गुलाम कौन? जो अधूरी मुक्ति से राज़ी हो || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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गुलाम कौन? जो अधूरी मुक्ति से राज़ी हो || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न : सर, मेरी ज़िन्दगी में परिवर्तन नहीं आ रहा है। लगता है जैसे बातें तो समझ आती हैं परन्तु उन्हें जीवन में नहीं उतार पा रहा हूँ। कृपया सहायता करें।

वक्ता: अंदर-बाहर एक है! जो तीर चुभा हुआ है न, उसके दो सिरे होते हैं: एक भीतर का, एक बाहर का। भीतर वाले को पूरी तरह निकालोगे तो भी बाहर वाला हट जाएगा; और बाहर से पूरी तरह खींचोगे तो भी भीतर से निकल जाएगा। पर बहुत कष्टप्रद स्थिति हो जाती है। कभी अनुभव किया है कि पाँव में काँटा लगा और वो टूट कर अंदर ही रह गया? हुआ है किसी के साथ कि काँटा लगा और टूट गया? अगर काँटा ऐसा लगा हो तीर की तरह—थोड़ा अंदर है, बाकी बाहर है—तो निकालना आसान है।

पर हम यहीं चूक कर जाते हैं। जो अंदर भी था और जो बाहर भी था, उसमें से सिर्फ़ बाहर वाले हिस्से को निकाल दिया। अब जो अंदर है, वो तो अभी अंदर है ही, अब उसको निकालना और भी मुश्किल है।

अंदर-बाहर एक है!

जब बाहर से निकालो, तो सिर्फ़ बाहर का मत निकाल दो, भीतर से भी निकल जाने दो।

तुम किसी से दूर हटते हो तो उसके चेहरे से दूर हो जाते हो, उसके शरीर से दूर हो जाते हो, पर भीतर में उसको बिठाए रखते हो। अब काँटा कहाँ लगा हुआ है? अंदर ही अंदर लगा हुआ है। तीर टूट गया है।

ऐसा अनाड़ी तुम्हारा चिकित्सक था: तुम गए दिखाने कि छाती में तीर लगा हुआ है, उसने क्या किया? आरा लेके बाहर से काट दिया! और वहाँ *बैंड-ए ड* लगा दी। चिकत्सक कहेगा: देखो, अब दिख तो रहा नहीं है, हट गया।

वो अंदर ही अंदर तो घुसा हुआ है न!

अंदर-बाहर एक हैं।

फिर तुम कहते हो: देखिए, बाहर सब बदल दिया, लेकिन फ़िर भी हमारी हालत वैसी की वैसी है।

अरे, क्या बदल दिया? वो शूल तो घुसा हुआ है न! बदल क्या दिया तुमने? कुछ बदला नहीं है!

वो पूरा वैसा ही है। समझ में आ रही है बात? जब छोड़ो तो पूरा छोड़ो! और अगर पूरा नहीं छूटा अभी, तो कम से कम ये दिलासा मत दो अपनेआप को कि पूरा छोड़ दिया है। बड़ी ख़तरनाक दिलासा है ये, क्यों? फिर तुम कहोगे, “पूरा छोड़ने पर भी शांति तो मिली नहीं, तो इससे सिद्ध होता है कि छोड़ना…”?

श्रोता १: व्यर्थ है!

वक्ता: व्यर्थ है, तो अब आगे से हम…

श्रोता १: नहीं छोड़ेंगे!

वक्ता: नहीं छोड़ेंगे! हकीकत क्या थी? तुमने छोड़ा ही नहीं था, तुमने बाहर-बाहर से काट दिया था। बाहर-बाहर से काँटा तोड़ दिया था; भीतर काँटा घुसा ही हुआ था। और शुरुआत तुम कहीं से भी कर सकते हो, वो तुम्हारी मर्ज़ी पर है, तुम्हारे संस्कारों पर है। कुछ लोग पसंद करते हैं बाहर से शुरुआत करना; कुछ लोग पसंद करते हैं भीतर से शुरुआत करना।

आग बाहर लगाओगे तो भी भीतर को आएगी; आग भीतर लगाओगे तो भी बाहर फैलेगी।

है तो अंदर-बाहर एक ही। पर जब भी फैले, फैलने पूरी दो।

तुम्हारे यदि पेट में एक पत्थर बन गया हो—पित्ताशय में पथरी बन गयी हो—उसके दो तरीके होते हैं इलाज के: पहला, दवाई खा लो, ये भीतरी तरीका है। ये एक प्रकार के लोग हैं जो भीतर से शुरुआत करते हैं। अंदर से शुरुआत करेंगे तो भी क्या होगा? जो भीतर था वो नष्ट हो गया। और दूसरा तरीका क्या होता है? कि खोल दो और उसे निकाल लो।

तुम जैसे शुरुआत करना चाहते हो करो!

पर ये मत कर देना कि आधा निकाल के आधा छोड़ दिया!

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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