गुरु: न बाबा, न टीचर — तो कौन?

Acharya Prashant

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गुरु: न बाबा, न टीचर — तो कौन?
गुरु ही देव है, माने ऊँचा देव को बाद में मानना, पहले आत्मा को ऊँचा मानो। बाहर कुछ भी ऊँचा नहीं है, जो ऊँची से ऊँची चीज़ हो सकती है, वो तुम्हारे ही भीतर मौजूद है। कितनी आत्मसम्मान की बात है ना ये। पर हम अपने ही प्रति अपमान से भरे हुए लोग हैं। तो हमें लगता है कि वहाँ पर कुछ है और हमें जाकर लोट जाना है, नेताजी हो, कोई हो, लौट जाना है। हीन भावना, अपना ही अपमान। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: जो सबसे ऊँची चीज़ हो उससे कटकर क्यों रहा जाए, और जुड़ना कई बार तरीक़ा हो सकता है कटने का। उदाहरण के लिए गुरु पूर्णिमा 365 में से एक दिन है तो जुड़ जाते हैं। कितने दिन? एक दिन। 365 में से एक दिन जुड़ जाते हैं। और इतना जो ये विराट ब्रह्मांड है, उसमें किसी एक व्यक्ति को या दो-चार व्यक्तियों को गुरु घोषित कर देते हैं, शरीर देख कर के। शरीर पहली बात तो आते-जाते रहते हैं, और दूसरी बात शरीर तो सबके लगभग एक जैसे ही होते हैं। तो समग्रता से, पूरेपन से ख़ुद को किसी क़द्र बचाए रखने का एक तरीक़ा और ये हो गया। और इन दोनों को मिला दें तो क्या बात बन जाएगी? वो ये कि गुरु है माने कोई इंसान है और गुरु पूर्णिमा आती है साल में एक बार, उस दिन उस इंसान की स्तुति, श्लाघा कुछ कर दो। उस दिन उसकी प्रशंसा कर दो, भजन वग़ैरह गा दो, चरणकमल और इस तरह की बातें उससे खूब सारी कर डालो।

एक व्यक्ति, एक दिन। एक व्यक्ति और उसका एक दिन। तो इसलिए मैंने आपसे आते ही कहा कि जुड़ना अक्सर कटने का बहाना हो जाता है। एक दिन तो 1/365 और एक व्यक्ति तो वो व्यक्ति सदा उपलब्ध रहने नहीं वाला। पहली बात तो मरेगा और दूसरी बात जब तक ज़िंदा भी है, तब तक हमेशा आपके सामने रहेगा नहीं। आपके सामने रहे भी तो वो चीज़ तो बाहरी ही है ना। आप उसकी सुनो क्यों? कोई भी बाहर है आपसे, आप उसकी क्यों सुनो? और आप उसकी बात सुन भी लो तो समझो क्यों? व्यक्ति ही तो है। अधिक से अधिक कितनी ऊँचाई दे सकते हो किसी व्यक्ति को? दे सकते हो, बहुत दे सकते हो, पर एक सीमा हो जाएगी। उस व्यक्ति की अपनी भी कुछ सीमाएँ हैं और बाक़ी आप भीतर ही भीतर उसके साथ अपने संबंध को सीमित रख सकते हो। दोनों बातें। तो कुल मिलाकर ये पूरा जो कार्यक्रम है, ये बड़ा ख़ुद को रोके रहने का हो जाता है। सीधे शब्दों में कहूँ तो आत्म-प्रवंचना — ख़ुद को ही धोखा देना।

गुरु गीता को गुरु की स्तुति में बड़ा केंद्रीय ग्रंथ माना गया है और चलता रहा है। उसमें बात ही सारी यही है कि गुरु क्या? गुरु कौन? गुरु की महिमा क्या? शिव-पार्वती संवाद के रूप में है, जहाँ शिव पार्वती को गुरु की महत्ता से परिचित करा रहे हैं। उसमें से कुछ श्लोक आपके लिए मैं लेकर आया हूँ और मैं जहाँ जाऊँगा, वहाँ प्रश्नचिन्ह तो होगा ही। बताने का काम तो मेरा है नहीं। आप गुरु-गुरु करके आए हैं तो मैं उसके सामने सवाल लगाना चाहता हूँ। कल क्यों नहीं आए? मैं तो यहीं था। और कल क्यों नहीं आओगे? मैं तो वही हूँ।

तो ये मिलना बड़ा अच्छा है। पर पूर्ण की बात ये है कि उसको पूर्णता से नीचे कुछ सुहाता नहीं। पूर्णता में अगर थोड़ी भी कमी रह जाए तो चुभता है। है ना? ये आपकी खाल है, ये पूरी साबुत है, सलामत है, बस यहाँ थोड़ी-सी कटी हुई है। चुभेगा ना? कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि पूरी बढ़िया है। कुछ चीज़ें ऐसी हैं कि अगर पूरी हो तो ही आनंद है। उसमें थोड़ी भी कमी रह गई तो सब कुछ कम रह गया। बहुत अच्छा खाना बनाया, अब नमक कम रह गया। सब कुछ बहुत मेहनत से और बहुत अनुपात में डाला है, नमक कम रह गया। अब?

श्रोता: स्वाद ही नहीं रहेगा।

आचार्य प्रशांत: स्वाद ही नहीं रहेगा। जबकि आप कहोगे कि बाक़ी सब तो इतना है ना। तो ऐसे ही आप कहोगे, कि “अरे आज तो आए हैं ना।” तो मैं तो पूछूँगा, कल कहाँ थे? और कल कहाँ जाओगे? ये प्रश्नचिन्ह है।

जब तक एक दिन की बात होगी और जब तक किसी बाहरी व्यक्ति की बात होगी, मामला सीमित ही रहेगा और सीमित तो आप वैसे भी हो ही। सीमा में अगर संतुष्टि मिल सकती तो आप संतुष्ट होते। सीमाएँ ही बेचैन करती हैं, और जिसके प्रति हमारा दावा है कि चैन दे देगा, उसको भी सीमित कर दो, एक देह तक और एक दिवस तक। तो कहाँ से चैन मिलेगा? कि मिल सकता है?

श्रोता: नहीं मिलता।

आचार्य प्रशांत: तो फंस गए हम। सीमाओं में यदि पूर्णता होती, चैन होता, विश्राम होता, तो सीमाएँ तो हम 100 तरह की ख़ुद ही लेकर घूम रहे हैं कि नहीं? सब कुछ ही हमारा सीमित है। किसी के पास कुछ असीम हो तो बता दे। मेरे पास तो नहीं है, किसी के पास नहीं है। हम तो सीमाओं के पुतले हैं। कि नहीं?

सीमाओं के पुतले हैं। तो ये जो छोटा-सा दो अक्षर का है (गुरु), इसके पास जाते हैं कि सीमाओं से मुक्ति और असीम से परिचय मिले। यही है ना? और जिसके पास जा रहे हो सीमाओं से मुक्ति के लिए, उसको भी सीमित कर डाला तो क्या होगा? जिसके पास जा रहे हो सीमाओं से मुक्ति के लिए, और ये बात गुरु पर भी लागू होती है। भगवत्ता का जो हमारा सिद्धांत है, विचार है, कॉन्सेप्ट है, छवि है, उस पर भी लागू होती है, हर चीज़ पर लागू होती है। समझ में आ रही है बात?

दैहिक होना, सीमित होना, क्षणभंगुर होना — यही कष्ट है।

और जिसके पास जाते हो कि वो इस कष्ट से आज़ादी देगा, उसको भी वैसा ही बना दिया जैसे ख़ुद हो, तो फिर तो अटक गई ना बात। अटक गई ना? और कोई समस्या नहीं है। बस इतनी-सी समस्या है और कोई विवाद नहीं है। कोई विस्फोट नहीं करना, कोई क्रांति नहीं करनी, बात बहुत व्यवहार के तल पर है। आप मरीज हो और आप जो खाते ही आ रहे हो, जिसके कारण मर्ज है आपको, आप चिकित्सक के पास जाओ और चिकित्सक वही सब आपको और खिला दे तो आप ठीक हो जाओगे क्या? तो व्यवहारिक बात है। इसमें कोई सैद्धांतिक लड़ाई-झगड़ा, संघर्ष नहीं है कि इस मत बनाम उस मत की बात है। ये वाद या ये वाद, कोई वाद-वाद कुछ नहीं।

व्यवहार — सीधा-सा प्रश्न है, हम जैसे हैं ही। एक आदमी, एक औरत से शादी करता है, एक दिन कहता है कि विवाह की वर्षगांठ है, एक दिन। चलो वो समझ में आता है। अपना जन्मदिन होता है, अपने बच्चों का जन्मदिन होता है, वहाँ समझ में आता है एक दिन है। कोई भी और चीज़ होती है, उसका कोई एक दिन होता है। पर वो सब जो चीज़ें हैं, उनसे ही तो कष्ट था ना, उन्हीं के तो बंधन में फंसे हुए हो ना। तो वो जो एक दिन वाला किस्सा है, वो भी अगर यहाँ भी ले आए तो कष्ट दूर होगा क्या? होगा? ये थोड़ा समझना पड़ेगा।

और मैं कोई नया ताज़ा विद्रोह नहीं कर रहा हूँ क्योंकि आज का पूरा दिन धमाकेदार रहा है। पूरी दुनिया में, विशेषकर भारत में, गुरु ही गुरु छाए हुए हैं। मुझे तो बड़ा अटपटा-सा लगता है बल्कि कि वो जो वहाँ पर धक्का-मुक्की, रेलमरेला चल रहा है, उसमें शाम को हम भी शामिल हो गए। क्योंकि आज तो वही-वही है सब कुछ। और गुरुजी बिल्कुल वैसे अघाए जा रहे जैसे छोटा बच्चा होता है, उसका जन्मदिन होता है, फूला नहीं समा रहा है, वो इधर-उधर घूम रहा है, पूछ रहा है, "तुम क्या लाए और तुम क्या लाए?" और सुबह-सुबह जल्दी जग के नहा-धो के बैठ गया है आसन पर, और चरण ऐसे पसार दिए हैं कि "आओ और चूमते जाओ, आते जाओ, चूमते जाओ, आते जाओ, चूमते जाओ।"

पर ये तो लगभग वही है जो आप अपनी वर्षगाँठ पर भी कर लेते हो, और ख़ास मौकों पर भी कर लेते हो। ना जाने कितनी तारीखें तो हम याद रख लेते हैं, उन सबका यही रहता है, तारीख आई, तारीख बीत गई। वही यहाँ भी करना है तो आना और बीतना लगा रहेगा, और ये जो आना और बीतना है, जो आवागमन है, वही हमारा दुख है।

तो जिन्होंने बात को समझा है, उनके माध्यम से देखते हैं कि माजरा क्या है? असली बात क्या है? मैं इसके बिना भी आपसे बात कर सकता हूँ। लेकिन देखिए अब ये चीज़ तो सांस्कृतिक है। इसको हम बोलते हैं, ये तो हमारी धार्मिक सांस्कृतिक धरोहर है। आज के दिन को भी आप यही कहोगे कि ये हमारा धार्मिक उत्सव है। अब कि धार्मिक उत्सव है तो फिर आवश्यक हो जाता है कि मैं परंपरागत धर्म की दिशा से आपके लिए कुछ लेकर के आऊँ। हालाँकि यहाँ मैं आपको जो कुछ भी बताने जा रहा हूँ, वो सब पहले आपको बहुत बार बता चुका हूँ। ठीक है? पर अब आज तो ख़ास दिन है, तो थोड़ा ख़ास तरीक़े से बताना पड़ेगा। वैसे ही बात कर ली आपसे जैसे हमेशा करता हूँ, तो आप कहेंगे, “अरे यार केक तो कटा ही नहीं।”

श्लोक 33

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते। अज्ञानग्रासंक ब्रह्म गुरुरेव न संशय।।

‘गु’ शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्मरूप प्रकाश है वह गुरु है। इसमें कोई संशय नहीं है।

The syllable “Gu” is the darkness and the syllable “Ru” is said to be light. There is no doubt that the Guru is indeed the Supreme Knowledge that dispels (the darkness of) ignorance.

तो पहली बात तो ये समझिएगा जैसे हम कहते हैं, कि गुरु में "गु" को अंधेरा जानो और "रू" को प्रकाश जानो, वो कोई उसकी भाषागत व्युत्पत्ति नहीं है। गुरु एक ही शब्द होता है और गुरु का अर्थ बस होता है — भारी — जिसमें वजन हो, उसको गुरु कहते हैं। लेकिन समझाने के लिए फिर ज्ञानियों ने और उसके बाद कबीर साहब ने भी यही करा है। "गु"— अंधियारी जानी है, "रू"— माने प्रकाश। समझाने के लिए उन्होंने इसको ऐसे कर दिया कि "गु" और "रू" को अलग कर दिया।

"गु" माने अज्ञान होता नहीं है। संस्कृत में ऐसा नहीं है कि "गु" माने अंधेरा या अज्ञान है। और ऐसा भी नहीं है कि "रू" माने प्रकाश या ज्ञान है, ऐसा नहीं है। पर समझने के लिए और समझाने के लिए ये चीज़ बड़ी सुंदर है। इसमें व्यक्ति है कहीं पर? इसमें व्यक्ति है कहीं पर?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: जो लोग देवनागरी ना पढ़ सकते हैं, उनके लिए अंग्रेजी है। इसमें व्यक्ति है कहीं पर? "पर्सन", "इंडिविजुअल" कहीं दिखाई दे रहा है? नहीं है ना। गुरु व्यक्त नहीं होता, अच्छे से समझ लीजिए। हाँ गुरु जो है, जिसके नाम नहीं, परिभाषा नहीं, जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता, उसकी ओर जो आपको ले जाए तो पारंपरिक तौर पर आपके उससे लगाव के नाते, और उसके गुरु से लगाव के नाते आप उसको भी गुरु बोल देते हो। और फिर ऐसे कहने लग जाते हो, कि एक भीतरी गुरु है और एक बाहरी गुरु है। पर दो गुरु नहीं हो सकते, जैसे दो सत्य और दो आत्मा नहीं हो सकते, तो

दो गुरु नहीं होते, गुरु तो वास्तव में एक ही होता है। और उसका क्या नाम है? सत्य।

और उसके साथ आप 364 दिन भाग नहीं पाएँगे, पर भागना है, इसीलिए सहूलियत रहती है कि बाहर वाले किसी इंसान को गुरु घोषित कर दो। अब बाहर वाला इंसान है, उसको गुरु घोषित कर दो, कितना वो आपका पीछा कर सकता है, आप इधर-उधर बच के निकल ही लोगे। कुछ तो हो ही जाएगा ना उससे बचने का तरीक़ा। वो आके आपको पकड़ भी ले तो भी वो आपके भीतर प्रवेश कर रहा है कि नहीं, उसकी कोई आश्वस्त नहीं। बिल्कुल यहाँ बगल में खड़ा हो गया और आपको ऐसे पकड़ लिया तो उसकी बात यहाँ से घुसी, यहाँ से निकल गई (एक कान से सुना एक से निकाल दिया)।

गुरु को व्यक्ति बनाने में देखिए कि कितना बड़ा धोखा है और कैसा स्वार्थ है। क्योंकि व्यक्तियों से छुटकारा पाया जा सकता है, आत्मा से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। तो हमने पहली भूल ये करी कि जो सामने कोई खड़ा है उसको ही घोषित कर दिया कि यही गुरुदेव है। जो सामने खड़ा है, वो साधन हो सकता है, पर साधन की महत्ता भी इसलिए है क्योंकि वो एक ऊँचे साध्य तक ले जाता है। हाँ उस साधन के साथ आपका संपर्क है, साध्य अभी थोड़ा दूर लगता है तो साधन के साथ लगाव हो जाता है। उस लगाव के नाते आप साधन को साध्य का ही नाम दे देते हो।

उदाहरण देता हूँ। आप बस स्टेशन जाते हो, आप वहाँ इस तरह की बहुत सारी आवाजें सुनोगे। मान लीजिए आप कहीं पर हैं, आप भोपाल में हैं और आप वहाँ बस स्टैंड पर जाएँगे तो लोग ऐसे पूछ रहे होंगे, "अरे इंदौर निकल गई क्या? जबलपुर निकल गई क्या? नागपुर निकल गई, नासिक निकल गई, मुंबई निकल गई, रीवा निकल गई।" ये क्या हो रहा है? ये किसकी बात हो रही है? कहा जा रहा है कि "नागपुर निकल गई।" तो नागपुर वहाँ थी और निकल गई है? नागपुर वहाँ था बस अड्डे पर और निकल गया? ऐसा हुआ है?बात किसकी हो रही है? बस की।

बस क्या है? साधन। लेकिन वो जहाँ तक जा रही है बस, वो साध्य है। साधन को भी साध्य का नाम दे दिया। साधन को भी साध्य का नाम दे दिया। यही काम आप ट्रेन के साथ करते हो, उनका तो नाम ही ऐसा हो जाता है। आप जाएँगे वहाँ कुली से पूछेंगे, "नागपुर खड़ी है अभी?" बोले, “अरे नहीं, अभी 10 मिनट देर से आएगी।”

“नागपुर खड़ी,” मतलब समझ रहे हो क्या है? साधन को ही नाम दे दिया साध्य का और नाम रखे भी ऐसे ही जाते हैं। नागपुर मेल, फलाना एक्सप्रेस, कानपुर सुपरफास्ट, ऐसे ही तो नाम रखे जाते हैं ना। देखो क्या किया जा रहा है, जो उसका नाम रखा जा रहा है उसमें कहीं नहीं बताया जा रहा है कि ये रेल है। ये कहीं नहीं बताया जा रहा है, क्योंकि ये तो जाहिर-सी बात है कि वो रेल है। साधन का नाम साध्य के ऊपर रख दिया गया है। समझ में आ रही है बात? मुसाफिर का नाम मंज़िल के ऊपर रख दिया गया है। और ये बड़ा सुंदर प्रतीक है। कि साधन की उतनी ही महत्ता है, उतना ही मूल्य है जितना साध्य का है। कि मुसाफिर को उतना ही मान देना जितना उसकी मंज़िल का है। जो गलत दिशा में जा रहा हो, वो भले ही बड़ी लंबी यात्रा कर रहा हो, उसको दो कौड़ी की कीमत नहीं है उसकी।

जो तुम्हारी मंज़िल है, वही तुम हो। जिसको जिससे प्रेम है, वो वही हो जाता है। जो तुम्हारी मंज़िल है, वही तुम हो जाने हो।

समझ में आ रही है बात?

