'गीता गलत है, वेदांत पाप है' - दूर रहना, पढ़ मत लेना || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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'गीता गलत है, वेदांत पाप है' - दूर रहना, पढ़ मत लेना || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपके माध्यम से मेरा परिचय वेदांत से हुआ। आपको वेदांत पर सुनता हूँ, और सुनी बातों को जीवन में उतारकर आगे बढ़ रहा हूँ। कुछ दिनों पहले उपनिषद के कई श्लोक मेरे समक्ष आए, इन श्लोकों ने मुझे हिलाकर रख दिया। पहले मुझे लगा कि ये श्लोक उपनिषद से ही हैं या नहीं; पर जाँचा तो पता चला कि ये उपनिषद से ही हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् से लिंगभेद और बलात्कार से संबंधित श्लोक मैंने पढ़ें; मासिक–धर्म और जातिवाद से संबंधित श्लोक मैंने पढ़ें; अंधविश्वास और काला–जादू से संबंधित मैंने श्लोक पढ़ें। तो इन उपनिषदों में ऐसी बातें लिखी हैं, यह मैं विश्वास नहीं कर पाया। ऐसी बातें लिखी हो सकती हैं वाकई? तो मेरा ये सवाल है आपसे कि ये क्या वाकई सच है? मैं किस तरह से समझूँ इसको? यह पहला सवाल हैं।

और इसके साथ ही आचार्य जी, मेरे मन में एक और बात उठ रही है। आप कहते हैं कि समकालीन संस्कृति में जो भी गंदगी है, उसे शास्त्रों को पढ़कर ठीक किया जा सकता है। इसका मतलब आप मानते हैं कि शास्त्र संस्कृतियों को प्रभावित करते हैं और आकार देते हैं। यदि ये सच है तो आप वेदों और उपनिषदों को जातिवाद से ग्रसित हिंदू संस्कृति के पीछे का कारण क्यों नहीं मानते? अगर शास्त्र संस्कृति को बनाते हैं तो कौन से शास्त्र हैं जिन्होंने जातिवादी संस्कृति को बनाया? क्या सिर्फ़ एक मनुस्मृति इतना बड़ा काम अकेले कर सकती है?

आचार्य प्रशांत: ये जितने भी उदाहरण दे रहे हो, ये बृहदारण्यक और छांदोग्य उपनिषद से होंगे। इसमें कोई बहुत बड़ा राज़ नहीं है, ऐसी कोई बात नहीं है कि कहो कि मैं पढ़ा, मैं हिल गया। जो अन्य सैकड़ों श्लोक हैं उपनिषद के, उनसे नहीं हिल गए तुम? या इन्हीं दो–चार श्लोकों की प्रतीक्षा में थे कि ये जब मिलेंगे तो हिलूँगा? ये तुम्हारा हिलना–डुलना इतना सेलेक्टिव क्यों है या कि इंतज़ार कर रहे थे?

और बिल्कुल ठीक बात है। देखो, ये दोनों जो उपनिषद हैं, ये सबसे पुराने उपनिषद हैं। जो बाकी उपनिषद हैं वो इन दोनों से कई मायनों में बहुत भिन्न हैं। पहली बात तो आकार, बृहदारण्यक और छांदोग्य सैकड़ों श्लोकों के उपनिषद हैं, और इस तरह का विस्तार उपनिषदों में पाया नहीं जाता। उपनिषद जितने अधिकांश हैं, वो अति–संक्षिप्त हैं।

तो पहली बात तो आकार से ही पता चलता है; दूसरी बात, इन उपनिषदों में जो उपनिषदों का केंद्रीय तत्व है, वह भी कम पाया जाता है। उपनिषदों में केंद्रीय तत्व है— ब्रह्मविद्या, बस ब्रह्म की बात करना। आप निरालम्ब उपनिषद ले लें, आप ईशावास्य ले लें, मुंडक, माण्डूक्य इत्यादि ले लें। उनमें आपको ब्रह्मविद्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलेगा। प्रकृति संबंधित बातें, संसार संबंधित बातें, देवी–देवताओं के पूजन संबंधित बातें, ये बिल्कुल नहीं मिलेंगी क्योंकि उपनिषदों का जो दर्शन है वो वैदिक कर्मकांड के बिल्कुल विरुद्ध है, एकदम अलग है। तो वो सब बातें उपनिषदों में पाई ही नहीं जातीं। लेकिन ये जो दो उपनिषद हैं, आपने जितनी भी बातें कहीं, वह सब–की–सब बृहदारण्यक से होंगी।

बृहदारण्यक और छांदोग्य, ये दोनों चूँकि सबसे पुराने उपनिषद हैं इसीलिए इन पर वैदिक कर्मकांड का भारी प्रभाव है, भारी प्रभाव है। यह ईसा से सात–आठ सौ साल पहले के हैं, बाकी उपनिषद इनके बाद आए हैं। तो इनमें कुछ तत्व ऐसे मिल जाते हैं, जो कि अन्य उपनिषदों में पाए नहीं जाते। ये आरंभिक उपनिषद हैं, दोनों बिल्कुल। इनमें कुछ तत्व ऐसे मिल जाते हैं जो कि वैदिक कर्मकांड से संबंधित हैं। उदाहरण के लिए, अथर्ववेद से जादू–टोने की कुछ बातें हैं, वो यहाँ मिल जाएगी आपको। इसी प्रकार कुछ ऐसी मान्यताएँ जो स्त्रियों के प्रति रखी जाती हैं, वो यहाँ आपको मिल जाएँगी। वर्ण–व्यवस्था की भी कुछ बात आपको बृहदारण्यक में मिल जाएँगी। पर आप बाकी उपनिषदों के पास जाएँगे तो वो वर्ण–व्यवस्था, आश्रम–व्यवस्था, लिंग–भेद, किसी भी तरह के भेद पर हँसते हैं। तो इसमें इतना कोई चौंकने की बात नहीं है। चौंकने की बात तो यह है कि उपनिषदों के पूरे भंडार में से आप यही दोनों उपनिषद क्यों लेकर के आए?

