(गीता-12) फिर सारे अधिकार तुम्हारे हैं, अर्जुन! || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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(गीता-12) फिर सारे अधिकार तुम्हारे हैं, अर्जुन! || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।२.६४।।

राग-द्वेष से वियुक्त वशीभूत इन्द्रियों द्वारा विषयों का उपभोग करके संयत मनुष्य अपने मन में प्रसाद प्राप्त करता है।

आचार्य प्रशांत: श्रीमद्भगवद्गीता दूसरा अध्याय, सांख्य योग, श्लोक क्रमांक चौंसठ। “राग-द्वेष से वियुक्त वशीभूत इन्द्रियों द्वारा विषयों का उपभोग करके संयत मनुष्य अपने मन में प्रसाद प्राप्त करता है।”

राग-द्वेष से मुक्त संयत इन्द्रीय विषयों का उपभोग करता है, यही प्रसाद है। विषयों का उपभोग करना उसका लक्ष्य नहीं है। विषयों के उपभोग से कुछ भी मिल सकता है — कभी सुख, कभी दुख उसको वो मानता है कि ये पीछे की चीज़ है। एक संयोगवश घटी घटना है। वास्तविक चीज़ क्या है? प्रेम।

सत्य से मुझे प्रेम है, या सत्य के किसी प्रतीक से मुझे प्रेम है, मैं उसकी दिशा जा रहा था — जो सही है मैं उसकी दिशा जा रहा था। वो मेरा प्राथमिक लक्ष्य है। उसकी ओर जाने की प्रक्रिया में बीच में अकस्मात् कभी सुख मिल गया, कभी दुख मिल गया उसको मैं क्या मानूँगा? प्रसाद। ये प्रसाद है, मिल गया।

प्रसाद कभी मीठा हो सकता है, कभी खट्टा, कड़वा, कुछ भी हो सकता है। तो उसको लेकर के मैं न बहुत प्रसन्नता दिखाऊँगा, न अपनेआप को बहुत अनुग्रहित मानूँगा, न अपनेआप को अभागा मानूँगा। उसमें न अनुग्रह है, न अभाग। वो क्या है सिर्फ़? प्रसाद।

मन्दिर आये थे, प्रसाद के लिए नहीं आये थे। प्रसाद के लिए नहीं आये थे, मिला तो मिला, नहीं मिला तो भी ठीक। बहुत सारा मिला तो मना थोड़े ही कर देंगे, ले लेंगे। बहुत थोड़ा मिला तो छाती थोड़े ही पीटेंगे, असली चीज़ कुछ और थी। असली चीज़ क्या थी? राम से मिलना था, मन शान्त हो गया। कृष्ण से मिलना था, गीता मूर्त हो आयी। जो मूर्ति है सामने जैसे गीता उठ खड़ी हुई हो, जैसे पत्थरों से श्लोक बोलते हों। चन्द मिनटों में सब दोबारा स्मृत हो आया। सुमिरन पर बहुत ज़ोर दिया है न सन्तों ने? यही है।

कुछ ऐसा दिख गया, जिससे वो सबकुछ जो जीवन को अच्छा और ऊँचा बनाता है, वो याद आ गया। उसको हमने खो नहीं दिया था, बस जीवन की दौड़-धूप में हम उसको भूल गये थे, मन में इधर (सिर के पीछे की ओर इशारा करते हुए) पीछे रख दिया था। मूर्ति के सामने खड़े हुए, जो पीछे था वो आगे आ गया; याद आ गया। और वो याद आया नहीं कि नहा गये बिलकुल, शीतल हो गये। अब और कुछ माॅंग ही नहीं रहे, इसके साथ में अगर प्रसाद मिल गया तो सिर झुकाकर ले लेंगे, नहीं मिला तो याद भी नहीं करेंगे कि नहीं मिला।

'मन्दिर आ रहे थे, रास्ते में अपमान हो गया।' बहुत बड़ी बात हो गयी? नहीं (नकार में सिर हिलाते हुए)। क्योंकि असली चीज़ मान-अपमान नहीं थी, असली चीज़ क्या था? जाना था, भई। या ऐसा करते हो कि मन्दिर जा रहे हो, रास्ते में किसी ने अपमान कर दिया तो मन्दिर ही छोड़ देते हो? जल्दी बोलो।

श्रोता: नहीं।

आचार्य: असली बात याद रखनी है। बाक़ी सब गौढ़ है, महत्वहीन है, अप्राथमिक; पूरा अध्यात्म यही है। जो असली है उसको याद रखो — ‘मामेकम् शरणम् व्रज’। जो असली है वो याद रखो, बाक़ियों पर ध्यान क्या धरना!

तुम फँसे कहाँ हो? तुम फँसे कहाॅं? सन्तों की, विश्व भर की जैसे पूरी श्रृंखला सिर्फ़ एक यही बात हमारे कान में फूॅंके जा रही हो। क्या? ‘कहाँ फँस गये, बच्चू? फिर फँस गये? फिर फँस गये? फिर फँस गये?’ ये बड़ा ज़बरदस्त मन्त्र है, लिख लीजिए अभी (प्रतिभागियों से कहते हुए)। मन पर छाप लो। क्या? 'फिर फँस गये?' और उसके आगे इतना बड़ा प्रश्नचिह्न ( हाथ से बड़ा आकार दिखाते हुए)। 'फिर फँस गये?' दीवार पर लिखवा लीजिए बड़ा-बड़ा — ‘फिर फँस गये?’ घर को ये ही नाम दे दीजिए।

लोग घरों को ऐसे नाम देते हैं — 'अमृत निवास।' (हँसते हुए) भक, झूठे! वहाँ अमृत रहता है? 'मरने का अड्डा' उसको बोल रहे हो, 'अमृत निवास।' (श्रोतागण हँसते हैं) उसका नाम क्या होना चाहिए?

श्रोता: ‘फिर फँस गये?’

आचार्य: 'फिर फँस गये?' और इतना बड़ा (हाथों से बड़ा आकार दिखते हुए) जो आपका मुख्य द्वार होता है, मेन गेट। वो बनवाइए ही क्वेश्चन मार्क (?) की शक्ल में कि जो भी घुसेगा वो प्रश्नचिह्न पार करके अन्दर आएगा। चोर भी नहीं आएगा, बता रहा हूँ। कोई चोरी नहीं होगी, दुनिया भर के चोर घबराएँगे, कहेंगे, 'भाई यहाँ फिर फँस गये।’ (सभी हँसते हैं)

'मत फँसो इधर-उधर की बातों में अर्जुन मुझे याद रखो।' इन्द्रियों का संयम यही है — इन्द्रियों को कृष्ण की ओर मोड़ देना। और बहुत कुछ है ज़माने में, करना क्या है उसका? और ऐसा भी नहीं कि कुछ नहीं करना उसका। जो कुछ है दुनिया में अगर वही फाँसे से हुए है, वही बन्धन है; तो मुक्ति भी तो वहीं से आएगी।

भौतिक हैं अगर हमारी बेड़ियाॅं तो कुल्हाड़ी को भी भौतिक ही होना पड़ेगा। कि नहीं? कोई बेड़ी आध्यात्मिक होती है क्या? बताइए, भाई। कौन है जो सूक्ष्म आध्यात्मिक बेड़ियों से जकड़ा हुआ हो? सबके बन्धन भौतिक ही हैं। हाॅं, कभी स्थूल हो सकते हैं, कभी थोड़ा सूक्ष्म, लेकिन हैं सब भौतिक ही। ठीक है न?

