आचार्य प्रशांत: हम देखेंगे कि श्रीकृष्ण अर्जुन के सब भावुक, मार्मिक वक्तव्यों को किस प्रकाश में देख रहे हैं। तो अपनी ही मोहजनित पीड़ा को आगे अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं अर्जुन कि
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस:। कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।
कथं न ज्ञेयम स्माभि: पापादस्माननिवर्तितुम। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यदिर्जनार्दन।।
“यद्यपि ये धृतराष्ट्र-पुत्र लोभ से अन्धे होने के कारण कुलनाशकारी दोष से उत्पन्न पाप को नहीं समझ रहे ,तो भी हे जनार्दन, कुलक्षय से होने वाले दोष को देख-सुन कर भी हम लोगों को इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए?”
श्रीमद्भागवद्गीता ( अध्याय १, श्लोक ३८-३९)
तो अड़तीसवाँ श्लोक है कि ये धृतराष्ट्रपुत्र तो लोभ से अन्धे हैं, और कुल का क्षय, कुल का नाश करने के ही घोर पाप, भीषण दोष को ये कुछ समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि लोभ ने दृष्टि पर पर्दा डाल दिया है। फिर आगे कहते हैं कि वो ऐसे हैं तो हैं, हमें नहीं समझना चाहिए क्या? देखिये, बात जटिल है, ठीक वैसे जैसे आदमी का अंतस जटिल होता है।
एक ओर तो ये बात बिलकुल ठीक है कि कम-से-कम दुर्योधन जैसों से श्रेष्ठतर अवस्था में है इस वक्त अर्जुन। व्यक्तिगत लाभ और लोभ से ऊपर उठकर कुछ और देख पा रहे हैं। लेकिन व्यक्तिगत लाभ से ऊपर पारमार्थिक भर ही नहीं होता, सत्य भर ही नहीं होता। बीच में एक बड़ा लम्बा-चौड़ा क्षेत्र है। एक विकराल अंतराल है, जिसमें तमाम तरह की ग्रन्थियाँ काम करती हैं। और झूठ, असत्य वास्तव में बचा रहता है तो इसलिए क्योंकि विशुद्ध झूठ और विशुद्ध सच के बीच में आंशिक झूठों का एक बड़ा लम्बा फ़ैलाव होता है। जिसमें झूठ को छुपने की जगह मिल जाती है सिर्फ़ इस कारण से कि वहाँ आंशिकता है। विशुद्ध झूठ नष्ट हो जाएगा, बच ही नहीं सकता। और विशुद्ध सत्य अनन्त है, लगभग अप्राप्य है, उसकी बात क्या करें, उसे किसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं। झूठ बचा कैसे रह जाता है? झूठ बचा रह जाता है, सच की ताकत पर। झूठ बचा रह जाता है, अपनेआप को आंशिक रूप से क्षीण करके। झूठ और सच के बीच में हमने कहा, जो बड़ा भारी मैदान है, वहाँ पर छुपा रहता है झूठ खरा झूठ, पूरा झूठ। अपनी ही सच्चाई तले ध्वस्त हो जाएगा। झूठ की सच्चाई क्या है, कि वो झूठ है। चूँकि वो झूठ है इसीलिए बच ही नहीं सकता। झूठ का अर्थ ही है वो जो है नहीं, वो बचेगा कैसे।
झूठ जिस क्षण पूर्णरूपेण अपनेआप को अभिव्यक्त कर देता है, अपना परिचय दे देता है, सच से अपना दामन पूरी तरह छुड़ाने का दुस्साहस कर लेता है, वो आखिरी क्षण होता है उसका, फिर वो नहीं बच सकता। हम दोहरा रहे हैं कि झूठ बचा रहता है सच की छाया में। झूठ के पाँव नहीं होते, उसे चलने के लिए सच के पाँव चाहिए। झूठ में प्राण नहीं होते, उसे चलने के लिए सच के प्राण चाहिए। वो चलता है, जीता है, खाता है, साँस लेता है, सच के प्रताप से, सच के सानिध्य में।
तो एक ओर तो दुर्योधन जैसे हैं जिनका झूठ एकदम अनाव्रत है, पूरी तरह खुला, निर्वस्त्र। कोई संशय नहीं, कोई शंका नहीं कि दुर्योधन धर्म की रेखा के किस ओर खड़ा हुआ है। और दूसरे ध्रुव पर है कृष्ण, वहाँ भी कोई संशय नहीं कि वो किस ओर खड़े हुए हैं। लेकिन महाभारत के ज़िम्मेदार वास्तव में वो लोग हैं, जो पूरी तरह अधर्मी नहीं हैं। जो बीच में हैं। जिनका झूठ आंशिक है, जिनके झूठ ने सत्य से आशीर्वाद ले रखा है। धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण, ये हैं वास्तविक रूप से ज़िम्मेदार सारे अधर्म के क्योंकि इनके पास थोड़ा सा सच भी है। इनके पास वो मुट्ठी भर सच है, जो झूठ का प्राणदाता बन जाता है। ये मुट्ठी भर सच बहुत खतरनाक हो जाता है।
ये मुट्ठी भर है न, तो ये झूठ की मुठ्ठी में समा जाता है। हम दोहरा रहे हैं खुले झूठ से ज़्यादा घातक होता है, आंशिक सच! क्योंकि आंशिक सच, झूठ को दीर्घायु बना देता है, वो झूठ को छुपने की जगह दे देता है, वो झूठ को सम्मानजनक बना देता है। अर्जुन भी इस समय आंशिकता के उसी क्षेत्र में मौजूद हैं। बहुत कुछ है प्रथम अध्याय में, अर्जुन के वक्तव्यों में, जिसमें आपको एक उदात्तता दिखाई देगी। एक सूक्ष्मता, निजी स्वार्थ से आगे के कुछ सरोकार। कुछ ऐसी बातें जिन्हें निसन्देह धार्मिक कहा जा सकता है। और उसी धार्मिकता का बल्कि कहिए छद्म धार्मिकता का सहारा लेकर, अर्जुन का मोह अपनेआप को क्रियाशील रख पा रहा है। एक श्लोक नहीं है जिसमें अर्जुन कहते हो कि और कोई बात नहीं है मोह ग्रस्त हूँ। और वीर जब मोहग्रस्त हो जाता है तो उसकी वीरता भी कुन्द पड़ जाती है, कायरता उठने लग जाती है। लेकिन इतनी बातें कह रहे हैं अर्जुन, अभी तक कह आये हैं, आने वाले श्लोकों में भी कहेंगे। आप कहीं नहीं पाएँगे कि अर्जुन स्पष्ट स्वीकार कर रहे हों कि और कुछ नहीं मोह है बस केशव, और उसी मोह के कारण हाथ थरथरा रहे हैं, ऐसे नहीं कह पाते। वो बहुत सारी बातें कहते हैं, कुछ तर्क वो पहले ही दे चुके हैं कुछ तर्क वो आगामी श्लोकों में देंगे।
एक तर्क यहाँ पर भी सुन लीजिए। और ये तर्क पूरी तरह झूठा नहीं है, इसीलिए खतरनाक है। कह रहे हैं, धृतराष्ट्र के ये पुत्र, ये सब तो लोभ में अन्धे हैं। हम इनसे बेहतर है न, तो हम वही काम क्यों करे जो ये कर रहे हैं! अब सुनने में ये बात कितनी ठीक लगती है कि अगर हम लड़ाई करते हैं तो हम तो दुर्योधन के तल पर उतर आये न, हमने और दुर्योधन में अन्तर क्या रहा फिर। वो तो लड़ाई ही व्यर्थ हो गयी। लड़ाई तो धर्म बनाम अधर्म की होती है। और अगर हम दुर्योधन जैसे ही हो गए तो उधर भी अधर्म और इधर भी अधर्म। फिर लड़ाई का औचित्य क्या बचा। बात सुनने में कितनी सार्थक है। इसी बात को काटने के लिए कृष्ण बताएँगे कि लड़ाई तो एक कर्म है। कर्म भले ही दोनों ओर से एक सा दिखता हो, आवश्यक नहीं है कि उसके पीछे कर्ता भी एक समान हो। बाण कौरवों की ओर से भी चलेंगे, बाण पांडवों की ओर से भी चलेंगे लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि कौरव और पांडव एक बराबर हो गए। हाँ, कर्म मात्र को देखोगे तो धोखा हो जाएगा, लगेगा वो जो कर रहे हैं, वही तुम भी तो कर रहे हो, दोनो बराबर हो गए। और अर्जुन का पूरा तर्क इस बात पर आधारित है। अर्जुन कह रहे हैं- अगर लड़ाई कर ली, तो हम उन्हीं जैसे हो जाएँगे न। तो फिर तो लड़ाई करने का सारा औचित्य ही स्वाहा हो गया। नहीं, नहीं।
बाण रावण की ओर से भी चलते हैं, राम की ओर से भी, पर इस कारण दोनों बराबर नहीं हो गए। वो बड़ा स्थूल और अन्धा न्याय होता है जो कर्म मात्र को देखता है। जिनकी भी थोड़ी सुक्ष्म दृष्टि रही है, उन्होंने कर्ता को देखा है। एक बाण चल रहा है अधर्म हेतु, एक चल रहा है धर्म की रक्षा के लिए। दोनों में बहुत अन्तर है। हाँ, ऊपर-ऊपर से वो एक जैसे हैं।
वीर दोनों ओर से हुंकार रहे हैं। और कोई अनाड़ी हो उसको लगेगा हुंकार एक बराबर है। दोनों ही रक्त पिपासु हैं। हुंकारों में बहुत अन्तर है । बाण और बाण में अन्तर है, हुंकार और हुंकार में अन्तर है। एक शंख और दूसरे शंख की नाद में अन्तर है। जो लोग जीवन में पैनी दृष्टि नहीं रखते ये उनका अभिषाप है कि उन्हें अपनेआप को सीमित रखना पड़ता है बस कर्मों के विश्लेषण तक। क्योंकि उनके पास वो चेतना ही नहीं जो प्रकट कर्म के पीछे अप्रकट कर्ता को देख पाए, पहचान पाए, चीन्ह पाए। उनकी हालत ऐसी है कि दो व्यक्ति अस्पताल जाते हों, एक इसलिए कि बीमार है, दूसरा इसलिए कि चिकित्सक है। वो दोनों को एक बराबर मान लेंगे। समझ में आ रही है बात? क्योंकि दोनों का कर्म तो एक जैसा है न। दोनों चल रहे हैं, और दोनों की दिशा भी एक जैसी है। और दोनों ही एक समान हडबड़ी में भी दिख रहे हैं। वो तत्काल घोषित कर देंगे, ये दोनों तो एक जैसे हैं। आपमें और उसमें फ़र्क क्या है। अर्जुन भी उसी कुतर्क से अभी आ रहे हैं। उसी बिन्दु से संचालित हो रहे हैं। और यहाँ पर अर्जुन की बात को काटने के लिए कोई प्रज्ञावान मनुष्य चाहिए, जो की कृष्ण निसन्देह हैं। तो अर्जुन के सब तर्कों का उत्तर आगे आएगा।
देखिये, बात को समझिए।
गीता सांख्ययोग में शुरू के कुछ श्लोकों के बाद से भी आरम्भ हो सकती थी, पहला अध्याय तो पूरा ही अर्जुन के विषाद का निरूपण है और दूसरे अध्याय में भी कुछ आरम्भिक श्लोकों में अर्जुन की ही व्यथा है। कृष्ण की ज्ञान वर्षा तदोपरान्त प्रारम्भ होती है। गीता यदि सिर्फ़ कृष्ण द्वारा प्रदत्त ज्ञान है, तो वो तो दूसरे अध्याय से भी आरम्भ हो सकती थी, वहाँ से नहीं आरम्भ हुई है। मैं पहले अध्याय को और दूसरे अध्याय के आरंभिक श्लोकों को बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ। गीता पर अब मैं अनेकों बार बोल चुका हूँ। मेरा सौभाग्य रहा है। और जितनी बार बोला है मैंने उतनी बार आग्रह करा है कि पहले अर्जुन के एक-एक वक्तव्य और तर्क में अपनेआप को देखिए, नहीं तो कृष्ण की बात आप पर लागू ही नहीं होगी। समझ रहे हैं बात को!