अब उदाहरण के लिए, अंग्रेजी में उपनिषद समागम का मैं कोर्स कर रहा हूँ। तो उसमें छांदोग्य उपनिषद पर आजकल बात हो रही है, और छांदोग्य उपनिषद इतना लम्बा–चौड़ा है कि मुझे उसमें से अगर सारगर्भित बात करनी है तो १५, २०, ४० श्लोकों में मैं कोई एक श्लोक उठाता हूँ और उस पर बात करता हूँ। गीता के साथ ऐसा नहीं है, वहाँ एक–एक श्लोक की बात होती है। अन्य उपनिषदों में भी ऐसा नहीं था, वहाँ एक–एक श्लोक पर बात हो रही थी। पर इन दोनों उपनिषदों में बहुत कुछ ऐसा है जो वास्तव में औपनिषदिक नहीं है, तो मैं उसकी चर्चा नहीं करता। हाँ, बीच–बीच में इसमें कुछ बड़े मार्मिक श्लोक आ जाते हैं, उनको लेकर के हम बातें कर लेते हैं। तो ये तो हो गया इन दोनों उपनिषदों के बारे में।

अब आते हैं उन पर जिनकी दृष्टि बस इसी पर जाकर टिकती है। तुम कौन हो भैया, जिसने बड़ी मेहनत से यही ढूँढकर निकाल लिया! इतनी मेहनत सत्य को खोजने में की होती तो मुक्ति मिल जाती अब तक, जो तुमने ये खोज निकाला है। यही खोज रहे थे क्या? जो, जो कुछ खोजना चाहता है, पा लेता है पर बड़ी मेहनत की होगी। क्योंकि इनमें भी १०, २०, ४० श्लोक नहीं हैं अन्य उपनिषदों की तरह, ६००, ८०० श्लोक हैं। उसमें जाकर के तुम ये निकाल करके ले आए कि देखिए, महिलाओं की बात है, महिलाओं के विरुद्ध अन्याय की भी बात है, मासिक–धर्म जैसा कोई श्लोक लग रहा है, वर्ण–व्यवस्था जैसा कोई श्लोक लग रहा है, जादू–टोना जैसा कोई श्लोक लग रहा है।' हैं, और जो आपने गिनाए हैं, उसके अतिरिक्त और भी हैं। अभी पूरा नहीं खोज पाए हों, और खोजों और मिलेंगे। लेकिन उसे सिद्ध क्या कर लोगे? वो तो तुम जो खोज रहे हो, वो तुम को प्राप्त हो जाएगा।

वज्रसूचिका उपनिषद के पास नहीं गए, उसकी बात नहीं करोगे। आत्मपूजा उपनिषद के पास नहीं गए, उसकी कोई बात नहीं करनी है। और अगर इतने शुद्ध मन के हो तुम कि कहीं पर एक विकृत श्लोक भी मिल जाए, तो उचट जाते हो तो भाई अष्टावक्र गीता के पास चले जाओ। वहाँ बीस के बीस अध्याय में तुमको एक भी ऐसा श्लोक नहीं मिलेगा जिसमें स्त्री–पुरुष की बात हो, या वर्ण व्यवस्था की बात हो, या और कोई इधर–उधर की भूली–भटकी बात हो; वहाँ कुछ नहीं मिलेगा। जाते क्यों नहीं अष्टावक्र के पास? वहाँ क्या समस्या है? या चले जाओ— ऋभुगीता के पास चले जाओ। ना जाने अन्य कितने ग्रंथ हैं वेदांत के, प्रकरण ग्रंथ हैं और भी हैं, जहाँ अगर तुम चाहते हो कि पूर्णतया शुद्ध वक्तव्य मिले, तो मिल जाएगा। उनके पास क्यों नहीं जाते?

या पहले से ही कोई छुपा हुआ मंसूबा बना रखा है कि वेदांत के विरुद्ध दुष्प्रचार करना है तो खोज रहे हैं, खोज रहे हैं कि कहाँ पर कुछ राई बराबर भी मिल जाए। इससे वेदांत की अशुद्धि का कम पता चलता है, इससे तुम्हारे मन की अशुद्धि का ज़्यादा पता चलता है कि तुम खोज ही क्या रहे हो। कुछ समझ में आ रही है बात?

मैं आमंत्रित करता हूँ प्रश्नकर्ता को जाइए अष्टावक्र गीता के पास। विशुद्ध वेदांत है वहाँ पर, पढ़ लीजिए। पर वो ग्रंथ ऐसा है जो बहुत कम पढ़ा जाता है, और आप उसका उल्लेख भी नहीं करना चाहते।

हाँ, दूसरी बात ये बोली कि 'मैं बोला करता हूँ कि संस्कृति में जो दूषण आ गया है, उसको वेदांत के माध्यम से हटाया जा सकता है।' पूछने वालों का तर्क समझिएगा, वो कह रहे हैं कि 'आप कह रहे हैं कि आजकल जो संस्कृति खराब हो गयी है, उसको ठीक किया जा सकता है शास्त्रों के माध्यम से।' तो वो इसी तर्क को पलटकर के कह रहे हैं, 'तो फिर इसका यह भी मतलब है ना कि पहले जो संस्कृति खराब हुई थी वो भी शास्त्रों ने ही की थी। तो आप मान क्यों नहीं रहे हैं?'

ये कह रहे हैं कि आप मानिए कि जैसे आज आप कह रहे हैं कि वेदांत संस्कृति पर प्रभाव डाल सकता है, वैसे ही पहले भी जो संस्कृति खराब हुई थी, वो वेदांत ने ही की थी। गज़ब तर्क है! ये वैसी–सी ही बात है कि आप डॉक्टर से कहें कि अगर तुम्हारी दवाई से यह बीमारी ठीक हो सकती है, तो पहले तुम मानो कि ये बीमारी आई भी होगी तुम्हारी दवाई से। गज़ब! वो कह रहे है कि अगर वेदांत संस्कृति पर आज यह प्रभाव डाल सकता है कि उसको ठीक कर देगा, तो आप को स्वीकार करना पड़ेगा कि पहले वेदांत ने ही संस्कृति को खराब भी किया होगा।

मैं वेदांत की बात करूँ या आइ.क्यू. (बौद्धिक स्तर) की? ये कौन सा तर्क है कि दवाई से ठीक होता है बंदा, तो पहले दवाई से ही तो बीमार भी पड़ा होगा। समझो किससे बीमार पड़ते हैं हम, जो बात तुम समझना नहीं चाहते। हम जिससे बीमार पड़ते हैं, वो किसी ग्रंथ के अंदर नहीं है, हमारे शरीर के अंदर है। वो हमारी पाशविकता है, वो हमारा मूल अज्ञान है जो हम जन्म के साथ लेकर पैदा होते हैं। ग्रंथ हमें और ज़्यादा बिगाड़ ज़रूर सकते हैं, पर हमें बिगाड़ने भर के लिए किसी ग्रंथ की ज़रूरत ही नहीं है। कितने कबीले हैं जो आदमखोर, वो आदमियों को ही खा जाते हैं। उनके पास कौन सा ग्रंथ था? वो आदमखोर कैसे हो गए? दुनिया भर में इतने लोग हैं जो किसी ग्रंथ को मानते ही नहीं, और उनमें से बहुत हैं जो पापी हैं, अपराधी हैं, भ्रष्ट हैं; उन्हें धर्मों ने ख़राब करा? ग्रंथों ने खराब करा?