तो जैसी रस्सी वैसी कुल्हाड़ी, जैसी लकड़ी वैसी आरी। ये कहावत भी है न? “लोहे को लोहा काटता है।” तो दुनिया का क्या इस्तेमाल करना है? अगर लोहे को लोहा ही काटता है तो ये दुनिया में चारों तरफ़ जो कुछ है उसका इस्तेमाल क्या करना है? दुनिया को ही काटने के लिए।

तो हम ये भी नहीं कह रहे कि दुनिया से कोई मतलब नहीं रखना है। दुनिया से उतना ही मतलब रखना है जितना कृष्ण की दिशा में सहायक हो, और उतना मतलब ज़रूर रखना है। और बन्धन बहुत सारे हैं, तो उन बन्धनों को काटने के लिए फिर संसाधन, कुल्हाड़ियाॅं भी बहुत सारी चाहिए। तो दुनिया से मतलब तो रखना ही होगा।

जिसने कृष्ण को जाना, वो दुनिया में उतना ही सक्रिय रहता है, जितना स्वयं कृष्ण थे। कृष्ण कैसे थे? भाग गये थे दुनिया से? गुफा में छुपे हुए थे? जंगल में बैठे हुए थे? क्या करते थे? गीता कहाँ बोली गयी है? किसी आश्रम में? पेड़ों की छाॅंव तले? जहाँ खग-मृग इत्यादि आस-पास डोल रहे हैं? और एक सरोवर है बिलकुल निर्मल, शान्त। ऐसे माहौल में गीता उच्चारित हुई?

कृष्ण कहाँ पाये जाते हैं?

श्रोता: राणभूमि में।

आचार्य: निर्जन घाटियों में तो नहीं न? तो आप भी घाटियों में मत भाग जाना; रणभूमि में ही जीना है। अब एक ओर हम कह रहे हैं, ‘फिर फँस गये?’ और दूसरी ओर कह रहे हैं, रणभूमि में ही जीना है। ये दोनों बातें जो साथ-साथ याद रख लेता है, इन दोनों बातों पर जो साथ-साथ जी लेता है, वो जी लेता है।

रण में रहना है और रण में फँसना भी नहीं है। रण को जीत भी लेना है, पर रण में फँसना भी नहीं है। और इसी बात को कौनसा प्रतीक दर्शाता है? शिवलिंग। किसी भी लड़ाई में दो तरह की जीतें हो सकती हैं। एक जीत ये कि प्रतिपक्षी को हरा दिया, और दूसरी जीत ये कि पूरी जान से लड़े लेकिन फँसे फिर भी नहीं। बताओ, कौनसी जीत बड़ी है?

एक जीत तो यह है कि जो सामने खड़ा हुआ था दल, उसको हरा दिया और दूसरी जीत यह है कि पूरी जान से लड़े — हो सकता है सामने वाले पक्ष से जीत जाएँ, हो सकता है सामने वाले पक्ष से हार जाऍं। पर लड़े हम पूरे प्रण-प्राण से, लेकिन भीतर फिर भी कुछ ऐसा था जो हर तरह के संघर्ष से अछूता था। ये असली जीत है।

असली जीत समझ में आ रही है?

'अर्जुन पूरी जान लगा के लड़ो, लेकिन हृदय में तुम्हारे कृष्ण होने चाहिए। ऐसा न हो कि दुर्योधन ही तुम्हारी सब विचारणा का केन्द्र बन जाए।' और होता है न ऐसा? जब आप किसी से गहराई से संघर्ष में लगे होते हो तो आपके दिलो-जहान पर कौन छा जाता है? बोलो जल्दी। दो पहलवान आपस में कुश्ती कर रहे हैं, दोनों किसके बारे में सोच रहे होते हैं? एक-दूसरे के बारे में।

गीता हमें एक बड़ी अद्भुत बात कहती है — ‘लड़ना दुर्योधन से है, मन में कृष्ण होने चाहिए’ ये जीत है असली। उसके बाद हो सकता है दुर्योधन तुम्हें मार भी दे, कोई बात नहीं। उसके बाद ये भी हो सकता है कि तुम दुर्योधन को मार दो, वो भी कोई बात नहीं। अब कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इससे फ़र्क नहीं पड़ता। पूरी लड़ाई करो, पर लड़ाई तुम्हारे ऊपर हावी नहीं होनी चाहिए।

चुआंग त्ज़ु (चीनी दार्शनिक) की एक कविता है — एक मुर्गा था — जीतू मुर्गा (एक मुर्गा जो आचार्य जी के पास था) नहीं, चुआंग त्ज़ो वाला मुर्गा। तो उसको लड़ाई के लिए तैयार किया जा रहा था — होती है न कॉक फाइट (मुर्गा लड़ाई) तो वो तैयार करते थे।

तो उसको एक ज्ञानी, शायद कोई ज़ेन मास्टर रहा होगा, वो देखने गया मुर्गा है, कि मुर्गा है ये तैयार किया जा रहा है लड़ाई के लिए। जैसे ही वो उस मुर्गे के पास गया तो मुर्गे की लाल-लाल आँखें हैं, और मुर्गा क्रोध में भरा हुआ है। और लगे कि मुर्गा चोंच मार देगा, एकदम उत्तेजित होकर। तो उस ज्ञानी ने कहा कि अभी यह मुर्गा लड़ाई के लिए तैयार नहीं है, अभी और तैयार करो।

उसे और तैयार किया गया। कुछ दिनों बाद वो ज्ञानी दुबारा गया उस मुर्गे को देखने। तो जब वो उसके सामने पड़ा तो मुर्गा पहले जितना उत्तेजित नहीं हुआ, लेकिन फिर भी उसने अपना ऐसे (गर्दन को उठाते हुए) सिर उठा लिया और देखने लगा। लगा कि अभी ये तैयार हो रहा है भिड़ने के लिए। उसने कहा, अभी और तैयार करो।

वो तीसरी बार उस मुर्गे को देखने गया तो पाया कि मुर्गा चुप खड़ा हुआ है, शान्त। कौन उसके आस-पास है उसने उसको देखा भी नहीं। तो उस मास्टर ने कहा, ‘अब इस मुर्गे को दुनिया का कोई मुर्गा कभी नहीं हरा पाएगा।’

ऐसे लड़ना है। पूरी जान से लड़ना है लेकिन लड़ाई को अपनी जान नहीं बना लेना है; जान तो कृष्ण हैं। आ रही है बात समझ में?

और जो ऐसे लड़े हैं, वो फिर जीते भी बहुत हैं, हारे भी हैं पर जीते ज़्यादा हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारत में ही मिलता है — सिख गुरुओं में। सन्त सिपाही का उन्होंने जो आदर्श दिया है। और इसीलिए सनातन धारा में बहुत अवतार हुए हैं, जिनके हाथों में आप शस्त्र भी पाते हैं। अक्सर एक तरफ़ शस्त्र होता है, दूसरे हाथ में शास्त्र होता है।

समझ में आ रही बात?

और इन दोनों में पहला कौन होता है? शास्त्र। क्योंकि शास्त्र के बिना अगर शस्त्र उठा लिया तो पागल की तरह न जाने किसको मार दोगे, हो सकता है ख़ुद को मार लो। और जो शास्त्र पढ़ लेगा, वो शस्त्र न उठाये ये सम्भव नहीं है। शस्त्र सिर्फ़ बन्दूक या धनुष-बाण ही नहीं होता। जब भी तुम किसी ग़लत चीज़ को समाप्त करना चाहते हो तब जिस भी साधन का उपयोग करते हो उसको शस्त्र कहते हैं।

और उपनिषदों की पूरी सीख समाप्ति, और विध्वंस, और नाश की ही है। उसको “नेति-नेति” कहते हैं। नहीं मिटाओ, नहीं ग़लत है छोड़ो। जो नहीं होना चाहिए, उसे नहीं होना चाहिए। उपनिषद् सीधे-सीधे संघर्ष का सन्देश देते है; ‘भिड़ जाओ।’ अगर ग़लत है तो है क्यों? उसके मुँह पर बोलो “नेति-नेति”। मुँह से “नेति-नेति”, हृदय में उपनिषद्। अगर हृदय में उपनिषद् नहीं हैं तो “नेति-नेति” बोलते हुए जबान काँपेगी, बोल ही नहीं पाओगे।

समझ में आ रही है बात?