तो इस नाते जो बाहर का व्यक्ति होता है उसको भी गुरु बोल देते हैं। लेकिन बोलने भर से कुछ हो नहीं जाता। आप भोपाल में बोलें, कि ग्वालियर निकल गई, इसका मतलब ये नहीं है कि ग्वालियर शहर निकल गया है। बोलने से कुछ नहीं हो जाता। ग्वालियर शहर अपनी जगह है और बस अपनी जगह है, ये दोनों अलग-अलग हैं। हाँ इनको एक ही नाम दे दिया जाता है किसी कारण से और वो कारण ठीक है, उसमें व्यवहार है, सुविधा है और एक गहरा संदेश भी है कि तुम वही हो जिस दिशा में तुम जा रहे हो। जिस दिशा में तुम जा रहे हो, जिसको तुमने प्रेम से अपनी मंज़िल बनाया है या कामना से या भ्रम से — तुम जानो कैसे अपनी मंज़िल बनाई है, पर जैसी भी तुमने अपनी मंज़िल बनाई है, तुम्हें वही हो जाना है। समझ में आ रही है बात?

तो व्यक्ति में भी बस व्यवहार के तल पर, पारमार्थिक तौर पर नहीं, वास्तविक तौर पर नहीं — व्यवहारिक तौर पर गुरु बस उसको बोला जा सकता है जिसकी और कोई मंज़िल न हो। भोपाल से बस जबलपुर जा रही है, आप उसको ग्वालियर बोलोगे क्या? ग्वालियर आ गई? नहीं ना। तो जिसकी जो मंज़िल है, वही नाम दोगे। तो जिसकी मंज़िल आत्मा है, उस व्यक्ति को सिर्फ़ व्यवहार के नाते गुरु बोला जा सकता है, पर वो भी गुरु है नहीं। क्योंकि व्यक्ति को गुरु बनाओगे तो माया को, अहंकार को बड़ी सुविधा हो जाती है, और ज़्यादातर गुरु हम बनाते भी उल्टे-पूरे लोगों को हैं। कल को उन पर पुलिस की रेड पड़ गई, कोई स्कैंडल निकल गया और सुविधा हो जाती है, कि ये तो गया और यही गुरु था तो अब किसी की सुनने की क्या ज़रूरत है। और इससे ये भी पता चलता है कि ना वो गुरु, ना वो गुरु, ना वो गुरु।

श्रोता: मैं ही गुरु हूँ।

आचार्य प्रशांत: अपुनिच भगवान है। और बात बसों में ऊपर ऐसे बोर्ड-सा लगा होता है। ठीक है? कई बार वो लकड़ी का तख्ता होता है, अगर पुरानी रोडवेज़ वाली बसें और मॉडर्न बसेस हैं तो उसमें एक इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड लगा होता है। वही बस अगर नागपुर को जा रही है तो आप बोलोगे, देखो नागपुर निकल गई। बस वही रहे। बस वो अपनी मंज़िल बदल दे तो क्या अभी भी उसको नागपुर बोलोगे? अब वो कहीं और जा रही है। वो नासिक जा रही है। वो पुणे जा रही है। तो अब उसको बोलोगे, ये नासिक है, पुणे है।

माने व्यक्ति भले ही वही रहे, अगर वो अपनी मंज़िल बदल दे तो अब उसको गुरु मत बोलना। बस वही है। और ऐसा होता है ना कि एक बस कभी इस रूट पर लगी थी या दूसरे रूट पर लग गई है। अगर बस ने रूट बदल दिया तो क्या उसका नाम पुराना रह जाएगा?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: किसी व्यक्ति में कुछ ख़ास नहीं होता। पहली बात ये कि व्यक्ति गुरु नहीं होता, दूसरी बात — सिर्फ़ व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए आप उसे गुरु बोल सकते हो, वो भी सिर्फ़ तब तक जब तक उसकी मंज़िल आत्मा हो। जिस दिन वो अपनी मंज़िल बदल दे, उस दिन उसको व्यवहारिक तौर पर भी गुरु नहीं बोल सकते। वास्तविक तौर पर तो उसको कभी भी गुरु नहीं बोला जा सकता, कोई गुरु नहीं होता, कोई भी नहीं होता। और व्यवहार के लिए, ऐसे ही रोज़ के संबोधन के लिए आप किसी को गुरु बोल भी देते हो तो उसमें बार-बार देखते रहना है कि उसकी मंज़िल क्या है। उसकी मंज़िल क्या है। जब तक उसकी मंज़िल ठीक है, तब तक उसके पीछे चलना है। जो गलत दिशा जा रहा हो, आप उसके पीछे चलोगे तो आपका क्या होगा? “अंधा-अंधा ठेलिया, दुन्युँ कूप पड़त।” ये समझ में आ रही है बात?

जो उच्चतम है, उसके लिए और मात्र उसके लिए है ये शब्द "गुरु" और किसी के लिए नहीं है। आसानी से मत इस्तेमाल कर दिया करो। किसी को भी गुरु मत मान लो, किसी को भी नहीं, एकदम नहीं, एकदम नहीं। और अगर बहुत बड़े-बड़े प्रमाण उपस्थित हो जाएँ, अहंकार बिल्कुल प्रेम में ही पड़ जाए कि ये व्यक्ति लग रहा है कि जा रहा है आत्मा की दिशा, इसको गुरु बोलना है, तो भी उसको बस तात्कालिक तौर पर गुरु कहना। तात्कालिक, समझ रहे हो? कंडीशनली, जस्ट फॉर द वाइल, एन इंटरिम एड्रेसल। अभी ठीक लग रहे हो तो अभी के लिए कहे देते हैं। पर ये कोई डिग्री नहीं है कि ज़िंदगी भर के लिए दे दिए, अभी ठीक लग रहे हो तो ठीक है। स्पष्ट हो रहा है ये? बहुत हाथ रोक कर रखिए, ज़ुबान रोक कर रखिए, खोपड़ा रोक कर रखिए। कोई भी चला जा रहा है, उसको "जी गुरु जी, हाँ जी गुरुदेव" मत कहना शुरू कर दीजिए। गड़बड़ हो जाएगी।

“अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्मरूप प्रकाश है, मात्र वही गुरु है।”

तो ब्रह्मरूप क्या? ब्रह्म ही को समझ लो — वही गुरु है, एकमात्र। और उससे बचना बड़ा मुश्किल होता है क्योंकि वो तो आप ही के भीतर है, तो इसलिए हम चालाकी खेल करके बाहर किसी को गुरु घोषित कर देते हैं। क्योंकि बाहर वाले से पीछा छुड़ाया जा सकता है और किसी फर्जी आदमी को भी बाहर गुरु घोषित किया जा सकता है। पर भीतर वाला, उससे पीछा छुड़ा नहीं सकते। और अगर वो भीतर है तो असली है। स्पष्ट हो रही है बात?

फंस गए क्योंकि मामला अपनी ज़िम्मेदारी का है, कोई नहीं आने वाला बाहर से बचाने के लिए। कोई प्रकाश नहीं है बाहर। आप हो, बाहर कुछ नहीं है। ये बुरी बात लग रही है? ये खुशखबरी है, खुशखबरी इसलिए क्योंकि आप पर्याप्त हो। आपको किसी बाहरी सहारे की ज़रूरत ही नहीं है, आप अपने आप में पर्याप्त हो। और हमें सबसे ज़्यादा जिस चीज़ से डर लगता है, वो है ख़ालिस ज़िम्मेदारी। देखो ना आज दुनिया भर में क्या हो रहा होगा, "गुरु मेरे, ये गुरु मेरे तारणहार।" फूलों की बिक्री बढ़ गई होगी, पानी छिड़क रहे हैं। क्या-क्या छिड़क रहे हैं? पता नहीं, सब छिड़कते हैं।

ये सब क्या हो रहा है? मनोवैज्ञानिक तौर पर समझो। ये अपनी ज़िम्मेदारी से बचने की कोशिश हो रही है। कोई और आएगा और जो जीवन का सबसे आवश्यक काम है मेरे लिए वो कर देगा। मुझे क्या करना है? और अगर तुम्हें कुछ नहीं करना, तुम कुछ करने लायक नहीं तो तुमने ये फैसला भी कैसे कर लिया कि वही गुरु है? ये भी तो करा ना। और तुम कह रहे हो ये तो मैं कर सकता हूँ पर बाक़ी सब नहीं कर सकता हूं। अगर तुम सचमुच कुछ नहीं कर सकते हो तो तुमने ये भी फैसला कैसे कर लिया, कि ये व्यक्ति गुरु होने लायक है? कैसे कर लिया? और अगर तुममें इतनी समझदारी है कि तुम गुरु चुन सकते हो तो उसी समझदारी से अपने बाक़ी सारे काम भी कर लो।

गुरु क्या है, ये समझना ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा गहराई माँगता है, कठिन काम है। जब ये सबसे कठिन काम तुमने कर ही डाला, “ये है गुरु जी मिल गए” जब ये कठिन काम कर डाला तो ज़िंदगी के बाक़ी काम तो सब बहुत आसान हैं उसके आगे। बाक़ी के काम तुम फिर गुरुदेव से क्यों करवा रहे हो? खुद ही कर डालो। सबसे कठिन काम अगर कर सकते हो तो बाक़ी भी कर डालो। सच तो ये है कि जो ज़िम्मेदारी ख़ुद नहीं उठा सकता, वो गुरु के नाम पर भी कुछ अपने साथ ढोंग ही खेल रहा होगा। सोच के देखिए।

आप इतने उदास हो जाते हो कि मुझे अपनी दिशा थोड़ी-सी बदलनी पड़ती है, बाहर का कोई व्यक्ति उपयोगी हो सकता है। हो सकता है, ठीक है। साँस बाहर लीजिए, एक्सहेल। ठीक है, रिलैक्स्ड। बाहर का कोई व्यक्ति उपयोगी हो सकता है, पर सिर्फ़ उस बिंदु के बाद जहाँ तक आपने पहले अपना पूरा व्यक्तिगत अधिकतम प्रयास कर लिया है, उसके बाद ही उसकी उपयोगिता शुरू होती है। जिन्होंने पहले होमवर्क कर लिया हो। अब ठीक है। समझ में आ रही है बात? जो ख़ुद न करके सोचते हैं कि कोई दैवी प्रकाश उतरेगा और गुरु जी आए हैं, अवतरित हुए हैं, ये हैं, वो हैं, साक्षात श्रीकृष्ण का अवतार हैं और हमें तार देंगे, जो ये सोच रहे हैं कोलतार मिलेगा उन्हें।

बाहर वाले को पहचानोगे भी तभी जब पहले तुमने ख़ुद पूरा प्रयास कर रखा होगा, तभी वो पहचान में आएगा। नकली आदमी को नकली गुरु ही मिलता है।

“कामी का गुरु कामिनी, लोभी का गुरु दाम।” आप जितने नकली आदमी होगे, आपने उतना नकली गुरु पकड़ रखा होगा। पहले तो नकली आदमी को नकली गुरु मिलता है। दूसरी बात, जब तुमने अभी अपनी ओर से पूरी जान लगाई ही नहीं, तो तुम्हें फिर बताओ सचमुच सहायता चाहिए भी है? आप जा रहे होते हो, हम बहुत सीमित लोग हैं, पर हम अपने तल पर भी देख लें, हम जा रहे होते हैं। एक आदमी आपको बहुत मेहनत करता दिखाई दे रहा है और एक आदमी ऐसे ही पड़ा हुआ है आलसी और बस कह रहा है कि अरे मेरी मदद कर दो, मुझे खाना दे दो, पिज़्ज़ा दे दो। आप इन दोनों में से किसकी मदद करोगे? बोलो।

श्रोता: जो मेहनत कर रहा है।

आचार्य प्रशांत: जो मेहनत कर रहा है उसको मदद मिलती भी है। जब आपने ख़ुद ही अपनी पूरी ज़िम्मेदारी उठाते हुए ज़िंदगी की चुनौतियों को झेला नहीं, जूझे नहीं, तो आपको कोई मदद मिलेगी भी क्यों? और किससे मदद लेनी है ये आप पहचान भी नहीं पाओगे, हर तरह से मारे जाओगे। स्पष्ट हो रहा है यह? बाहर की आस एकदम तोड़ देना, ये समझिए गुरुता में प्रवेश करने की शुरुआत है। हमें आसरा नहीं बाहर से। हाँ हम अपनी ओर से ही जब अधिकतम निष्ठा दिखाएँगे, प्रयत्न करेंगे, तो हो सकता है बाहर से कोई अनपेक्षित सहारा आ जाए। ये जो बाहरी व्यक्ति होता है, ये आपकी ज़िंदगी में जब भी आएगा, अनपेक्षित रूप से आएगा और ये तभी आएगा जब आप ख़ुद अपनी आख़िरी सीमा तक जूझ रहे होंगे।

अगर आप स्वयं ही गंभीर नहीं हैं अपने दुख के बारे में, अगर आप स्वयं ही नहीं चाहते कि आपको आपके बंधनों से छुटकारा मिले, तो बाहर से अगर कोई आया भी है तो कम से कम वो आपको छुटकारा देने तो नहीं आया है। आप किसी को महान मानते हैं या सहायक मानते हैं, वो सचमुच सहायक हैं या नहीं, वो इसी बात से जाँच लीजिएगा, क्या आप स्वयं सहायक हैं अपने?

आप कह रहे हैं कि ये व्यक्ति है, ये गुरु है और ये मुझे मेरे दुखों से मुक्ति दिलाएगा। आप कई बार पूछते हैं, वो व्यक्ति मेरे लिए सही है कि नहीं? उसको जाँचा दूसरे तरीक़े से जाता है, उसको ऐसे जाँचा जाता है, कि क्या आप स्वयं पूरे तरीक़े से गंभीर हैं? गंभीर से मेरा आशय है सिंसियर। क्या आप स्वयं गंभीर हैं अपने दुख से मुक्ति के लिए? यदि आप स्वयं गंभीर हैं तो फिर आपने जिसको सहायक माना होगा, वो ठीक होगा, फिर वो ठीक होगा। मैं गंभीर हूँ तो फिर मैं सहायक भी सही चुनूँगा न। और जब मैं ख़ुद ही कह रहा हूँ कि जो चल रही है ज़िंदगी चलने दो, अरे बंधनों में कुछ स्वार्थ वग़ैरह पूरे होते हैं, तो फिर मैंने जिसको गुरु वग़ैरह भी रखा होगा, वो मेरे बंधनों और स्वार्थ की ही पूर्ति के लिए होगा। कुछ हो रही है बात स्पष्ट?