तुम परिचित ही नहीं हो मनुष्य के मूल स्वरूप से, तुम जान ही नहीं रहे हो कि हम लोग हैं कौन। हम जानवर हैं जंगल के बाबा! तुम अगर कह रहे हो कि आदमी को धर्म ग्रंथों ने खराब करा, तो आदमी को जंगल में छोड़कर देख लो। बच्चा पैदा हो, उसको जंगल में छोड़ आओ, फिर देखो वो कितना बड़ा महात्मा निकलता है। उसके पास तो कोई ग्रंथ नहीं है ना, उसको भ्रष्ट करने के लिए? जंगल में छोड़ दो, फिर देखो वो क्या बन के निकलेगा। देखना कि उसमें कितना न्याय होगा, कितना साहस होगा, कितनी धार्मिकता होगी, या जिनको तुम वास्तव में ऊँचे मूल्य मानते हो— करुणा, मैत्री, समानता — देखना कि उस व्यक्ति में कितने होंगे, जो जंगल में छोड़ दिया गया, जिसे कभी कोई ग्रंथ दिया नहीं गया। आदमी को बिगाड़ने के लिए ग्रंथ नहीं चाहिए, आदमी को बिगाड़ने के लिए बस आदमी चाहिए। आदमी पैदा हो गया तो बिगड़ा हुआ ही रहेगा। बच्चा पैदा ही बिगड़ा हुआ होता है।

तो ग्रंथों का क्या फिर काम है? ग्रंथों का ये काम है कि अगर उनको समझोगे तो ठीक हो जाओगे। अगर नहीं समझोगे, तो जैसे बिगड़े हुए हो, वैसे ही बिगड़े हुए रहोगे। कुछ आ रही है बात समझ में? हमारी हालत ऐसी है कि जैसे हमें कोई किताब दी गई हो पढ़ने के लिए कि पढ़ लो तो पास हो जाओगे, हमने उसको पढ़ा ही नहीं, क्यों? क्योंकि शरीर में आलस भरा हुआ है, भीतर ज्ञान भरा हुआ है। हमने उस किताब को पढ़ा ही नहीं, न समझा। और फिर जब फेल हो गए तो बोले कि इस किताब को जला दो, इसकी वजह से हम फेल हो गए हैं। तुमने वो किताब पढ़ी कब थी कि उसकी वजह से फेल हो जाओगे? तुम कह रहे हो कि ये वेदांत वगैरह की वजह से भारत में समस्या हो गईं। भारत में वेदांत आज तक समझा कितने लोगों ने हैं, समस्या कहाँ से आ जाएगी?

तुम डॉक्टर के पास जाओ, वो तुमको दवाइयाँ वगैरह दे, वो दवाईयाँ तुम कभी खाओ नहीं, और फिर तुम मर जाओ। और तुम्हारे साथ के लोग आ जाएँ, डॉक्टर का क्लीनिक जलाने के लिए। बोलें कि इसी ने मार डाला। भाई! उसकी सलाह का, उसकी दवा का तुमने सेवन और पालन किया कब था? तुम्हें यह भ्रम हो गया है कि भारत धार्मिक देश है इसीलिए धर्मग्रंथों पर चलता है। नहीं दादा! भारत ने ना पहले भगवद्गीता समझी, ना आज समझता है। भारत ने ना पहले उपनिषद पढ़ें, ना आज पढ़ता है। और विश्वास नहीं हो तो १००० लोगों के पास जाकर के देख लो कि कितने पढ़ रखे हैं। १००० में १० नहीं मिलेंगे, जिन्हें नाम भी मालूम हो, पढ़ना तो दूर की बात है।

यहाँ पर जाति–व्यवस्था की बात कर रहे हैं ये, है ना?

श्रोता: वर्ण–व्यवस्था की।

आचार्य: वर्ण–व्यवस्था, तो खासतौर पर अगर जाति–व्यवस्था की बात कर रहे हो तो तुम्हे क्यों लग रहा है कि जाति व्यवस्था लाने के लिए विशेष तौर पर मनुष्य को किसी ग्रंथ की ज़रूरत है? जाति–व्यवस्था क्या है? एक आदमी को दूसरे आदमी को नीचा घोषित करना है और उसका शोषण करना है। ये अहंकार से आता है, इसके लिए कोई विशेष पुस्तक नहीं चाहिए। हाँ, पुस्तक मिल गई तो फिर 'करेला दूजे नीम चढ़ा।' वो अलग बात है। लेकिन अगर पुस्तक नहीं मिली तो आदमी ऐसी पुस्तक का निर्माण कर लेगा। पुस्तक का भी निर्माण नहीं किया तो किसी और चीज़ का निर्माण कर लेगा, जिससे उसे भेदभाव करने में सहायता मिले।

इस बात को समझो, दूसरे को नीचा घोषित करना, अपने–आप को श्रेष्ठ घोषित करना, किसी भी तरीके से दूसरे का शोषण करना, ये हमारी मूल पाशविक फितरत से आता है। यूरोप ले लो, १७वीं, १८वीं शताब्दी का, फिर १९वीं शताब्दी का। वहाँ तो कोई जाति–व्यवस्था नहीं थी ना? पर पूरे विश्व को यूरोप ने लूटा कि नहीं लूटा? उन्हें कोई ग्रंथ चाहिए था इसके लिए। यूरोपियन लोगों ने पूरे विश्व को लूटा तो तुम क्या बोलोगे? बाइबल में लिखा है ऐसा? वो क्रिस्चियन थे, उन्होंने दुनिया को लूटा तो ज़रूर ऐसा बाइबल में लिखा होगा। गोरे जब भारत आते थे तो अपनी जगहों पर लिख देते थे— ‘यहाँ पर कालो और कुत्तों का प्रवेश वर्जित है।’ ये वर्ण व्यवस्था है या नहीं है? तो ऐसी व्यवस्था करने के लिए कोई धर्मग्रंथ चाहिए? बाइबल में लिखा था इसलिए अंग्रेजों ने ऐसा करा? नहीं! आदमी के दिमाग में लिखा होता है, आदमी की एक–एक कोशिका में लिखा होता है इसलिए आदमी ऐसा करता है। समझ रहे हो बात को?

और आदमी को चूँकि ऐसा करना है इसीलिए वो इस बात का समर्थन करने के लिए ग्रंथ भी रच लेता है। और उन ग्रंथों में मूल रूप से अगर भेदभाव नहीं भी लिखा हो तो उनमें भेदभाव वाले प्रक्षिप्त अंश डाल देगा, क्योंकि उसे अपने भेदभाव को ज़ायज़ ठहराना है। वो कह रहा है, “मुझे उसका शोषण करना ही करना है। कोई हो, मेरा भाई हो, मेरा बाप हो, मेरा पड़ोसी हो, दूसरे समुदाय का हो, दलित हो, दूसरे लिंग का हो, दूसरे धर्म का हो, कोई हो, मुझे उसका शोषण करना ही करना है। यहाँ तक कि मुझे स्वयं अपना भी शोषण करना है।” ये हमारी मूल पाशविकता है।

और इस मूल पाशविकता ने अध्यात्म को बार–बार हराया है। पशु जीता है, चेतना हारी है। क्योंकि चेतना बड़ी सीधी–साधी चीज़ है, वो अपने आपको लिख के ले आ देती है — ‘हाँ भाई, ये रही अष्टावक्र गीता, ये रहा गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग है’। अब जो पशु की आँख हैं और पशु का दिमाग है वो उसको पढ़ेगा और समझेगा कि नहीं, हम कुछ कह नहीं सकते तो पशु ही जीतता है। गीता को पढ़ने के बाद भी अनगिनत लोग महापापी रहे आते हैं। तो धिक्कार क्या हम गीता पर दें? इस में गीता का दोष है क्या कि गीता को पढ़ने के बाद भी लोग महापापी रहे आते हैं? और इसमें गीता का दोष है क्या कि ९९% लोग कभी गीता पढ़ते ही नहीं?