मुकुट मिल गया। क्या है? प्रसाद। ज़ख्म मिल गया — दोनों मिल सकते हैं न? लड़ाई कर रहे हो तो। और ज़ख्म मिल गया, क्या है? प्रसाद है और क्या है, प्रसाद है; दोनों मिलते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है कि अर्जुन हमेशा जीतेंगे ही, बहुत अर्जुन हारते भी हैं।

वो तो ऐसा है कि आम आदमी को जीत ज़्यादा पसन्द होती है तो कथाएँ वही प्रचलित हो जाती हैं, जिसमें नायक को विजय मिली हो। पर किसी धोखे में मत रहिएगा, पहले ही बता दूॅं, नायकों को अक्सर हार भी मिलती है, लेकिन वो फिर भी नायक ही रहते हैं। हार जाए तो भी वो नायक ही हैं।

नायक वो नहीं है, या नायक की परिभाषा इससे नहीं निर्णित होती कि वो हारा या जीता। नायक इससे तय होता है कि यहाँ (हृदय की ओर इशारा करते हुए) कौन था। यहाँ अगर कृष्ण को रखकर के तुम हार भी जाओ तो तुम तो भी नायक हो। तो मृत्यु भी अगर मिल गयी, तो वो भी प्रसाद है। जो कुछ मिल रहा है प्रसाद है।

आपकी कामनाओं के कुफल के रूप में जो मिल रहा है, उसको प्रसाद मत बोल दीजिएगा। कहीं चोरी करने गये, डंडा पड़ गया। बोले, ‘प्रसाद है।’ वो नहीं प्रसाद होता है। सत्य की दिशा में बढ़ते हुए जो भी अनुभव हो रहे हों, उनको निस्पृह, निष्पक्ष भाव से प्रसाद मानना है। यह अन्तर स्पष्ट है?

क्योंकि ये भी लोग ख़ूब करते हैं, बड़े लालच से शेयर मार्केट में पैसा लगाया — अभी बिटक्वाइन का चला था, चार महीने पहले। वो लगा रहे हैं, लगा रहे हैं, लगा रहे हैं, सब डूब गया। बोलें, ‘प्रसाद है।’

अरे! तुम लालचवश कोई कर्म कर रहे हो और वो कर्म उल्टा पड़ गया। तो अब बोलोगे, ये प्रसाद है? नहीं, वो प्रसाद नहीं है। सही केन्द्र से जो भी करो उसका परिणाम मायने? जल्दी बोलिए और ज़ोर से बोलिए (श्रोताओं से कहते हुए)।

प्र: महत्व नहीं रखता।

आचार्य: बस यही है, यही गीता है। सही काम का बुरा अंजाम हो नहीं सकता, तो अंजाम की परवाह हमें करनी ही नहीं। जो भी अंजाम आया वही सही है, उसको हम क्या मानेंगे? प्रसाद। मौत भी मिल गयी सही काम करते हुए तो प्रसाद मिला है। 'तेरा काम कर रहे थे, तूने मौत दे दी, सिर-माथे।'

हमें तो तेरी चाकरी करनी थी, हमारा काम सेवा है। तू मौत देना चाहता है, ठीक है। ये तो प्रकृति के संयोग हैं, तेरी प्रकृति है, तेरी माया है, तू माया पति है। तेरी माया है, तू कुछ दे देता है, कभी कुछ दे देता है। हमें उससे मतलब ही नहीं है क्योंकि कुछ पाने के लिए हमने कर्म किया ही नहीं। सही था इसलिए किया। अब दिल छोटा नहीं करेंगे अगर मौत मिल गयी, कि ज़ख्म मिल गया, कि घाटा हो गया, दिल छोटा नहीं कर लेना।

मुश्किल लग रहा है?

इसमें मज़ा बहुत है। मुश्किल है, पर जब आनन्द चखने लग जाते हो, उसके बाद मुश्किल पर से ध्यान हट जाता है। शायद २००७ का विम्बलडन (टेनिस टूर्नामेंट) फाइनल था। फेडरर और नडाल के बीच में शायद, या २००८ का था, पता नहीं। काफ़ी पहले की बात है। इन दोनों का था या विम्बलडन का ही था। इतना मुझे याद है, जो हारा था — पाॅंच सेट चला था वो बहुत लम्बा; चार-पाॅंच घण्टे का मैच था।

पाॅंच सेट चला था, कई टाइप रेकर उसमें लम्बे खिंचे थे। उसके बाद जब सेरेमनी होने लगी — बुलाया गया तो जो खिलाड़ी हारा था जो भी खिलाड़ी हारा था जो भी जाने फेडरर, नडाल कौन था या एंडी मेर था। पूछा, ’हाउ डू यू फीलिंग नाउ’ (अब आपको कैसा लग रहा है)? जिसने पूछा था उसने शायद शायद सोचा था कि वो बोलेगा कि डिसेप्टेड, डिसपोइंटेड, ब्रोकन (हताश, निराश, टूटा) ऐसा कुछ बोलेगा। आप जानते हो उसने क्या बोला? क्या बोला? क्या बोला? एम्प्टी (खाली)। 'आइ डू फीलिंग नाउ, एम्प्टी (मुझे खालीपन महसूस होगा), *एम्प्टी*।

सबकुछ तो दे दिया, अब फील करने के लिए बचा क्या है। जीत मिली या हार मिली क्या पता। दो शॉर्ट्स का अन्तर था, जीत भी सकते थे। और दोनों को ही चैंपियनशिप प्वाइंट मिले थे कई। दोनों ने ही — चैंपियनशिप प्वाइंट माने मैच पॉइंट , जिस पर एक मैच जीत लेते चैंपियनशिप भी मिल जाती।

दोनों ही विजेता हो सकते थे। कुछ कह नहीं सकते थे कौन जीतेगा, कौन हारेगा। और दोनों ने ही जान झोंक दी थी, दोनों ही ख़त्म हो गये थे। पूछा अब कैसा लग रहा है? वो बोला, एम्प्टी। और वो कोई दार्शनिक नहीं है, वो सच बोल रहा है। इससे दार्शनिकों के बारे में कुछ पता चलता है। वो दार्शनिक नहीं है शायद इसीलिए सच बोल रहा है। एम्प्टी!

निष्काम कर्मयोगी ऐसे ही खेलता है ज़िन्दगी को। वो हर लड़ाई के बाद कैसा हो जाता है? कहता है, 'जो कुछ था लगा दिया, कुछ बचाकर रखा होता तो बुरा लगता न। हम बुरा लगने के लिए भी बचे नहीं हैं, पूरी मौत हो गयी। सबकुछ झोंक दिया, एम्प्टी, एम्प्टी। '

दिनभर इतनी मेहनत करो कि जब सोओ तो कैसे हैं? एम्प्टी। और अगर एम्प्टी नहीं हो तो बेइमानी भरा दिन जिया न? और बेइमानी भरे दिन की सज़ा ये मिलेगी कि सो नहीं पाओगे। हम सब अच्छे से जानते हैं कि सबसे बड़ा नर्क अक़्सर होता है वो घण्टा या वो आधा घण्टा जिस पर आप बिस्तर पर पड़े होते हो और नींद आ नहीं रही होती। होता है न?

और ज़िन्दगी का सारा रूखापन, खालीपन, हारें, यादें कैसे हावी हो जाती हैं? होती हैं कि नहीं? वो नहीं होने देना है। रणभूमि, कर्मभूमि जीवन है। पलायन करने का कोई विकल्प नहीं। 'जो लड़ नहीं रहा, वो जी नहीं रहा।' चोट खाना सीखो, बचाकर कहाँ ले जाओगे सब? राख के पार क्या जाता है? वहाँ जब सब भस्मीभूत ही हो जाना है तो पहले ही ज़रा दहन होने दो न इसका (शरीर की ओर इशारा करते हुए)।

एक दिन तो इसको व्यर्थ ही हो जाना है, उससे पहले इसको किसी सार्थक काम के लिए थोड़ा जलाना सीखो। या अगर अभी नहीं जलाओगे तो कभी नहीं जलेगा ये? एक दिन तो बहुत बुरी तरह जलता है।

शमशानों की दशा देखी है, कैसी होती है? कैसी होती है? बहुत साफ़-सुथरे होते हैं? कुत्ते घूम रहे होते हैं। होंगे बड़े सम्माननीय आदमी, देखिए जब जल रहे होते हैं तो क्या हालत हो जाती है? और बड़े शहरों में तो फिर भी अब विद्युत शवाग्रह वगैरह आ गये हैं और थोड़ी व्यवस्था हो गयी है। छोटे गाॅंव-कस्बों में जाकर देखिए वहाँ कैसे जलाया जाता है। ये होना है इस देह का।

जब यही होना है इसका तो उससे पहले इसका इस्तेमाल क्यों न कर लें? नहीं कर लें? नहीं कर लें? जो छोटे-मोटे ग़रीब जगहों के कब्रिस्तान होते हैं, वहाँ से बीच-बीच में ख़बर आती है कि कुत्ते आकर के कब्र खोद गये। उनको माॅंस मिल जाता है वहाँ।

क्या बचा रहे हो?

