यथा ह्नुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीज क्षेत्र पुररेवावपन-काले गुल्मतृणवीरुद्धिर्गह्नमिव। भवत्येवमेव गृहा श्रमः कर्मक्षेत्र यस्मिन्न हि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एष आवसथ:।।
“जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण से आदि से गहन हो जाता है। उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता; क्योंकि यह घर ही कामनाओं की पिटारी है।“
~ परमहंस गीता, पाँचवा अध्याय, चौथा श्लोक
आचार्य प्रशांत: तो पूछ रहे हैं कि श्लोक बता रहा है कि कर्मभूमि में कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता माने कर्मों की पूर्ण निवृति कभी नहीं होती। कर्मफ़ल से छुटकारा कभी नहीं मिलता, कर्मचक्र से जीव बाहर कभी नहीं आता। तो पूछा कि, ‘गृहस्थ जीवन जी रहे मनुष्य के लिए सही कर्म क्या है, यदि गृहस्थ जीवन जीते हुए साधना में विघ्न आये,अधिकांश समय रोज़मर्रा के कामों को देना पड़े तो उसका क्या उपाय करें?’ कृपया मार्गदर्शन करें।
देखिए बहुत बार कहा है मैंने कि मजबूरी तो कुछ होती नहीं, आप कह रहे हैं गृहस्थ जीवन जीते हुए साधना में विघ्न आये, अधिकांश समय रोज़मर्रा के कामों को देना पड़े, तो यहाँ तो आपने फिर मजबूरी की भाषा में बात कर डाली न। आप कह रहे हैं आप मजबूर हैं कि आपको रोज़मर्रा के कामों में समय देना पड़ रहा है। आप मजबूर नहीं है, ये तो चुनाव है न, आपके पास विकल्प है कि अगला एक घंटा इसमें दूँ या उसमें दूँ।
आप तय कर लेते हैं कि मुक्ति को नहीं देना है, अध्यात्म को नहीं देना है, सत्कार्य को नहीं देना है, गृहस्थी के काम को देना है। क्या है गृहस्थी के काम? गाजर-मूली खरीदने जाना है। अब आप फ़ैसला करते हैं न? आपने अपनी दृष्टि में खुद ही निर्धारित कर लिया कि इन दोनों चीजों में से ज़्यादा महत्वपूर्ण कौन है तो जो आप फिर चाहोगे वो आपको मिलेगा। आपको गाजर-मूली ही ज़्यादा महत्वपूर्ण लग रही है तो गाजर-मूली बढ़िया मिलेगी रात के खाने में। दूसरी ओर सत्य है, मुक्ति है, आपने उसको चुना होता तो वो भी आपको मिल जाता।
अब आप पूछ रहे हैं कि अगर ऐसा करना पड़े तो क्या उपाय करें? मुझसे पूछने के लिए क्या बचा? मैं अब कौन सा उपाय बताऊँ, निर्णय तो आपने कर ही लिया न? आप तो निर्णय करने के बाद मुझसे पूछ रहे हैं, आप कह रहे हैं कि रोज़मर्रा के कामों को मैंने निर्णय किया है ज़्यादा समय दूँगा और मैंने निर्णय किया है कि किसी भी तरह की साधना को, स्वाध्याय को कम समय दूँगा, क्या उपाय करें? निर्णय का कोई उपाय थोड़े ही होता है? समस्या का उपाय होता है, निर्णय का क्या उपाय बताऊँ मैं?
कोई फ़ैसला ही कर ले कि ये कर लिया है मैंने, फिर मैं उसे क्या उपाय बताऊँ? कोई आए कहे कि मैंने फ़ैसला कर लिया है कि मैं अपना सिर फ़ोड़ दूँगा, क्या उपाय हो? भई, तुम फ़ैसला कर के आए हो, क्या उपाय बताऊँ? वैसा ही आज था, मैंने फ़ैसला कर लिया है कि विवाह करने जा रहा हूँ, कुछ बोलिये। मैं काहे को बोलूँ, मेरे बोलने को क्या शेष है?