कहने को आप हिंदू हैं, गीता आपने कभी पढ़ी नहीं, ठीक है? हिंदुओं की एक भीड़ है जिसने गीता कभी नहीं पढ़ी, ये भीड़ जाके दुनिया भर के अपराध करें, पाप करें, लूट–पाट करें, चोरी करें, अत्याचार करें; तो आप दोषी क्या गीता को ठहरा देंगे? इन हिंदुओं ने गीता पढ़ी कब थी? लेकिन ये गज़ब मामला चल रहा है! हिंदुओं ने आज तक जो कुछ भी ग़लत कर रहा हो, उसका दोष गीता पर डाल दो, गीता को आग लगा दो।

उन्होंने गीता को माना कब? उन्होंने गीता से सीखा कब? उन्होंने गीता को वास्तव में समझा कब? गीता पर काहे को दोष डाल रहे हो? गीता पर दोष डालना लेकिन ज़रूरी हो गया है कुछ लोगों के लिए। गीता पर अगर दोष नहीं डालोगे, गीता अगर चमक कर सामने आ जाएगी तो बहुत लोग हैं जिनकी दुकानें चलनी बंद हो जाएँगी। उनकी दुकानें चलती रहें, इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि वेदांत को और गीता को बदनाम वगैरह करते रहो। इनको बोलते रहो कि ये तो ब्राह्मणों के ग्रंथ हैं, इनको छूना नहीं, इनको पढ़ना नहीं, इनको जला दो। और मैं समझता हूँ आज के समय विशेषकर दलितों के साथ यह बड़ा से बड़ा अन्याय हो रहा है। पहले वो वेदांत के पास इसलिए नहीं जा पाए क्योंकि अवसर उपलब्ध नहीं थे, वर्जना लगी हुई थी। और आज उनको वेदांत के पास यह कहकर नहीं आने दिया जा रहा है कि ये तो ब्राह्मणों के ग्रंथ हैं, इनको पढ़ मत लेना। इससे बड़ा अन्याय आज दलितों के साथ नहीं हो सकता। पहले भी चूक गए वेदांत से, आज भी उनको चूकने को मज़बूर किया जा रहा है, ये साजिश है।

बल्कि उनको ये कहा जा रहा है कि देखो, तुमने अध्यात्मिक नहीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए। दुनिया के बड़े से बड़े वैज्ञानिक वेदांत से प्रेरणा और शिक्षा लेते थे। ये आज कौन सा विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण बताया जा रहा है जो वेदांत को कूड़ा घोषित कर रहा है। जो लोग विज्ञान की बात कर रहे हैं, कितना इन्होंने विज्ञान पढ़ा है? दसवीं तक भी पढ़ा है? बात करते हैं विज्ञान की, कितनी विज्ञान आती है? तुम्हे श्रोडिंगर से ज़्यादा विज्ञान आती है? नील्स बोर से ज़्यादा आती है? मैक्स प्लांक से ज़्यादा आती है? मैं जिनका नाम ले रहा हूँ, ये सब–के–सब वो हैं जो वेदांत को पूजते थें। जिन्होंने यूँ ही कभी हल्के–फुल्के में वेदांत की तारीफ़ नहीं कर दी है, जो वेदांत की पूजा करते थें। श्रोडिंगर कहते थे, 'जब तक जी रहा हूँ मुझे उपनिषदों से शांति मिलती है और जिस दिन मैं मरूँगा, उस दिन भी उपनिषदों से ही मुझे शांति मिलेगी।'

आणविक विस्फोट को देखकर ओपनहाइमर को यूँ ही गीता की याद नहीं आ गयी थी। अब प्रश्न करने वाले अच्छे से समझ लें, उन्हें शायद पता भी ना हो, वो सोचते हैं कि वेदांत का मतलब होता है बस जो वेद का एक हिस्सा है; गीता भी वेदांत का एक प्रमुख स्तंभ है। ये एक नई हवा चल रही है! दुनिया ने भारत से जो ऊँची–से–ऊँची चीज़ सीखी है वो वेदांत है। यह तुम क्या नालायकी रहे हो कि भारतीयों को ही वेदांत से वंचित कर रहे हो। यह शर्मनाक काम है। दुनिया ले गयी भारत से वेदांत; यूरोपियन, अमेरिकन वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार, चित्रकार सब वेदांत से प्रेरणा ले रहे हैं। चेतना को लेकर के, दृष्टा और दृश्य को लेकर के जितनी पाश्चात्य उत्सुकता है, उसका मूल वेदांत ही है, और ये मैं नहीं कह रहा हूँ, यह स्वयं पश्चिम स्वीकारता है।

तुम क्यों भारतीयों को ही वेदांत से नफ़रत करना सिखा रहे हो, ये अन्याय है। अगर वास्तव में तुम भारतीयों के हितैषी हो तो उनको वेदांत तक लेकर आओ, इसी में उनका हित है। ये इस तरह की शरारतें कि एक श्लोक यहाँ से निकाल दिया, दो श्लोक वहाँ से निकाल दिए, आधा कुछ वहाँ से ले आए, और बोलें कि देखो वेदांत में यह लिखा है, वह लिखा है। ये क्या है, बच्चो वाली हरकतें!

अगर कोई एक दर्शन है जो मनुष्य को जातिगत भेद से ही नहीं, हर तरह के भेद से मुक्त कर सकता है तो वो वेदांत है। देखो, बाकी दर्शनों ने या धर्मों ने तो बस बोल दिया है कि विश्व बंधुत्व, या कि सब इंसान भाई–भाई है आपस में। उन्होंने तो बस बोल दिया है, वेदांत और आगे जाता है, वेदांत कहता है, 'जो कुछ तुम अपने–आपको समझते हो, जो तुमने अपना यह पृथक व्यक्तित्व खड़ा कर रखा है, ये व्यक्तित्व झूठ है। तुम आत्मा हो, आत्मा ही तुम्हारा सत्य है और आत्मा दो होती नहीं। यदि सब आत्मा है, तो फिर कोई ऊँचा कोई नीचा कैसे रह गया?‘ वेदान्त दर्शन है जो घोर सहिष्णुता का संदेश देता है। कहता है, 'सब चेतना हैं, और सब चेतनाओं की एक ही प्यास है मुक्ति। तो सब फिर अलग–अलग कैसे हो सकते हैं?’ मुक्ति सबको चाहिए बस कोई लड़खड़ाता हुआ बेहोशी में मुक्ति की ओर बढ़ रहा है और कोई ज्ञान के साथ बढ़ रहा है मुक्ति की ओर। तो जो ऊँचे–से–ऊँचे आदर्श हो सकते हैं, उनको साकार करने का तरीका भी वेदांत ही है। बात समझ में आ रही है?