गुरु माने बड़े से बड़ा, और गुरु माने बड़े से बड़ा धोखा जो इंसान के साथ खेला गया है। अब जो चीज़ बड़ी से बड़ी होगी, उसमें जब धोखाधड़ी होगी तो वो भी बड़ी से बड़ी होगी।

भारत और कुछ निर्यात करता हो ना करता हो, दुनिया भर में गुरु यहीं से एक्सपोर्ट होते हैं। ऐसे ही थोड़ी है, 150 करोड़ लोगों का देश उस हालत में है जो हम देखते हैं चारों ओर। गुरु में दम हो, गुरु असली हो, तो चाहे पुल हों कि प्लेन, ऐसे टूट-टूट के गिरेंगे? बोलिए। ये कुछ बहुत गड़बड़ बात है न। ऐसे तो नहीं हो सकता जो हम अपने चारों ओर होता देखते हैं। रोज़ आता है, इसने उसको मार दिया, उसने उसका गला घोंट दिया, उसने उसको लेकर ज़मीन में गाड़ रखा था, परिवार के अंदर दो ने मिलकर तीसरे को मार रखा है, किसी को पता नहीं चला। ये रोज़ हो रहा है न, रोज़ माने रोज़। कुछ तो बात होगी। और हमारा जो सबसे बड़ा उत्पाद रहा है, वो रहा है, गुरु। इतने गुरु रहे हैं तो इतनी दुर्दशा कैसे हो सकती है? शायद दुर्दशा इसीलिए है, क्योंकि हमें गुरुओं पर ज़्यादा भरोसा रहा है। शायद भीतरी, बाहरी सब तरह की प्रगति अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाने से होती है।

और जो अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाने लग जाता है, उसको हमने कहा अकस्मात, अनपेक्षित रूप से, बिना माँगे बाहर से भी मदद मिल जाती है। स्वयं ही उसके जीवन में फिर ऐसे लोग आते हैं जो सहायक हो जाते हैं। पर ये जो लोग आए हैं, ये उनके भरोसे नहीं बैठा था, इसे भरोसा किसका था? अपना। ये जो अपने भीतर है जिस पर सबसे पहले भरोसा करना चाहिए, इसी को आत्मा कहते हैं, यही गुरु है।

श्लोक 41

भवारण्यमप्रविष्टस्य दिड्मोहभ्रान्तचेतसः। येन सन्दर्शितः पन्थाः तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

संसार रूपी वन में प्रवेश करने के बाद चित्त भ्रमित हो जाता है, उस समय जिसने मार्ग दिखाया उन गुरु को नमस्कार हो।

Salutations to The Guru who shows the right path to one whose mind is deluded, and thus confused in the forest of Samsara.

वन, आपकी दैहिकता। जंगल, आपकी जैविकता, बायोलॉजी। समझ में आ रही है बातें? आपके ही भीतर कोई बैठा है जिसे जानवर बने रहना मंजूर नहीं, उसको गुरु कहते हैं। ये जो संसार रूपी वन है, इसी से आपको क्या मिला है? और ये कोई प्रतीक भी नहीं है। संसार सचमुच वन है। आप यहाँ जहाँ बैठे हो, यहाँ कभी वन था। बहुत आपको प्राचीन काल में नहीं जाना पड़ेगा, बस कुछ 100 साल पीछे चले जाइए तो यहाँ जंगल ही था, पृथ्वी पर सब जगह जंगल ही जंगल थे। तो संसार माने वन ही होता है। हम सब वनों की ही पैदाइश हैं। तो ये देह क्या है? ये एक जंगली देह है। लेकिन भीतर कोई है जिसे जंगली रहना बर्दाश्त नहीं है। उसी को आत्मा कहते हैं, वही गुरु है। समझ में आ रही है बात?

और अगर भीतर ज़रा-सी भी बेचैनी है नहीं, तो बाहर से कोई कितना भी शोर मचा ले, फ़र्क़ क्या पड़ेगा? पड़ेगा? आप बिस्तर पर मस्त पड़े हुए हो, खा-पी के सो रहे हो। सब बढ़िया है, माहौल अच्छा है, मौसम अच्छा है, गद्दा मुलायम है, पेट भरा हुआ है, सब ठीक है, बिल्कुल। अब कोई बोलता भी है कि उठ जाओ, उठ जाओ, उठते हो क्या? क्योंकि मेरे भीतर कोई बेचैनी है ही नहीं। वो उठाने वाला बोलता है चलो उठो, घर की सफ़ाई करनी है, आपको लग ही नहीं रहा कि सफ़ाई की ज़रूरत है। जंगल में जितने जीव होते हैं, आपने किसको सफ़ाई करते देखा बताओ? किसी को देखा? और वो करते भी हैं, अधिक से अधिक तो थोड़ा-बहुत अपनी ही देह चाट-वाट लेते हैं। खरगोश करते हैं, वो अपना ही थोड़ा चाट-वाट लिया, लेकिन ये तो कोई नहीं करता। बल्कि जिस चीज़ को हम गंदगी कहते हैं, वो ज़्यादा से ज़्यादा जीवों का घर होती है। जिस जगह को आप साफ़ कहते हैं, वहाँ कोई जंगली जीव पाया ही नहीं जाता।

आपने सोचा है? आप जब सफ़ाई करते हो तो वास्तव में आप सैनेटाइज़ कर देते हो। अब वहाँ जंगल मिलेगा ही नहीं। और जिस जगह को आप गंदा बोलते हो, वहाँ ग़ज़ब की बायोडायवर्सिटी होती है। नाले में, कीचड़ में, वो हॉटस्पॉट्स हैं इकोलॉजिकल वही जंगल है। जहाँ से सफ़ाई हो गई, वहाँ से जंगल ही साफ़ हो गया। ये जो देह है, ये एक तरह से गंदगी की ही पैदाइश है। आप अगर थोड़ा पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा।

मालूम है हम कहाँ से आए हैं? जो पहला छोटा-सा प्राणी था, वो कहाँ पैदा हुआ था? साफ़-सुथरे पालने में? कहाँ पैदा हुआ था? भयानक गंदगी में। समुद्र में नहीं हुआ था पैदा। जैसे छोटा-सा कोई ताल-तलैया हो, पॉन्ड, पानी आकर भर गया हो। बारिश हुई, पानी भर गया। अब उसके बाद उस पर धूप पड़ती गई, पड़ती गई और उसके अंदर तमाम तरीक़े के मिनरल्स हैं और केमिकल्स हैं और मिट्टी है जो उसमें आकर मिल रही है, और ये सब है, तो वो कंसन्ट्रेटेड होता गया, गाढ़ा होता गया, गाढ़ा होता गया, होता गया, होता गया। फिर वहाँ से पॉलीमर्स की लंबी चेन बनने लगी, जिनको हम कहते हैं बिल्डिंग ब्लॉक्स ऑफ़ लाइफ़, बायोमॉलीक्यूल्स, अमीनो एसिड्स, प्रोटीन्स वहाँ से आते हैं। वो है लाइफ़ की शुरुआत। तो हम तो निकले ही कहाँ से हैं? गंदगी से। “ओ माय गॉड!” और छोटी-मोटी गंदगी नहीं, फिर से बोल रहा हूँ, मतलब हम जहाँ से आए हैं, वहाँ सूंघ ले तो नाक सड़ जाए। इसको समझो। ये सिर्फ़ कोई एक ड्रामाटाइज़ेशन नहीं है, संसार रूपी वन। सचमुच वन है।

और उतनी बदबू में रहना, भीतर कोई है जिसे अच्छा नहीं लगता। जिसे अच्छा नहीं लगता, वो अच्छा न लगने के कारण ही रास्ता खोजता है। ये जो भीतर अहंकार है ना, आत्मा तो दूर की कौड़ी लगती है, पता नहीं क्या चीज़ है। ये जो अहंकार है जिसे अच्छा नहीं लगता, इसी की बेचैनी जितनी सघन होती जाती है, समझ लीजिए ये उतना आत्मस्थ होता जा रहा है। और जितना ये जंगल के साथ सुव्यवस्थित होता जाता है, मेल बैठाता जाता है, उतना समझ लीजिए कि ये आत्मा से दूर हो रहा है।

आत्मा अपने आप में कुछ नहीं है, अहंकार का ही निर्मल होना आत्मा है।

आत्मा कोई चिड़िया, पकोड़ा, बिंदु, कोई चीज़ नहीं है, भीतर बैठी हुई है, हृदय में वास है, टूटी-सी होती होगी, कुछ तो होता होगा। कुछ नहीं है। आत्मा ऐसी है, कि अभी देखनी है आत्मा? बोलो, दिखा देता हूँ आज। गुरु पूर्णिमा है। हँस रहे हैं, ऊपर-ऊपर कईयों की घंटियाँ बज गई हैं। और यहाँ अगर कम बजी होंगी तो बाक़ी थिएटर्स में तो और बज गई होंगी। बहुत आसान है। बोलिए, मैं।

श्रोता: मैं।

आचार्य प्रशांत: यही आत्मा है। अब ये आपके ऊपर है कि इसको कितना शुद्ध रखना है और कितना मलिन। यही आत्मा है। इतनी साफ़ बात है। यही ‘मैं’ साफ़ है तो इसको ही आत्मा कहते हैं। किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होनी चाहिए, आज आचार्य प्रशांत ने एक थिएटर में लोगों को इकट्ठा करके आत्मा का प्रदर्शन करा। करा कि नहीं करा? देखो ये कैसे वायरल होती है बात। सुबह तक अख़बारों से लेकर हर जगह आ जाएगी, “आत्मा देखी गई।”

क्योंकि स्वार्थ है हमारा, आत्मा को कोई दूर की चीज़ बना देने में — अदृश्य, अलभ्य। जैसे ही स्वीकार करो कि यही तो है आत्मा, ‘मैं,’ वैसे ही सारी ज़िम्मेदारी किसके ऊपर आ गई? मेरे ऊपर आ गई। अब क्या करें? “ओ, फँस गए! नहीं, ये ठीक नहीं है। गुरु तो मतलब मंच पर तो आप खड़े हैं ना, ज़िम्मेदारी भी आपकी होनी चाहिए ना।” मैं यहाँ इसीलिए खड़ा हूँ, कि आप खड़े हो जाओ। स्पष्ट हो रही है बात?

आत्मा कुछ है नहीं, आत्मा को पाना है, कुछ करना है। यही जो सेंस ऑफ़ सेल्फ है, इसी को साफ़ करते रहना होता है। और एक अलग नाम दे दिया गया है पूरी तरह से साफ़ सेल्फ को। क्योंकि वो इतना साफ़ है, इतना साफ़ है कि लोगों को लगा कि इसको एक अलग नाम ही दे देते हैं ना। एक अलग नाम ही क्यों ना दे दें, तो उसको क्या नाम दे दिया? आत्मा। वो कोई अलग चीज़ नहीं है। "ज्यों तिल माहि तेल है।" कोई अलग चीज़ है वो? पर ऐसे आप तिल ले लोगे। तिल क्या होता है? तिल जानते हैं? फ्लैक्स सीड। उसको आप, तिल को लोगे तो उसको ऐसे करोगे (हाथ से मसलने का इशारा करते हुए) तो तेल निकलेगा क्या? नहीं निकलेगा। तो हमें लगता है इसमें है नहीं, या कोई बात है। वो वही है। पर तिल और तेल बहुत अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि काफ़ी प्रक्रिया लगती है तिल को तेल बनाने में। लेकिन वो जो तेल भी आ रहा है, वो था तो पहले से ही ना। हाँ, तो जो आत्मा है वो पहले से ही है। वो है वही, जो आपको तिल बस दिखाई दे रहा है कि ये तो कुछ भी नहीं है, साधारण-सी चीज़ है। क्या है यह, ऐसे ही है।

जो हमारी ज़िंदगी है, साधारण-सी ज़िंदगी है, इसमें क्या रखा है। जो उच्चतम है, वो इसी में है, बस उसकी प्रोसेसिंग, रिफ़ाइनिंग करी जाती है। तो वो जो चीज़ निकल के आती है, उसको फिर एक अलग नाम दे देते हैं, ठीक वैसे जैसे तिल को तिल बोलते हैं और तेल को तेल बोलते हैं, जबकि तिल और तेल है एक ही चीज़। वैसे ही अहंकार को अहंकार बोल देते हैं और आत्मा को आत्मा बोल देते हैं, जबकि अहंता और आत्मा है एक ही चीज़।

“चित्त भ्रमित हो जाता है।”

ये भी जिन्होंने कहा है, वो अपनी ऊँचाइयों से कह रहे हैं कि चित्त भ्रमित हो जाता है। चित्त भ्रमित क्या हो जाता है? जो जंगल का प्राणी है, जो कीचड़ का कीड़ा है, वो भ्रमित थोड़ी ही है, वो तो मौज में है। भ्रमित तो उसको ये आकर करता है। कौन? गुरु। वो उसको आकर बोलता है, “इसी के लिए पैदा हुए थे। क्या पेड़ पर ही कूदते रहोगे? पूँछ तो दिख नहीं रही तुम्हारी, तो बंदर जैसी हरकत क्यों कर रहे हो? क्या कर रहे हो? कीचड़ में ही लथपथ रहना है? थूथुन तो दिख नहीं रहा तुम्हारा, तो सूअर क्यों बने बैठे हो?” स्नाउट। समझ में आ रही है बात?

हम वन से निकले हैं तो हमारे भीतर वही जो जंगल है, वही सायं-सायं करता रहता है और वही कीचड़ बिलबिलाता रहता है। और हम कोई भ्रमित वग़ैरह नहीं होते, हम उसमें मस्त रहते हैं। हार्ड-वायरिंग है भाई, हार्ड-वायरिंग है। बायोलॉजिकल है, कोई गलती नहीं, कोई इल्ज़ाम नहीं लगा रहा हूँ, बस ऐसा है। वी आर हार्ड-वायर्ड टू बी फुलिश। लेकिन वही हार्ड-वायरिंग, वही भीतरी न्यूरल नेटवर्क्स, वो तो सब दूसरे जानवरों में भी होते हैं। उनमें और इंसान में अंतर गया क्या है? इंसान के पास वो हार्ड-वायरिंग तो है जानवरों वाली, पर साथ ही साथ कुछ और भी है जो कीचड़ में और जंगल में संतुष्ट नहीं रहता है। पर वो चीज़, अभी हम विकास की जिस प्रक्रिया पर पहुँचे हैं, जिस पायदान पर पहुँचे हैं, जिस चरण पर पहुँचे हैं, वो चीज़ अभी बहुत छोटी है, बहुत छोटी है। अभी समझ लो हम 99% जानवर ही हैं। वो जो चेतना है, जो जानवर से आगे जाना चाहती है, वो भी बहुत छोटी-सी है।

जैसे कहा जाता है न कि नकारखाने में तूती की आवाज़, कि हमारी एक-एक वृत्ति चिल्ला रही होती है वही सब करने के लिए, जो जंगल में होता है। लेकिन कुछ है बहुत छोटा-सा, वही अहम् वही है। कुछ है बहुत छोटा-सा, जो जंगल के खेल से राज़ी नहीं होता है। बात समझ रहे हो? उसका राज़ी न होना ही आत्मा है, और अगर वो राज़ी हो रहा है, तो उसको बोलते हैं, अहंकार। जो हमारी सब पुरानी जंगली पार्श्विक प्रवृत्तियाँ हैं, उससे अगर आप सहमत हो रहे हैं, तो आपकी हस्ती को बोलते हैं, अहंकार। और सहमत नहीं हो रहे हैं, तो बोलते हैं — आत्मा, कोई अपने आप में अलग चीज़ नहीं है। आ रही है बात समझ में?