ये हमारी बड़ी छिछोरी चाल होती है। ये सब हम अक्सर पारिवारिक नौटंकियों से सीखते हैं कि वो कर भी डालो जो करना है और कर डालने के बाद जाकर के किसी बड़े के आगे खड़े हो जाओ और कहो कि आप कुछ बताइए, समाधान, उपाय बताइए, आशीर्वाद दीजिए और उसमें फिर उम्मीद ये होती है, चालाकी ये होती है कि हमने जो करा है उसको सामने वाला जो बुज़ुर्ग है वो स्वीकार ही कर लेगा। वो उसको अपनी फिर अभिसम्मति दे देगा।
ये सब घर-परिवार में चल जाता है, अध्यात्म में थोड़े ही चलेगा। ऐसा होता है न कि लड़का भाग करके किसी लड़की से गया ब्याह कर आया और फिर उसको लेकर के घर आ गया, बाप के सामने खड़ा हो गया कि ये मैंने कर ली है। अब बाप कितना नाराज़ रहेगा, दो-चार दिन के बाद वो भी कह देता है कि हाँ ठीक है भैया, आशीर्वाद! बहू चाय बनाओ।
और बहुत खूसड़ बाप है, बहुत नाराज़गी दिखा ही रहा है तो सुपुत्र एक कारनामा और करते हैं वो बच्चा पैदा कर लाते हैं, बोलते हैं, ‘ये लो जी आपका पोता आ गया।‘ अब तो सख्त-से-सख्त पत्थर बाप को भी पिघलना ही पड़ता है। वो कहता है, ‘लाओ भई, सब स्वीकार है मुझे, आ जाओ अन्दर, आ ही जाओ।‘ ये सब पारिवारिक ड्रामों में चल जाता है। अध्यात्म में थोड़े ही चलता है कि तुम अपनी मन मर्ज़ी कर भी लोगे और उसके बाद तुम परमात्मा के सामने खड़े होकर कहोगे, ‘मैंने ये सब कुछ कर लिया’ और परमात्मा कहेगा, ‘अच्छा आ जाओ, आ जाओ, चलो चाय पिलाओ।‘
वहाँ तो जो करते हो उसका फ़ल भुगतते हो, तुम अगर चुनाव करते हो कि गाजर-मूली ही करना है तो उसका फ़ल भुगतोगे, उस दरबार में कोई रिआयत नहीं होती। परमात्मा दर्पण की तरह है, दर्पण कोई रिआयत करता है क्या? तुम्हारी नाक पर कालिख लगी है, दर्पण रिआयत करेगा? दर्पण कहेगा कि मुझमें इतनी करुणा है कि मैं तेरी नाक की कालिख तुझे नहीं दिखाऊँगा। तुम जैसे हो, दर्पण तुम्हें दिखा देगा, परमात्मा वैसा ही है, जो तुमने करा है, जो तुमने चुना है उसका पूरा-पूरा भुगतान करना पड़ेगा। कोई तुम्हें वहाँ पर, किसी तरह की छूट या ढील नहीं मिल जानी है।
तो आप अगर मेरे पास ये सब कह कर आएँगे कि मैं ऐसा करता हूँ, ऐसा करता हूँ बताइए क्या उपाय है तो मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा। हाँ, आप बदलने को तैयार हों अपने चुनावों को तो मैं कुछ कह सकता हूँ, बदलिए न, बदलिए।
भई, आप कहते हैं आप गृहस्थ हैं, इसका अर्थ क्या है? एकदम ज़मीनी बात करेंगे, आपने मानसिक धारणाएँ जो भी बना रखी हों उनको हटाइये। बिलकुल ज़मीनी बात करिये। जब आप कहते हैं कि आप एक गृहस्थ हैं, मान लीजिये आप एक पति हैं, एक पिता हैं तो इसका क्या अर्थ है? आप यही तो कह रहे हैं कि एक स्त्री है जिसके साथ आप रहते हैं, सहवास है, कोहैबिटेशन।
तो एक आदमी है, एक औरत है वो एक घर में रहते हैं, ठीक है। एक आदमी है, एक औरत है वो एक घर में रहते हैं, ठीक है, अच्छी बात है और दो बच्चे हैं, दो बच्चे हैं उन बच्चों से आपका सम्बन्ध है, उन बच्चों की आप तरक्की चाहते हैं, आप उनके शुभचिन्तक हैं ठीक? यही है न गृहस्थ होने का मतलब तो इस स्थिति में अध्यात्म आपके लिए उपयोगी कैसे नहीं है? इस स्थिति में आपको अध्यात्म की ज़रूरत कैसे नहीं हैं? इस स्थिति में गाजर-मूली अध्यात्म से कैसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए आपके लिए, बताइए मुझको?
