प्रीति ताहि सो कीजिये , जो आप समाना होय। कबहुक जो अवगुण पड़ै, गुन ही लहै समोय॥
~ संत कबीर
प्रश्न: ‘आप समाना’ कैसे होए?
वक्ता: गुरु, परम, हमारे तल से बहुत- बहुत ऊँचे हैं, और नित्य निरंतर ऊँचे ही रहेंगे, तो क्यों कह रहे हैं कबीर कि प्रीति उससे करिये जो आप समाना होय?
(प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए) रुचि, एक दूसरे मौके पर कबीर कहते हैं – “सच्ची प्रीति सोई जानिये, जो सतगुरु से होये।”
प्रीति तो सारे ही करते हैं, मन कहीं भी जाकर अटक जाता है, और इसी अटक जाने को, इसी छिछोरे आकर्षण को हम ‘प्रेम’ का नाम भी दे देते हैं। वो सुना है न फ़िल्मी गाना – “हाँ! मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ अल्लाह मियाँ”? वो अल्लाह को बता रही है कि – “हाँ मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ।” किससे हुआ? अल्लाह को बताने जा रही है कि प्यार हुआ, तो हुआ किससे है फिर?
हमने तो यही जाना था कि प्यार सिर्फ अल्लाह से होता है, और ये बताने जा रही है – “हाँ मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ!” प्यार हुआ किससे है? अनिल कपूर से (उस अभिनेता का नाम लेते हैं जो इस गाने में अभिनय कर रहे हैं) ! अनिल कपूर से प्यार हुआ है, अल्लाह को खबर दी जा रही है, गज़ब हो गया! कानों को बड़ा आकर्षक लगता है ये गाना, सुनो तुम। बीट्स (थाप) के साथ है। ये हमारे जवान दोस्त बैठे हैं, नाच ही देंगे, ख़ासतौर पर आशिक किस्म के। “भरी बरसात में इकरार हुआ अल्लाह मियाँ। हाँ! मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ अल्लाह मियाँ!”
दोनों बातों को जोड़िये। “प्रीति ताहि सो कीजिये जो आप समाना होये,” और दूसरी बात – “सच्ची प्रीत सो जानिये, जो सतगुरु से होये,” इन दोनों बातों को जोड़िये, एक साथ रखिये, तो क्या सामने आता है? पहली बात – “प्रीति ताहि सो कीजिये, जो आप समाना होये। ” और दूसरी बात- “सच्ची प्रीत सो जानिये जो सतगुरु से होये।” दोनों बातों को जोड़िये, तो क्या समझ में आता है?
श्रोता १: जो सतगुरु से नहीं है, वो प्रीति नहीं है।
श्रोता २: ‘आप’ सतगुरु ही है।
वक्ता: ठीक है? गुरु को अपनी छवियों में कैद मत करो। इंसान नहीं होता गुरु। सूक्ष्मतम रूप से जो बोध तुम्हारे भीतर अवस्थित है, उसी का नाम ‘गुरु’ है। क्योंकि वही अकेला है जो तुम्हें अँधेरे से, रोशनी की ओर ले जाता है। बाहर बैठा इन्सान कुछ नहीं कर सकता, अगर तुम्हारे भीतर से वो प्रेरणा ही नहीं उठ रही। इसी कारण कहते हैं कि – “प्रथम गुरु आत्मा है,” क्योंकि बाहर वाले के पास तुम जाओगे ही नहीं, अगर भीतर वाला तुम्हें दिशा नहीं दिखा रहा है। बाहर वाला चिल्लाता रहेगा, तुम्हें पुकारता रहेगा, तुम जाओगे नहीं।
यहाँ जितने बैठे हैं, उससे कई गुने वो हैं जिन्हें मैं बुलाता हूँ, पर आये नहीं। (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) क्यों प्रवीण? इससे पूछा मैंने कि सात जनवरी को पिछली बार आया था, अभी क्यों? “वो कॉलेज में एक-आध घंटा तो आपसे रूबरू हो ही जाते हैं, तो ज़रूरत क्या है?”
जब भीतर वाला तुम पर कृपा न कर रहा हो, तो तुम्हारे मन में खूब ऐसे कुतर्क उठेंगे, और फिर बहार वाला तुम्हारी मदद कर नहीं सकता। डॉक्टर भी इलाज कब करता है? जब पहले तुम डॉक्टर के…?
श्रोता १: पास जाओ।
वक्ता: पास जाओ। जब भीतर का डॉक्टर प्रेरणा देता है ना, तब तुम बाहर वाले डॉक्टर के पास जाते हो। बाहर वाले डॉक्टर से कहीं ज़्यादा कीमती और महत्त्वपूर्ण ये भीतर वाला होता है। इसीलिए ये भी कहा गया है कि जो बाहर वाला है, वो बस भीतर वाले का एक बिंब है। भीतर वाला ही साकार हो कर, बाहर वाला बन जाता है। समझ रहे हो बात को?