इसको यज्ञ कहते हैं। ये यज्ञ की वास्तविक परिभाषा है। यही यज्ञ की वास्तविक परिभाषा है। 'जहाँ तुम स्वयं की आहुति दे दो कृष्ण के लिए। और यदि तुम ऐसा यज्ञ कर सको तो फिर तुम जहाँ खड़े हो वहीं मन्दिर है।' क्योंकि मन्दिर कौनसी जगह होती है? जहाँ यज्ञ किया जाता है। अगर तुम यहाँ बैठकर के ही स्वयं को जला पा रहे हो, अपनी आहुति दे पा रहे हो तो ठीक यही जगह मन्दिर हो गयी तुम्हारा।

लकड़ी जलाने से यज्ञ, हवन इत्यादि नहीं हो जाते, स्वयं को जलाने से होते हैं। पेड़ को मत काटो, स्वयं को काटो; लकड़ी मत जलाओ, ख़ुद को जलाओ तब यज्ञ होता है।

समझ में आ रही है बात?

अगर मन में कुछ घूमता रह जाए, मन एम्प्टी नहीं हो पा रहा तो जान लेना बेइमानी करी है, जान लेना कि निष्ठा कृष्ण के अलावा कहीं और बन्ध रही है। और निष्ठा का कृष्ण के अतिरिक्त किसी और दिशा में जाना ही विधर्म कहलाता है, कुफ़्र। कृष्ण के अतिरिक्त कहीं और मन जोड़ लिया है, किसी और को जीवन का केन्द्र बना लिया है, यही विधर्म है।

आराम नहीं माँगना है। अध्यात्म का लक्ष्य आपको विश्राम देना नहीं है, अध्यात्म का लक्ष्य आपको वो बना देना है जो विश्राम पा सकें। आप जैसे हैं इसी हालत में आपको विश्राम मिल गया तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। अध्यात्म का लक्ष्य है पहले उसको जला देना जो कभी विश्राम पा सकता ही नहीं।

ये हमने बड़ी व्यर्थ की भ्रान्ति पकड़ ली है, ऐसी छवि आ गयी न मन में कि आध्यात्मिक आदमी तो ऐसे (आराम में होने का अभिनय करते हुए) ही होता है सदा, शान्त। अरे, कृष्ण स्वयं रथ का पहिया उठाकर दौड़े थे। जीवन आराम के लिए नहीं है, आराम तो एक दिन मिल ही जाना है।

सोने में और मरने में कोई अन्तर? नींद सब माॅंगते रहते हैं, थोड़ा आराम करने को मिल जाए। क्या करेंगे? खर्राटे मारेंगे। नींद और मौत में बहुत अन्तर है क्या? जब सो जाते हो जो दशा होती है लगभग वैसी ही दशा मौत में होती है। तो बहुत लम्बी नींद मिलने वाली है, बड़ा लम्बा आराम तो मिलने ही वाला है। जब उतना लम्बा आराम मिलने वाला है तो ये जो चन्द लम्हे अभी मिले हैं इनका क्या करना है? इनमें काम करना है, आराम नहीं करना है।

जिनको पाओ कि विलासिता की, और सुख चैन की, ऐश्वर्य की, उपभोग की ज़िन्दगी बिता रहे हैं उनसे ईर्ष्या नहीं करनी है, वो दया के पात्र हैं। देखे हैं न? हो जाते हैं ऐसे लोग। उन पर पैसा आ गया, थोड़े मोटे-मोटे, गोरे-गोरे, मुलायम-मुलायम, उनकी खाल ही दूसरे तरह की हो जाती है। पता चलने लगता है, पूरा आराम मिल रहा है। और कई बार शरीर खुशी भी मनाता है, आराम मिल रहा है। उनके पास आप पाएँगे पूरा समय है, फेस मसाज करवा रहे हैं, हफ्ते में दो-चार घण्टे स्पा में लगा रहे हैं, तो उनका निखार अलग होता है।

उनका निखार देखकर के ईर्ष्या की या हीनता की कोई बात नहीं, वो दया के पात्र हैं। ऐसी गोरी-गोरी, मुलायम-मुलायम खाल जब जलेगी तो? और नीचे से चर्बी बढ़िया फ्राई करने के लिए, नैचुरल फैट , तले जा रहे हैं। होना तो यही है। सदुपयोग कर लेते उन पलों का। मैं गन्दा रहने के लिए नहीं कह रहा हूँ कि ज़बरदस्ती मुँह पर कीचड़ मल कर घूमो, और मैं न कह रहा हूँ कि गोरापन को गुनाह हो गया; आशय समझना।

मेहनती आदमी में एक अलग गरिमा आ जाती है। जो जीवन के रणक्षेत्र में बस राम भरोसे खड़ा जूझ रहा होता है, उसके चेहरे पर एक तेज अलग होता है। और वो उस गरिमा का, उस तेज का, उस सौन्दर्य का सौदा किसी क़ीमत पर नहीं करेगा? आप उसको बहुत पैसा बता दीजिए, आराम बता दीजिए, सुख दिखा दीजिए। वो कहेगा, 'जो मेरे पास है उसे मैं किसी क़ीमत पर नहीं बेचूँगा।' सोचो, कैसा रौब होगा? भीतर कैसी ठसक होगी? कितनी वो क़ीमती चीज़ होगी जिसको आप कभी बेचना नहीं चाहो। चाहिए कि नहीं? चाहिए न? तो लड़ना सीखो, आराम-तलबी छोड़ो।

और मैं ये तुच्ची लड़ाइयों की बात नहीं कर रहा हूँ कि पड़ोसी को झापड़ मार दिया। (श्रोतागण हँसते हैं)

मैं बड़ी लड़ाइयों की बात कर रहा हूँ। अच्छा, कौनसी लड़ाई लड़ने लायक़ है, कौनसी नहीं; तय कैसे करना है? चलो एक उसका — जो भी लड़ाई लड़ने लायक़ होगी उसमें लड़ाई का बड़ा हिस्सा अपने खिलाफ़ होगा। जो भी लड़ाई लड़ने लायक़ होगी उसमें पाओगे कि दुश्मनों में तुम ख़ुद भी खड़े हुए हो। इससे निर्धारित कर लीजिएगा।

समझ में आ रही है बात?

जो भी लड़ाई लड़ने लायक़ होगी, उसमें अपने खिलाफ़ ज़्यादा लड़ना पड़ेगा। इससे तय हो जाता है। अर्जुन को पहले ही अध्याय में किससे डर लग रहा था? दुर्योधन से, भीष्म से, कर्ण से, किससे डर लग रहा था? स्वयं से। असली लड़ाई का यही लक्षण होता है। उसमें तुम अपने दुश्मन आप होते हो। अपने खिलाफ़ लड़ना पड़ता है वो असली लड़ाई है। तो जब मैं कह रहा हूँ, ‘लड़ो’ तो मैं कह रहा हूँ, ‘अपने खिलाफ़ लड़ो।’

हाँ, अपने खिलाफ़ लड़ने की प्रक्रिया में कई बार दुर्योधन से लड़ना पड़ता है। दुर्योधन लेकिन बाद में है। पहली लड़ाई किससे है? अर्जुन से। अर्जुन बनाम अर्जुन। अर्जुन के दो हिस्से — एक हिस्सा जो कृष्ण की सुन रहा है। दूसरा हिस्सा जो परम्पराओं की सुन रहा है, जो तत्कालीन मान्यताओं की सुन रहा है, जो कर्मकाण्ड की सुन रहा है। तो दो अर्जुन हो गये। इनमें से एक अर्जुन को दूसरे पर विजय दिलानी है। वो काम कृष्ण कर रहे हैं। हाँ, विजय की प्रक्रिया में बेचारा दुर्योधन मारा जाएगा।

समझ में आ रही है बात?