गुरु का काम क्या है? गुरु का काम है पूछना, सवाल पूछना। वही, क्या तुम ऐसे ही जीने को पैदा हुए हो? आर यू स्टिल इन द जंगल? बस वो ये सवाल पूछेगा बार-बार, परेशान करता है, चुटकी काटता है। क्या कर रहे हो? कुछ इधर-उधर देख रहे थे, ऐसा था तभी नोटिफिकेशन आ गया। ये क्यों? ऐसा किस लिए है? समझ में आ रही है बात? पर यहाँ तो कहा जा रहा है कि, नमस्कार है। नहीं, नमस्कार सिर्फ तब है जब बात समझ में। नमस्कार वग़ैरह बहुत बाद में होता है। ये भी बहुत बाद में समझ में आता है कि वो भ्रम काट रहा था, उससे पहले तो यही लगता है कि हमारा तो सब ठीक-ठाक ही चल रहा था, संतुलित, व्यवस्थित, कोई बाहर से आकर के हममें भ्रम पैदा कर रहा था। ये बहुत बाद में पता चलता है। बात आ रही है समझ में?

सारा खेल अपना ही है। जो हमने मेंटल मॉडल बना रखा है कि एक ये है, और ये गुरुजी हैं, और ये दुखी आ रहा है, परेशान है, बदहाल है। और तभी गुरुजी आते हैं अपना पूरा ओरा लेकर और वो स्पेशल वाइब्स और कहते हैं, “जा वत्स, तेरा कल्याण हो।” और वो बिल्कुल लौट जाता है, और गुरुजी की चरण-रज ऐसे माथे पर लगा लेता है, और गुरुजी ऐसे (खुश)। ये मेंटल मॉडल, ये फ़र्ज़ी है। ये बहुत फ़र्ज़ी है और ये इंसान के बहुत सारे दुख का कारण है। आगे बढ़िए।

श्लोक 43

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत्। गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम्।।

सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल गुरु के ज्ञान के फल का हज़ारवाँ हिस्सा है।

Whatever the merit is acquired from pilgrimages and bathing in the sacred water extending to the seven seas by one, cannot be equal to one-thousandth part of the fruits derived from partaking the knowledge of the Guru.

अब तीर्थों को क्यों झाड़ दिया यहाँ पर? तीर्थों को क्यों झाड़ दिया? क्योंकि बहुत कम चलता है। क्योंकि 365 दिन कुछ भी करके एक दिन जाकर तीर्थ कराना बहुत आसान है, बहुत सस्ता सौदा है, उतने से कुछ होता नहीं। जितनी भी बाहरी चीज़ें हैं, उनका कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि वो बाहरी हैं, इसीलिए बड़ी सुविधा की है, जाओ, कराओ तीर्थ। वापस तो आ जाओगे न, या वहीं बस जाओगे? और बस भी गए तो तीर्थ माने क्या होता है? वो तो पूरा शहर होता है, उस पूरे शहर में सब कुछ चल रहा होता है, पूरी दुनिया चल रही होती है, तुम वहाँ बस भी गए तो क्या हो गया?

ये मत देखो कि क्या कहा जा रहा है, ये देखो कि भीतरी किस प्रक्रिया की ओर और किस धोखे की ओर संकेत हो रहा है, क्योंकि हमें अपनी ज़िंदगी जीनी है। ये सब बातें अपनी जगह हैं, जीना तो अपने साथ है न। तो तीर्थों को यहाँ पर इसलिए छोटा कहा जा रहा है, क्योंकि तीर्थ पे जाना-न-जाना तुम्हारे हाथ में। और जाते भी हो तो, एक बार जो हज कराए कहते, तो हाजी हो गए, ज़िंदगी में एक बार। आप लोग में से बहुत यहाँ इधर दक्षिण के होंगे, आप लोग क्या बार-बार बनारस जाकर डुबकी मारते हो? पर बनारस गए तो होंगे। गंगा में गोता तो मारा होगा, कितनी बार? उसी एक बार में या दो बार या पाँच बार में सुविधा है, कि करके निवृत्त हो गए, निपटा दिया, टिक द बॉक्स, सीवी में भी डाल दो, हो गया, बीन देयर डन दैट।

और जो भीतर चलती रहती है उथल-पुथल, वो भी साल में एक दिन चलती है? जब वो निरंतर है तो एक दिन वहाँ जाकर के निपटा कर लौटाने से क्या मिल जाएगा? और हम ये मान रहे हैं अभी कि एक दिन में भी वहाँ कुछ मिलता होगा। अभी तो और आगे बढ़ोगे तो पता चलेगा, उस एक दिन में भी कुछ नहीं मिल रहा। 364 तो कोरे के कोरे। वो जो एक दिन था, शायद उसमें भी कुछ नहीं मिला है, माने 365 दिन व्यर्थ गए।

यहाँ ये नहीं कहा जा रहा है कि गुरुदेव महान ज्ञान रखते हैं, तो आओ और बैठ जाओ बिल्कुल सामने पालथी मार करके और फिर गुरुदेव बताएँगे कि आत्मा कैसे बैकुंठ जाती है और फिर वहाँ क्या होता है और क्या नहीं होता है।

आज मैं कहीं पर देख रहा था, वो बता रहे थे कि ये जितने मरे हैं प्लेन-क्रैश में, हमने इनकी सबकी कुंडलियों का अध्ययन करा है। कैसे कर लिया? अभी डीएनए तो बेचारे को मिल नहीं रहा है, कुंडली कैसे मिल गई, पता नहीं। बोले, “हमने अध्ययन किया और हमने ये पता लगाया कि ये सब के सब पुराने जन्म के पापी थे। और इन सब ने इकट्ठे होकर एक जंगल में आग लगाई थी और उस जंगल में बहुत सारे जीव जलकर मरे थे, तो इसलिए अब इन्हें पाप और दंड लगा है कि अब ये भी सब इकट्ठे जलकर मरे हैं।” ये गुरुजी का ज्ञान है। उस ज्ञान की बातें यहाँ नहीं हो रही हैं।

इसको कैसे पढ़ना है?

इसको ऐसे पढ़ना है, कि पहली बात, यहाँ पर ज्ञान से क्या आशय है? *टेक्नोलॉजी, साइकोलॉजी, हिस्ट्री,*उसकी बात हो रही है क्या? नहीं। यहाँ पर ज्ञान क्या है? ये समझना है। तो ये जानो कि अज्ञान क्या होता है।

अज्ञान क्या होता है?

जो भीतर-भीतर हमें अपना ही कुछ नहीं पता होता, कि किस बात पर आँसू आ गए? क्यों नाराज़ हो? कोई पसंद क्यों नहीं है? किसी के बारे में सारे अच्छे तर्क दे दिए गए, तब भी उसको स्वीकार क्यों नहीं कर सकते? हमें नहीं पता होता न। हम बस कहते हैं, पता नहीं। पता नहीं क्या, कुछ नहीं पता। कुछ चाहिए, कुछ नहीं चाहिए, किसी चीज़ की आशा है, कहीं से भय है, क्यों है, नहीं पता। वो अज्ञान है। तो ज्ञान भी माने स्वयं को जानना, वही है। ठीक है? तो कोई फ़ायदा नहीं है किसी तरह के तीर्थाटन का आत्मज्ञान के बिना, कोई तीर्थ लाभ नहीं देगा अगर तुम ख़ुद को नहीं जानते। इसी बात को अन्य जगहों पर ऐसे भी कहा गया है, कि जो भीतर गोता मार ले, उसी ने गंगा नहा ली, कि आत्मस्नान ही तीर्थस्नान है। और जो भीतर गोता मारे बिना इधर-उधर जाकर तीर्थों में घूम रहा है, वो कुछ नहीं पाता। तीर्थ भी बाहरी तभी महत्त्व रखता है, जब वो आपको प्रेरित करे अपने भीतर जाने के लिए। और सिर्फ़ उसी जगह को तीर्थ कहा जा सकता है, किसी जगह को, किसी भौगोलिक जगह को, सिर्फ़ उस जगह को तीर्थ कहा जा सकता है जहाँ जाकर के अपनी याद आ जाए।

जिस जगह जाओ और वहाँ आँखें फटी की फटी रह जाएँ और इधर-उधर देख रहे हो, आहा! आहा! आहा! वो जगह तीर्थ नहीं है, उसने तो तुम्हें ख़ुद से और दूर भेज दिया। आहा! क्या भव्य पहाड़ है, क्या भव्य मंदिर है, ये देखो, ये देखो। यहाँ इतने मस्त तरीक़े की आरती होती है कि ये होता है, वो होता है। तीर्थ थोड़ी है यह। इसने तो तुम्हें स्वयं से और दूर भेज दिया। अपनी याद आ रही है क्या? ऐसे खड़े हो बच्चों की तरह आँख फाड़े, वाइड-आइड। ये तुम ख़ुद को याद कर रहे हो? उलझे हुए हो कि मेरा कब नंबर आएगा दर्शन के लिए? लंबी कतार है। किसको पैसे दे दूँ? कुछ जुगाड़ हो सकता है वीआईपी वाली में? ये तुम क्या ख़ुद को याद कर रहे हो? तो फिर ये तीर्थ व्यर्थ जाएगा।

तीर्थ वही है जहाँ स्वयं को याद कर सको, और गुरु भी वही है जो तुम्हें तुम तक ले आए। बस, ये आख़िरी परिभाषा है।

असली गुरु कहाँ बैठा है? भीतर। और जो बाहर साध्य की तरह है अधिकतम, उसकी भी वैधता मात्र तब है, जब वो तुम्हें अपने तक नहीं लाए, तुम्हें तुम तक लाए। जो तुम्हें तुमसे दूर अपनी तरफ़ खींच रहा है, वो तो रुगु है। वो उल्टी प्रक्रिया चला रहा है न। वो आपको किधर को खींच रहा है? “आओ, आओ, मेरे पास आओ। यहाँ मनोकामनाएँ पूरी होती हैं आओ।” गुरुजी के पास जाओ और मौज करो, और मौज माने सब बाहर के तुम्हारे विषय, सारी कामना बाहर की चीज़ों की ही तो होती हैं न। गुरुजी कह रहे हैं, “मेरे पास आओ, मैं तुम्हारी सारी ये कामनाएँ पूरी कराऊँगा, दुनिया भर की।” इसमें अपनी याद कहाँ आ रही है? अपनी याद कहाँ आ रही है?

श्रोता: उलझ गए हैं।

आचार्य प्रशांत: और तुमको खींचा जा रहा है बाहर, और जाओ, और जाओ, और जाओ। हाँ, अब ये कहानी सुनो तुम। और जो कहानी बताई गई है, उसमें सब कुछ है बस क्या नहीं है? गुरुजी ने बड़ी अच्छी कहानी बताई, गुरुजी कहानी बताने में बड़े पारंगत हैं। और जो कहानी बताई, उसमें सब कुछ था प्राचीन काल में, प्राचीन काल माने जो भी होता हो, एक समय में, एक जगह पर, एक राजा के यहाँ। इसका जो भी मतलब होता हो, और इसको बताया ऐसे आता है जैसे ये इतिहास है, ये हिस्ट्री है। प्राचीन काल में एक राजा था एक जगह पर। हाउ पर्टिक्युलर। और उसके बाद सौ बातें। फिर एक कौवा आया, कौवे ने मेंढक को बोला, और ये हुआ, फिर वो हुआ, फिर ऐसा हुआ, फिर वैसा हुआ, और भक्तगण कैसे सुन रहे हैं? बता दो। कैसे सुनते हैं? ( हाथ जोड़कर बड़ी बड़ी आँखे कर अभिनय करते हुए)। बड़ी अच्छी कहानी है।

पर इसमें मैं कहाँ हूँ? मैं कहाँ हूँ? न मुझे मेंढक से कोई लेना-देना, न मुझे कौवे से कोई मतलब। न प्राचीन राजा, न उसकी राजकुमारी, न देवी, न देवता। मेरी ज़िंदगी तो ये है, यहाँ पर। और मेरा दुख यहाँ है, भीतर छाती में। इसकी बात कब करोगे, महाराज?

“एक गड़रिए और एक चरवाहे में एक बार लड़ाई हो गई।” अरे, ठीक है, हो गई लड़ाई। जनरल नॉलेज, सामान्य ज्ञान क्यों पढ़ा रहे हो? आत्मज्ञान पढ़ाओ। आ रही है बात समझ में?

इसको ऐसे ही मत देखिए कि अभी हमने कैसे बात करी। ऐसे देखिए, ये सब जो गुरु बनकर घूम रहे हैं, वो इसका (उपर्युक्त श्लोक) अर्थ बताएँगे तो कैसे बताएँगे? कैसे बताएँगे?

श्रोता: कि मैं ही सब कुछ हूँ।

आचार्य प्रशांत: (पास बुलाने का अभिनय करते हुए) अब समझ में आएगा कि क्यों जितनी ज़्यादा ज़मीन होती है और जितना बड़ा आश्रम होता है, उतनी महिमा होती है, क्योंकि काम ही इकट्ठा करने का है न। आओ, आओ, बैठो। अपने पास नहीं बुलाना है, किसी का भला चाहते हो तो उसे उसके पास भेजना है। उसे अपने पास नहीं बुलाना है।

श्लोक 49

यज्ञिनोऽपि न मुक्ताः स्यु: न मुक्ताः योगिनस्तथा। तापसा अपि नो मुक्त गुरुतत्त्वात्पराइमुखा:॥

यदि गुरुतत्व से विमुख हो जाएँ तो यज्ञ मुक्ति नहीं देता, योग मुक्ति नहीं देता और तप भी मुक्ति नहीं देता।

Neither those who perform great sacrifices, nor yogis, nor those who practice severe austerities are liberated if they are averse to Guru Tattva.

पहले तो ये सोचो, ये अगर बदमाशी करने पर आऊँ तो इसका क्या मतलब बताया जा सकता है? बोलिए। ये सब ठीक है। यज्ञ, योग, तप, ये सब करते रहो बच्चा। लेकिन असली चीज़ तो।

श्रोता: मैं हूँ।

आचार्य प्रशांत: और वो कितना सरल लग रहा है न कि जैसे यही बात तो कही जा रही हो। इसका अर्थ ये है, कि आत्मा नहीं है तो दुनिया का कोई विषय तुम्हारे काम नहीं आएगा, यहाँ तक कि वो विषय भी जिन्हें तुम दैवीय, धार्मिक, होली बोलते हो। ये अहंकार, ठीक। ये यहाँ से उठा है और छिटक गया है। ये (उदाहरण के लिए माइक की ओर इंगित करते हुए) होना चाहिए था इसकी मौलिक जगह है, ये उद्गम है, ये स्रोत है। यहाँ से उठा और कहाँ पहुँच गया? यहाँ (माइक से दूर)। और यहाँ पहुँचने के बाद, ये (माइक) तो अकेला है, इसको बोलते हैं अद्वैत। और जब छिटकता है, तो अपने साथ एक पूरा संसार प्रक्षेपित कर लेता है। ये क्या कहलाता है, मिला के पूरा? ये द्वैत है।

अब आँखें सारी उधर को ही देखती हैं। उधर बहुत सारे क्या हैं? विषय हैं। ये कौन है यहाँ पर? अहंकार। और इधर इसके सारे क्या हैं? विषय हैं। आँखें किधर को हैं? विषय की तरफ़। लेकिन साथ ही साथ क्या अनुभव कर रहा है यह? बेचैनी। बेचैनी अनुभव कर रहा है, इतने सारे विषय हैं तो और क्या करेगा? और कूदकर इधर भागेगा (विषयों की ओर)। और भागेगा तो और क्या हो जाएगा? और दूर हो जाएगा यहाँ से, और बेचैनी बढ़ जाएगी। दूर भागेगा और ख़ुद को ही ये झाँसा देगा कि उधर ही कुछ निर्मल विषय हैं, धार्मिक विषय हैं, पवित्र, सीक्रेड, होली ऑब्जेक्ट्स हैं। और उनको पा लूँगा तो मेरी बेचैनी दूर हो जाएगी।

वो सब जो उधर ये प्रक्षेपित कर लेता है, होली ऑब्जेक्ट्स उनकी यहाँ बात हो रही है। यज्ञ मुक्ति नहीं देगा, योग मुक्ति नहीं देगा, तप मुक्ति नहीं देगा, मुक्ति तो इधर ही आकर मिलेगी, और इधर कोई बाहर वाला नहीं है, इधर तुम हो और तुम्हारी ज़िंदगी है। उधर सिर्फ़ बाज़ारें ही नहीं होतीं, जो आप सोचते हो न कि संसारी तो वो है जो जाकर के बाज़ारों में खो गया, और उनकी बड़ी भर्त्सना करी जाती है। “ये देखो, ये जाकर के क्या करते हैं? नई-नई घड़ियाँ ख़रीदते रहते हैं। इन्होंने ये नए-नए चश्मे पहन रखे हैं। उन्होंने नए-नए गहने, इनके कपड़े।” इनकी तो बड़ी निंदा हो जाती है।

संसार सिर्फ़ इन चीज़ों में नहीं है जिनका आप ऐसे प्रतिदिन उपभोग कर लेते हो। उपभोग की चीज़ें ये सब भी हैं, क्या? (श्लोक की तरफ़ इंगित करते हुए)। ईगो इनको भी कंज़्यूम ही करती है। लेकिन ऐसे लोगों को हम नहीं बोलेंगे कि ये पदार्थवादी हैं, कि भोगवादी हैं। उनको नहीं बोलते न। घर से दो लोग निकले, और एक चला गया शॉपिंग मॉल की तरफ़, और एक चला गया गुरु जी के आश्रम की ओर। इन दोनों में से आप मैटेरियलिस्टिक कंज़्यूमरिस्ट किसको बोलोगे? भोगवादी पदार्थवादी किसको बोलोगे? दोनों हैं। और जो शॉपिंग मॉल में मिलता है, उसको तो हर कोई धिक्कार लेता है। गुरु-गीता इसलिए है ताकि उसको भी धिक्कार सके जो बाबा जी के आश्रम में मिलता है। क्योंकि जो शॉपिंग मॉल में मिल रहा है और जो आश्रम में मिल रहा है, चीज़ें दोनों एक ही हैं, और वो दोनों ही साज़िशें हैं अहंकार को आत्मा से दूर रखने की।

ज़्यादा घिनौनी साज़िश कौन सी है?