तो गुरु ही वो है, जो भीतर बैठा हुआ है। होता क्या है, कि हमने ‘गुरु’ शब्द को और ‘शिक्षक’ शब्द को, इन सारे शब्दों को एक में जोड़ दिया है। बिल्कुल खिचड़ी बना दी है। तो हमें पता भी नहीं चलता कि – ‘गुरु’ माने क्या? ‘अध्यापक’ माने क्या? ‘शिक्षक’ माने क्या? शिक्षक’ और ‘प्रशिक्षक’ माने क्या? हम इन सब को एक ही बना देते हैं।
‘गुरु’ बिल्कुल ही अलहदा बात है। ये कहते हुए ज़रा ख़याल कर लिया करो, कि फ़लाना मेरा गुरु है। अभी नया-नया शौक है, तो तुममें से कई लोग मुझे ही गुरु बोलने लग गए हो। वो भी, मैं कहता हूँ, कि ज़रा चेत जायें! क्या तुम मेरे पास अपने भीतर वाले से मार्गदर्शित होकर आते हो? मुझे गुरु तब ही कहना, अगर मेरे पास अपने भीतर वाले के कारण आते हो। अगर मेरे पास, मेरे कारण आते हो, तो मैं गुरु नहीं हो सकता। बात ज़रा महीन है, समझना इसको।
बाहर ‘गुरु’ उसको ही बोलो, जो तुम्हारे भीतर वाले जैसा हो बिल्कुल। भीतर निराकार है? वो निराकार जब बाहर साकार हो गया हो, तब जो बाहर है, उसको ‘गुरु’ बोलना।
तो तुम्हें हक़ तभी है मुझे ‘गुरु’ बोलने का, जब मैं तुम्हें तुम्हारे आत्मा के रूप जैसा लगूँ। जब तुम मेरे पास इस कारण आओ कि तुम्हारे भीतर कुछ है, जो तुम्हें मेरे पास भेज रहा है, तुम तभी मुझे अपना ‘गुरु’ कहना। पर नहीं, ऐसा होता नहीं। तुममें से ज़्यादातर लोग यहाँ इस कारण आते हो कि मैं तुम्हें खीच रहा हूँ। और ‘मैं’ माने? एक व्यक्ति, एक शरीर, एक देह।
मैंने कुछ विधियाँ बना रखी हैं, कुछ नियम-क़ायदे बना रखे हैं, जिनके कारण तुममें से ज़्यादातर लोग यहाँ आ जाते हो। मैं वो विधियाँ हटा दूँ, तुम आना बंद कर दोगे। तुम अपनी आत्मा की पुकार से यहाँ पर नहीं आते। मैं तुम्हारा गुरु तब हुआ, जब मैं तुम्हारे भीतर बैठा हूँ। जब तक मैं तुम्हारे सामने और तुम्हारे बाहर बैठा हूँ, तब तक मैं गुरु नहीं हो सकता तुम्हारा। बात समझ में आ रही है?
पर तुमने तो परंपरा ही बना ली है कि, ‘गुरु’ किसको बोलेंगे? जो तुम्हारे सामने बैठा हो, जो तुमसे बाहर बैठा हो। मैं तुमसे कह रहा हूँ – गुरु, कोई भी या मैं, तब हुआ, जब तुम्हारे सामने नहीं, तुम्हारे भीतर बैठा हो। पर ऐसी स्थिति है नहीं। आज वो नियम-क़ायदे हटा दिए जाएँ, तुम कल से आना बंद कर दोगे। तो कैसा गुरु? तुम मानते होंगे मुझे गुरु, मैं नहीं तुम्हें स्वीकारता शिष्य! मुझे कोई शौक ही नहीं गुरु होने का।
गुरु होना तो बड़ी महीन, बड़ी दैवीय, बड़ी आध्यात्मिक, बड़े प्रेम की घटना है। बिल्कुल दिल से दिल का नाता है। यहाँ कहाँ प्रेम, और कहाँ दिल और कहाँ अध्यात्म? गुरु से नियम-क़ायदे का नहीं, आँसुओं का रिश्ता होता है। वहाँ रिश्ता ही तब बनता है, जब आँसू बिल्कुल सफ़ाई कर देते हों। जैसे दिल की ज़मीन पर आँसुओं का पोंछा लगाया हो, इतनी सफ़ाई होनी चाहिए। वहाँ चालाकी और चतुराई नहीं हो सकती, वहाँ धोखेबाज़ी नहीं हो सकती।
बात समझ में आ रही है?
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।