कोई साधारण कृतिकार होता, तो जहाँ से कृष्ण बोले हैं, गीता भी वहीं से शुरू कर देता। वेद व्यास की बात दूसरी है। उन्हें यूँही नहीं वेद व्यास कहा गया! अर्जुन की वृत्ति, अर्जुन की विडम्बना , अर्जुन की किंकर्तव्यविमूढ़ता, हम सबकी है। अर्जुन के तर्कों की जटिलता, अर्जुन का आन्तरिक षड्यन्त्र, हम सबका है। जबतक आपके मन में वो स्थिति नहीं आ जाती, जहाँ आप कहें, अर्जुन ने नहीं कहा, मैंने कहा, तब तक कृष्ण की बात आपको काटेगी नहीं। कृष्ण तो जो कुछ भी कह रहे हैं काटने के लिए कह रहे हैं, वेदान्त की विधि ही काटना है। गीता को गीता ग्रन्थ गीता शास्त्र, गीता उपनिषद भी कहते हैं। वेदान्त के तीन प्रमुख स्तम्भों में से एक है गीता, श्रीमदभगवतगीता। अन्य कई गीताएँ भी हैं, जो वेदान्त में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं, उनमें अग्रणी है भगवतगीता। और वेदान्त की क्या विधि? काटना!
काटे नहीं तो वेदान्त अपना काम नहीं कर सकता और आपको काटा कैसे जाएगा अगर आप अर्जुन नहीं तो। आपको काटा नहीं गया तो गीता आप पर व्यर्थ गई न! आप पढ़ते रहिए, गीता फिर आपके लिए साहित्य बन जाएगी। अच्छी पुस्तक, साहित्य है बढ़िया। कुछ सामान्य ज्ञान की बात है, हो सकता है आपको दो-चार श्लोक भी स्मृतिस्थ हो जाए। कोई पूछे तो आप भी बता दें, जैसे चलता है, यदा यदा हि धर्मस्य, ठीक, बढ़िया! लेकिन आप कटेंगे नहीं, और जो कटा नहीं, वो अपनी ही कैद में रह गया। जब आप कटते हैं तभी आपकी कैद की सलाखें कटती है क्योंकि अपनी कैद आप स्वयं हैं। आप कट ही नहीं सकते अगर आप देखें अर्जुन के वक्तव्यों को और आप चौंक न जाएँ। आप कहें, अर्जुन तो लिखा ही नहीं है, मेरा नाम लिखा हुआ है, अर्जुन कहाँ है। मैं लिखा हुआ हूँ। कौन हूँ मैं? थोड़ा अच्छा, थोड़ा बुरा। बड़ा जटिल हूँ मैं, कुछ कह नहीं सकता कैसा हूँ मैं। मैं इतना अच्छा हूँ, कि मैं कभी पूरी तरह बुरा हो नहीं सकता। और मैं इतना बुरा हूँ कि अपनी बुराई को बचाए रखने के लिए मैं उसमें आंशिक सच्चाई मिला देता हूँ। बताओ मैं अच्छा हूँ कि मैं बुरा हूँ! पता नहीं मैं क्या हूँ! अहम्वृत्ति की यही तो विडम्बना है, कुछ पता नहीं वो क्या है। कह नहीं सकते उसको सत्य से प्रेम है, या प्रचंड घृणा। प्रेम उसे सत्य से इतना है कि वो जो करती है, उसी की खातिर करती है। और घृणा उसे सत्य से इतनी है कि सत्य को देखते ही भाग खड़ी होती है।
ये जो विरोधाभास है, ये जो दो ध्रुवीय द्वैत है, यही मनुष्य की कहानी है, यही पूरा संसार है। अन्यथा जब मैंने गीता पर बोला है तो मैंने कई दफ़े अर्जुन की बड़ी भर्त्सना भी कर दी है। खासतौर पर आने वाले अध्यायों में आप पाएँगे एक जगह तो अर्जुन ये तक कह देते हैं, कृष्ण पर पूरा आक्षेप लगाकर के, कि आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं कृष्ण! अगर आज हम दूसरे अध्याय के कुछ श्लोकों तक प्रगति कर पाए तो वहाँ पाएँगे कि एक जगह पर अर्जुन घोषणा कर देते हैं, मैं युद्ध नहीं लड़ूँगा और धनुष रख ही देते हैं नीचे। सलाह नहीं माँग रहे, कृष्ण को अपना निर्णय सुना रहे हैं। तो जब ऐसे रंग-ढंग देखता हूँ तो अर्जुन की बड़ी भर्त्सना भी करी है मैंने। और कई बार लगता है कि अर्जुन सामान्य मनुष्यों से इतने श्रेष्ठ हैं कि स्तुति योग्य हैं। किसी साधारण व्यक्ति पर तो गीता उतरती ही नहीं। वहाँ हज़ारों-लाखों का जमावड़ा है उनमें अगर कोई एक सुपात्र है गीता के योग्य, तो अर्जुन है। ठीक वैसे जैसे अर्जुन के बारे में एक मत बनाना बड़ा कठिन है उसी तरह से अहम्वृत्ति के बारे में एक बात कहना बड़ा मुश्किल है।
अच्छे-से-अच्छे हैं हम, और बुरे-से-बुरे हैं हम और अच्छे और बुरे एकसाथ हैं हम। ऐसा नहीं है कि एक पल अच्छे हैं और एक पल बुरे हैं, जिस पल आप अच्छे हो रहे हैं, उस पल आप शायद अच्छे हो रहे हैं अपनी बुराई को कहीं-न-कहीं बचाए हुए। और जब आप बहुत बुरे हो रहे हैं तो इसलिए हो रहे हैं क्योंकि आपको अच्छाई चाहिए थी उसके प्रेम में बुरे हो गए। जब आत्मा एकमात्र सत्य है तो जो कुछ भी होगा आत्मा को ही केन्द्र में रखकर होगा न। प्रेम भी आप करोगे तो, उसी से करोगे और घृणा भी करोगे तो, उसी से करोगे। तो ऐसा है जटिल अर्जुन का चरित्र। अर्जुन प्रतिनिधि हैं हम सब के मन के!