श्रोता: आश्रम।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि बाज़ार में जो मिलता है, ठीक है वो आपको कोई स्थायी और गहरी शांति नहीं दे सकता, पर अगर आपको कोई घड़ी बेच रहा है तो घड़ी आपको टाइम तो दिखाती है। कम से कम खुली बेईमानी तो नहीं करी जा रही। पर बाबा जी के आश्रम में बोला जा रहा है कि ये ले जाओ, ये ख़ास रुद्राक्ष है और इसको बाँधने से ये हो जाएगा, ये तो खुली बेईमानी है। घड़ी वाले ने पैसे लिए, ठीक है, उससे तुमको आत्मिक शांति नहीं मिलेगी, महँगी से महँगी घड़ी से, पर कुछ तो मिलेगा। क्या मिलेगा? समय देख पाओगे।

पर बाबा जी ने तुमको जो बेच दिया होली डोसा, उससे तुम्हें क्या मिलेगा? उससे क्या मिलेगा? वो तो और घिनौनी बेईमानी है। समझ में आ रही है बात? और ये सदा से होती रही है। पुराना समय भी वैसा ही था जैसे आज का है, हर तरह के लोग थे, वैसे भी लोग थे जिन्होंने धर्म के नाम पर बाज़ार चला दिए, और ऐसे भी लोग थे जिन्होंने उन बाज़ारों का खंडन किया। ये खंडन है (श्लोक की ओर इंगित करते हुए)।

श्लोक 54

किमत्रं बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि। दुर्लभा चित्तविश्रान्ति: विना गुरुकृपां परम्॥

अधिक कहने से क्या लाभ? गुरु की परम कृपा के बिना करोड़ों शास्त्रों से भी चित्त की विश्रांति दुर्लभ है।

What is the use of elaborating here? Without Guru's infinite grace, peace of mind is difficult even after studying millions of scriptures.

और इन्हीं में से, जो इधर पूरा इसने विषयों का जंजाल खड़ा कर लिया है, प्रक्षेपित कर लिया है, इन्हीं में से एक विषय ये भी हो सकता है। क्या? शास्त्र। कुछ भी कर लो बाहर का। चाहे किसी व्यक्ति को पकड़ लो, चाहे किसी जगह को पकड़ लो, चाहे किसी विधि को पकड़ लो और चाहे किसी पुस्तक को पकड़ लो, कुछ नहीं मिलेगा अपने में लौटे बिना। तो तीर्थ गया, योग गया, तप गया, जप गया और अब शास्त्र भी गया। ये सब के सब अहंकार के विषय बन जाने हैं।

जब तक नीयत साफ़ नहीं है, ईमानदारी से ज़िंदगी को अपनी ख़ुद नहीं देख रहे, अपनी बेईमानियाँ, अपनी चोरियाँ ख़ुद नहीं पकड़ रहे, ये लाभ नहीं देंगे। हाँ, पहले भी कहा था, दोहरा रहे हैं जो आदमी अपनी पूरी ताक़त से सुधरने का प्रयास करता है, जो आदमी सबसे पहले अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद पूरी करता है, फिर शास्त्र उसके काम आने लग जाते हैं। शास्त्र कहते हैं हम मदद उसकी करें न, जो पहले अपनी मदद स्वयं कर रहा हो। तुम अपनी मदद ख़ुद न करो, तो हम तुम्हारे श्रम का विकल्प थोड़े ही बनेंगे। कि बनेंगे? कोई न बनें। अभी हमने पूछा था उदाहरण देकर, आप ही नहीं करेंगे, आप ही नहीं करेंगे।

कोई आपके पास आए कहे, मेरा भाई बीमार है, इसके लिए पैसे दे दो। तो आप पहली चीज़ उससे क्या पूछोगे? तेरे पास जितने थे, तूने लगा दिए क्या? तू पहले अपनी ओर से अपने सारे पैसे लगा दे अपने ऊपर या अपने भाई के ऊपर, जिसके ऊपर भी। जब तूने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली, अब तेरे पास कुछ शेष नहीं बचा, अब तू थक गया, अब तू अटक गया, अब आगे अपने दम पर जा ही नहीं सकता, तब कोई बाहर से मदद आती है। आती है न? और जिनका ये पता चल गया कि तुम्हारा भाई बीमार है और तुम अपनी गाँठ से एक रुपया नहीं खोलना चाहते और दुनिया भर में जाकर कह रहे हो, “पैसा दे दो, पैसा दे दो,” तो चोर ही हो तुम। हो कि नहीं?

“यार, ये बारिशों में न मेरी गाड़ी की बैटरी डाउन हो जाती है। अब खड़ी हो गई है, स्टार्ट ही नहीं हो रही, पर धक्का देकर हो जाती है। भाई साहब, धक्का लगाएँगे आप? भाई साहब, अब आप भी आ जाइए। सब लोग आ जाइए। यहाँ, यहाँ धक्का लगाइए। लगाइए, लगाइए और धक्का लगाइए।” खड़े हो गए मोबाइल में कुछ कर रहे। “यार, धक्का लगाओ न। गुरु जी, आप महान हैं, आप लगा दीजिए। आपके तो स्पर्श करते ही टेक-ऑफ़ कर जाएगी।” मारोगे और ऐसे आदमी को। और कोई मिले जो बरसात में अकेले अपनी गाड़ी को धक्का मार रहा हो, तो क्या करोगे? तो उसकी मदद माँगे बिना चले जाओगे शायद और कहोगे, “ला भाई, हाथ लगा देते हैं बता।” समझ में आ रही है बात?

तुम्हारी ही ईमानदारी, तुम्हारा ही अधिकतम प्रयास, बाहर फिर मदद बनकर प्रकट हो जाता है।

और तुम्हारी ही बेईमानी, तुम्हारी ही भीतरी बेईमानी, बाहर एक बेईमान गुरु बनकर प्रकट हो जाती है। सब तुम पर है।

श्लोक 85

गुरुः शिवो र्गुरुर्देवो शरीरिणाम्। गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरन्यन्न विद्यते॥

मनुष्य के लिए गुरु ही शिव हैं, गुरु ही देव हैं, गुरु ही बांधव हैं गुरु ही आत्मा हैं और गुरु ही जीव हैं। गुरु के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।

Guru is Shiva, Guru is God. Guru is the relative of all embodied beings. Guru is the Self. Guru is Jiva. There is nothing other than the Guru.

गुरु वो हो गया, गुरु-तत्त्व की प्राप्ति उसको हो गई जिसने ये आख़िरी बात बोल दी। जिसके पास अब किसी चीज़ का मूल्य नहीं बचा। जब तक आपके पास दस चीज़ों का मूल्य है, तब तक आपको वो दस चीज़ें ही मिलती रहेंगी, वो एक चीज़ नहीं मिलेगी। जब तक आप कहोगे कि आत्मा भी महत्त्वपूर्ण है, आत्मा ही गुरु है न, आत्मा भी महत्त्वपूर्ण है लेकिन साथ ही साथ और बहुत-सी चीज़ें हैं जिनका मैं धर्म के क्षेत्र में पालन करता हूँ, तो वो जो और बहुत-सी चीज़ें हैं, आपको वही मिलती रहेंगी, गुरु-तत्त्व नहीं मिलेगा।

आत्मा ही सब कुछ है न, शिवत्व का भी उच्चतम सुंदरतम अर्थ यही है — आत्मा। तो आत्मा को छोड़के और किस शिव की तलाश में आप जा रहे हैं? शिव और आत्मा अनन्य हैं, एक हैं। और आप कहें, “नहीं, नहीं, ये आत्मा वगैरह, आत्मज्ञान हम नहीं जानते, हम तो शिव-भक्त हैं। सावन आ रहा है। हम तो कुछ और पूजा-पाठ करते हैं। आत्मा-वग़ैरह से हमें कोई मतलब नहीं, सत्य से कोई मतलब नहीं।”

भाई, आप जिनका नाम ले रहे हो न, आत्मा के अलावा वो कहीं नहीं मिलते। वो सब कुछ जो अनात्मिक है, उसको काटने के बाद, क्या बोलते हैं आदि शंकराचार्य? शिवोऽहम्। आत्मा को ही तो शिव कह रहे हैं वो। और आत्मा को छोड़के आप किन शिव की तलाश में जा रहे हो, कहीं नहीं मिलेंगे। खुल रही है बात?

ये जितने विकल्प हैं, इनको सबको ठुकराना पड़ता है। कहना होता है, ये सब कुछ नहीं है, गुरु ही है। न तो जीवों में मुझे कोई प्रिय है, न आत्मा की कोई और परिभाषा चाहिए। न मेरा और कोई बंधु-बांधव है, न कोई मेरा देवी-देवता है, और न ही शिव को, राम को, श्रीकृष्ण को मैं छवि बनाकर पूजता हूँ। राम, श्रीकृष्ण, शिव — सब मेरे लिए क्या हैं? आत्मा मात्र हैं। बंधु मेरे लिए क्या है? आत्मा मात्र है। आत्मा से अलग अगर कोई और है, भले ही उसका ऊँचे से ऊँचा, प्यारे से प्यारा नाम हो, तो झूठ होगा। जो आत्मा से अलग है, उसको माया कहते हैं, वही भ्रम है, वही छल है। और आत्मा माने क्या? फिर बताइएगा। फिर आत्मा बोलते ही परेशान हो जाते हैं। आत्मा माने क्या? ‘मैं।’

मैं, मेरी ज़िंदगी, मेरी ईमानदारी — बस ये है।

श्लोक 87

न सुखं वेदशास्त्रेषु न सुखं मंत्रयंत्रके। गुरोः प्रसादादन्यत्र सुखं नास्ति महीतले॥

वेदों और शास्त्रों में सुख नहीं है, मंत्र और यंत्र में सुख नहीं है। इस पृथ्वी पर गुरु की कृपा के सिवा अन्यत्र कहीं भी सुख नहीं है।

There is no happiness in Vedas and Shastras, not even in mantras and tantras. In this world, there is no happiness except in the Guru’s Grace.

किसको समझ में नहीं आया अभी भी? आ गया सबको? यहाँ होना था (माइक की ओर इंगित करते हुए), उछलके यहाँ बैठ गए (माइक से दूर)। यहाँ बहुत सारे विषय खड़े किए हैं, और जब उन विषयों में दुख मिलता है तो ये नहीं करते कि इधर को देख रहे थे तो ऐसे मुड़े (अपनी तरफ़)। ये कहते हैं, अच्छा, उधर विषयों में दुख मिल रहा है, तो कुछ और विषय निर्मित कर लेते हैं। इधर शॉपिंग मॉल वाले विषय तो बहुत थे, अब उसके साथ अब हम आजकल कुछ और करने लगे हैं — मेडिटेशन। समझ में आ रही है बात?

कुछ भी कर लें, लेकिन मुँह उधर को ही रखेंगे। इधर को नहीं मुड़ेंगे। अध्यात्म वहाँ नए-नए विषय निर्मित करने में नहीं है। अध्यात्म मुँह ऐसे मोड़ने में है, “अपने माही टटोल।” आप बाहर कितने भी होली ऑब्जेक्ट्स बना लो, उनसे कुछ नहीं मिलेगा। ज़्यादातर होली ऑब्जेक्ट्स इंसान ने बनाए ही इसलिए हैं ताकि भीतर की होलीनेस से बचा जा सके। वो धोखा है, वो साज़िश है। ईमानदारी से बताना, किसी पवित्र जगह पर जाना कठिन होता है या ईमानदारी से आईना देखना?

श्रोता: ईमानदारी से आईना देखना।

आचार्य प्रशांत: पूरी कहानी इतनी-सी है बस। आईना न देखना पड़े, इसके लिए आदमी ने जितने जोड़-तोड़ जुगाड़ हो सकते थे सब कर डाले, सब कर डाले। चाहे वो भौतिक प्रगति हो और चाहे वो धार्मिक प्रगति हो, सब करी इसलिए गई है ताकि आईना न देखना पड़े। भौतिक प्रगति के नाम पर बहुत सारी भोग की चीज़ें खड़ी करी दुनिया में। भोग क्यों करना है? सुख के लिए ही तो न। वहाँ मिल रहा है क्या सचमुच? और आईना न देखना पड़े तो इसके लिए बहुत सारी चीज़ें धर्म के नाम पर भी खड़ी कर दी। वो भी इसलिए करी गई हैं ताकि अपनी ओर देखना न पड़े। समझ में आ रही है बात?

और कोई बाहर की चीज़ अगर ठीक हो भी सकती है तो उसका एक ही प्रमाण होगा सदा, आप बताएँगे। कोई भी शास्त्र माने क्या? किताब ही तो। कोई भी पुस्तक कैसे पता शास्त्र कहलाने योग्य है? आप किताब को पढ़ रहे थे और किताब ने आपसे कहा — चल, झूठे, मुड़ और ख़ुद को पढ़। बस, वो किताब शास्त्र कहलाने लायक है। बाक़ी सब किताबें, जिनको आप कहते हो फलाना शास्त्र, ढीकाना शास्त्र, ये ग्रंथ, वो ग्रंथ, बेकार। असली ग्रंथ बस एक बात बोलेगा — मुझे बंद कर, ख़ुद को खोल।

और आप अगर ख़ुद को खोलने के ख़िलाफ़ कोई तर्क दोगे, तो उस तर्क को काट देगा। वो जो उसमें तर्क लिखा होगा, वो तर्क भी सिर्फ़ इसलिए कि आपके कुतर्क काटे जा सकें। और वरना तर्क देने का कोई शौक नहीं। असली मंत्र क्या बोल रहा होगा? ख़ुद को जप। मुझे मत जप, ख़ुद को जप।

तो कैसे पता चले कि कोई बात मंत्र कहलाने योग्य है कि नहीं? कैसे पता चले? वो तुम्हें तुम्हारी तरफ़ मोड़ रही है कि नहीं। कैसे पता चले कि कोई शब्द जपने योग्य है कि नहीं? वो जो तुम नाम जप रहे हो, वो किसी और का है, तुम्हारा ही है। कोई और नाम अगर जपना है तो दुनिया में वैसे ही इतने विषय हैं, जपते रहो। दुनिया में क्या विषयों की कमी थी? और अहंकार तो लगातार जपता ही रहता है, न जाने क्या-क्या जपता है। कोई पल होता है जब आप कुछ जप न रहे हो? कोई भी पल होता है, बता दो। तो जप तो हमेशा से ही रहे थे, आपने एक नया नाम दे दिया।

जपने से कुछ नहीं होता है, असली मंत्र वो है जो आत्म-जप देखो, देखो। क्योंकि भूलना नहीं है कि ये सब कुछ करा जा रहा है ताकि हमें शांति मिल सके। ये सारी चीज़ें किसी और उद्देश्य से नहीं हो रही हैं। हमारी ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए हो रही हैं, और इनका कोई उद्देश्य नहीं है। आपने बाक़ी सब उद्देश्य हासिल कर लिए, पर भीतर अभी बेचैनी उतनी ही है। तो आप असफल के असफल रह गए।

गुरु की कृपा माने क्या? ये (हाथ से मंत्र करने का अभिनय करते हुए)? तो गुरु की कृपा माने क्या? गुरु की कृपा आपको मिलती है बेचैनी के रूप में, चोट के रूप में। कम से कम बाहर की चोट, “अंतर हाथ-सहार दे, बाहर मारे चोट” वही गुरु की कृपा होती है। ये पीछे है (माइक की ओर इंगित करते हुए)। ये (अपने हाथ को सामने लाते हुए और माइक उसके पीछे है) भाई साहब क्या कोशिश कर रहे हैं कि बाहर मौज आ जाए। ये पीछे से क्या करते हैं? (माइक से अपने हाथ में मारते हुए) “बहुत मौज कर रहा है, आ रही है मौज, किसको धोखा दे रहा है।” ये गुरु की कृपा है।

आपके भीतर कोई है जो आपको चैन नहीं लेने दे रहा, यही उसकी कृपा है कि वो चैन नहीं लेने दे रहा। गुरु की कृपा आपको भीतर की खलबली के रूप में मिलती है। उसको दबाओ मत, उससे बात करो।

यद्प्यपधीता निगमा: षडंगा आगमा: प्रिये। आध्यात्मादिनि शास्त्राणि ज्ञानं नास्ति गुरं विना।।

हे प्रिये! मनुष्य चाहे चारों वेद पढ़ ले, वेद के छ: अंग पढ़ ले, आधात्मशास्त्र आदि अन्य सर्व शास्त्र पढ़ ले फिर भी गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता।

O beloved Parvati, one might have learned the four vedas and the six - branched Agamas (shiksha, kalpa, vyakaranam, nirukta, astrology and chhandas) all Adhyatma Shastras, but one cannot attain Self-knowledge without Guru.