आजकल, उदाहरण के लिए एक ऊँचा आदर्श है― लिबरलिज्म (उदारवाद)। मन को आज़ादी दो, अभिव्यक्ति की आज़ादी होनी चाहिए, विचार की आज़ादी होनी चाहिए। वेदांत और आगे जाता है, वेदांत कहता है, 'तुम्हें स्वयं से भी आज़ादी मिलनी चाहिए, लिबरेशन।' आजकल जितनी लिबरल बातें होती हैं वो यही होती है ना कि दूसरा आकर के तुम पर कोई बंदिश ना लगाएँ। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर बंदिश ना लगाएँ, उदार दृष्टिकोण रखें, यही लिबर्टी है। यही आजकल का फ्रीडम का आदर्श है कि जो जैसा करना चाहे उसको करने दो, दूसरा कोई उस पर चढ़कर न बैठें। वेदांत एक कदम और आगे जाता है, कहता है, दूसरा तो चढ़कर नहीं ही बैठे तुम्हारे ऊपर, तुम स्वयं भी अपने ऊपर चढ़कर मत बैठो। ये लिबरेशन है। बात कुछ आ रही है समझ में?

आप किन–किन बातों को बोलते हैं कि आज भी जो समाज में कुरीतियाँ हैं या अपसंस्कृति हैं, इनको हटाना चाहिए। आप अंधविश्वास को बोलोगे, आप धार्मिक वैमनस्य को बोलोगे, और किस–किस को बोलेंगे और क्या चीज़ें हैं? भेदभाव को बोलोगे। जो ये जबरदस्त तरीके का भोगवाद है, इसको बोलोगे। एक वर्ग दूसरे का उत्पीड़न करता है, इसको बोलोगे। एक लिंग दूसरे को खा जाने की कामुक नज़र से देखता है, इसको बोलोगे। ये जितनी चीज़ें हैं, इतनी बार तो पूरे विस्तार से समझा चुका हूँ कि इनका वास्तव में एक ही समाधान है― वेदांत।

देखिए, आपके घर एक हीरा है, हो सकता है आज तक वो आपके हाथ नहीं लगा, भले ही आपके घर में था। आपके घर में होते हुए भी आपके हाथ नहीं लगा तो आपके काम नहीं आ पाया, आप उसके मूल्य से वंचित रहे आज तक, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अब आप उस हीरे को उठाकर के घर से बाहर फेंक दो। आपके पास एक हीरा था, विरासत में मिला था आपको। आप भूल गए उसको या आप उसका मूल्य नहीं समझ पाए, आपने कद्र नहीं करी उसकी; तो वो ऐसे ही एक कोने में पड़ा रहा धूल खाता। अब क्या करना चाहते हो? उसको उठाकर बाहर फेंक देना चाहते हो? बोलो! तो ये आपको तय करना है कि आपको वेदांत के साथ क्या करना है। इतना बता दूँ बाहर उसको अगर फेंकना चाहते हो तो बाहर उसको लपकने के लिए पूरी दुनिया तैयार खड़ी है। क्योंकि आप वेदांत का मूल्य समझो या नहीं समझो, बाकी पूरी दुनिया पूरा समझती है।

और भी कुछ है प्रश्न में?

श्रोता: मनुस्मृति के बारे में हैं।

आचार्य: आप से कौन कह रहा है कि आप मनुस्मृति का आज पालन करिए, आपको क्या पड़ी है? मैंने इतनी बार समझाया है कि भारत में यह जो किताबें लिखी गईं हैं, इनकी बड़ी लंबी–चौड़ी परंपरा रही है। ऋग्वेद पहला था, और उसके बाद से लेकर के अभी सोलहवीं शताब्दी तक, सत्रहवीं शताब्दी तक वह किताबें लिखी गईं हैं जिन्हें आप कहोगे कि धार्मिक ग्रंथ हैं। यहाँ तक कि कुछ उपनिषद भी अभी ५००–७०० साल पहले ही लिखे गए हैं। और जो पूरा भक्ति मार्ग है, उसका साहित्य तो है ही बहुत हाल का। तो आप सोचो की कितना लम्बा विस्तार रहा है समय में, ज़रा सोचो। ईसा से लगभग १५०० साल पहले से लेकर के ईसा के १६–१७ सौ साल बाद तक का, कितना हो गया ये? ३००० साल।

और कहाँ से कहाँ तक लिखा गया है मामला? उधर गांधार से लेकर के उधर बंगाल, कामरूप तक हर जगह से आए हैं आपके ग्रंथ, और इधर कश्मीर से लेकर नीचे केरल तक। और उस समय आपस में संचार के कोई साधन नहीं थे। कोई कहीं कुछ लिख रहा है तो दूसरा कोई व्यक्ति कहीं और का बैठ के उसको पढ़कर के उसमें शोधन, शुद्धि, आपत्ति कुछ नहीं कर सकता था। जिसने जो लिख दिया वो बात हो सकता है कि उसके क्षेत्र में प्रचलित हो जाए। इसीलिए आप पाते हो कि विविधता इतनी ज़्यादा है सनातन धर्म में— कहीं कोई मान्यता है, कहीं कोई मान्यता है, कहीं कुछ है, कहीं कुछ है।

आज के समय में उतनी नहीं हो पाई क्योंकि एक आदमी कहीं कुछ कहेगा, वो इंटरनेट से ज़ल्दी से बात कहीं और पहुँच जाएगी। वो आदमी उसको या तो ठीक कर देगा या खारिज कर देगा। तब तीन–साढ़े तीन हज़ार साल तक और तीन–चार हज़ार किलोमीटर की उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम की दूरी पर ये सब प्रक्रिया चलती रही। ना जाने कितनी चीज़ें लिखी और ना जाने चेतना के कितने तलों पर लिखी गईं। जिसको जो लिखना था, लिखता गया।

तो ये जितनी पुस्तकें लिखी गयी हैं, आप इन सबको एक समान दर्जा थोड़ी दे दोगे। आप कहते हो सनातन धर्म वैदिक है, पूरी दुनिया जानती है, स्वीकारती है, मेरे कहने की बात नहीं है, थोड़ी सी रिसर्च कर लीजिएगा। किसी आप प्रोफेसर से पूछ लें, चाहे आप गूगल पर पढ़ लें। वैदिक धर्म का अर्थ ही वेदांत है पूरी दुनिया की नज़र में। इंडिक स्टडीज की आप किसी भी जगह पर चले जाइए, वहाँ पर समझिएगा कि वेद माने क्या? वेद का जो मंत्र और यज्ञ और रिचुअल्स, सैक्रिफ़ाइजेस वाला हिस्सा है, वो तो कब का पीछे छोड़ा जा चुका, कौन उसका पालन करता है, आप करते हैं क्या? कौन करता है? वो तो समय की धारा में छूट ही गया पीछे, तो वेद का अर्थ ही क्या बचा है? बस वेदांत। तो सनातन धर्म का केंद्रीय स्थल वेदांत मात्र है और कुछ नहीं। अगर हम कहते हैं कि वैदिक धर्म हैं तो वैदिक धर्म का मतलब हुआ वेदांतिक धर्म। बाकी ग्रंथों की कीमत बहुत कम है और बहुत बाद की है।