दुर्योधन का मरना तो एक तरह की सह-उत्पाद है, बाय प्रोडक्ट है। अर्जुन और अर्जुन की लड़ाई है महाभारत, कैजुअलिटी (शारीरिक क्षति) हो गयी दुर्योधन की। (सभी हँसते हुए) वो कह रहा है, मुझे?

पैसठवाँ श्लोक —

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।२.६५।।

इस प्रकार प्रसाद प्राप्त करने पर सब दुःखों का नाश हो जाता है और व्यक्ति की प्रज्ञा ब्रह्मात्मज्ञान में स्थिति लाभ करती है।

ये जो दृष्टि है, जो सब सांसारिक अनुभवों को प्रसाद की तरह देखने लगती है। ये जो आँख हैं जो देख ही सिर्फ़ कृष्ण को रही हैं बाक़ी सबकुछ उसके लिए बस यूँही है। है तो, पर यूँही, बड़े महत्व का नहीं है। है, ठीक है। अच्छी बात है।

ये मन ब्रह्मात्म लाभ करता है, ब्रह्मात्म लाभ कर चुका है। इसका आत्म, ब्रह्म से एक हो चुका है। इसका अहंकार आत्मा से एक हो चुका है। और इसकी प्रज्ञा स्थिति-लाभ करती है। कौनसी स्थिति? सम-स्थिति। जिसको हम 'स्थितप्रज्ञ' कह रहे थे, सम-स्थिति। इधर-उधर दोनों ठीक है, कोई विरोध नहीं।

हाँ, कृष्ण से हमको हटाओगे, तो घना विरोध करेंगे। बाक़ी कुछ इधर-उधर होता रहे, सह लेंगे। आरम्भ में ही अर्जुन से कहते हैं न कृष्ण, क्या? सहो। यही मन्त्र है सहो। बाक़ी सब सह लेंगे, बस एक चीज़ नहीं सहेंगे। हमें हमारी आत्मा से, हमारे प्राण से, हमारे सत्य से अलग करने का प्रयास करोगे तो माफ़ नहीं करेंगे।

बाक़ी सब सह लेंगे, चूँ नहीं करेंगे। हमारी रोटी ले जाओ, माफ़ कर देंगे। धन-दौलत भी चली गयी, चलो ठीक है। धन-दौलत आ भी गयी, वो भी ठीक है। न एक स्थिति में मातम मनाएँगे, न दूसरी में उत्सव। लेकिन हमें कृष्ण से अलग करा तो महाभारत कर देंगे। महाभारत इसीलिए हो रही है न? अर्जुन का एक हिस्सा कृष्ण से अलग होने को तैयार बैठा है, तभी तो महाभारत हुई। अर्जुन बनाम अर्जुन।

तो असली योद्धा की एक पहचान ये है कि वो छोटी लड़ाईयों में नहीं पड़ता। जिस किसी को देखो कि वो टुच्ची-लड़ाईयों में बड़ी रुचि लेता है, जान लो ये असली योद्धा नहीं है। जब बड़ी लड़ाई का मौका आएगा ये पीठ दिखाएगा। असली योद्धा छोटी लड़ाईयों को नजरअंदाज़ कर देता है। वो कहता है, ‘हमारे स्तर की नहीं है। एक ही बड़ी चीज़ है और जब वो बड़ी लड़ाई हो तब बताना, हम तब के हैं। छोटी-मोटी, ऊँच-नीच के प्रति तो हम सम-स्थिति रखते हैं, सम-स्थिति। ये भी ठीक है, ये भी ठीक है। कोई बात नहीं।’

दो रूपये के लिए हम बहसबाज़ी नहीं करते। सब्जी वाली दादी बैठी हुई है, उससे मोलभाव नहीं करते हम। वो कह रही है आठ रूपये पाव, तुम कह रहे, ‘नहीं, साढ़े सात पव्वा लगाओ।’ और उसकी जान लिये ले रहे हो कि पचास पैसे बच जाएँ। छोटी लड़ाइयों में हम नहीं पड़ते; ‘ले दादी, तू पूरा बीस रख ले।’

तो इससे ये भी पता चलता है कि असली योद्धा को तुम कई बार सहर्ष हारते देखोगे। जहाँ भी वो छोटी लड़ाई देखेगा, वहाँ से वो हट जाएगा। तुमको लगेगा वो हारकर हटा है। वो हारकर नहीं हटा है, वो इसलिए हटा है क्योंकि वो लड़ाई लड़ने लायक़ नहीं थी।

ये मैं इसलिए बोल रहा हूँ, क्योंकि मैं जब भी संघर्ष का सन्देश देता हूँ। तो बहुत लोग जाकर के छोटे संघर्षों में उलझ जाते हैं। उनको लगता है, आचार्य जी ने यही तो सिखाया है कि भिड़ जाओ। तो वो जाकर के छोटी-छोटी चीज़ों में भिड़ना शुरू कर देते हैं। नहीं, छोटी चीज़ों के प्रति तो उपेक्षा रखनी है। 'छोटी चीज़ों के प्रति उपेक्षा, कृष्ण के प्रति प्रेम, और जहाँ कृष्ण का युद्ध आएगा वहाँ घोर संघर्ष।'

भिड़ जाने का ये नहीं मतलब है कि वहाँ गये बाहर पार्किंग में गाड़ी खड़ी है और पीछे वाले ने ज़्यादा सटा दी। तो पाँच बार उसको मारा, बैक (पीछे) कर-करके। कि आचार्य जी ने अभी-अभी सिखाया है, भिड़ा आओ। (श्रोतागण हँसते हैं) और उसका बम्पर लूटकर लाये, जैसे कहीं से सिन्हासन लूटा हो, सिर पर सजा रहे हैं उसको।

पुराने समय में लोग करते थे, अपने घरों में कहीं हिरण का सिर भूस भरकर लगा रखा है, कहीं शेर का लगा रखा है। उनको लगता था, ‘देखो, कितनी बड़ी फ़तह हासिल करी है!’

एक हिरण को तुमने दुनाली बन्दूक से मार दिया वो भी जीप में बैठकर के और फिर तुम्हारी बेशर्मी की इन्तहा ये है कि तुम उसका सिर लाकर के अपनी बैठक में पूरी दुनिया को दर्शा रहे हो। कैसे आदमी हो? तुम्हारे लिए यही बड़े गौरव की बात हो गयी कि एक निहत्थे पशु को मार दिया; चाहे वो पशु बाघ ही क्यों न हो। कोई मुकाबला था?