शिव-पार्वती संवाद है, तो प्रिय पार्वती को कहा है। खेल ही ख़त्म हो गया, अब क्या करें। सब एक बार में ही निपटा दिया। मंत्र, तंत्र, यंत्र, जप, यज्ञ, तप, शास्त्र और अब वेद भी गए, वेदांग भी गए, सब कुछ चला गया। क्योंकि इन सब की उपयोगिता ही तभी है जब वो आपको कहाँ तक ले आ दें? गुरु तक ले आ दें। अगर वो गुरु तक नहीं ले आ पा रहे, तो वो सब किस काम के हैं फिर।

उन्हें गुरु तक आपको लाने का साधन बनना है, उन्हें गुरु का विकल्प नहीं बनना है। एक गुरु होता है जो साधन बनता है, आपको आप तक पहुँचाने का, और एक गुरु होता है जो विकल्प बनता है, कि ख़ुद तक मत जाओ, मेरे पास आओ। यही बात किताब पर भी लागू होती है, यही बात दुनिया के हर विषय पर लागू होती है। वो विषय दो काम कर सकता है। या तो आपको (अपनी ओर बुलाएगा) या (तुम्हें तुम्हारी ओर वापस भेजेगा)। आपको आपसे मिलाना, यही प्रेम कहलाता है। जो बातें हम कह रहे हैं कि विधियों पर, व्यक्तियों पर, किताबों पर लागू होती हैं, वो बात, जवान लोग बैठे हैं, वो बात प्रेमियों पर लागू होती हैं, बहुत ज़्यादा। वो तुम्हें अपनी ओर खींच रहा है या तुम्हें तुम्हारी ओर वापस भेज रहा है।

वो कह रहा है, आओ, आओ, आओ, मौज इधर है या बता रहा है कि नहीं ख़ुद को देखो, अपनी ज़िंदगी को जानो, पहचानो, संभालो, आनंद उधर है। देख रहे हो कैसे एक ही पैटर्न हर चीज़ में है। चाहे वो व्यक्ति हो, चाहे पद्धति हो, चाहे कोई जगह हो, तीर्थ इत्यादि या वो फिर हमारे सब संबंध हो। सबको एक ही तराज़ू पर तोला जा सकता है — ये चीज़ मुझे मुझसे दूर कर देगी…

श्रोता: या पास ले आएगी।

आचार्य प्रशांत: और ख़ुद से दूर होना, ख़ुद के पास आना, इसका क्या मतलब है? यथार्थ को मुहावरा बना लेना। उसका जो मेटाफ़राइजेशन होता है, वो बड़ी घातक चीज़ होती है। हमें लगता है कि मुहावरा ऐसी चीज़ है जो हम समझते हैं। आप समझते नहीं हैं, बस उसकी आदत पड़ जाती है।

तो अपने पास आना, इसका क्या मतलब होता है? ऐसे हो जाना (सिकुड़ जाना)। तो अपने पास आना माने क्या?

श्रोता: अपने आप को देखना, अपनी गलतियों को।

आचार्य प्रशांत: वही जिसकी बात हम करते हैं, जीवन का सतत अवलोकन, ही होता है अपने पास आना। अपने पास आना माने ये नहीं, कि ऐसे मैं तो जी, अपने पास हूँ (अपनी बाहें फोल्ड करते हुए)। ये नहीं होता। जब आप किसी चीज़ के पास होते हो, तो उसको देखना, जानना शुरू कर देते हो न। मैं अब इसके पास हूँ (हाथ में टॉवल उठाते हुए), तो अब मैं इसको देख सकता हूँ, पकड़ सकता हूँ, प्रयोग कर सकता हूँ, समझ सकता हूँ, इसको खोल सकता हूँ। है न?

तो इसी अर्थ में बताओ कि अपने पास आने का क्या मतलब हुआ? कि ख़ुद को देख पाना, खोल पाना, समझ पाना, प्रयोग कर पाना, ये होता है अपने पास आना।

श्लोक 99

शिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा। गुरुतत्त्वविहीश्चेतत्सर्व व्यर्थमेव हि॥

शिवपूजन में रत हो या विष्णु की पूजा में रत हो, परन्तु गुरुतत्त्व के ज्ञान से रहित हो तो वह सब व्यर्थ है।

One may be engaged in worship of either Shiva or Vishnu, but if he is without knowledge of the Guru-Tattva, all his worship is a mere waste.

अगर लिखा न हो यहाँ पर कि ये तो एक बड़े मान्य ग्रंथ से बात आ रही है, गुरु-गीता से। ऐसे ही आप कहीं डाल दें, तो कहें, एंटी-हिंदू हमारी भावनाओं के साथ खेल रहे हैं। ये तो गनीमत है कि ये बात पुराने ऋषियों से आ रही है, सीधे-सीधे वेदव्यास से आ रही है, तो बच गए। नहीं तो ये बात तो यही घोषित कर दी जाती, कि ये देखो, ये तो शिव और ब्रह्मा और विष्णु, जो बिल्कुल हमारी त्रिपुटी है, ये उसी के विरुद्ध अपमानजनक बातें कर रहे हैं। अपमानजनक बात नहीं हो रही, ये ऊँचे से ऊँचा सम्मान है। आपने जिनको भी ऊँचा कहा है, उनकी समता बैठानी पड़ेगी न उसके साथ जो उच्चतम है। उच्चतम कौन है? आत्मा।

तो शिवत्व को भी सम्मान तभी है जब आप जाने कि शिव आत्मा ही हैं, तभी है सम्मान। अब शिव को आत्मा की जगह कुछ और बना लें, अपनी कहानियों का किरदार बना लें तो वो अपमान है। वो अपमान है। वो जो हम करा करते हैं, वो अपमान है। ये सम्मान है (श्लोक की ओर इंगित करते हुए)। समझ में आ रही है बात?

श्लोक 152

गुरुर्देवो गुरुधर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते।।

गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ।

Guru is God. Guru is a religion. The greatest penance is unshakable faith in the Guru. I repeat this thrice with force that there is nothing greater than the Guru.

लोग पहले भी नहीं सुनते थे। लिख के कहना पड़ा, तीन बार कह रहा हूँ, कोई नहीं सुनता एक बार में। तीन से आशय समझ रहे हो न, तीन माने फिर अनंत। तीन बार कहता हूँ, माने तीन करोड़ बार कहता हूँ। और भी तरीक़ों से कह सकते हो कि तीन तरीक़े के दुखों के निवारण के लिए ये पूरी बात कही जाती है। तीन तरह के दुख नहीं होते, होता एक ही है, पर आम आदमी उसको तीन तरह से बाँट कर देखता है, तो उसको फिर हम तापत्रय कह देते हैं तीन तरह के दुख। तो ऐसे भी कह सकते हो, कि तीनों तरह के दुखों को हरने के लिए ये बात तीन बार कही गई है फिर। जैसे कि आप मंत्रों में बोलते हो—तीन बार शान्ति, ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

“गुरु ही देव हैं।” इससे क्या लग जाता है कि गुरु कौन है? कोई व्यक्ति हैं। हिंदी में खूब चलता है। यहाँ से नहीं पता चलेगा, गुरु इज गॉड। इसमें कहीं भी मामला व्यक्ति-सूचक नहीं है। पर है को हैं करके तो इसे ठीक कर लीजिएगा साहब। हम कौन हैं, संस्था से याद रखिए — गुरु ही देव है, हैं नहीं। हैं बोल के आपने तो वही बना दिया, गुरु जी। ठीक वैसे जैसे शिव और शिव जी में अंतर है। शिव माने वेदांत का उच्चतम सत्य, आत्मा मात्र। और शिव जी माने, वो जो आप।

गुरु ही देव है, माने ऊँचा देव को बाद में मानना, पहले आत्मा को ऊँचा मानो। बाहर कुछ भी ऊँचा नहीं है, जो ऊँची से ऊँची चीज़ हो सकती है, वो तुम्हारे ही भीतर मौजूद है। कितनी आत्मसम्मान की बात है ना ये। पर हम अपने ही प्रति अपमान से भरे हुए लोग हैं। तो हमें लगता है कि वहाँ पर कुछ है और हमें जाकर लोट जाना है, नेताजी हो, कोई हो, लौट जाना है। हीन भावना, अपना ही अपमान। हमें तो जाकर बस सहम के दुबक के खड़े हो जाना है। चाहे वो बॉस हो, चाहे फिर वो कोई मंत्री हो, नेता हो, कोई हो, सेलिब्रिटी हो।

और यहाँ क्या कहा जा रहा है? कह रहा है कि तुम वहाँ मत झुको, अहंकार को झुकाओ ताकि वो अपनी ही ऊँचाई को पा सके, ये अर्थ है। वहाँ यही कहते हो न कि वहाँ पर कुछ क्या है? मूल्य का है, कीमत क्या है? तो मैं वहाँ जाकर के नमन कर रहा हूँ। वहाँ जो कुछ भी है, जितनी भी मूल्य का है, जितनी भी कीमत का है, उससे ज़्यादा कीमत की चीज़ भीतर है। तुम में ही है। तुम्हें पता नहीं है, पर है। और जो बाहर का है, वो कभी भी तुम्हारा हो सकता है क्या?

तो जो तुम में मौजूद है, जो शत प्रतिशत तुम्हारा है, उसको क्यों न पाओ? वो ज़्यादा फायदे का सौदा होगा न, बजाय इसके कि कहीं और जाकर के सहायता माँगो, सहारा लो। इससे अच्छा है कि अपनी ही शक्ति को जागृत कर लो। वो बेहतर नहीं है क्या?

“गुरु ही धर्म है।” क्या आशय हुआ? कि धर्म का एकमात्र उद्देश्य है — आत्मज्ञान। गुरु माने आत्मा, तो धर्म सिर्फ़ वही है जो तुम्हें आत्मा तक लेकर आए। बाक़ी सब पाखंड है, खेल-खिलौना है, मनोरंजन है, बहानेबाज़ी है, जो भी बोल लो, और नहीं कोई धर्म होता। आत्मज्ञान के अलावा कोई धर्म नहीं होता, एकदम नहीं होता।

अभी किसी ने कम्युनिटी पर पोस्ट करा कि आचार्य प्रशांत के ख़िलाफ़ लोगों को गुस्सा क्यों रहता है? आरोप क्या लगता है? तो उसमें था, कि एक बहुत बड़ा, तो ये है कि ही इज़ डिसमिसिव ऑफ अदर ट्रेडिशंस, he is accused of ऑफ मोनोपोलिस्टिक एलिटिसिज्म। मोनोपोली समझते हो, कि बस जो ये बात है, यही सही है, बाक़ी सब बातें गलत हैं। ही डिसमिसेस द अदर ट्रेडिशंस एंड पाथ्स।

तो यहाँ क्या हो रहा है (श्लोक की ओर इंगित करते हुए)? बोलो, यहाँ क्या हो रहा है। पूरी गुरु गीता में और क्या हो रहा है? कहा जा रहा है, पाँच सात चीज़ें हैं? कहा जा रहा है, एक ही है। जब सत्य एक ही है, तो बाक़ी सबको तो डिसमिस करना पड़ेगा न। या बाकियों को भी बोलूँ, कि नहीं, नहीं, आत्मा तो गुरु है, पर चमेली लाल भी गुरु है, उसको डिसमिस थोड़ी कर सकते हैं।

लेकिन समाज को आदत है, अकोमोडेशन की। “भाई, सबको साथ लेकर चलना चाहिए, नहीं तो बिट्टी की शादी में लोग आएँगे नहीं।” तो तुम चाहते हो कि अध्यात्म में मैं भी वही करूँ कि सबको साथ लेकर चलूँ, कि “नहीं नहीं, ये बातें तो ठीक हैं, पर फलाने गुरु जी जो बोलते हैं न वो बात भी ठीक है।” और आप में से भी कई लोगों का यही रहता है कि आचार्य जी की बात ठीक है, पर उनकी बात भी ठीक है। किसी की सौ बातें नहीं ठीक होती, अगर मेरी बात ठीक है, तो फिर कोई और बात ठीक नहीं हो सकती। ख़त्म बात।

और ज़बरदस्ती तो है नहीं, पूरा बाजार खुला हुआ है, जाओ, जिसकी बात ठीक माननी है, मानो। ट्रुथ तो होता ही है अथॉरिटेरियन, ट्रुथ तो होता ही है मोनोपोली। अद्वैत माने और क्या होता है? अद्वैत माने, दूसरे को लात भी नहीं मारेंगे, क्योंकि दूसरा है ही नहीं। इतना कंटेंप्ट दूसरे के लिए, ये भी नहीं कहा कि दूसरा मूर्ख है, कि नालायक है। कहा कि तू है ही नहीं, आई डिनाई योर वेरी एक्सिस्टेंस, नॉट जस्ट डिसमिसल, डिनायल। तुम हो ही नहीं।

सब कुछ हटा दिया। और एक बार नहीं, तीन बार। क्या करें? “नहीं देखो, वैसे तो आचार्य जी वैसे ठीक कहते हैं, पर मतलब, भाव नहीं है। तो भाव के लिए मैं वहाँ जाकर मत्था रगड़ती हूँ। भाव भी तो होना चाहिए ना, इमोशंस। आचार्य जी ड्राई हैं बहुत ज़्यादा।” शावर लेके चलूँगा, आओ दीदी, गीली होती जाओ। “तो इंटेलेक्ट के लिए आचार्य जी को सुन लो और भावना के लिए बाबा जी को सुनो।”

एक पुरानी पिक्चर थी, कोई बहुत पुरानी। मैं भी स्कूल में था, उसमें अजय देवगन था। तो दो मोटरसाइकिल हैं और उन दो पर, एक पर टाँग ऐसे और एक पर टाँग ऐसे। वो फिल्म थी, स्टंट था, तो चल गया। तुम जो कर रहे हो, नहीं चलेगा। सोचो, आगे, अब उसको अपने दिमाग़ में एक्स्ट्रापोलेट करो (टाँगें चौड़ी हो जाएँगी)।

एक, दो नहीं, एक। और मैं नहीं कह रहा कि वो एक मुझे होना है। आप जाइए, पर ये दो बाज़ी मत खेलिए, मैंने पूरी दुनिया में, जिसको भी उच्चतम जाना है उसने एक की बात करी है, दो रास्ते कभी नहीं बताए हैं।

एक और उसका एक रास्ता — एक सत्य, एक मार्ग। दो के लिए कोई जगह नहीं होती।

ये क्या कर रहे हैं, आप पोर्टफोलियो मैनेजमेंट कर रहे हैं? एक टेलीकॉम से ले के रख लो, एक एफएमसीजी से ले के रख लो। एक टेक्नोलॉजी का शेयर भी होना चाहिए। बैंकिंग में, मेरे ख़्याल से, अब आप इसको और इतना ही नहीं, कुछ तो आपको फॉरेन फोर्सेस पर भी इन्वेस्ट कर देना चाहिए। क्या पता, इंडिया का सब सिंक कर जाए, तो फॉरेन। तो एक फॉरेन के बाबा जी भी पकड़ रखे हैं। ये पुरानी आदत, रिस्क मैनेजमेंट, हेज़िंग क्या कर रहे हो।

श्लोक 170

सर्वसन्देहसन्दोहनिर्मूलनविचक्षण:। जन्ममृत्युभयध्नो यः स गुरुः परमो मतः।।

सर्व प्रकार के सन्देहों का जड़ से नाश करने में जो चतुर हैं, जन्म, मृत्यु तथा भय का जो विनाश करते हैं वे परम गुरु कहलाते हैं।

He, who is expert in total removal of all types of doubts, and who removes the fear of birth and death, is considered to be The Supreme Guru.