मैं बार–बार कहता हूँ, बाकी ग्रंथ अगर वेदांत से सहमत होते हों तो उनको मानो, नहीं तो मत मानो। आज भी आपसे कह रहा था ना कि जो पौराणिक कथाएँ वेदांत की दृष्टि में कुछ मर्म रखती हो, कुछ अर्थ रखती हो उनको स्वीकार करो और जो बाकी हिस्सा है उसको त्याग ही दो ना। क्या रखा है? अब एक स्मृति नहीं है कि मनुस्मृति, ना जाने कितनी स्मृतियाँ हैं जो लिखी गईं। वो एक समय के हिसाब से थीं, जो सामाजिक मान्यताएँ थीं उनके हिसाब से थीं। उनका अधिकांश हिस्सा आज के समय में व्यर्थ ही है। हाँ, उनके कुछ लोग हैं जो आज भी अर्थ रखते हैं― "धर्मो रक्षति रक्षित:" उदाहरण के लिए। पर उनमे बहुत कुछ है जिसका आज कोई अर्थ नहीं। इसके अलावा यह भी स्पष्ट नहीं है कि वो स्मृति वगैरह आपके हाथ में आज वैसी है जैसी लिखी गई थी। संभावना यह है कि उसमें कुछ जोड़ा गया, घटाया गया ये सब भी।

क्योंकि मनुस्मृति में विशेषकर बहुत विरोधाभासी बातें मिलती हैं कहीं पर कहा जाता है कि जहाँ स्त्रियों को आदर मिलता है, वहाँ पर देवता रमण करते हैं, और दूसरी जगह पर तुरंत कुछ ही देर बाद एक बिल्कुल विरोधी श्लोक मिल जाता है जो स्त्रियों के लिए अपमानजनक है। तो ऐसा लगता नहीं कि एक ही व्यक्ति ने दोनों बातें एक साथ बोल दी होंगी। यही बात माँसाहार के बारे में मिलती है मनुस्मृति में। कहीं कह रहें, खा लो, कहीं वर्जित है। ऐसा कैसे हो गया, एक ही पुस्तक में दोनों बातें कैसे आ गईं?

तो समाज हमेशा से भ्रष्ट रहा है। ये इंसान की फितरत है भ्रष्ट होना और इंसान इतना भ्रष्ट है कि वो अपने ग्रंथों को भी भ्रष्ट कर लेता है। ग्रंथों में भी जो सबसे साधारण स्तर का ग्रंथ होता है, उसी को पकड़ लेता है। भ्रष्ट नहीं कर पाया ग्रंथ को तो उसका जो सबसे विकृत अर्थ है वो निकाल लेगा या फिर ग्रंथ को पढ़ेगा ही नहीं।

आपको क्या आवश्यकता पड़ी है जो सैकड़ों अन्य किताबें हैं, सिर्फ मनुस्मृति नहीं और ना जाने कितनी किताबें हैं, उन्हें पढ़ने की? इतनी मैं इकट्ठी करके रखे हूँ, अपनी लाइब्रेरी में; एक सीमा के बाद मैंने पढ़ना छोड़ दिया। मैंने कहा, कौन घुसेगा इनमें! सालों तक मैंने पहले यही करा कि सनातन धारा की, विश्व की सब धाराओं की जितनी किताबें हो सकती थीं, उनका तन्मयतापूर्वक अध्ययन करा। फिर एक बिंदु आया जब मुझे पढ़ना व्यर्थ लगने लगा, मैंने कहा जो हीरा है, वो मुझे मिल गया, मेरी पकड़ में आ गया, अब मैं कहाँ समय लगा रहा हूँ और बाकी सब कुछ पढ़ने में। तो फिर एक बिंदु पर आकर कई सालों बाद मैंने वो सब पढ़ना भी छोड़ ही दिया। क्या करना है उनका?

सिर्फ़ इसलिए की कोई बात संस्कृत में लिखी हुई है, वो शास्त्रीय नहीं हो जाती। वेदांत ही आपको शास्त्र शब्द की परिभाषा समझाता है। शास्त्र क्या है? जो अहंकार और मुक्ति की बात करें और सिर्फ़ अहंकार और सिर्फ़ मुक्ति की बात करें वो शास्त्र है। बाकी इधर–उधर की बातें जहाँ हो रही हैं दुनियादारी की, वो शास्त्र है ही नहीं। उसको आप एक साधारण किताब मानिए, रुचि हो तो पढ़िए नहीं तो फेंक दीजिए। तो ये शास्त्र नहीं है।

एक दफ़े मैंने इसको ऐसे समझ आया था कि न्यायपालिका के इतने सारे स्तर होते हैं ना? अब एक डिस्ट्रिक्ट कोर्ट है, लोअर कोर्ट है। वहाँ कुछ बोल भी दिया गया और एक सुप्रीम कोर्ट की जो रूलिंग है, पूरे बेंच का एक निर्णय है, वो उसके विपरीत जाता है तो क्या होगा तुरंत? जो निचले कोर्ट ने बात बोल दी होगी, वो तुरंत अमान्य कर दी जाएगी।

वेदांत सनातन धर्म का सुप्रीम कोर्ट है। कोई भी नियम, कोई भी बात अगर उसके निर्णयों से मेल खाती होगी तो ही स्वीकार्य होगी। कोई भी किताब, कोई भी शास्त्र, कोई भी ग्रंथ अगर कोई ऐसी बात बोल रहा है जो वेदांत से मेल नहीं खाती तो तुरंत उसको खारिज़ करो, उसको मानने की कोई ज़रूरत नहीं है। बात आ रही है समझ में?

दिक्कत यह हुई है कि हमारे यहाँ सहिष्णुता बहुत रही है, जो अपने आप में एक बड़ी अच्छी बात है, हम उदार रहे हैं। हम उदार रहे हैं, उसका नतीजा यह हुआ है कि यहाँ पर हज़ारों, पाँच हज़ार किताबें खड़ी हो गई हैं। दुनिया की जो अन्य धाराएँ हैं उनमें एक किताब होती है, कहीं दो किताब होती हैं, कहीं तीन किताब होती हैं तो वहाँ मामला साफ़ रहता है। हिंदुओं बेचारो को पता ही नहीं हैं कि पढ़ें क्या। यहाँ किताब नहीं है, यहाँ कोई पूछे हिंदुओं का धर्मग्रंथ दिखाओ तो लाइब्रेरी की ओर इशारा करते हैं, वो है।(इंगित करते हुए)

अब वो अंदर घुस जाता है, बोलता है क्या पढ़ें, ये सब कुछ? और उसमें तीन चौथाई संस्कृत है। तीन चौथाई मामला संस्कृत में हैं, और हिंदुओं के संस्कार कुछ ऐसे होते हैं कि जो कुछ भी संस्कृत में लिखा है वो उसको तुरंत प्रणाम कर लेते हैं कि संस्कृत है माने कोई बहुत ऊँची बात ही बोली जा रही होगी। जबकि संस्कृत में एक से एक व्यर्थ बातें भी बोली गयी हैं। संस्कृत भाषा मात्र है, उसमें तुम ऊँची–से–ऊँची बात भी बोल सकते हैं और अति साधारण बात भी बोल सकते हो। तो इसलिए आज बहुत आवश्यक है कि इस पूरे सनातन धर्म के केंद्र में वेदांत को प्रतिष्ठित किया जाए।

लाइब्रेरी अपनी जगह है, बहुत अच्छी बात है कि पूरी लाइब्रेरी उपलब्ध है, कहें ये सनातन लाइब्रेरी है। लेकिन यह सबको पता होना चाहिए कि लाइब्रेरी बाद में आती है, ये जो कुछ चुनिंदा ग्रंथ हैं ये पहले आते हैं और मात्र इन्हें ही शास्त्र माना जा सकता है। बाकी आप चीज़ों को शास्त्र मानना छोड़िए। बाकियों को आप कह दीजिए धार्मिक पुस्तकें हैं, शास्त्र नहीं हो गए वो। बात आ रही है समझ में कुछ?