तो कुल क्षय से होने वाले दोष को देख सुनकर भी हम लोगों को इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए! इसी आशय के तर्क आगे भी हैं। क्या कह रहे हैं, ‘हमें इस पाप से निवृत होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए?’ विचार, तीन तल हैं, चेतना के हमारी। आत्मा, शुद्धतम फिर वृत्ति उससे ऊपर और उससे ऊपर विचार, और विचार का ही एक टुकड़ा एक अंश होता है — ‘तर्क’। इन तीन तलों के बारे में एक बात ये कि इनमें से कोई भी तल अपने से पीछे वाले तल को जीत नहीं सकता। विचार से पीछे वृत्ति होती है, तो वृत्ति हमेशा विचार पर भारी पड़ेगी। विचार उठता ही वृत्ति से है, हालांकि विचार का दावा ये होता है कि वो स्वतन्त्र है, कि वो सत्यनिष्ठ है, लेकिन विचार कितना भी दावा कर ले कि वो स्वतन्त्र और सत्यनिष्ठ है, वो उठता सदा वृत्ति से ही है। और विचार में साधारणतया ये क्षमता नहीं होती कि वो पीछे मुड़कर देख पाए कि वो कहाँ से आ रहा है। विचार आगे देख रहा होता है। किसको? विचार के आगे क्या है? संसार! विचार संसार को देख रहा है और विचार को पता ही नहीं कि उसके पीछे क्या बैठी हुई है, जहाँ से उसका उद्गम है, वृत्ति बैठी हुई है। सिर्फ़ एक विशेष प्रकार का विचार होता है जो पीछे देख सकता है, जो आत्म गमन कर सकता है उसको “आत्मविचार” कहते हैं। पर उसके लिए बड़ी सत्यनिष्ठा और ध्यान चाहिए।
साधारण विचार मुड़कर के स्वयं को नहीं देख सकता। विचार के पास दर्पण जैसी कोई सुविधा नहीं होती कि वो देख पाए कि वो कौन है, कहाँ से आ रहा है, नहीं! विचार के पास बस आँखें होती हैं जो आगे देख रही होती है दर्पण नहीं होता जो पीछे को देख पाए। तो विचार हमेशा वृत्ति का अनुगामी होता है। हमको लगता ऐसा रहता है कि हमने विचार किया, हमने विचार करा नहीं, हमारी वृति ने हममें एक विचार पैदा कर दिया। हमें नहीं पता होता हमारा विचार कहाँ से आ रहा है, कोई नहीं जानता हमारा विचार कहाँ से आया बस एक विचार उठ आता है न। जब विचार उठ आता है, तो वो आपको फिर किसी भी दिशा में ले जाता है। विचार आपको उठा कर किसी भी दिशा में ले जाएगा लेकिन स्वयं विचार किस दिशा से आ रहा है ये आपको कभी पता नहीं लगेगा। क्या ये देखा है आपने? आप बैठे होते हैं एक विचार आ जाता है, आपको कुछ पता भी है वो विचार कहाँ से आया? नहीं पता न, बस आ गया। वो वृत्ति से आता है, अहम्वृत्ति से आता है। और अहम्वृत्ति के पीछे पीछे उसकी छोटी-छोटी अनुगामी वृत्तियाँ होती हैं, जैसे एक पेड़ हो उसकी कई शाखाएँ हो, वहाँ से आता है विचार।
तो विचार हमेशा वृत्ति के प्रयोजनों को पूरा करने के लिए आता है। अब यहाँ पर अर्जुन की वृत्ति हो रही है मोह की। तो उसको विचार ये आ रहा है कि देखो अगर धृतराष्ट्र के पुत्रों से हमने लड़ाई कर ली तो हम भी उन्हीं जैसे हो गए न और ये बात तो अच्छी नहीं है। ले-देकर के विचार कह रहा है लड़ाई मत करो। विचार क्या कह रहा है, लड़ाई मत करो और लड़ाई न करने के पक्ष में एक कारण बता दिया विचार ने। क्या कारण? कि अगर तुम उनसे लड़े तो तुम उन बराबर हो जाओगे और ये तो कोई बात नहीं। लेकिन वास्तविक बात ये है कि न लड़ने की भावना, प्रेरणा उठ रही है मोहवृत्ति से। मोहवृत्ति ने एक बुद्धिमत्तापूर्ण विचार को जन्म दिया है जो कह रहा है कि बात मोह की नहीं है, बात अपने स्तर और स्थान की है। दुर्योधन एक निम्न चेतना का व्यक्ति है, जो काम वो कर रहा है अगर हमने भी वही कर दिया तो हम उसी के स्तर के हो जाएँगे तो इसलिए हमें लड़ाई नहीं करनी चाहिए। आप देख रहे हैं आदमी के अन्तर्जगत की जटिलता को। आपके उद्देश्य पहले बनते हैं और फिर उन उद्देश्यों को सत्यापित करने के लिए, वैध ठहराने के लिए, आप किसी तर्क का निर्माण कर लेते हैं। और ये बात स्वयं आपको भी नहीं पता होती। और विरल है वो चेतना जो अपने तर्कों को काट कर अपने उद्देश्यों पर सीधे-सीधे दृष्टिपात कर पाए।
इसीलिए मैं बोला करता हूँ कि आपने कुछ करा और आपने जो कुछ करा, वो किस खातिर करा, ये जानने के लिए कई बार अपने कर्म का परिणाम देख लिया करिये। परिणाम, बहुधा अनायास नहीं होता, वास्तव में वही परिणाम आपको चाहिए था इसलिए आपने जो करा सो करा। बस वो जो परिणाम है, वो आपकी नैतिकता के मापदंडों पर खरा नहीं उतरता तो आप स्वयं को ये बता नहीं पा रहे थे कि आप इस प्रकार के परिणाम के इच्छुक हैं, और इसलिए आप ऐसा कर्म कर रहे हैं। तो आपने कर्म करा लेकिन परिणाम को अपनेआप को ही यूँ प्रस्तुत करा कि जैसे सांयोगिक हो, अकस्मात परिणाम सामने आ गया। कोई परिणाम अकस्मात सामने नहीं आता, वो परिणाम वही है जिसकी आपकी चेष्टा थी क्योंकि अहम्वृत्ति तो भोगधर्मा होती है वो जो कुछ करती है परिणाम के लालच में ही करती है। आपके कर्मों का परिणाम क्या आ रहा है ज़रा उस पर गौर किया करिए! आप वही चाहते थे और उसी खातिर जो करा सो करा। समझ में आ रही है बात।
कुछ भी यूँही नहीं होता। या कह लीजिए, अधिकांश जो आपके साथ होता है उसमें आपकी सहमति और आपकी ही पूरी तैयारी सम्मिलित होती है। अर्जुन हैं आप! लड़ना मोहवश नहीं है, लेकिन तर्क दे रहे हैं धार्मिकता से परिपूर्ण। लड़ाई न करने के पीछे असली कारण क्या है — ‘मोह!’ लेकिन दर्शा यूँ रहे हैं जैसे लड़ाई न करने के पीछे असली कारण है —‘धर्म!’ सीधे कहना कि मोहग्रस्त हूँ बड़ी लज्जा की बात हो जाती। और अगर मान ही लिया कि मोहग्रस्त हूँ तो मोह से आगे जाना पड़ता, मोह का उल्लंघन करना पड़ता। तो इसीलिए मोह की बात ही नहीं करेंगे। हम सब बहुत चतुर लोग हैं। हम बात किसी और चीज की करेंगे । कि देखो बात मोह की नहीं है, बात सिद्धान्तों की है, बात सिद्धान्तों की है। हमारे सारे सिद्धान्त हमारी विचारधाराएँ, हमारे सारे तर्क बस हमारी वृत्तियों के ऊपर का एक नकाब होते हैं। वृत्ति बड़ी गड़बड़ चीज़ है। वो विचार का संचालन करती है अभी हमने कहा। विचार कर-कर के आप वृत्ति तक पहुँच भी नहीं सकते। वृत्ति भारी पड़ती है विचार पर। तो वृत्ति पर कौन भारी पड़ेगा? —आत्मा क्योंकि हमने कहा चेतना के तीन तल हैं, जिसमें से सबसे मूल है आत्मा। तो अपनी वृत्ति को जिनको जीतना हो, उन्हें आत्मस्थ होना पड़ेगा। आत्मस्थ कैसे होते हैं? अहंकार का शोधन कर-कर के। बुद्धजीवियों का ऐसा विचार रहता है कि उनका विचार उनको सत्य तक ले आ देगा, नहीं। विचार तो वृत्ति का ही अवरोध पार नहीं कर पाएगा, बहुत आगे जाएगा कैसे। विचार तो चलेगा ही वृत्ति की दिखाई दिशा पर। ऊपर कैसे उठेगा आसमान की ओर, वृत्ति को तो जीत सकता है सिर्फ़ आत्मा की ओर प्रेम। ये बात ध्यान रखने की है, जो लोग सोचते-विचारते बहुत हों वो पहली बात ये ख्याल रखें कि सोच-सोच कर सच तक नहीं पहुँचा जा सकता। और दूसरी बात वो ये ख्याल रखें कि अगर सोचना ही है तो ये भी सोचो कि सोचने वाला कौन है।