कुछ मिल गया या कुछ चला गया। यहाँ जितनी बातें कही गई हैं, वो पाने की है, गवाने की हैं। “सब प्रकार के संदेहों का जड़ से…,” संदेह हटाए गए हैं या मान्यताएँ दी गई हैं। “जन्म, मृत्यु, भय” का क्या किया गया है?

श्रोता: विनाश।

आचार्य प्रशांत: या कुछ दिया गया है? बाबा जी बच्चे का जन्म नहीं हो रहा, जन्म दे दो। बाबा जी वो हैं, जो जन्म का भी…, जन्म का विनाश हो गया तो मृत्यु का तो हो ही जाएगा। और जन्म और मृत्यु के बीच में जो होता है, उसे ही भय कहते हैं। समझ में आ रही है बात?

लगा पड़ा है उन सबके साथ, उन सबको, जो हटाए, वो गुरु है, और वो यहाँ पीछे है। वो कह रहा है, उधर छोड़, इधर आ। गुरु का काम देने का नहीं, लेने का होता है।

आचार्य जी क्या करते हैं?

यतिन जी (श्रोता), बहुत जोर से हंसी आ रही है, पर अब मर्यादा के मारे बोल नहीं पा रहे हैं, कि लेते हैं। बोल दीजिए क्योंकि गुरु का काम ही देने का नहीं, लेने का है। यहाँ क्या बोला जा रहा है? कुछ दे रहे हैं कि लिया जा रहा है?

श्रोता: लिया जा रहा है।

आचार्य प्रशांत: हटा रहे हैं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, कुछ छीन जाएगा, भिखारी हो जाएँगे। भिखारी नहीं हो जाओगे, ये जान जाओगे कि पहले से ही जो है, वो इतना ज़्यादा है, इतना पर्याप्त है कि मूर्खता थी छोटी-छोटी चीज़ों के पीछे दौड़ना। तो क्या फिर वो छोटी-छोटी चीज़ें ज़िंदगी में बचेंगी कि नहीं? बचेंगी, पर छोटी बनकर बचेंगी। अभी तुमने उनको बाप बना रखा है, भगवान बना रखा है। सब रहेगा, कुछ नहीं चला जाएगा, पर छोटी चीज़ छोटी की तरह रहेगी सर पे चढ़ के नहीं बैठेगी। है छोटी चीज़ मौजूद है ज़िंदगी में। कोई दिक़्क़त नहीं है। है तो भी छोटी चीज़ है, चली जाएगी तो भी छोटी चीज़ है।

गुरु आपसे क्या छीनता है? भ्रम। ये भ्रम कि आपने छोटी सब चीज़ों को बड़ा मान रखा था।

जो बड़ा है, जब वो मिल जाता है, तो बाक़ी सब चीज़ें रहती हैं। कुछ नहीं चला जाता, पर वो छोटी चीजें छोटी ही बनकर अपनी औकात में रहती हैं। अभी वो औकात में नहीं हैं, अभी वो बाप बनी हुई हैं। सर पर चढ़ी हुई हैं, वो मालिक बनी हुई हैं, हम गुलाम उनके। आज पूरे दिन भर क्या चला होगा इसका अर्थ? क्या चला होगा? जल्दी बोलो।

हल्दी मली जा रही है, चंदन मला जा रहा है, सब बिल्कुल आज। गुरु जी बैठ गए हैं और ऊपर से नीचे तक ये मल दिया, वो मल दिया, भोग लगा दिए। कई लोगों ने तो आज फुल टाइम वो करा भी हो, कुछ बताइए ना। क्या-क्या था, कहाँ-कहाँ से आ रहे हैं? यहाँ तो आख़िरी पड़ाव होता है, बाक़ी तो पूरे दिन इधर-उधर काफ़ी यात्रा करी ही होगी। कुछ बताइए और क्या-क्या हुआ है? बताओ तो। नहीं, किसी को नहीं बताऊँगा, ऐसे ही बता दो। प्रॉमिस, किसी को नहीं बताऊँगा, बताओ, बताओ।

श्रोता: दूध से पैर धोए।

आचार्य प्रशांत: दूध से पाँव धोए गए, आय! हाय! हाय! हाय! हाँ, दूध से पाँव धोए गए गुरु जी के और फिर लोगों ने दूध पिया फिर? और क्या-क्या बताओ तो, वो तो दूध से पूरा भी नहलाया?

श्रोता: जी।

आचार्य प्रशांत: तो ऐसे, यहाँ से दूध गिर रहा था और नीचे यहाँ चेले खड़े हुए थे कि एकदम फ्रेश, राइट फ्रॉम द सोर्स। अद्भुत दृश्य रहा होगा, जैसे जटाओं से ऊपर से लेकर नीचे तक, ऐसे यहाँ से ऐसे दूध की धार है।

श्रोता: मंदिर भी बना दिया।

आचार्य प्रशांत: आज ही आज में मंदिर बना दिया।

श्रोता: आरती भी उतारी जाती है।

आचार्य प्रशांत: आरती भी उतारी गई।

श्रोता: भजन चलते हैं।

आचार्य प्रशांत: पूरे भजन चले। और?

श्रोता: फूलों पर अत्याचार हुआ।

आचार्य प्रशांत: अरे, मुहावरे में नहीं। वैसे बताओ, और क्या-क्या? फूलों पर क्या किया? अभिषेक, केसर स्नान।

(श्लोक की ओर इंगित करते हुए) भोले होते हैं, जो इतनी ऊँचाई पर चला जाता है न, उसके लिए माया इतनी छोटी चीज़ हो जाती है कि वो माया की परवाह करना छोड़ देता है। उसे पता होता है कि इसमें दम तो है नहीं। उसने माया को इतनी बुरी तरह परास्त करा होता है, कि वो माया को बहुत छोटी बात मानने लगता है। बहुत सिधाई आ जाती है उसमें। वो कहता है, माया तो कुछ होती ही नहीं। तो फिर वो जो बातें बोल जाते हैं न, माया उनको खाती है, क्योंकि वो बहुत शुद्ध बातें बोल देते हैं। वो ये प्रबंध करना ही भूल जाते हैं, कि बोली तो हमने अपनी ऊँचाई से, पर सुनेंगे लोग अपनी नीचाई से। और इसका बहुत आसानी से माया पता नहीं क्या अर्थ कर देगी।

जैसे आप देखते हो, बहुत हमारे आपस के व्यवहारिक तल पर भी होता है। हमने अभी जो बातें करी हैं, वो बात हमारे आपके बीच में हुई है। हम एक जगह पर खड़े हैं, एक तल है, वहाँ ये बात संभव है, कोई इसमें से एक-दो मिनट की क्लिप निकाल ले तो कुछ भी हो सकता है न। कुछ भी हो सकता है न? तो वैसे ही है। ऊँची बातें होती हैं वो जब नीचे लोगों के हाथ में पड़ जाती हैं, तो उनका भयानक दुरुपयोग होता है। और फिर वो कहेंगे, देखो, हम जो कर रहे हैं, वो धर्म है और वो शास्त्रों में लिखा हुआ है।

अब समझ में आ रहा है क्यों कहा है कि गुरु के बिना शास्त्र एकदम पंग हो जाते हैं। क्योंकि शास्त्रों का तो बहुत दुरुपयोग हो जाएगा अगर ईमानदारी नहीं है तो। मिलावट की भी ज़रूरत नहीं है, जो श्लोक जैसे है वैसा ही उठा लो, और उसका अर्थ का अनर्थ करा जा सकता है। चाहे गीता हो, कि उपनिषद् हो, कोई भी हो, आप श्लोक उठाइए और उसका बिल्कुल अनर्थ कर सकते हो आप अगर भीतर गुरुता विद्यमान नहीं है तो।

(स्क्रीन की ओर इंगित करते हुए) इसमें अगर तस्वीर बनाई जाएगी, तो ऐसे गुरु जी की फोटो लगा दी जाएगी। और यहाँ ब्रह्मा, यहाँ विष्णु, यहाँ महेश, तीन ऐसे यहाँ फोटो लगा दी जाएँगी (वक्ष की ओर इंगित करते हुए)। और अब तो AI का जमाना है, तो ऐसा होगा कि गुरु जी बैठे हुए हैं और ऊपर वहाँ ब्रह्मा जी कमल पर हैं, शिव जी कैलाश पर हैं, विष्णु क्षीर सागर में हैं। और वहाँ तीनों ने ऐसे कर रखा है, और तीनों का प्रकाश आता जा रहा है और गुरु जी में समाता जा रहा है और गुरु जी की जो शक्ल है, वो बदलती जा रही है। कभी शिव जी जैसी हो जाती है, कभी विष्णु जैसी, कभी ब्रह्मा जैसी हो जाती है। और ये सब देखकर जितने भक्तजन होंगे, ख़ासकर जिन्हें गीला होने का शौक है, एकदम नदियाँ बहा देंगे। दीदियाँ आँसुओं में डूब रही होंगी, महिलाओं के साथ ये ज़्यादा होता है। अरे, क्या बात बोली है।

अब कुछ सवाल ले लेंगे, उसके बाद अगले में प्रवेश करेंगे। समय क्या हुआ है? 10:00 बजे हैं न? हाँ, एक-दो सवाल ले लेते हैं। हाँ बताइए। सवाल हो, कोई बात हो, कुछ भी हो, कुछ ऐसा बोलना के स्तर बना रहे हैं। हाँ बोलो।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। अभी शिक्षक दिवस आने वाला है, 5 सितंबर को और गुरु जो शब्द है, वो जितने भी पूरे भारत में ऐसा होता है, कि गुरु जी करके बोलते हैं। अगर कोई स्कूल में पढ़ा रहा है या फिर कोई कोचिंग संस्थान में पढ़ा रहा है, तो भी गुरु जी बोलते हैं। और अभी हाल में जो शिक्षक दिवस आएँगे, उस पर क्या ये पर्याय है गुरु का या फिर ये कुछ डिफरेंट है?

आचार्य प्रशांत: पता है तुम्हें, बस मेरे मुँह से सुनना चाहते हो। ठीक है, क्योंकि तुम्हें पहले से पता है, इसलिए मैं तुम्हें बता दूँगा। तुमने अपनी सहायता पहले ही कर रखी है, काफ़ी सारी स्पष्टता तुमने ख़ुद ही हासिल कर रखी है। तो इसलिए अब बात करी जा सकती है। अगर इन्हें ना पता होता तो सवाल नहीं पूछा होता। इन्हें भी अखर रही है बात कि ये टीचर्स डे पर जितने होते हैं, इनको गुरु क्यों बोल रहे हो?

हाँ वो गुरु नहीं हैं, वो गुरु नहीं हैं। वो शिक्षक हैं अधिक से अधिक। देखो, तीन तल होते हैं — प्रशिक्षक, शिक्षक, गुरु। ट्रेनर, टीचर, प्रिसेप्टर। जो सिर्फ़ आपके शरीर को सूचना से, माने संस्कार से भर दे, वो है ट्रेनर। तो इसीलिए जानवरों के साथ जो लगे होते हैं, उनको हम क्या बोलते हैं? ट्रेनर। उन्हें टीचर नहीं बोलते। आप डॉग ट्रेनर बोलोगे, डॉग टीचर नहीं बोलोगे। सर्कस में भी आप ये नहीं बोलोगे कि टीचर्स हैं। सर्कस में आप क्या बोलते हो? क्योंकि वो जानवरों को फिजिकली कंडीशन कर रहे हैं, ये कहिए कि उनकी मांसपेशियों को सूचनाओं से भर रहे हैं। जिसको फिर आप बाद में कहोगे मसल मेमोरी।

आप सर्कस में या कहीं भी किसी जानवर को कुछ करतब दिखाते देखते हो। वो वास्तव में इंफॉर्मेशन है जो उसकी मसल में अब डाल दी गई है। तो वो वैसा वैसा करना शुरू कर देता है। ये प्रशिक्षण है।

फिर आता है वो जो कि शरीर को नहीं, मन को सूचनाओं से भरता है, वो कहलाता है, टीचर या शिक्षक। जो शरीर को ही सूचना से भर दे, वो क्या हुआ? ट्रेनर या प्रशिक्षक। ये शिक्षक आ गया, इनको मै बोलता था नॉलेज प्रोवाइडर (केपी)। ये मन में चीज़ें भर देते हैं। ये अहम् को और विषय दे देते हैं। कुछ बुरा नहीं कर रहे, इनका इरादा ये नहीं है कि हम और भटक जाएँ, पर ये अहम् को संबोधित ही नहीं करते।

स्कूलों में टीचर होते हैं, तो वो आपको क्या पढ़ाते हैं? हिस्ट्री, ज्योग्राफी, संस्कृत, यही तो पढ़ाते हैं। साइंस, मैथ्स, यही तो पढ़ाते हैं ना? या सेल्फ पढ़ाते हैं? हाँ तो ये शिक्षक हैं, जो आपके मन को दुनिया भर की सूचना दे दे। गुरु यदि व्यक्ति के तौर पर भी बात करो, तो वो बिल्कुल एक अलग आयाम होता है। उसका काम विषयों से नहीं, विषयता से संबंधित होता है। उसका काम ऑब्जेक्ट से नहीं संबंधित होता, उसका काम सब्जेक्ट से संबंधित होता है। बहुत अलग हो गई बात।

उसका काम ये नहीं है कि दुनिया में क्या चल रहा है, ये जानो, वो जानो, ये जानो। जो ये सब बात कर रहा हो कि दुनिया में क्या चल रहा है। सामान्य ज्ञान, जनरल नॉलेज वो कहीं से गुरु नहीं है, या कि विशिष्ट ज्ञान, कैसा भी बाहरी ज्ञान, वो गुरु नहीं है।

गुरु सिर्फ़ वो है जो क्या? (जो तुम्हें तुम्हारे निकट ले आ दे)। देखो होता क्या है न, अहंकार को अपने पर ऐसे बड़ा भरोसा होता है, “मैं कुछ हूँ और मुझे मेरी मंज़िल पता है।” उसी को क्या बोलता है? कामना, डिजायर। मुझे यहाँ जाना है, मुझे वहाँ जाना है। और वहाँ पहुँच के बिल्कुल मौज आ जाएगी, मैं ऐसा हो जाऊँगा, फन्ने खान बन जाऊँगा। तो वो दुनिया से माँगता भी है, अधिक से अधिक तो मालूम है क्या माँगता है? नक्शा, मैप, मंज़िल पता है, मैप बता दो। जो मैप दे, वो शिक्षक है, गुरु नहीं।

गुरु वो है जो मिरर दे। मैप में आप ख़ुद को नहीं देखते, मैप में आप कहते हो, मैं जैसा हूँ, सो हूँ। मुझे इस पर जाकर यहाँ पहुँच जाना है। मिरर में आप ख़ुद को देखते हो और आपकी मंज़िलें और रास्ते सब बदल जाते हैं, क्योंकि आप वो हो ही नहीं जो अपने आप को सोच रहे हो। तो अब न पुरानी मंज़िल बचेगी, न रास्ता बचेगा, न लक्ष्य, न कामना।

तो ऐसे अंतर किया करो कि आप जिसके पास जा रहे हो, वो आपको नक्शा दिखा रहा है, मैप या दर्पण दिखा रहा है, मिरर।

धर्म माने नक्शा नहीं, धर्म माने दर्पण, मिरर — आत्मज्ञान।

इसलिए हम कहते हैं, आत्मज्ञान, ज्ञान ही अकेला धर्म है। आत्मज्ञान माने आईना देखना, ख़ुद को देखना। जो आपको आईना दिखाए कि ख़ुद को देखो, वो धर्म है। जो आईना दिखाए, फिर कह सकते हो गुरु है।

और जो कुछ करने की तरकीबें बताए, ये कर लो, ऐसे कर लो, तो एग्जाम पास हो जाएगा। ऐसे कर लो तो आईआईटी में सिलेक्शन हो जाएगा। ये कर लो, वो कर लो, ऐसे कर लो तो पहाड़ चढ़ जाओगे। तो वो सब गुरु नहीं होता है।

टीचर्स डे पर, और ये भी लोक संस्कृति की बदतमीजी ही है कि किसी को भी गुरु बोल दिया। रिलेशनशिप गुरु और क्या-क्या गुरु होते हैं?