राजनीति करना छोड़ दीजिए अध्यात्म के साथ।

अब एक ये बड़ी प्रक्रिया चल रही है कि दलितों को वोटबैंक की तरह देखना है। और सारे दलितों को एक ही जगह, एक ही दुकान पर खड़ा करना हैं। और अगर उन्हें एक ही जगह खड़ा करना हैं तो उन्हें कोई नारा देना पड़ेगा ना, जो उन्हें संगठित कर दें, जो उनमें एकता डाल दें। किसी एक वर्ग को अगर संगठित करना हो तो उस वर्ग को एक साझा दुश्मन देना पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब राजनैतिक पार्टियों को हिंदुओं को संगठित करना होता है तो वो मुसलमानों को दुश्मन बनाकर खड़ा कर देते हैं। कहते हैं, ‘देखो वो साझा दुश्मन है‘, तो हिंदू फिर संगठित होने लगते हैं। देश में बड़ा लड़ाई–झगड़ा चल रहा हो लेकिन चीन से, पाकिस्तान से लड़ाई हो जाए तो सब राजनैतिक पार्टियाँ भी एक हो जाती हैं। जब एक साझा दुश्मन खड़ा कर दिया जाता है ना तो भीतर एकता हो जाती है।

तो दलितों को भी एक करने के लिए उनको एक छाते के नीचे लाने के लिए एक दुश्मन खड़ा करा जा रहा है, क्या? वेदांत, कि वेदांत दुश्मन है। उसको बोल रहे हैं कि ये ब्राह्मण धर्म है। दलितों को जो भोले लोग हैं, उनको नहीं समझ में आ रहा है कि यह दलितों के ही खिलाफ़ साजिश की जा रही है उन्हें वेदांत से दूर करके। अब मैं दलितों का क्या बोलूँ, बाकियों ने कौनसा वेदांत पढ़ लिया है! मुझे तो बल्कि ऐसा लगता है कि नफरत के मारे ही सही दलित वर्ग से ज़्यादा लोग पढ़ रहे होंगे वेदांत कि इसमें कहीं खोट निकाल दें। वो किसी भी उद्देश्य से सही, पढ़ तो रहे हैं। बाकी लोग तो छू भी नहीं रहे हैं, उन्हें कोई मतलब ही नहीं है। बोले, "क्या करना है? चलो बाजार शॉपिंग करके आते हैं, वीकेंड हैं दारू–शारू हो जाए। ये वेदांत वगैरह क्या होता है?"

प्र: नमस्ते आचार्य जी, ये जो बात कही जा रही है और ये जो सवाल भी आया है, वो लोग इतने शातिर तरीके से लोगों को भ्रमित कर रहे हैं, एक पूरा ऐसा उन्होंने माहौल तैयार कर रखा है। एक साजिश ही कर रहे हैं। आपने अभी जिस तरीके से समझाया, उनके अंदर समझ की उतनी गहराई नहीं है तो वो तोड़–मरोड़ करने लग गए हैं।

आचार्य: देखो बेटा, अगर सिर्फ़ समझ की कमी हो तो बड़ी बात नहीं है, समझाया जा सकता है। दिक्कत तब शुरू हो जाती है जब नीयत की खराबी हो। उसके विरुद्ध सावधान रहने की ज़रूरत है। कोई भी व्यक्ति जो आपको वेदांत से दूर कर रहा है, अपना तो नुकसान कर ही रहा है, दूसरों को बर्बाद कर रहा है। तो नीयत साफ़ रखनी चाहिए। बाकी तो गलतियाँ होती रहती हैं, उनका सुधार करा जा सकता है। नीयत का क्या सुधार करोगे, अगर इरादा ही बना लिया है उल्टा काम करने का तो?

प्र: ऐसा क्या तर्क मिल गया उनको कि वो आपके खिलाफ़ मतलब ये सारी चीज़ें बोल रहें हैं?

आचार्य: मेरे खिलाफ़ बेटा बोलने वाले एक नहीं है, सौ हैं। तुम सबको देखते फिरोगे क्या? इतना समय हैं? और अभी १०० हैं, कल १००० होंगे। जो बात मैं कह रहा हूँ वह सबके लिए ख़तरा है। मुझे हर तरफ से विरोध आना है, तुम्हें तो एक तरफ से दिख रहा है। तुम कोई वर्ग बताओ जिसे मुझसे समस्या नहीं हैं? मुझे ब्राह्मणों से गाली पड़ती है क्योंकि वो सब कर्मकांडी हैं। मैं उनके कर्मकाण्ड पर आघात करता हूँ तो वो गाली देते हैं। दलितों का तुम बता ही रही हो खुद ही। बक़रीद पर कुछ बोल देता हूँ, मुसलमानों से पड़ती है। दीवाली पर जब बोलता हूँ तो हिंदुओं से पड़ती है। यहाँ तक की गुरबानी पर बोला तो सिखों से भी पड़ी। महिलाओं के मुद्दों पर बोल रहा हूँ तो फेमिनिस्ट से भी पड़ती है और संस्कारी महिलाओं से भी पड़ती है। क्योंकि मेरी बात किसी से मेल नहीं खाती। मैं किसी भी वर्ग के साथ नहीं खड़ा हूँ। मैं जहाँ से देख रहा हूँ, वहाँ से हर वर्ग में मुझे त्रुटि, खोट दिखाई दे रही हैं।