जो पहली बात मैंने बोली वो उनको विनम्रता में रखेगी और जो दूसरी बात मैंने बोली, उसी को आत्मविचार कहते हैं। इतना ही सोचते हो तो ये भी देख लो कि सोचने वाला कौन है, कहाँ से आया ये सोचने वाला, किस बिन्दु से उठ रहा है विचार। विचार जैसे ही पलटकर के अपने स्रोत को देखता है, अनहोनी घट जाती है। विचार का रूपान्तरण बल्कि परिमार्जन हो जाता है। विचार का केन्द्र ही बदलने लग जाता है। खट से कुछ, जैसे बिजली जल गई। उतना ही अन्तर कि जैसे की आप एक सिनेमा हॉल में बैठे हैं और सामने स्क्रीन को देख रहे हैं। वहाँ पर क्या चल रहा है, एकदम धूम-धड़ाका, प्रकाश और थोड़ा मुड़ कर पीछे की ओर देख लें, वहाँ क्या है अन्धेरा-ही-अन्धेरा और प्रोजेक्टर, प्रक्षेपक। पूरा माहौल बदल जाएगा कि नहीं! आप देख रहे थे सामने और खोए हुए थे, और बिलकुल सामने रंगा रंग नज़ारे हैं एकदम। और अचानक कुछ हुआ और ऐसे(पीछे मुड़कर देखते हुए) पीछे मुड़ कर देखने लगे, भीतरी माहौल बदल जाएगा, नहीं बदल जाएगा। ये करने का अभ्यास करना होता है। ये सब कहाँ से आ रहा है, ये सब जो है, ये कहाँ से आ रहा है थोड़ा देखूँ और जैसे ही वो प्रोजेक्टर दिखाई देता है, वैसे ही जादू टूट जाता है। ये प्रयोग करके देख लीजिएगा खासतौर पर जिन क्षणों में पर्दे का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा हो, पीछे मुड़ कर देखिएगा जादू उतर जाएगा। थोड़ा झुंझलाएँगे ज़रूर, आप कहेंगे देखो पैसा बर्बाद कर दिया एकदम मज़ा आ रहा था। और सब उतर गया फ़ितूर, लेकिन कुछ बात पता चल जाएगी। दो सौ रुपये का जो टिकट है उससे कहीं ज़्यादा कुछ वसूल हो जाएगा । समझ में आ रही है बात।
विचार के गुलाम मत बन जाओ। श्रीकृष्ण की निकटता सीखनी है अर्जुन से। अर्जुन के भीतर का कोहरा उधार नहीं ले लेना है। और हमारी हालत ज़बरदस्त है। हमारे पास वो सबकुछ है जो अर्जुन के पास है। बस एक चीज़ नहीं है। हम हर मायने में अर्जुन है। अर्जुन का पूरा नर्क हमारे पास है। बस अर्जुन की एक चीज़ नहीं है हमारे पास, क्या? कृष्ण! क्या खूब हैं हम। जो कुछ भी अर्जुन का ऐसा है कि त्याज्य, भ्रमित, वो हममें और अर्जुन में साझा है। बस जो एक चीज़ है जो अर्जुन को बचा लेती है उसका कहीं अता-पता नहीं हमारे जीवन में, कृष्ण। जो कुछ अर्जुन के अन्तस में है, वो आप की विवशता है, विवशता समझी जा सकती है क्योंकि उसको हम गर्भ से लेकर पैदा होते हैं।
ये अर्जुन के मन में जो कोहरा छाया हुआ है, वो अर्जुन भर का नहीं है। वो मनुष्य मात्र का है। वो सबका है। और वो सब हम लोग लेकर पैदा होते हैं। तो उसकी क्षमा है, हम विवश हैं, हम क्या करें। कृष्ण विवशता नहीं होते, कृष्ण चुनाव होते हैं। कृष्ण मजबूरी नहीं होते। कृष्ण आपकी स्वतन्त्रता के प्रतीक हैं। आपके पास ये विकल्प था स्वतन्त्र निर्णय करने का अवसर था कि आप कृष्ण को अपना बना लें, कृष्ण की निकटता को चुन लें। आपने चुना या नहीं चुना आप जानिए। अर्जुन जैसे आप हैं। ये बात तो स्पष्ट है, सर्वमान्य है, निर्विवाद है। एक तरह से आप निर्विकल्प हैं अर्जुन होने में। सब अर्जुन पैदा हुए हैं। हाँ, किसी अर्जुन का नाम अर्जुन है, किसी अर्जुन का कोई और नाम हो सकता है, सब अर्जुन है। अर्जुन पैदा होने के बाद आपको तय करना होता है कि कृष्ण का सामीप्य चाहिए या नहीं। तो आपको चुनना होता है। जिन्होंने चुन लिया उनके लिए पूरी गीता है, जिन्होंने नहीं चुना उनके लिए बस पहला अध्याय। उनकी गीता पहले अध्याय पर शुरू होकर खत्म हो जाती है। उनकी गीता एक बन्द कमरा है, जहाँ बस उनके अपने अश्रुरंजित प्रलाप की गूँज भर है। कोई उत्तर नहीं आता। कृष्ण साथ हो तब तो आपकी दलीलों का, आपके वक्तव्यों का कोई उत्तर आएगा न। जिनके पास कृष्ण नहीं हैं, उनके पास बस अपनी हस्ती है और अपनी हस्ती एक बन्द कमरे जैसी होती है, गूँजता हुआ बन्द कमरा। जहाँ आप जैसे हैं, आपको चारों दिशाओं से उसी की अनुगूँज सुनाई देती है बस। आप अपना सत्य स्वयं बन जाते हैं, क्योंकि आपसे जो अलग है वो तो आपके उस बन्द कमरे में है ही नहीं न। तो आम आदमी की गीता में कितने अध्याय? बस पहला! क्योंकि दूसरे से तो कृष्ण आ जाते हैं। कृष्ण तो हैं ही नहीं हमारे पास। हाँ, अर्जुन हम सब हैं। तो पहले अध्याय में, जो कलपना रोना पीटना चल रहा है, वो हम सब के पास है। इस वीभत्स स्थिति का थोड़ा चिन्तन करिए, ज़रा कल्पना ज़रा संज्ञान लीजिये। हमारी व्यक्तिग गीता शुरू होती है हमारे छाती पीटने से और समाप्त हो जाती है हमारे छाती पीटने पर। दुख में आरम्भ दुख में अन्त।
दुख के बन्द वरतुल से बाहर कहीं कोई सत्य नहीं हमारे लिए। हमारे ही अस्तित्व की चार दीवारें जैसे हमारा एकमात्र सत्य। हमारे ही वृत्तिगत विचारों की अनुगूँज जैसे हमारे सारे संवाद। कैसी प्रगति, कैसा ज्ञान और कैसी मुक्ति ये है आम मनुष्य का जीवन, एक अध्यायी। कृष्ण निकट हों तो बाकी सत्रह खुलें। कैसे खुलेंगे बाकी सत्रह, बोलो तो। सबके जीवन में मचा हुआ है कोलाहल, जमा हुआ है कुरुक्षेत्र, ठीक! सबके पास अपने-अपने युद्ध हैं और अपने-अपने तर्क हैं। अपनी-अपनी जटिलताएँ हैं, अपने-अपने बन्धन हैं और उन बन्धनों में बने रहने को जायज़ ठहराते अपने-अपने तर्क। कौन आकर आपको बताए कि आपके सारे तर्क झूठे हैं। कौन आकर आपको बताए कि आपके सब कर्मों के आधार उथले हैं। कौन आपको आकर बताए कि जीवन की इमारत ही आपने जिस नींव पर खड़ी करी है, कोई गहराई नहीं उसमें। बड़ी सांकेतिक है ये बात कि श्रीमदभगवतगीता में संजय बोल लेते हैं, धृतराष्ट्र बोल लेते हैं, दुर्योधन बोल लेते हैं, अर्जुन खूब बोल लेते हैं, तब श्रीकृष्ण की बारी आती है। हमारे जीवन में भी यही सब मौजूद हैं और यही बोले जा रहे हैं, बोले जा रहे हैं और ये इतना बोले जा रहे हैं, इतना बोले जा रहे हैं कि बेचारे कृष्ण की बारी कभी आती ही नहीं। पूरा जीवन बीत जाता है इन्हीं की बोल-बातचीत में।
बोले ही जा रहे हैं, बोले ही जा रहे हैं। कितने किरदार, दुर्योधन ने तो नाम गिना दिए उधर इतने ख़ड़े हैं इधर इतने ख़ड़े हैं नाम उधर इतने और इतने । और हर किरदार अपनेआप में एक उपन्यास है। एक महाकाव्य है, सबका जीवन। मैं छोटा था, तो घर में महाभारत पर आधारित उपन्यासों की एक श्रृंखला होती थी, रामकुमार भ्रमर द्वारा रचित। अभी कुछ दिनों पहले मैंने देखा तो मेरे संग्रहालय में उसमें से एक मिल गया। उन सबकी विशेषता ये थी कि सबके नाम “अ” से आरम्भ होते थे। तो कर्ण पर आधारित जो था, उसका नाम था — ‘अधिकार’ वो अभी भी मेरे पास, मेरे कमरे में रखा है। एक-एक पात्र का जीवन अपनेआप में एक महागाथा है। उससे पार कैसे पाओगे। तुम्हें कितने साल जीना है। इतने सारे नाम और सब नाम अपने पीछे एक पूरी महागाथा रखे हुए हैं। हर नाम अपनेआप में एक संसार है। तुम कैसे उसके पार निकल जाओगे। तुम्हारे पास साठ-अस्सी साल है कुल। साठ-अस्सी साल अपनी गाथा से पार पाने के लिए पूरे नहीं पड़ते, यहाँ तो इतनी सारी गाथाएँ हैं।