आप अगर ये भी कह रहे हैं कि दो बच्चों की परवरिश आपकी ज़िम्मेदारी है, आप अगर कह रहे हैं कि दो बच्चों को बड़ा करना है, सुन्दर, बेहतर इंसान बनाना है उनको ये आपकी ज़िम्मेदारी है तो ये करने के लिए आपको अध्यात्म नहीं चाहिए।
आप अपना नब्बे प्रतिशत समय गाजर-मूली और आम-अदरक में बिताओगे तो बच्चों को क्या बनाओगे, कैसे बाप हो? लेकिन कहोगे, ‘नहीं, नहीं मैं तो गृहस्थ हूँ न तो मेरे पास अध्यात्म के लिए समय नहीं है।‘
वैसे ही आदमी-औरत में या आदमी-आदमी में या भाई-भाई में या भाई-बहन में, बाप-बेटे में, पति-पत्नी में कैसा रिश्ता होगा अगर दोनों जब न मन को जानते, न जीवन को जानते?
ये कैसी बात है कि मैं गृहस्थ हूँ तो मैं अध्यात्म की ओर कैसे बढ़ूँ? भाई, गृहस्थी ही ठीक चलाने के लिए तो अध्यात्म चाहिए, गृहस्थ तो हम सभी ही हैं, यहाँ कौन गृहस्थ नहीं है? जो इस धरती पर रह रहा है वो गृहस्थ है, हाँ घर अलग-अलग तरीके के होते हैं। मैं भी गृहस्थ हूँ, ये भी गृहस्थ है, ये भी गृहस्थ है, जितने भी लोग यहाँ बैठे हैं सब गृहस्थ हैं।
एक चिड़िया भी गृहस्थ है, एक घास का तिनका भी गृहस्थ है, बाहर लॉन में घास है वो गृहस्थ घास नहीं है क्या? उसका घर क्या है, लॉन, तो वो भी तो गृहस्थ है। पृथ्वी पर जितने छोटे-बड़े जीव-जन्तु हैं वो सब गृहस्थ हैं क्योंकि सबके पास घर है। सबके पास कोई भौतिक आश्रय है। जिसके पास भी कोई भौतिक आश्रय है, जिसके पास भी सांसारिक सम्बन्ध है वही क्या हुआ, गृहस्थ हो गया, सब गृहस्थ हैं।
ये गृहस्थी ही ठीक चले इसलिए ही तो चाहिए भई अध्यात्म, लेकिन हम बिलकुल अजीब तरीके से इस स्थिति को प्रस्तुत कर देते हैं। हम कह देते हैं नहीं, एक तरफ़ अध्यात्म है और एक तरफ़ गृहस्थी है और दोनों में विरोध है। अरे दादा, ये वैसी सी बात है कि कोई कहे कि वो आचार्य जी गाड़ी चलानी है रात में, हाँ तो, लेकिन वो न गाड़ी के आगे हेडलाइट आ गयीं हैं, कैसे बढ़ाएँ गाड़ी आगे? हैं क्या! बोले, ‘वो गाड़ी के आगे हेडलाइट आ गयीं हैं, गाड़ी बढ़ाऊँ कैसे आगे?’
गाड़ी के आगे अब कुछ आ गया न? कैसे बढ़ाऊँ आगे? वो हेडलाइट है दो-दो हैं, एक नहीं और गाड़ी के आगे आ गयीं हैं, गाड़ी अब आगे कैसे बढ़ाऊँ?