श्रोता: माँ-बाप ही गुरु।

आचार्य प्रशांत: माँ-बाप ही पहले गुरु। किसी को भी गुरु बोल दिया। मज़ाक-मज़ाक में भी किसी को, और गुरु क्या चल रहा है। ये क्या है? लव गुरु और जो भी है, सारे ही गुरु होते हैं।

प्रश्नकर्ता: सर वाणी में एक लाइन है:

शब्द गुरु सूरति धुनि चेला।।

इसमें शब्द को गुरु कहा है या सूरति को गुरु कहा गया है?

आचार्य प्रशांत: सूरति करना किसका काम है? अहंकार का काम है न? वापस आ जाइए, यही दोनों हैं।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: तो जैसे हमने कहा न नागपुर जो बस ले जाती है, तो उसको भी हम कह देते हैं, देखो, नागपुर चली गई, नागपुर आ गई वैसे। ऐसे कहते हैं न? तो उसी तरीक़े से, जो शब्द गुरु तक ले जाए, उस शब्द को भी गुरु कहा जा सकता है। वो यहाँ कहा जा रहा है। और चेले का क्या काम है? उस शब्द में रत रहना, तो सुरति — उस शब्द में रत रहना। अहंकार का काम है आत्मा में लीन रहना। शब्द ही गुरु है।

प्रश्नकर्ता: आपने जो बताया कि कीचड़ से ही जो पैदा हुए हैं, जो वन के कॉन्टेक्स्ट में। तो इसमें आपने बताया कि मैक्सिमम जो हमारा बायोलॉजी है, वो उसी से पैदा हुआ है और उसकी एक पुल है, मैग्नेटिक पुल है। और 1% ही है जो कि कॉन्शियसनेस है।

अब थोड़ा मैं इसमें कंफ्यूज हो गया। दो दिन पहले मैं आपको जो सुन रहा था गीता सत्र में, तो उसमें आपने कहा कि 10% या 1% और 99% एंड 90%। ऐसे आपने बताया।

आचार्य प्रशांत: वो मैंने वैल्यू बोली थी।

प्रश्नकर्ता: जी, तो मैं उसको ऐसे अगर देखता हूँ कि जो चिंपैंजी में और ह्यूमन में डिफरेंस है, ब्रेन में 1% कहीं है।

आचार्य प्रशांत: ऐसा कह सकते हैं।

प्रश्नकर्ता: तो वो 1% यहाँ, इस दूसरे दिन के कॉन्टेक्स्ट में 90% हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: वैल्यू के कॉन्टेक्स्ट में। आपका वजन है कुछ, ठीक है? और मान लीजिए कि बहुत सारी चीज़ें हैं आपके पास, और फिर आपके पास सोने की अंगूठी है। उसका वजन कितना है? वजन बहुत कम है, वैल्यू बहुत ज़्यादा है न।

शारीरिक तौर पर हम चिंपैंजी हैं। 90% चिंपैंजी हैं, तो 90% समानता है। लेकिन वो जो ज़रा सा हम अलग हैं चिंपैंजी से, उस ज़रा से अलगाव की वैल्यू बहुत ज़्यादा है, वरना हम भी चिंपैंजी होते।

मान लीजिए आपका डीएनए 99.9% चिंपैंजी वाला है, मान लीजिए। तो आपके शरीर में 99.9% बाय वेट, तो आप चिंपैंजी ही हुए न, बट आपकी ज़िंदगी को कीमत कहाँ से मिल रही है? 99.9% से या उस 0.1% से जो आपको चिंपैंजी से अलग बना रहा है। वैल्यू किस चीज़ में है? चिंपैंजी जैसा होने में या उससे अलग होने में?

श्रोता: अलग होने में।

आचार्य प्रशांत: और जो चीज़ आपको अलग कर रही है, उससे वो बस थोड़ी सी है, पर उसकी वैल्यू बहुत ज़्यादा है।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। मेरा प्रश्न ये है, आपने बताया कि अहम् का ही निर्मल हो जाना आत्मा है या फिर गुरु है। तो जो आत्मा को हम जो गुरु बोल रहे हैं, वो जो गुरु है, वो सबके लिए अलग-अलग होता है या सेम होता है?

आचार्य प्रशांत: एक होता है।

प्रश्नकर्ता: तो जो अहंकार है, वो भी सबका सेम होता है। मतलब मूल रूप से अहंवृत्ति एक होती है, पर अलग-अलग जगह पर लोगों के विषय अलग-अलग होते हैं। आपके, आपके, मेरे कपड़े अलग-अलग हैं। पर जो वृत्ति है, जो कहती है, नहीं, कुछ चाहिए, पहनने को, पकड़ने को। वृत्ति एक है।

पर जो स्पेसिफिक चीज़ें हैं, वो अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए, माँ को ममता है। माँ को ममता है, पर बच्चे तो अलग-अलग हैं न सबके। तो ममता वृत्ति एक ही है, पर बच्चे इधर ये हैं, इधर ये हैं, इधर ये हैं।

प्रश्नकर्ता: मेरा एक और प्रश्न है, जैसे मैंने स्टार्ट किया था अध्यात्म, या फिर उस टाइम पर तो पता भी नहीं था कि जो कर रहे हैं, वो अध्यात्म है या नहीं। और उस टाइम पर जितनी मेरी अकल समझ थी, जो भी स्वार्थ थे या फिर जो भी कामनाएँ, उनको लिए जो चीज़ें एक्सप्लोर कर रही थी, उस टाइम पर जितनी समझ थी, उस टाइप के ही लोगों को चुना — नॉट गुरु, बल्कि सीखने के तौर पर बेचैनी को मिटाने के लिए।

तो अलग-अलग टाइम पर अलग-अलग लोगों को सुना। फिर वो बेचैनी नहीं मिटी। तो ऐसे-ऐसे करके बहुत सुना, फिर आगे बढ़ गए। सुना, फिर आगे बढ़ गए। ऐसा करते-करते अभी यहाँ तक पहुँचे हैं।

तो मेरा ये पूछना है, कि जो लोग, मतलब मैं ये कहना चाह रही हूँ कि शुरू में हो सकता है मैं आपको सुनती तो समझ भी नहीं आता या फिर रिलेट नहीं कर पाती। तो जो लोग अंधविश्वास में या फिर उस में, क्योंकि मैं भी एक टाइम पर वैसे रही हूँ, तो जो लोग उस टाइम पर होते हैं, तो क्या उसकी संभावना नहीं होती कि वो सही रास्ता पकड़ ले एज कंपेयर टू वो कभी एंटर ही न हो, सिर्फ़ भोग वाली दृष्टि में ही रह जाए।

आचार्य प्रशांत: देखो, संभावना तो ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक रहेगी। संभावना तो ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक रहेगी कि आप कहीं भी फँस गए, कहीं भी निकल गए, कुछ भी हो गया, आप तब भी सुधर जाओ। पर ज़िंदगी में साँसे सीमित हैं न, संभावना तो रहेगी, पर उम्र बीत जाएगी। इतना ही नहीं, उम्र जितनी बीतती जाती है, सुधरना उतना मुश्किल होता जाता है। तो ये कहना कि पहले हम 8-10 जगह भटक के उम्र गवा लें और उसके बाद यहाँ आएँगे।

प्रश्नकर्ता: नहीं, मतलब वो भी अब पता नहीं था न।

आचार्य प्रशांत: हाँ मैं समझ गया। ठीक है, वो ठीक है। बढ़िया है कि नहीं पता होता किसी को। मैं भी बहुत भटका हूँ, नहीं जानते हैं लोग, भटको। लेकिन भटकने में भी ईमानदारी होनी चाहिए। आप भटक रहे हो एक बात है, भटक के जहाँ पहुँच गए, वहाँ पर तुमने आशियाना तान दिया, ये दूसरी बात होती है न। भटकना ठीक है, मगर भटके तो याद आया भटकना भी ज़रूरी था, ठीक है, पर याद तो रखो ना कि भटके हुए हो तुम, तो भटकी हुई जगह को घर बोलना शुरू कर देते हो। तुम तो भटक के जहाँ पहुँच गए हो, उसको मंज़िल बना लेते हो।

भटको अच्छा है, भटकना। पर पूछते चलो, ये जहाँ आ गए हैं, यहीं ठहरना है क्या? इसी के लिए यहाँ से पुकार उठ रही थी क्या? यहाँ रुकना है क्या? ये पूछो ज़रूर अपने आप से। ठीक है? बहुत सारी बातें मत याद रखो। भटकना और ये सब न, सब खत्म हो जाएगा। एक बात याद रखा करो, मैं भी बहुत सारी बातें बोलता हूँ, मेरी भी बातों में जो केंद्रीय बात है, एक बात पकड़ लो। मन पर इतना बोझ के लादना कि बहुत सारे वक्तव्य रट रखे हैं, बहुत सारी बातों की ज़रूरत नहीं। एक बात काफ़ी होती है, यही बात काफ़ी है अपने उदाहरण के लिए, कि कोई भी विषय हो, किताब हो, व्यक्ति हो, काम हो, रिश्ता हो, गुरु हो, कुछ हो। मुझे तो बस एक आधार पर मूल्यांकन करना है। एक सवाल पूछना है, क्या? अपने तक खींच रहा है या मुझे मुझ तक वापस ला रहा है? इसी को ऐसे भी कह सकते हो कि मुझे और बंधन दे रहा है या मुझे मेरे पुराने बंधनों से आजाद कर रहा है? एक-दो बातें होती हैं, उतना ही काफ़ी होता है। एक साधे, सब सधे, बहुत कुछ रटना थोड़ी होता है।

प्रश्नकर्ता: सर, आपने कहा कि इंसान बहुत सीमित है और उसका अहंकार उसको बहुत सीमित बनाता है। लेकिन ये जो हमारी कहानियाँ जो बनी हैं, शिव की, महाभारत की, वो उन सीमाओं का ही एक आउटपुट है। इवन मैं कहूँगा कि हमारा जो ह्यूमन प्रोग्रेस है पूरा, कहीं न कहीं वो भी अहंकार से ही बना है। हम जो भी इन्वेंटर्स रहे हैं, जो भी साइंटिस्ट रहे हैं, उन्होंने अहंकार से ही सब टेक्नोलॉजी यूज़ की।

आचार्य प्रशांत: तो आत्मा भी तो अहंकार ही है न।

प्रश्नकर्ता: तो क्या अहंकार को हटाना अच्छी बात है?

आचार्य प्रशांत: अब ये तुम अपने से पूछ लो पहले। इस तल पर अभी हम क्या बात करें कि अहंकार हटाना अच्छी बात है कि बुरी बात है? अहंकार एक चीज़ नहीं होता है। इधर को देख रहा था (सीधे हाथ की तरफ़ देखते हुए), तो भी क्या था? और इधर को देख रहा (उल्टे हाथ के तरफ़ देखते हुए), तो भी क्या था? और यहाँ जाकर अगर मिट भी गया, तो ये भी जो बचा, ये भी वास्तव में है क्या? अहंकार ही तो है। तो अहंकार अच्छी बात क्या? बुरी बात क्या? अहंकार अकेली बात है। वही तो बात है, और तो कोई बात ही नहीं है। अहंकार की गुणवत्ता परखनी होती है। गुणवत्ता परखनी होती है। क्वालिटी।

श्रोता: आचार्य जी, ये गुरु शब्द जो है, इसका अर्थ बदलने से ही पूरी बात बदल जाती है। यही आज का मुझे समझ आया। बस, मेरा इतना ही है।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न ये है कि जैसे आप बोलते हो, गुरु जो है, वो साधन जो है, साध्य तक ले जाता है। और दूसरी चीज़, गुरु जो आपके भ्रमों को काटता है, एक वास्तविक गुरु। तो क्या उस गुरु के, जो एक तरह से बाहरी भी बोल सकते हो, जो आपके सारे भ्रम दूर करता है, आपको ख़ुद से मिला रहा है, तो उस गुरु के प्रति क्या प्रेम, समर्पण, सम्मान, ये भी किस हद तक सही या गलत है क्या?

आचार्य प्रशांत: एक अह रिफ्लेक्शन की तरह हो सकता है। मुझे मेरी आज़ादी से बहुत प्यार है, इसीलिए जो मुझे आज़ादी तक लेके जा रहा है, उससे भी प्यार है। तो दो बातें थीं इसमें, सबसे पहले क्या आया? मुझे आंतरिक आज़ादी से प्रेम है, तो वो पहली बात। दूसरी बात, उससे भी प्रेम है। भी प्रेम है।

और अगर उल्टा हो जाए, कि भीतर तो बंधन में है, पर गुरु जी मोहे अंग लगा लो। तो ये क्या हो गया? भीतर तो बंधन ही बंधन है और गुरु जी का चरणामृत पिया जा रहा है और गुरु जी से बड़ा प्यार है। बड़ा प्यार है। तो ये तो गड़बड़ हो गई न। आपका जो असली गुरु के प्रति प्रेम है, असली गुरु माने आत्मा। जो आपका असली गुरु के प्रति प्रेम है, उसके छींटे बाहर वाले पर पड़ जाए, तो थोड़ा प्रेम उधर भी चला जाए, अच्छी बात है।

भीतर, इसके लिए यदि आपके पास कुछ है, वही चीज़ थोड़ा रिफ्लेक्ट हो के, परावर्तित हो के उस पर भी पड़ जाए, तो अच्छी बात है। मुझे सच्चाई पसंद है, सच्चाई मेरा पहला प्यार है, तुम मुझे सच्चाई तक लेकर आते हो, तो मुझे तुमसे भी प्यार है। ये ठीक है, यहाँ तक ठीक है, इतना ठीक है।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य। माय नेम इज़ कृष्णा। मेरा क्वेश्चन यही है, अगर कोई बुक हमको सेल्फ एनलाइटन कर रहा है, तो उस टाइम में हम, मतलब अभी आपका सेमिनार समझ में आ गया। कुछ बुक मतलब सेल्फ एनलाइटन करे तो दूर करना है, अगर कर रहा है, ऐसा प्रोसेस में ले रहा है, ऐसा समझ में आ गया। तो क्या करना है? मतलब उस बुक को पकड़ना है या सेल्फ एनलाइट करना है? कैसे देखना पड़ता है।

आचार्य प्रशांत: आपने कोशिश की ख़ुद ही देखने की कि ये चल क्या रहा है। ठीक है। और उस प्रक्रिया में सहायता के लिए आपने किताब खोली। किताब से सहायता मिल रही है, बहुत अच्छी किताब है, अपने पास रखिए, अपने साथ रखिए। पढ़ा करिए।

जो किताब आपके भीतरी भ्रमों को काटने में सहायक होती है, उसको साथ रखिए। अच्छी बात है। लेकिन आपके अपने मौलिक, ख़ालिस, अंदरूनी प्रयास का विकल्प नहीं बनेगी किताब। आप ख़ुद कोशिश कर नहीं रहे हो अपने भीतर के जाले साफ़ करने की, और आप किताब पढ़े जा रहे हो, बस कहते हो, मैं रोज़ पाठ करता हूँ। जी, मैं रोज़ इतना पाठ करता हूँ। रोज़ इतने श्लोक पढ़ता हूँ, इतनी वाणी पढ़ता हूँ। बिना कुछ भीतर ख़ुद को खोदने का प्रयास किए, तो फिर किताब काम नहीं आएगी।

आप ख़ुद जूझ रहे हो, तो किताब अच्छी सहायक बन सकती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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