कृष्ण प्रतीक्षा करते रह जाते हैं, ये गाथाएँ कब समाप्त होंगी, मेरा नम्बर कब आयेगा। अर्जुन सौभाग्यशाली हैं कि कृष्ण से एक बड़ी भौतिक निकटता थी। सूक्ष्म नहीं, पारमार्थिक नहीं, ‘भौतिक’ सामने खड़े हैं कृष्ण, बस इसी बात ने बचा लिया। सामने खड़े हैं। हमें गीता में ऐसा पढ़ने को नहीं मिलता। पर अगर आपके पास ज़रा भी रसपूर्ण मन हैं, यदि थोड़े भी कवि हृदय हैं आप तो आप देख पा रहे होंगे कि कैसे कृष्ण की आँखें भी बात कर रही होंगी, और वो बातें श्लोकों में लिखित नहीं है। कुछ कह रहे हैं अर्जुन और अर्जुन की बदमाशी को सम कर के कृष्ण के होठ ज़रा से कँपे और आँखें उनकी मुस्करा दी, ये बात किसी श्लोक में वर्णित नहीं है। पर कृष्ण के अधर यदि काँपे न होते, कृष्ण के नयन यदि मुस्कुराए न होते तो अर्जुन को वो बात समझ में भी नहीं आई होती जो गीता में समझ में आ गई है। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि भौतिक निकटता बहुत ज़रूरी है।
अन्यथा श्लोक तो किसी पुस्तक में भी लिखे जा सकते थे। सही बात तो ये है कि गीता उपनिषदों का अमृतभर है, कोई नया सिद्धान्त नहीं प्रतिपादित है गीता में। कृष्ण अर्जुन को ये भी कह सकते थे कि चलो ऐसा करते हैं कि छान्दोग्य उपनिषद् का पाठ कर लेते हैं और कर लेते हैं माने क्या, दोनों को थोड़ी करना है, मैं तो कृष्ण हूँ, मैं क्या करूँगा तुम कर लो। मैं तुम्हें एक सूची दिए देता हूँ उपनिषदों की, शाम तक पढ़ कर आ जाना। और प्राय: सभी उपनिषद गीता पूर्व हैं। कुछ हैं उपनिषद बाद के भी। जो ज़्यादा हालियाँ हैं, वरना तो प्रमुख उपनिषद अधिकांशत पहले के हैं। तो कह सकते थे कि कठकेन, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, प्रश्नोपनिषद, जाओ अर्जुन पढ़कर के आ जाओ।
बात बनती ही नहीं, सम्भावना तो ये है कि अर्जुन ने उन उपनिषदों का पठन पहले ही कर रखा है। राजपुत्र थे उनकी शिक्षा दीक्षा में तो कोई कमी रखी नहीं गई थी। अर्जुन ने ही नहीं कर रखा, दुर्योधन ने भी कर रखा है।
अब ऐसे में वो अर्जुन को बोलते कि जाओ पाठ करके आओ क्या लाभ होता। कृष्ण को स्वयं एक उपनिषद बनना पड़ा यही बात बचा ले गई अर्जुन को नहीं तो हमारे ही जीवन में जो हम मौजूद हैं, और जो हमारे मौजूद हैं, उनकी महागाथाएँ हमको कभी मौका नहीं देने वाली, कि हम कृष्ण की बारी आने दें। कृष्ण की बारी कभी आएगी नहीं। अर्जुन के भी जीवन में किन की बारी आई हुई है। अरे वो भाई खड़ा है, गुरु खड़े हैं। वो मातुल खड़े हैं जीजा भी हैं मेरे, जयद्रथ बहनोई लगता है। इन सबके चक्करों के बाद कृष्ण की बारी आने की कोईसम्भावना? आपके जीवन में भी ये सब मौजूद है, ये कृष्ण की बारी कभी नहीं आने देंगे। अर्जुन सौभाग्यशाली है कि कृष्ण सामने खड़े हैं, कृष्ण की बारी आई नहीं, कृष्ण ने झपट ली अपनी बारी, नहीं तो अर्जुन ने तो निर्णय कर लिया था धनुष नीचे रख दिया था मैं नहीं लड़ रहा। और कृष्ण से अनुमति नहीं माँग रहे थे न लड़ने की। कृष्ण को अपना निर्णय घोषित कर रहे थे, सुना रहे थे मैं नहीं लड़ रहा, मैंने रख दिया। कृष्ण ने तो एक प्रकार का विद्रोह करा है ।
कृष्ण ने तो हारी हुई बाज़ी पलट दी है नहीं तो अर्जुन ने तो बाज़ी का निर्णय कर ही दिया था अपनी तरफ़ से। हम सब अपनी बाज़ी का निर्णय कर चुके हैं अपनी तरफ़ से। और हम स्वयं अपनी बाज़ी नहीं पलट पाएँगे समझिए इस बात को। हम सबको कृष्ण चाहिए जीवन में और ठीक अपने सामने चाहिए। ठीक उतने सामने चाहिए, जितना सामने सारथि होता है रथी के। रथी और सारथी में कितनी दूरी होती है, बस उतनी ही दूरी पर कृष्ण आपको चाहएँ। और नहीं है तो बाज़ी का फ़ैसला अग्रिम रूप से हो चुका है । सिद्धान्त की बात ये है कि मनुष्य मुक्ति के लिए पैदा होता है, व्यवहार की बात ये है कि मुक्ति पाते तो किसी को देखा गया नहीं। सिद्धान्त आपको बोलता है कि मनुष्य योनि आपको मिली है ताकि आप मुक्ति प्राप्त कर सके, व्यवहार की बात ये है कि लाखों-करोड़ों में कोई एक होता है जो मुक्ति पाता है। मनुष्य जन्म तो दासता के लिए जीवन भर बन्धन उठाने के लिए मिलता है।
अर्जुन एक विरल उदाहरण है एक विशिष्ट अपवाद का। और इसीलिए वो हमारे काम के हैं। क्योंकि हम सबको उसी अपवाद बनने की लालसा है। उसी अपवाद की तलाश है हम सबको। पैदा तो हुए हैं बन्धनग्रस्त रहने के लिए। क्या मुक्ति मिल सकती है! आरम्भ में अर्जुन बिलकुल हमारे जैसे हैं फिर ऐसा क्या हो जाता है कि अर्जुन की भाग्य रेखा बिलकुल अलग दिशा में मुड़ जाती है। हमसे बिलकुल भिन्न किसी ओर निकल जाते हैं अर्जुन। ऐसा क्या होता है? ऐसा जो भी होता है, अर्जुन के करे नहीं होता है। ऐसा जो भी होता है, कृष्ण के करे होता है। अर्जुन ने बस एक काम करा है, जब कृष्ण बोल रहे थे तो रथ से कूद के भाग नहीं गए। अर्जुन को कुल श्रेय बस इस बात का है।
नहीं तो कृष्ण जो बोल रहे हैं वो बात स्वीकार करने की ही नहीं, ग्रहण करने की ही नहीं, ग्रहण कर भी लो तो पचने की नहीं। कृष्ण ने जो बातें गीता में कहीं है वो आप एक आम आदमी से जा कर के बोलिए, बस ये मत बताइए कि कृष्ण की बात है, वो आपको पीट-पाट बराबर कर देगा। वो तो कृष्ण को परम्परागत रूप से हम पूजते हैं, तो इसलिए किसी प्रकार आम आदमी गीता को बर्दाश्त कर लेता है। नहीं तो सच्चाई तो ये है कि हमारा आम जीवन, गीता के ज्ञान के बिलकुल विपरीत चलता है।
और ऐसे में यदि कोई आपको बताए कि तुम ये ये चीजें गलत कर रहे हो बस ये न बताये कि ये मैं तुम्हें बता रहा हूँ, ये बात गीता से आ रही है तो आप उस व्यक्ति का पुरज़ोर विरोध करेंगे। हाँ यही वो बोल दे कि मैं गीता का ज्ञान दे रहा हूँ तो आप नैतिकता के मारे और धार्मिकता के मारे विरोध नहीं कर पाते, खुले तौर पर विरोध नहीं कर पाते, भीतर-ही-भीतर तो विरोध रहता ही है। विरोध न रहता तो इतनी गीताएँ आईं और गईं हमारा जीवन वैसे ही कैसे चल रहा होता जैसे चल रहा है। हमने खूब विरोध किया है गीताओं का।
समझ में आ रही है बात कुछ।
उस क्षण को अनुभव करिए, उस क्षण में पहुँचिए, कृष्ण कुछ ऐसा कह रहे हैं जो बिलकुल अस्वीकार्य है। और यही वो क्षण है जिसने अर्जुन को अमर कर दिया उस क्षण में अर्जुन कृष्ण से विमुख नहीं हुए। अर्जुन के भीतर से प्रबल आवेग उठ रहा है कृष्ण तुम मुझे पित्रद्रोही, भातृद्रोही, कुलद्रोही बनाओगे। तुम मुझसे मेरे ही वंश का नाश कराओगे। ये ज्वालामुखी का लावा उठ रहा है भीतर से। आग लग गयी है अर्जुन की काया में क्योंकि अर्जुन की काया है तो कुरुवंश की काया ही न। वास्तव में जब काया की बात आती है तो अर्जुन की काया और दुर्योधन की काया में बहुत समानता है। कृष्ण की काया तो ज़रा दूर की है। और काया अपनेआप को बचाने के लिए बड़ी उद्यत रहती है। जानवरों में भी आप देखेंगे तो आमतौर पर कोई भी पशु अपनी ही प्रजाति का शिकार नहीं करता है। काया बड़ा ध्यान रखती है कि जो मेरे जैसे हैं, उनको न मारूँ और कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से। तुम इन्हीं को मारो। अर्जुन के भीतर से विरोध का आक्रोश का ज्वालामुखी फ़ूटा है। और मैं कह रहा हूँ अर्जुन ने उस क्षण में न भागने का जो निर्णय किया है उसी ने अर्जुन को अमर कर दिया धर्म के सकल क्षेत्र में अर्जुन का कुल योगदान यही है कि उस क्षण को झेल गए अर्जुन जिस क्षण रोआँ-रोआँ जलकर चिल्लाकर कह रहा था चले जाओ यहाँ से भाग जाओ यहाँ से मत सुनो इस व्यक्ति की। ये व्यक्ति ठीक नहीं है। ये तुम से कुछ ऐसा करा रहा है जो बहुत घातक होगा।