तुम बुद्धिमान, तुम यन्त्रवान, तुम जीपवान और वहाँ से और तुम चढ़े मचान, (श्रोतागण हँसते हैं) और वहाँ से तुमने मार दिया बाघ; हर तरह की चालाकी करके। और फिर वो बाघ तुम अपनी बैठक में सज़ा रहे हो, सबको दिखा रहे हो, ‘हमने मारा है।’ हम ऐसे ही होते हैं, हम टुच्ची जीतों का श्रेय लेते रहते हैं।

जो गीताविज्ञ होता है, उसकी पहचान ये कि वो छोटी लड़ाइयों की उपेक्षा करेगा। वो एकदम समदृष्टि रखने लगता है। छुटपन से वो कोई वास्ता ही नहीं रखता। कृष्ण अनन्त हैं तो क्षुद्रता में वो कैसे लिप्त हो जाएगा, जो कृष्ण से प्रेम करता है? तुम उसे छोटे मसलों में उलझाओगे, छोटी लड़ाइयों के लिए उत्तेजित करोगे, वो तुम्हारे झाँसे में पड़ेगा ही नहीं। हाँ, जो लड़ाई उसे लड़नी होगी, उससे तुम उसे रोक भी नहीं पाओगे। किसी के रोके नहीं रुकेगा वो। फिर उसे मार ही देना, रुकेगा तो है नहीं वो।

यही शान्ति की असली परिभाषा है। छोटी लड़ाइयों में न पड़ना ही शान्ति है। शान्ति का अर्थ बड़े युद्धों से पीठ दिखाना नहीं होता। बड़े युद्धों से पीठ दिखाना शान्तिप्रियता नहीं कायरता है। शान्तिप्रियता किसमें है? छोटी, टुच्ची लड़ाइयों में हमारी कोई रुचि नहीं। हम नहीं उलझेंगे, ये शान्ति प्रियता है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।२.६६।।

आत्मज्ञान-हीन व्यक्ति में प्रज्ञा नहीं होती, साधनाहीन तथा विषयासक्त मनुष्य में आत्मचिन्तन नहीं होता, आत्मचिन्तन रहित व्यक्ति को मानसिक शान्ति नहीं होती और अशान्त-चित्त व्यक्ति के लिए आनन्द कहाँ?

जो इसका विशुद्ध अर्थ है वो बताये देता हूँ, अनुवाद में कई बार अशुद्धियाँ होती हैं।

जो अयुक्त है, जो अयुक्त है जिसको अनुवाद में कहा गया आत्मज्ञान रहित। जो अयुक्त है उसको बुद्धि नहीं। युक्ति का क्या अर्थ है? जो मिला हुआ नहीं है, जो योग में नहीं है, जो अयुक्त है, जो कृष्ण से अलग है उसमें बुद्धि नहीं है। बुद्धि से यहाँ पर आशय है, सद्बुद्धि। उसकी बुद्धि भोथरी हो जाती है, ब्लंट , उसमें धार नहीं रह जाती या उसमें धार रहती भी है तो वो धार अपने ही विरुद्ध काम करती है। बुद्धि भी जब आत्मा की सेवा करती है तभी कुशाग्र हो पाती है। अन्यथा बुद्धि भी भ्रष्ट ही रहती है।

बुद्धि को आप किसी भी और उद्देश्य में अगर आप लगा दोगे तो बुद्धि अपना ही नाश कर डालेगी। तो सिर्फ़ बुद्धि के भरोसे आप नहीं चल सकते। इससे पता चलता है कि बुद्धिजीवी होना पर्याप्त नहीं है। इसी से ये भी समझोगे कि कई बुद्धजीवी इतने मूर्ख क्यों होते हैं? नाम क्या है? बुद्धिजीवी। हैं क्या? मूर्ख।

क्योंकि उनके पास बुद्धि तो होती है भरपूर लेकिन उनके पास श्रद्धा नहीं होती। तो उनकी बुद्धि आत्मा का अनुसरण नहीं कर रही है। उनकी बुद्धि अहंकार के पीछे-पीछे चल रही है। जिसकी बुद्धि अहंकार के पीछे-पीछे चले वो बुद्धिजीवी होते हुये भी मूर्ख ही है। ऐसों से प्रभावित मत हो जाना।

जहाँ पाओ कि ज्ञान बहुत है, बुद्धि बहुत है, वाक-चातुर्य बहुत है, अनुभव बहुत है, सबकुछ बहुत है लेकिन श्रद्धा नहीं है। वहाँ जो कुछ भी है उसको कचरा ही जानना। ऐसों को ऊँचा दर्जा मत दे देना। और ऐसे बहुत मिलेंगे, और हम उनसे तुरन्त प्रभावित हो जाते हैं। कहते हैं, ’इंटेलेक्चुअल (बौद्धिक) है, इंटेलेक्चुअल है।’ अधिकांश जो इंटलेक्चुअल कहलाते हैं वो किसी मूल्य के नहीं होते। क्यों नहीं होते? वो गीता ने बता दिया।

ऐसी बुद्धि किसी काम की नहीं है जो आपको कृष्ण से विपरीत दिशा में ले जाती है। ऐसी बुद्धि जो कृष्ण की अपेक्षा अहंकार के पीछे चलना चाहती है वो अपना ही विनाश कर देती है। तो बुद्धि जब चलाइए तो साथ में एक प्रश्न करिए, 'ये बुद्धि किसके पीछे चल रही है? जो कुछ भी मैं उपाय कर रहा हूँ, विचार कर रहा हूँ, युक्तियाँ लगा रहा हूँ, उनका उद्देश्य क्या है? कृष्ण को पाना या अहंकार को बढ़ाना?’

बुद्धि यही सब करती है न? विवेचना करती है, छानबीन करती है, एक चीज़ को दूसरे से जोड़कर देखती है। कोई उद्देश्य पकड़ रखा है उस उद्देश्य तक पहुँचने का रास्ता बनाती है, युक्तियाँ लगाती है, नीतियाँ तैयार करती है। ये सब बुद्धि के काम हैं। बुद्धि जब बहुत चतुराई दिखा रही हो तो ठहर जाना और पूछना, ‘चाह क्या रही है? क्या चाह रही है?’ और जो बुद्धि चल खूब रही हो और चाह कृष्ण को न रही हो, उसे दुर्बुद्धि कहते हैं। अधिकांश बुद्धिजीवी दुर्बुद्धिजीवी हैं।

इसीलिए सन्तों के पास बुद्धि बहुत रही, बहुत रही लेकिन उन्हें हम बुद्धिजीवी नहीं कहते। सन्तों की बुद्धि ऐसी रही कि उसको फिर 'प्रज्ञा' बोला जाता है। वो बुद्धि से भी एक तल ऊपर की बात है। लेकिन हम किसी सन्त को 'बुद्धिजीवी' बोलें तो ऐसा लगेगा कि जैसे अपमान सा कर दिया। है न? तो बुद्धि से आगे निकलना है, बुद्धजीवी भर ही बनकर नहीं रह जाना।

'जो अयुक्त मनुष्य है, उसके पास भावना नहीं रहती।' यहाँ किस भावना की बात हो रही है? आत्मा के प्रति प्रेम। अयुक्त मनुष्य की पहचान ही यही है कि उसमें आत्मा के प्रति प्रेम नहीं रहता; संसार के प्रति मोह, कामना खूब रहते हैं। ये अयुक्त आदमी है। अयुक्त क्या कहा था हमने? क्या? जो कृष्ण से जुड़ा हुआ नहीं है उसे अयुक्त कहते हैं।

'और जिसमें भावना नहीं, उसे शान्ति नहीं। जिसमें भावना नहीं उसमें शान्ति नहीं। और जो अशान्त है उसे सुख कहाँ?' देखिए, किसका सम्बन्ध किससे जोड़ा है? ‘जिसमें आत्मा के प्रति प्रेम नहीं माने भावना नहीं, उसे शान्ति नहीं। और जिसे शान्ति नहीं, उसे सुख नहीं।’ और सुख सभी चाहते हैं? तो सुख का स्रोत क्या बता दिया? ‘आत्मा को चाहने में ही सुख है।’ और नहीं पाओगे कहीं।

दुख फिर कहाँ है? दुख भी सभी अनुभव करते हैं। दुख कहाँ है? आत्मा से वियोग में ही दुख है। तो यदि आप बड़े दुखों में घिरे हुए हैं, जैसा कि हम में से ज़्यादातर लोग कहते हैं कई बार। और आप अपने दुखों के पीछे कभी ये कारण बताते हैं, कभी वो कारण बताते हैं, कभी लगता उसने धोखा कर दिया, कभी लगता है उसने साथ नहीं दिया। तो ये सारे कारण वास्तव में क्या हैं? झूठे।