ये क्या मूर्खतापूर्ण तरीके से स्थिति को बताया है तुमने कि गाड़ी के आगे हेडलाइट आ गयी हैं तो अब गाड़ी आगे कैसे बढ़ाऊँ, हेडलाइट गाड़ी का विरोध करने के लिए आयीं हैं गाड़ी के आगे? हेडलाइट गाड़ी के आगे इसलिए आयीं हैं कि गाड़ी का रास्ता रोक दें या हेडलाइट आ गयीं हैं उन्हीं की मदद से अब तुम आगे बढ़ोगे? अध्यात्म गाड़ी की हेडलाइट है, वो गाड़ी तुम्हारी गृहस्थी है, वो सड़क जीवन यात्रा है। लेकिन ऐसे सवाल बार-बार पूछे जाते हैं वो आचार्य जी, वो हेडलाइट ने रास्ता रोक लिया नहीं तो हमने यात्रा पूरी कर ली होती। हेडलाइट ने रास्ता रोक लिया, हैं! पास आओ थोड़ा। अध्यात्म इसीलिए चाहिए भैया कि गृहस्थी अच्छी चले। जिसको तुम संन्यासी भी कहते हो वो अपनी तरह का गृहस्थ होता है या ऐसे कह लो संन्यासी वो गृहस्थ है जिसकी गृहस्थी आध्यात्मिक आधार पर चलती है।
तो गृहस्थ सभी हैं। भेद ये नहीं है कि कुछ गृहस्थ हैं और कुछ संन्यासी हैं। सब गृहस्थ हैं, गृहस्थ और गृहस्थ में भेद है, एक वो गृहस्थ है जो हेडलाइट जलाकर यात्रा पूरी करता है और एक वो गृहस्थ है जो हेडलाइट बुझाकर यात्रा पूरी करता है। एक वो गृहस्थ है जो अध्यात्म के साथ गृहस्थी चलाता है, एक वो गृहस्थ है जो अध्यात्म के बिना गृहस्थी चलाता है। अब तुम रात में यात्रा कर लो, हेडलाइट बुझा करके देखो क्या होता है?
वैसी हमारी गृहस्थियाँ चलती हैं और जानते हो बहुत समय तक तुम हेडलाइट बुझाकर यात्रा करो उसका नतीजा क्या होता है? हेडलाइट ही टूट जाती है। अब तुम चाहो भी तो रौशनी नहीं मिलेगी। बिना हेडलाइट के गाड़ी चलाओ, टक्कर होगी सामने, सबसे पहले क्या टूटेगी, हेडलाइट ही टूटेगी। अब तुम चाहोगे भी कि तुम्हें प्रकाश मिले, तो नहीं मिलेगा।
मत करो ये हरकत। ज़बरदस्ती का, काल्पनिक एक द्वन्द्व मत पैदा करो कि अध्यात्म बनाम गृहस्थी। ऐसा कोई द्वन्द्व होता ही नहीं है। बाहर गृहस्थी चलाओ, भीतर आध्यात्मिक रहो। सबको यही करना है, मैं भी यही कर रहा हूँ, आपको भी यही करना है। बाहर-बाहर तो गृहस्थी ही चलेगी क्योंकि बाहर का अर्थ है दैहिक जीवन, बाहर का अर्थ है सांसारिक जीवन, बाहर-बाहर तो गृहस्थी ही चलनी है, भीतर गृहस्थी से अनछुए रहो, भीतर आत्मस्थ रहो।
जब भीतर आत्मस्थ रहते हो तो बाहर की गृहस्थी बढ़िया चलती है। जो भीतर आत्मस्थ नहीं होते वो बाहर से घटिया गृहस्थ होते हैं। उनकी गृहस्थी का मतलब वही होता है, चिल्ल-पों, जूतम-पैजार, कुछ गिरा तो उधर से आवाज़ आती है, अरे, किसका सिर फूटा? कोई इधर से जवाब नहीं गया, मुँह में दही जमा रखा है क्या?
ये सब चलता है इसको हम बोलते हैं हम गृहस्थी। ये गृहस्थी है ज़रूर पर ये बिना हेडलाइट की गृहस्थी है, ये बिना अध्यात्म की गृहस्थी है। जो करना है बाहर वो तो करोगे ही, या बच्चे हैं अगर तो उनकी परवरिश करोगे ही पर आध्यात्मिक हो कर परवरिश करोगे तो फ़ूल जैसे खिलेंगे बच्चे और आँखों पर पट्टी बान्ध करके परवरिश करोगे तो फिर जैसे धृतराष्ट्र के सौ थे, वैसे ही सबसे पहले तो सौ पैदा करोगे और उनमें से भी एक-से-एक धुरन्धर होंगे, दुर्योधन, दुशासन।