इसका क्या जाता है, घर तो तुम्हारा है। वो भाई तुम्हारे हैं, वो गुरु तुम्हारे हैं। वो पितामह तुम्हारे हैं। इसका क्या जाता है। और चौंकिएगा नहीं भीतर जो वृत्ति बैठी है वो पाशविक होती है तर्क वो ऐसे ही देती है। ऐसे तर्क आपने पहले कभी सुने नहीं क्या! ऐसे तर्क आपने अपने जीवन में नहीं सुने क्या? अपने घर में नहीं सुने क्या? आपमें और अर्जुन में अन्तर बस ये कि आप इन तर्कों के आगे घुटना टेक देते हैं, अर्जुन खड़े रहे! अर्जुन गिरे नहीं बस इतना कर दिया। और अध्यात्म आपसे बस कुल इतनी ही माँग भी रखता है, जब सामने आ जाए वो खास। जब क्षण छा जाए वो खास, बस भाग मत जाना, भाग मत जाना। हम कहते है कि हम उस क्षण को आने का मौका ही नहीं देंगे, भागने की नौबत ही नहीं आने देंगे। भागने की नौबत तब आये न जब पहले कृष्ण सामने खड़े होकर के हमें ज्ञान दे रहे हों। हम ऐसी स्थिति ही नहीं आने देंगे कि हमारे साथ ये भयंकर दुर्घटना घटे। हम कृष्ण को अपने सामने खड़े होने का मौका ही नहीं देंगे। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। न होंगे कृष्ण, न आयेगी गीता। जब गीता आएगी ही नहीं तो भगने-भागने की कोई बात ही नहीं।
पहली बात, अर्जुन हो ही। दूसरी बात, अपने जीवन का सर्वस्व भी आहूति देकर यदि कृष्ण के सामने खड़े हो सकते हो तो हो जाओ। तीसरी बात, सिर्फ़ खड़े होना पर्याप्त नहीं है। जब गीता बहनी शुरू होगी तो तुम्हारे भीतर से भी आवाज यही उठेगी कि बेटा तुम भी बह लो, बह मत जाना। जब गीता बरसे तो खड़े रहना। वृत्ति की सुरक्षा छतरी मत खोल लेना। अपनेआप को भीगने देना। जितना भीगोगे उतना गलोगे, जितना गलोगे उतना तरोगे।
अर्जुन उवाच
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोSभिभवत्युत।।
“कुल के नाश से चले आ रहे कुल के धर्म नष्ट हो जाते हैं। और कुल धर्म के नष्ट होने से पाप समस्त कुल को दबा लेता है।“
श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १, श्लोक ४०
तो अर्जुन के अनुसार उन्हें युद्ध इसलिए नहीं करना है, क्योंकि उन्हें कुल के धर्म की बड़ी चिंता है। कुल का धर्म बचाना है। कुल धर्म नष्ट हो गया तो पाप सारे कुल को दबा लेगा। तो सार्वजनिक हित में अर्जुन कह रहे हैं कि मुझे युद्ध नहीं करना है! नहीं नहीं, मेरे मोह इत्यादि की कोई बात ही नहीं है। मैं तो एक वीर निरपेक्ष निस्पृह क्षत्रिय योद्धा हूँ, मोह इत्यादि तो मुझे छू नहीं जाते। वो तो बात यहाँ कुल धर्म की है, मैं इसलिए युद्ध नहीं करना चाहता। बड़ी गम्भीरता से, बड़ी निष्पक्षता से मैं आपके सामने एक संवेदनशील मुद्दा रख रहा हूँ, कृष्ण! भावुकता की वगैरह कोई बात नहीं है। न मुझे कोई भाव है, न मुझे कोई मोह है। मैं तो एक गम्भीर व्यस्क की भान्ति कुल के लाभ की बात कर रहा हूँ। जैसे हम सब गम्भीर व्यस्क होते हैं और बड़ी बुद्धितापूर्ण और परिपक्व बातें किया करते हैं। ऐसा है वैसा है बस इतनी सी बात है कि हमारी सब परिपक्व और गम्भीर बातों के पीछे हमारी बचकानी अधपकी वृत्ति छुपी होती है। थोड़ी देर पहले क्या कर रहे थे सारे विचार कहाँ से आते हैं वृत्ति से आते हैं।
विचारों ने गम्भीरता का चोला पहन रखा होता है, उनका व्यवहार ऐसा होता है उनका व्यक्तित्व ऐसा होता है उनका चेहरा ऐसा होता है कि लगता है कि, कोई गहरी बात, कोई पकी हुई बात। जबकि उनके स्रोत में क्या होती है? कोई बालक वृत्ति, मेरा सेब छिन गया, मुझे फलाने की शकल नहीं पसन्द आ रही, मुझे डर लग रहा है मुझे अँधेरे में बन्द कर देंगे, मुझे डर लग रहा है मुझे अकेला छोड़ देंगे। इस तरीके की बालक जैसी या पशु जैसी वृत्तियाँ और इन वृत्तियों से उठते हैं बड़े-बड़े गम्भीर विचार। विचार, जो सम्मान की माँग करते हैं, कहते हैं, देखो, हम गहरे हैं हमें सम्मान दो ज़रा, हमारी बौद्धिकता को नमन करो ज़रा। बुद्धि तो सेवक की भी सेवक होती है। आत्मा की दासी वृत्ति, वृत्ति की दासी बुद्धि। वृत्ति को क्यों तुम अपनी स्वामिनी बना रहे हो, बुद्धि को। अभी आगे और धुरन्धर तर्क आने वाले हैं, सीटबेल्ट बाँध लें।
अधर्माभिभवत्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:। स्त्रीषु दुष्टासु वारशने जायते वर्ण सङ्कर:।।
“हे कृष्ण! कुल में अधर्म का प्रभाव होने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने से वर्ण संकर संतान पैदा होती है।“
श्रीमद्भागवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ४१)
तो अर्जुन कह रहे हैं कि देखिये असली बात ये है कि मुझे न राज्य की स्त्रियों की बड़ी चिंता है, मैं इसलिए लड़ाई नहीं करना चाहता। बेचारी स्त्रियाँ दूषित हो जाएँगी। नहीं लड़ाई तो मैं करलूँ, आप बोलिए अभी एक-एक बाण और इनमें से एक-एक का नाम लिखा हुआ है और मेरे एक बाण से ऊपर की किसी की हस्ती नहीं इनकी। एक बाण में भीष्म, एक में कर्ण एक में द्रोण, सब निपटा दूँगा अभी। वो तो मैं ज़रा गम्भीर किस्म का आदमी हूँ।
ऊँचे विचारों वाला चिन्तक हूँ, दूरदर्शिता पूर्ण आगे की सोच रखता हूँ। तो अभी-अभी मैंने आगे की सोची और दिखाई दिया कि हमारी बेचारी स्त्रियों का क्या होगा। तो इसलिए मुझे लग रहा है कृष्ण कि हमें लड़ाई नहीं करनी चाहिए। काश की इस वक्त हम देख पाते हैं कृष्ण का चेहरा, जब अर्जुन उनको समझा रहे हैं कि वर्णसंकर पैदा हो जाएगा। वर्णसंकर जानते हैं क्या होता है? कि माने जितने क्षत्रिय हैं वो तो यहाँ आकर खड़े हो गए हैं और ये सब आपस में लड़ के जाएँगे मर, तो क्षत्रियों की जो पत्नियाँ होंगी या क्षत्रियों में जो स्त्रियाँ होंगी, वो सब अन्य वर्णों में विवाह कर लेंगे। तो वर्णसंकर पैदा होगा और वर्णसंकर बडी गडबड चीज होता है। क्या पहुँचा हुआ तर्क मारा है।
आप मुस्करा रहे हैं, सोचिए कृष्ण क्या कर रहे होंगे। बड़ी मुश्किल से तो हँसी रोकी होगी अपनी ,उस अति GAMBHEERक्षण में भी भीतर से अट्ठास लगभग फ़ूट ही आया होगा। कि वाह बेटा मुझे ही चला रहे हो। स्त्रियों की चिन्ता, कुल के हित की इतनी बात। वर्णों का तुम इतना खयाल करने लग गए, तुम्हारे पूरे जीवन में तो हमें वर्णवाद कहीं ज़्यादा दिखाई नहीं देता अर्जुन। अचानक से तुम्हें क्षत्रियों की स्त्रियों की वर्णरक्षा की इतनी सुध आ गई। सब कुछ बोल रहे हो। न जाने कहाँ-कहाँ से तर्क गढ़ कर ला रहे हो। बस एक बात नहीं बोल पा रहे, मोह ने मुझे पकड़ लिया है। शरीर में बहता रक्त कह रहा है अपने ही जैसे रक्त को कैसे बहा दूँ।
और रक्त ये इसलिए नहीं कह रहा है कि रक्त सहसा चैतन्य हो उठा है, रक्त ये इसलिए कह रहा है क्योंकि रक्त में दुनिया भर के पशु बैठे हुए हैं। ये वक्तव्य हर पशु का है अपने ही जैसे किसी का रक्त कैसे बहा दूँ, कैसे बहा दूँ। घोर-से-घोर हिंसक प्रजाति भी साधारणतया, हमने कहा अपनों का शिकार नहीं करती। इसमें चेतना की कोई बात नहीं है, इसमें प्रकृति की बात है। प्रकृति चाहती है कि आपक वंश, आपका कुल, आपकी प्रजाति बनी रहे। ये काम हर पशु करता है। ये काम अभी अर्जुन भी कर रहे हैं, अर्जुन पशुवत हुए जा रहे हैं। लेकिन पशुता अपनेआप को छुपाने के लिए बुद्धिमत्ता का स्वांग कर रही है। पशुता हमेशा यही करती है वास्तव में जहाँ कहीं आपको बुद्धिमत्ता बहुत दिखाई दे रही हो सम्भावना यही है कि उसके पीछे पशुता बैठी होगी। बुद्धिमत्ता अपने गुरु गम्भीर लहज़े में कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात कह रही होगी। पर कान हैं यदि आपके पास और ध्यान है यदि आपके पास तो आप सुनेंगे कि बुद्धिमत्ता की गम्भीरता के पीछे कोई पशु हल्के-हल्के गुर्रा रहा होगा। ये जानवर है, जो बुद्धि का इस्तेमाल करके अपने उद्देश्य पूरे करता है। जिन्हें सुनना आता है वो सुन लेते है। वो बुद्धि के व्यक्तव्यों में, पशु की गुर्राहट सुन लेते हैं। आगे और अभी वर्णसंकर विवरण चलता ही रहता है।