किसी भी दुख के पीछे सच्चा कारण एक ही होता है ― आपको उससे प्यार नहीं था जिससे प्यार करना चाहिए था। आपने किसी ऐसे से प्यार कर लिया जो प्यार के लायक़ नहीं था। जो प्रेम का अधिकारी था उससे आप प्रेम कर नहीं पाये। सिर्फ़ यही एकमात्र दुःख का कारण होगा, जब भी किसी को भी, कहीं भी, कभी भी दुःख मिलेगा।

देखो किससे प्रेम बाँधे बैठे हो। एक ही चीज़ होती है अहंकार के हाथ में — प्रेम करना। किससे कर डाला? किस लायक़ है वो? कुछ भी हो सकता है, व्यक्ति हो सकता है, आदर्श हो सकता है, सपना हो सकता है, कोई चीज़, वस्तु हो सकती है। किससे कर डाला प्रेम? इस लायक़ था वो? और कुछ नहीं होता एक बर्बाद जीवन में, बस एक चीज़ होती है — ग़लत प्रेम।

कहाँ बँध बैठे? मुक्त गगन की आकांक्षा रखने वाले पंछी, ये तुम कहाँ बँध बैठे? यहाँ के लिए पैदा हुए थे? तुम्हें क्या होना था? और तुम किस पिंजरे में पाये जा रहे हो? कोई तड़प नहीं उठती? गीता उसी तड़प को उठाने के लिए है।

अर्जुन भी जैसे बहाना भर हों, निशाना तो आप हैं। ये कृष्ण का युद्ध है, अर्जुन का नहीं। क्या कर रहे हैं हम? पहले हम बोल रहे थे कि अर्जुन और दुर्योधन का है। फिर हमने कहा, अर्जुन और अर्जुन का है। और अब हम कह रहे हैं, अर्जुन भी प्राथमिक नहीं हैं। ये युद्ध है कृष्ण का और आपका।

हमें प्रेम नहीं आता, कृष्ण को आता है न। कृष्ण को प्रेम आता है इसलिए वो हमसे जूझ रहे हैं। ये छोटा प्रेम होता है, जिसमें गले लगाते हैं। बड़े प्रेम में अक्सर जूझना पड़ता है उसी से जिससे प्रेम हो। वही काम कृष्ण यहाँ कर रहे हैं। यहाँ कृष्ण हमसे संघर्ष कर रहे हैं।

बुद्धि पर ही आगे बात है —

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।२.६६।।

विषयों के पीछे भागने वाली इन्द्रियों में जिसका भी मन अनुगमन करता है, उसकी बुद्धि वैसे ही हर लेती है, जैसे वायु, जल में नौका को डुबा देती है।

आचार्य: विषयों के पीछे भागने वाली इन्द्रियों में जिसका भी मन अनुगमन करता है। माने जो कुछ भी दिख गया, मन उसी के पीछे-पीछे चल गया। इन्द्रियों ने कुछ देख लिया, और जो दिख गया मन उसी के अनुगमन करने लगा, उसी के पीछे-पीछे चल दिया। जो ऐसा होता है उसकी बुद्धि वैसे ही हर ली जाती है, जैसे वायु, जल में — तेज वायु, जल में नौका को हर लेती है माने डुबा देती है। जिसका मन कृष्ण की जगह दिखाई, सुनाई, अनुभव में आने वाली चीज़ों के पीछे लगा रहता है उसकी बुद्धि वैसे ही हर ली जाती है, नष्ट हो जाती है। जैसे तेज़ हवा, नाव को डुबो देती है।

तेज़ हवा क्या है? संसार में जितने भी विषय मौजूद हैं आपको डुबाने के लिए। वो डूब ही जाता है, भावसागर। ये प्रतीक बड़ा शाश्वत रहा है आध्यात्मिक साहित्य में — 'गहरी नदिया, गहरी नदिया? हाँ, संजय (एक वरिष्ठ स्वयंसेवक की ओर इशारा करते हुए)! नाव पुरानी। आगे? “किस विधि पार होये रे।” आगे का याद है? गाओ। अरे, खड़े हो जाओ, सुनाओ सबको।

स्वयंसेवक गाते हैं —

चलना है दूर मुसाफ़िर, अधिक नींद क्यों सोये रे। नदिया गहरी नाव पुरानी, किस विधि पार जो होये रे। साथ तेरे संग कोई न चलेगा, किसकी आस तू बोये रे। साथ तेरे संग कोई न चलेगा, किसकी आस तू बोये रे। चलना है दूर मुसाफ़िर, अधिक नींद क्यों सोये रे।

आचार्य: बढ़िया।

प्रश्नकर्ता: सर, ये आप जो कृष्ण की बात करते हैं?

आचार्य: किसकी?

प्र १: कृष्ण, कृष्ण। तो ये कृष्ण क्या हैं? और कौन हैं? और इसको तो मैं अपने लॉजिकल माइंड (तार्किक मन) से तो नहीं समझ पा रहा हूँ। आप समझाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन आप अपने एक्सपीरियंस (अनुभव) में बता सकते हैं कि आपके साथ कैसा, कब घटित हुआ। नहीं, मुझे पूरा लॉजिकल माइंड से समझ नहीं आ रहा है। लेकिन अच्छा बहुत लग रहा है, सुनते वक़्त।

आचार्य: ये जो अच्छा लग रहा है न, ये जो अच्छा लग रहा है। इसी को और आगे बढ़ाइए, और आगे बढ़ाइए। चाहिए न?

प्र १: हाँ।

आचार्य: कोई बिन्दु आना है, जहाँ पर रोक देना चाहते हों उसको भी?

प्र १: नहीं।

आचार्य: तो उसी को और आगे बढ़ाते जाओ, बढ़ाते जाओ, उसी को कृष्णत्व कहते हैं। वो जो हम सबको चाहिए — चाहे शान्ति कह लो, आनन्द कह लो। और वो हर व्यक्ति को चाहिए होता है, सब में साझा है। दुख किसी को पसन्द आता है? बेड़ियों में जकड़ा रहना किसी को अच्छा लगता है? नहीं लगता न? मर जाना, मिट जाना किसी को सुखकर लगता है?

तो कुछ ऐसा है जो सबको चाहिए होता है। जैसे हमारे भीतर जो मूल चीज़ बैठी हो वही उसको चाह रही हो, उसको कृष्ण का नाम दिया गया है। कोई व्यक्ति नहीं हैं कृष्ण, कोई छवि नहीं हैं कृष्ण, कोई प्रतिमा या मूर्ति नहीं हैं कृष्ण; आप ही की जो सबसे गहरी चाहत है उसको कृष्ण का नाम दिया गया है।

प्र १: सर मैंने उसी सन्दर्भ में पूछा, जैसे मुझे या सबको अनुभव है कि मुझे कुछ अच्छा लग रहा है, जब हम आपको सुनने आते हैं। क्या आपको ऐसा अनुभव हुआ?

आचार्य: उसका क्या करोगे? हो सकता है अभी हो रहा हो वो।

प्र १: दरअसल सर जो हम आसपास के लोगों से बात करते हैं, वैसे ही हमारा अनुभव बनता चला जाता है — अच्छा या गन्दा। जैसे- घर वाले हैं, पड़ोस वाले हैं या किसी संस्था में काम करते हैं। और हम अपने वरिष्ठ या बड़े से जो करते हैं उसका एक प्रभाव हमारे मन पर ज़रूर होता है। तो आपको हम जैसे सुनने आये हैं, तो आपका ऐसा क्या हुआ कि यू आर टोटली ट्रांसफॉर्म्ड (पूरी तरह से बदल गये)?

आचार्य: तुम्हें कैसे पता कि पहले मैं बहुत घटिया आदमी था? (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र १: नहीं, सर। मैंने ये नहीं कहा, मैंने ये नहीं कहा।

आचार्य: टोटल ट्रांसफार्मेशन का और क्या अर्थ है?

प्र १ हमें जो लॉजिकल माइंड से समझ नहीं आ रहा, परन्तु फिर भी हमें अच्छा लग रहा है। वो क्या चीज़ है सर? वो नहीं समझ में आ रहा।

आचार्य: वो मैं क्या बताऊँ? तुम्हें जो कुछ भी पसन्द है उसकी इन्तहा का नाम कृष्ण हैं। आपको स्वयं भी तो कुछ पसन्द होगा न?