शाकाहारी पहले खुश होते थे कि मैं माँसाहारियों को सीख देता हूँ। फिर उनको समझ में आया कि मैं शाकाहारी को ही बोल रहा हूँ कि दूध छोड़ो तो अब शाकाहारियों से भी मुझे गाली पड़ती है। लेफ्ट (वामपंथ) से गाली पड़ती है, उनको लगता है कि मैं गीता और उपनिषद की बात कर रहा हूँ तो मैं राइट (दक्षिणपंथ) का हूँ। राइट से गाली पड़ती है, वो कहते हैं कि ‘ये बात तो गीता की करते हैं, लेकिन बड़ी खुली सोच के हैं। ये गीता का जो अर्थ बता रहे हैं वो पारंपरिक तो है ही नहीं’। तो राइट वाले भी मुझे द्रोही मानते हैं। तुम और कोई वर्ग उठा लो, कोई वर्ग ऐसा नहीं है जो मेरे समर्थन में हो, हाँ लोग समर्थन में हैं, वर्ग समर्थन में नहीं है। व्यक्ति समर्थन में हो सकता है, व्यक्ति मेरे साथ होते हैं लेकिन जहाँ कहीं भी गुट बने हुए हैं, वर्ग बने हुए हैं, उनको मुझसे ख़तरा हो जाता है। ख़तरा इसलिए हो जाता है क्योंकि अगर सच्चाई सामने आ गई तो उनका गुट टूट जाएगा। उनका गुट टूट गया तो उनके नेता बेरोजगार हो जाएँगे। तो फिर वो नेता बयानबाजी, भाषणबाजी करने लगते हैं मेरे खिलाफ़।

अभी तो हुआ है, हमारा जब यहाँ गोवा में चल रहा है। एक दिन में हत्या की अनेक धमकियाँ। कहा, गज़ब है! अब कोई बता रहा है कि तेरी चिता कैसे जलाऊँगा। कोई बता रहा है, चाकू से काटूँगा। कोई बोल रहा है, गोली से मारूँगा। और वो भी अलग–अलग दिशाओं से ऐसा भी नहीं है कि कोई एक वर्ग है जो मुझसे दु:खी हो करके मुझे मार डालना चाहता है। क्योंकि सबको चोट पड़ रही है। कोई ऐसा नहीं है जिसको चोट नहीं पड़ रही है। सब को चोट पड़ रही है तो सब तिलमिलातें हैं।

और मज़ेदार चीज़ यही होती है कि हर वर्ग को लगता है, मैं दूसरे वर्ग के साथ हूँ। ब्राह्मण मुझसे इसीलिए परेशान हैं, उनको लगता है मैं दलितों के साथ हूँ। दलितों को लगता है कि मैं ब्राह्मण हूँ। पुरुषों को लगता है कि मैं उनकी महिलाओं को भड़का रहा हूँ, उनके घर टूट रहे हैं। महिलाएँ इसलिए दु:खी है कि मैं उनको बोलता हूँ, ‘तुम घर में काहे को बैठी हो मेहनत करो। तुम आलसी हो और मुफ़्त की रोटी की आदी हो रही हो’, तो महिलाएँ फिर चिढ़ जाती हैं। तो जब कोई ज़्यादा चिढ़ जाता है तो फिर वो आगे कदम बढ़ाने की भी सोच सकता है, तो फिर धमकी–वमकी भेजते हैं।

पहले थोड़ी ज़रूरत पड़ती थी इन बंदूकधारियों की (सुरक्षाकर्मी की तरफ इशारा करते हुए)। एक बारह बोर, एक बत्तीस बोर, पहले सिर्फ़ गार्ड आए फिर एक बंदूक आईं, अब दो–दो बंदूकें आ रही हैं, अब आगे के लिए कह रहे हैं कि ऑटोमैटिक वाली चाहिए। पहले थोड़ी ही जो लोग आ रहे होते थें, उनकी इतनी जाँच–पड़ताल करनी पड़ती थी। और हमला करने का यही नहीं तरीका होता है कि शरीर पर हमला किया जाएगा, हमला करने के और भी तरीके होते हैं। कुप्रचार कर दो, अफ़वाह फैला दो। वो सब तरीके चलते रहते हैं, वो भी हमला ही हैं।

प्र: नमस्कार आचार्य जी, अभी आप से सुना कि आपको बहुत धमकियाँ आती हैं, बहुत विरोध होता है।

आचार्य: नहीं, बहुत नहीं आती।

प्र: मेरा प्रश्न एक सहज प्रश्न है कि आपको डर क्यों नहीं लगता इस बात से? और कौन सी प्रेरणा हैं जो आपको काम करने में बहुत मदद करती है?

आचार्य: मुझे ओर कुछ करना आता ही नहीं, मजबूरी है। मजबूर जब तक नहीं होओगे तब तक सही काम नहीं करोगे, उसी को निर्विकल्पता कहते हैं। अगर अपने लिए दूसरे काम के विकल्प छोड़े हैं या डरने का विकल्प छोड़ा है या घुटने टेकने का विकल्प छोड़ा है, तो जो विकल्प मौजूद हैं वो विकल्प तुम कभी–ना–कभी चुन भी लोगे। विकल्प रखो ही मत। नहीं समझे? जीना यहाँ, मरना यहाँ। बस और कुछ नहीं; इसके सिवा जाना कहाँ? यही है, यही सही है, यही करना है। मौसम अच्छा हो तो भी करेंगे, मौसम बुरा हो तो भी करेंगे। कोई सम्मान दे दे, अच्छी बात है; कोई अपमान कर दे तो भी करेंगे।

आप में से जो भी लोग इन तीन दिनों के बाद कुछ जीवन में बेहतर होने का या करने का मन बना रहे हों। उनको ये मशवरा दे रहा हूँ, बहुत सारे विकल्प मत रखना। बैकअप ऑप्शन्स प्लैन बी, प्लान सी, प्लान डी, इतनी होशियारी मत दिखाना। प्लान बी अपना यही रखना, स्टिक टू प्लान ए। कोई बैकअप नहीं होना चाहिए क्योंकि अगर बैकअप होगा तो उसका इस्तेमाल कर ही लोगे। निर्विकल्प च्वाइसलेस हो जाओ। मज़बूर कर दो अपने–आपको। इंसान बहुत टेढ़ी खीर होता है, अंदर ही अंदर हम अपने ही खिलाफ़ चतुराई कर लेते हैं। समझ रहे हो बात को?

फ़िल्म देखी थी मैंने पता नहीं कौन सी थी। तो वो पियानो बजाता है।अंग्रेजी मूवी है और पुरानी है, गूगल करेंगे तो नाम मिल जाएगा। तो वो पियानो बजाता है तो उसको आते हैं और उसको जाने गोली मार देते हैं, जाने से ज़हर दे देते हैं, कुछ करते हैं उसको। तो वो अब मरने वाला है २–४ मिनट में। तो वो जाता है और बैठकर पियानो बजाने लगता है। मैं छोटा था बहुत, मेरी समझ में भी नहीं आया लेकिन मैंने उसको बार–बार देखा। तब वीसीआर चलता था, रिवाइंड करके देखा। मतलब क्या है इस बात का? अब इसके पास दो मिनट हैं जीने के, और ये गया है और पियानो बजा रहा है। शायद ज़हर था या कुछ पता नहीं।

तो ऐसे हो जाओ, आखिरी दो मिनट भी पियानो ही बजाएँगे। मौत आ रही होगी तो और ज़्यादा वो काम करेंगे जिसमें आनंद है। सबसे अच्छी मौत वहीं होगी कि अपना जो निष्काम कर्म है, अपना जो हार्दिक काम है पसंदीदा, वो करते–करते ही पियानो पर ही मौत हो जाए। स्वर्ग, मरने से पहले ही; ऐसे हो जाओ।

आ रही बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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