संकरों नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्योषां लुप्त पिण्डोदकक्रिया:।।
“वर्णसंकर कुलनाशकारियों और कुल को नरक की प्राप्ति के लिए है। क्योंकि इन लोगों के श्राद्ध, तर्पण आदि कार्य लुप्त होने से उनके पितर लोग पतित हो जाते हैं।“
श्रीमद्भागवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ४२)
तो मान्यता, सामाजिक मान्यता, आध्यात्मिक बिलकुल नहीं, इस तरह की बातें वेदान्त में दूर-दूर तक नहीं पाई जाती। वेदान्त तो इस तरह की बातों को काटने के लिए है ठीक वैसे जैसे अर्जुन ने भी ये बात कही और कृष्ण इस बात को काट देंगे। तो इन बातों को धर्म की केंद्रीय बात बिलकुल न समझा जाए कि वर्णसंकर जो होता है, उसके सब पितरों का बड़ा पतन हो जाता है। ये बात एक सामाजिक मान्यता हो सकती है ये बात एक अन्धविश्वास हो सकती है, पर इस बात का समर्थन वेदान्त कहीं से नहीं करता। तो कुलनाश कारियों के इन वर्णसंकर कारक दोषों से सनातन जातिधर्म और कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। तो अर्जुन को बड़ी चिन्ता है पितरों की अब और वो भी राज्य भर के पितरों की। वो जितने मर चुके हैं सौ दो सौ आठ सौ साल पहले।
अर्जुन कह रहे कि देखो उनकी खातिर नहीं लड़ूँगा मैं, क्योंकि अगर वर्णसंकर पैदा हो गए तो वर्णसंकरों का श्राद्ध तर्पण वगैरह तो चलता नहीं। जब श्राद्ध तर्पण नहीं होंगे तो वो पितर बेचारे सब पाताल लोग में आग में ही जलते रह जायेंगे न। उनको तृप्ति कैसे मिलेगी। कितने ऊँचे विचार हैं आम आदमी तो सिर्फ़ जीवित लोगों की परवाह करता है ,अर्जुन तो सैकड़ों साल पहले मरों की परवाह कर रहे हैं। देखो पितरों का क्या होगा, पहले बोले स्त्रियों का क्या होगा वो बेचारी स्त्रियाँ उनको क्षत्रिय नहीं मिलेंगे तो वो जाकर के अन्य जातियों से तथा कथित नीचे वाले वरणों से विवाह आदि करेंगी और मेल कर लेंगी। तो स्त्रियों की चिन्ता हुई, फिर स्त्रियों के बाद जो स्त्रियों से औलादें पैदा होंगी उनकी बड़ी चिन्ता हुई अर्जुन को देखो, वर्णसंकर पैदा हो जाएगा न।
जीवन भर कहेगा वर्णसंकर, वर्णसंकर। जैसे कर्ण, कर्ण वर्णसंकर। जैसे सूत जो होते थे वो एक प्रकार के वर्णसंकर ही थे। तो कर्ण को जीवन भर यही लगा रहा है मैं सूतपुत्र हूँ, सूतपुत्र हूँ। तो देखो, वर्णसंकर पैदा होगा बेचारे को बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी। फिर बोले अरे वर्णसंकर तो वर्णसंकर, जो वर्णसंकर के दादा परदादा मरे थे, उन बिचारों का क्या होगा। कृष्ण कह रहे माया तो मेरी ही है पर मैं भी चमत्कृत हो जाता हूँ, इसके रूप-रंग देख कर के! गज़ब! पितरों का क्या होगा। फिर कह रहे कि
उत्सन्नकुलधर्मानां मनुष्यानां जनार्दन | नरकेऽनियतं वासो भवतित्यनुशुश्रुम् ||
“हे जनार्दन! और फिर जिन लोगों का कुल धर्म नष्ट हो गया है उन्हें अनिवार्य रूप से नरक जाना पड़ता है।“
श्रीमद्भागवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ४३ )
ये बात हमने सुनी है, तो इन सब लोगो को नरक जाना पड़ेगा, ये अच्छी बात नहीं है तो ये नरक न जाएँ इसके लिए मैंने तय करा है कि मैं लड़ाई नहीं करूँगा तो बात निश्चित रही अब तो वापस चले? खेल खत्म करते हैं। इनको बता देते हैं कि देखो भैया लडाई-लड़ाई माफ़ करो। क्या कर रहे हो ये सब, हथियार-वथियार लेकर इकट्ठे हो गए हो। नाचो खेलो-कूदो खाओ घर जाओ अपनी ओर से तो अर्जुन अब आश्वस्त हैं कि निर्णय पर आ गए हैं, सारे तर्क एक ही दिशा में संकेत कर रहे हैं, मत लड़ो! क्या-क्या तर्क निकाले हैं। और आगे, चालाकी देखिएगा-
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् । यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: ।।
“हाय! कैसा दुर्दैव है, कैसा दुर्भाग्य है कि हम लोग महान पाप करने को उद्दत हैं।“
श्रीमद्भागवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ४५ )
ये नहीं कह रहे मैं महान पाप करने को उद्यत हूँ, साथ में कृष्ण को भी लपेट लिया या येकितने दुर्भाग्य की बात है कि हम लोग महान पाप करने को उद्धत है ये इसीलिए मैं कहा करता हूँ कि बाद में है ये कौरवों और पाँडवों के बीच का संघर्ष, पहले तो ये अर्जुन और कृष्ण के बीच का संघर्ष है। अर्जुन चाल चल रहे हैं, अर्जुन पासा फेंक रहे हैं, ये दाँव है। ये मानसिक युद्ध है, साइकोलॉजिकल वारफेयर है, कह रहे हैं, देखो, कितने दुर्भाग्य की बात है कि हम लोग पाप कर रहे हैं । बातों ही बातों में कृष्ण को भी इशारा दे दिया है कि कृष्ण, मैं आपको भी पापी समझ रहा हूँ। आप मेरी बातों के प्रतिकूल तर्क दे मत दीजियेगा। मैंने आपको पहले बता दिया है कि जो मेरी बातों के विरुद्ध जायेगा मैं उसको पापी समझूँगा तो अर्जुन के अनुसार कृष्ण को थोड़ा डर जाना चाहिए। देखो पापी तो बोल ही दिया है अभी अगर मैं और इसको ज्ञान वगैरह दूँ तो कहीं महापापी या कुछ और ही बड़ी बात न बोल दे। तो इससे अच्छा है कि अपना सम्मान सम्भाल कर रखो ज़्यादा कुछ बोलो ही मत और कह दो अर्जुन तुमने जो करा वो ठीक, मैं भी तुम्हारे साथ हूँ, चलो वापस चलते हैं। घूमेंगे-फिरेंगे, इतनी बड़ी दुनिया है, एक ही राज्य का क्या करना है। बहुत तर्क हो सकते हैं न।
हाय! कैसा दुर्दैव है कि हम लोग महानपाप करने को उद्दत हैं क्योंकि राज्य प्राप्ति रूपसुख पाने की आशा से स्वजनों की हत्या करने के लिए सनद्ध हुए हैं। देखिये क्या करा है। धर्म को नीचे गिराया है, कहा कि नहीं, हम धर्म के लिए नहीं लड़ रहे, कह दिया हम तो राज्य प्राप्ति के लिए लड़ रहे हैं। तो लड़ने के पक्ष में जो बात कही जा सकती थी, उस बात को गिरा दिया, कह दिया नहीं, हम धर्म के लिए थोड़े ही लड़ रहे थे। हम तो लड़ ही रहे थे लालच के लिए। और लड़ने के विरोध में जो बातें कहीं जा सकती थी, उनको उठा दिया, समझ रहे हो। धर्म को गिरा दिया धर्म की तुलना लालच से करके और अधर्म को उठा दिया अधर्म के ऊपर, अच्छाई का, नैतिकता का आवरण पहना कर के। ये काम हम सब करते हैं, कोई अच्छा काम कर रहा होगा उसको हम तत्काल कह देंगे अरे उसका उससे कोई स्वार्थ होगा इसलिए तो कर रहा है ठीक वैसे जैसे धर्मयुद्ध को यहाँ पर अर्जुन ने गिरा दिया ये कह के कि अरे ये तो राज्य और रुपये और सत्ता के लिए की जा रही लड़ाई है।
वो जो युद्ध है वो वास्तव में सत्ता के लिए नहीं है वो धर्म के लिए है लेकिन अर्जुन ने उस युद्ध को अलग ही तरह से परिभाषित कर दिया क्योंकि धर्म की राह चलना नहीं है। कैसे कह दें कि धर्म की राह चलना नहीं है तो धर्म को अधर्म घोषित कर दो ताकि धर्म को ठुकराना आसान हो जाए।
समझ में आ रही है बात?
