि तुम मुक्ति की दिशा में कदम बढ़ाओ तो पूरी आज़ादी है तुम्हें कि गुरु को न सुनो। न सुनो क्या, तुम्हें ये भी आज़ादी है कि तुम मैसेंजर की हत्या ही कर दो। जो हिन्दुओं के शास्त्र हैं, स्मृतियाँ, उनमें बड़े विस्तार से समझाया गया है, कि गुरु की हत्या क्यों नहीं की जानी चाहिए। और गुरु की हत्या करने पर फिर क्या क्या सज़ा मिलती है। मतलब समझो इस बात का, कि तुम्हें पूरी छूट है, हत्या करने की।

और हत्याएँ हुई होंगी।

(श्रोता हँसते हैं)

खूब हुई होंगी, तभी ये बात लिखी गयी है कि देखो, ऐसा होगा तो ऐसा होगा। गुरु का घर जला दिया तो देखो कितना बुरा होगा। और मनुस्मृति तो विस्तार से ये भी बताती है कि गुरु की पत्नी को लेके भाग गए, तो उसकी क्या-क्या सज़ा है। पूरे विस्तार से बताया गया है। तो छूट तो तुम्हें पूरी है, तुम कुछ भी करो। ये तुम्हारी आधारभूत आज़ादी का हिस्सा है। पर भुगतोगे तुम ही।

सब होता रहा है। यकीन जानो, और किसी की हत्या करने में उतना रस नहीं है, जितना गुरु की हत्या करने में है। गहरे से गहरा मज़ा है। क्योंकि बड़ा परेशान करता है। एक दिन मन करता है कि आज ख़तम ही कर दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। और ख़ास तौर पे, जिस दिन अहंकार पर आखिरी चोट पड़ने वाली होता है, उस दिन तो दिल बड़ा ही ललचाता है कि आज इससे पहले कि ये मुझे ख़त्म कर दे, मैं इसे ही ख़त्म किये देता हूँ, “ये है क्या, ये शरीर ही तो है। ये भी तो एक व्यक्ति ही है, मार देते हैं, मर जाएगा।”

तुम समझते ही नहीं कि व्यक्ति नहीं है। जो व्यक्ति था, वो तो मर जाएगा। पर उसके मरने से कुछ बदल नहीं जाना है। सत्य का कुछ नहीं बिगड़ जाना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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