जैसे कोई आपसे पूछे कि साहब आप इधर-उधर का तमाम कचरा पढ़ते रहते हैं कभी सन्त साहित्य क्यों नहीं पढ़ते तो आप कहे अरे सन्तों का क्या है इन्होंने तो जो करा अपनी ही दुकान चलाने के लिए और प्रसिद्धि पाने के लिए करा और मेरे पास प्रमाण है, क्या? सब सन्त प्रसिद्ध है कि नहीं; हाँ! तो इसी लिए तो इन्होंने ये सब बातें कहीं थी। उन्होंने क्या कहा है उन्होंने कह दिया है कि सन्त धर्म की खातिर नहीं प्रसिद्ध की खातिर काम करते थे। ठीक उसी तरह यहाँ पर अर्जुन तर्क दे रहे हैं कि ये युद्ध धर्म की खातिर नहीं है, ये युद्ध सत्ता की खातिर है। अगर कह दिया कि ये युद्ध सत्ता के लिए है तो युद्ध से भागना माने धर्म से भागना आसान हो जाएगा। ये काम हम सब करते हैं, दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, हमारी आन्तरिक दुनिया में, वो सदा धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष है। उसमें हमें अधर्म का पक्ष जब भी लेना होता है, हम कुछ तर्क देकर धर्म को नीचे गिराते हैं और कुछ तर्क देकर अधर्म को ऊपर उठाते हैं। उदाहरण के लिए ये आप तर्क दे लोगे कोई हो जाएगा सामने आपको सिद्ध करना है कि आपको उस व्यक्ति के साथ नहीं जाना भले ही वो व्यक्ति धर्म पथ पर हो आप कह देंगे अरे आप भी तो पैसे के लिए काम करते हो अब आसान हो जायेगा उस व्यक्ति की बात को नकारना, समझ रहे हो? भीतरी व्यवस्था ऐसे काम करती है।
हमारे उद्देश्य सब गर्हित, पतित होते हैं। उन पर हम ऊँचाई का आवरण पहना देते हैं। और सच्चाई जो वास्तव में ऊँची होती है, उस पर हम कीचड़ के छींटे मार देते है। उसको नीचे खींचने का प्रयास कर लेते हैं ताकि लगे कि वो कोई व्यर्थ की चीज़ है। ये सब कुछ करने के पीछे उद्देश्य हमारा बस एक होता है, अधर्म का साथ देना। अब पूछेंगे अगर अधर्म का साथ ही देना है तो इतनी मेहनत क्या करनी है, सच्चाई को सीधे अस्वीकार कर दो साफ़-साफ़ घोषित क्यों नहीं कर देते, मैं अधर्म के साथ हूँ। इतनी हम में हिम्मत नहीं, इतने खुले अधर्मी हम नहीं हो पाते। हमारी मजबूरी ये है कि हमें अधर्मी भी होना है, और स्वयं को धर्मी घोषित करना है। तो हमें अपने अधर्म को धर्म का नाम देना आवश्यक हो जाता है क्योंकि हम डरे हुए लोग हैं। हम अधर्म के पक्ष में भी डरे हुए हैं। और सत्य को सीधे-सीधे ठुकरा देने का साहस नहीं है हम में। तुम कहते हैं सत्य को हम इसलिए ठुकरा रहे हैं क्योंकि वो असत्य है, वो असत्य कैसे? हमारे पास कुछ तर्क है, बात आ रही है समझ में। सबका आन्तरिकखेल ऐसे ही चलता है।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय: । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।
“यदि आत्मरक्षा का प्रयत्न न करने वाले मुझ शस्त्रधारी को धृतराष्ट्र पुत्र युद्धक्षेत्र में मार डाले तो भी वह मेरे लिये अधिकतर कल्याणकारी होगा।“
श्रीमद्भागवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ४६ )
अर्जुन ने निष्कर्ष निकाल लिया, बोले इन सब बातों से अब ये साबित होता है कि मैं यहाँ मर जाऊँ तो बेहतर है। पर मैं लड़ाई तो नहीं करूँगा। स्वयं ही तर्क रचे और अपने ही तर्कों से और ज़्यादा सुनिश्चित अनुभव करने लगे कि बात तो मैं ठीक ही कह रहा हूँ। वाह! क्या बात कही है मैंने! और अब ये बात मैंने बोल दी है तो इससे ये प्रमाणित होता है कि न सिर्फ़ मुझे उन्हें नहीं मारना है बल्कि यदि वो मुझे मार भी दे तो मैं स्वीकार कर लूँगा। मुझे तो यूँ लग रहा है जैसे ये सब कुछ कृष्ण को प्रभावित करने के लिए किया जा रहा है। कि देखिये श्री कृष्ण ये बात तो दूर कि मैं उन्हें मारूँगा। आप ये समझ लीजिये कि अब मैं उस बिन्दु पर आ चुका हूँ जहाँ मैं अपने प्राण त्यागने को तैयार हूँ। वो मुझे मार दे तो मार दे मैं उन्हें नहीं मारूँगा। जैसे कृष्ण को जताया जा रहा है कि मुझे अब समझाने की कोशिश भी बेकार है, देखिए कृष्ण प्रयास भी मत करिएगा, मैं बहुत दूर निकल चुका हूँ। ये एक तरह से कृष्ण को हतोत्साहित किया जा रहा है। अब कोई मुझ पर आप युक्ति मत आज़माइएगा, फैसला हो चुका है। मैं आपसे बहुत दूर जा चुका हूँ। सारे तर्क मेरे पक्ष में है। और मुझे बड़ी गहराई से सुनिश्चित हो चुका है कि सही क्या है मैं जान चुका हूँ।
अब आप व्यर्थ ही मुझे समझाने बुझाने का प्रयास करेंगे, समय खराब होगा और कुछ नहीं। देख सकते हो तो देखिए कि अभी अर्जुन ने कृष्ण की ओर कैसे देखा होगा, जैसे कुश्ती में एक पहलवान दूसरे को देखता है ये मानकर कि इसको तो अब मैंने परास्त ही कर दिया। बेटा तू तो अब हार चुका है। सर्वप्रथम ये मल्लयुद्ध, कृष्ण और अर्जुन के बीच है। और अर्जुन ने अपने दाँव चल दिए हैं। आएगी, कृष्ण की बारी आएगी , पर पहले अर्जुन के दाँव-पेचों को समझना ज़रूरी है। पहले अर्जुन बन जाना ज़रूरी है। आप अर्जुन नहीं बनोगे तो कृष्ण आपको पटकेंगे कैसे!
बन जाइए पहले अर्जुन, सहमत हो जाइए अर्जुन से आप भी पूरी तरह क्योंकि आप अर्जुन से सहमत हैं ही। अर्जुन का एक-एक तर्क आपका तर्क है। अर्जुन असत्य के प्रति जितना आग्रह यहाँ दिखा रहे हैं। वो आपकी अपनी असत्य निष्ठा है, बेईमानी।
एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस: ।।
“अर्जुन इस प्रकार कहकर युद्ध क्षेत्र में, बाणसहित धनुष को छोड़कर, शोकाकुल चित्त से रथ के पिछले भाग में बैठ गए।“
श्रीमद्भागवद्गीता (अध्याय १, श्लोक ४६ )
तो संजय कहते हैं कि अर्जुन इस प्रकार कहकर अब कृष्ण से वो किसी प्रकार की अनुमति की प्रतीक्षा भी नहीं कर रहे बस अपना वक्तव्य सुना दिया है निर्णय घोषित कर दिया है। अर्जुन इस प्रकार कहकर युद्ध क्षेत्र में, बाणसहित धनुष को छोड़कर, शोकाकुल चित्त से रथ के पिछले भाग में बैठ गए। उठकर के जाकर वहाँ पीछे बैठ गए। शारीरिक रूप से भी वो एक खुला संकेत दे रहे हैं कि अब मुझ पर प्रयास भी मत करना कृष्ण। मेरा तो खेल खत्म हो चुका है। ये सब प्रतीक होते है। शत्रु को तरीके तरीके से जताया जाता है कि शत्रु तुम बाज़ी हार चुके हो। यहाँ पर अर्जुन कौरवों को तो शत्रु मारने से इनकार ही कर रहे हैं। तो अर्जुन ने शत्रु बना किसको रखा है? कृष्ण को! और कृष्ण पर ही अर्जुन इस तरीके के प्रयोग कर रहे हैं जा कर के पीछे बैठ गए हैं।
कि देखिये स्पष्ट ही हो जाए कि मुझे आप समझाने बुझाने की कोशिश करेंगे तो आपकी अपनी मानहानि होगी क्योंकि आप मुझसे कुछ बोलेंगे, मानूँगा तो मैं हूँ नहीं। तो कृपया प्रयास भी न करें। पर कृष्ण प्रयास करते हैं प्रयास कुछ ऐसा प्रबल होता है इतना जबरदस्त कि बीसों शताब्दियाँ बीत चुकी हैं। मरने वाले चले गए मारने वाले चले गए, कौनसा हस्तिनापुर कौनसा कुरूक्षेत्र कहा धनुष कहाँ गदाएँ, कहाँ कौरव, कहाँ पाँडव, लेकिन भगवत गीता सूरज की तरह आज भी चमक रही है। एक अध्याय अर्जुन का, सत्रह अध्याय कृष्ण के।