प्र १: हाँ।

आचार्य: हाँ तो बस, उसी को और आगे बढ़ा दो, और आगे बढ़ा दो वो कृष्ण है। बस ये ही है, कुछ उसमें जटिल नहीं है। इतना आसान है वो — कि भारत में शिक्षा का स्तर कभी बहुत ऊँचा नहीं रहा। अधिकांश जनसंख्या खेती-बाड़ी करती थी लेकिन फिर भी एक न्यूनतम तो आध्यात्मिक स्तर तो सबका था-ही-था। क्योंकि आध्यात्म चीज़ ही ऐसी है।

अध्यात्मिक सिद्धान्त जब सन्तों के हाथ में पड़ते हैं, तो वो उसको इतना सरल करके बता देते हैं कि अनपढ़ आदमी को भी बात समझ में आ जाती है। वास्तव में वो बात जटिल है ही नहीं। “चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।” अब कोई होगा बड़ा जटिल सिद्धान्त, लो ऐसे बता दिया। सब समझ गये, बिलकुल समझ गये। “प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।”

सब समझ जाएँगे, कोई समझाने वाला चाहिए। सिद्धान्त जटिल नहीं है। तो वैसे ही तुमसे कह रहा हूँ, ‘जो कुछ भी तुम चाहते हो उसकी अति और अन्त का नाम कृष्ण है।’

क्या पसन्द है, स्वाद पसन्द है? जो ऊँचे-से-ऊँचा स्वाद हो सकता है, वो कृष्ण है। सुख पसन्द है? रोमांच पसन्द है? आराम पसन्द है? जो कुछ भी चाहते हो उसके अन्तिम छोर का नाम कृष्ण है।

इसीलिए तो कृष्ण को चाहने वाला बीच में रुकता नहीं। वो कहता है, ‘इससे भी आगे वो है न, तो इसमें क्यों रुक जाऊँ, घाटे का सौदा क्यों करूँ? अभी आगे वो है न।’ किसी व्यक्तित्व में कृष्ण को मत बाँध लेना।

प्र २: सर, आपने बोला था कि छोटे युद्ध में व्यस्त नहीं होना, पर बड़े युद्ध में व्यस्त होना चाहिए वो शान्ति का एक परिचायक है। तो किस तरीक़े से पहचान करें कि छोटा युद्ध क्या है? बड़ा युद्ध क्या है? क्योंकि दिनचर्या बहुत सारी चीज़ें आती हैं जो विरोधाभास होते हैं। कभी किसी को उपेक्षित करना यानी उसका एक व्यावहारिक रूप थोड़ा सा बताइएगा।

आचार्य: क्या बताया था, कौन बताएगा? (प्रतिभागियों से पूछते हुए) बताइए।

श्रोतागण: अपने खिलाफ़ ही जाना।

आचार्य: बस यही है, यही है। इससे लक्षण कर लिया करिए। असली लड़ाई वो होगी जिसमें अपने खिलाफ़ भी लड़ना पड़ेगा; बल्कि पहले अपने ही खिलाफ़ लड़ना पड़ेगा, दूसरे बाद में आएँगे। और छोटी लड़ाई वो होती है जिसमें दुनिया से लड़ रही होते हो। जिसमें अहंकार मोटा हो रहा होता है, दुनिया से लड़-लड़कर।

अहंकार देखिए, बड़ी जादुई चीज़ है। वो कई बार चोट खाकर और मोटा हो जाता है। आप उसको मारिए वो और फूल जाएगा। वो ऐसा होता है जैसे कोई सूजी हुई जगह। आपके हाथ में यहाँ (हाथ दिखाते हुए) सूजन आ गयी हो आप उस पर एक मुक्क़ा और मारिए, क्या होगा? और सूज जाएगा, अहंकार सूजन है।

और वो फूलना चाहता है, तो कई बार वो इसीलिए चोट खाना चाहता है। क्योंकि चोट खाएगा तभी तो और सूजेगा। इसलिए हम छोटी-छोटी लड़ाइयाँ पकड़ते हैं। उन छोटी लड़ाइयों से अहंकार और सूज जाता है और सूजकर मज़बूत हो जाता है, बड़ा हो जाता है।

असली लड़ाई कौनसी होती है? जिसमें अहंकार सूजता नहीं है, जिसमें अहंकार फूटता है, और बड़ा बुरा लगता है। उतना ही बुरा लगता है जितना अर्जुन को लग रहा है पहले अध्याय में। असली लड़ाई में अपने ही खिलाफ़ — अपना मोह, अपनी मान्यताएँ, अपना अतीत, अपनी स्मृतियाँ इनके खिलाफ़ लड़ना पड़ता है; वो लड़ाई लड़ने लायक़ है।

प्र २: सर, उस लड़ाई में जैसे मुझे बहुत बार यह चीज़ होती है अपने से लड़ता हूँ, अपने बोलता कि बस बहुत हो गया। अब ज़रा शरीर जी, मन जी ― जो पाँच प्लस तीन हैं (पाँच इन्द्रियाँ और तीन ज्ञानेन्द्रियाँ) उनको ज़रा ठहरो।

फिर मुझे लगता है बहुत बार कि यार, थोड़ा मैं ओवर स्मार्ट (सीमा से अधिक समझदार) हो रहा हूँ, अपने को एक बड़ा, ऊँचा सा समझ रहा हूँ। फिर यह होता है कि चलो अपने को विगलित करो, अपने हृदय में कृष्ण भगवान पर स्थापित करो अपने को।

फिर वो कभी होता है, कभी वो नहीं होता है यानी एक द्वन्द सा चलता रहता है। कभी उसमें अच्छा सा लगता है, कभी बुरा लगता है। फिर कुछ पढ़ता हूँ, जैसे - 'हे राम' पढ़ रहा हूँ और 'योगवशिष्ठ सार' पढ़ रहा हूँ, जो ऋषि योगवशिष्ठ जी की राम जी को सीख है; आपकी विवेचना।

तो उसमें हर चीज़ जो-जो पढ़ता हूँ, वो ऐसा लगता है कि मुझ पर हंड्रेड़ परसेंट एप्लीकेबल (शत प्रतिशत लागू) है। तो फिर कभी फ्रस्टेशन (निराशा) हो जाता है, तो उसमें बड़ी दुविधा सी रहती है। जैसे अभी आप थोड़ी देर पहले भी बात कर रहे थे। उसे भी लेकर एक कन्फ़्यूज़न रहता है।

मैं ये दो प्रश्न मैं दोहरा रहा हूँ — पर अपने पेशे में भी पहले बिलकुल एक सारता रहती थी। अभी हर पन्द्रह मिनट में वो चीज़ आ जाती है, कोई भी समस्या आती है क्योंकि बॉस लुक जस्ट नथिंग बट फाइव प्लस थ्री यानी फाइव प्लस फोर का मैं समीकरण बनाया हुआ हूँ, उसमें चित्त को भी जोड़ा हुआ हूँ; फोर में। मन, बुद्धि और चित्त, अहंकार इन चारों को जोड़ा हुआ हूँ।

पर कभी-कभी लगता है, ये सब भी मन का जंजाल है, मैं और फँसता जा रहा हूँ। जैसे आप बोल रहे थे न कि अहंकार और फूलता रहता है। तो मुझे ये लग रहा है कि वो अहंकार ही मेरा ज़्यादा नहीं फूल रहा है क्या?

आचार्य: फूल तो रहा ही है (हँसते हुए)। पर आप देख लीजिए कि फूल रहा है तो।

प्र २: वही मुझे भी लग रहा है। सर, अब क्या करूँ (हँसते हुए)।

आचार्य: ऐसे ही बस हँस दिया करिए। वो गंभीरता में आश्रय पाता है। उसको बिलकुल भी पसन्द नहीं है, कोई हँस दे उस पर क्योंकि अपनी नज़रों में वो बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ है। उस पर हँस दीजिए वो बौरा जाएगा।

कोई भी आपका दुख है जिसके प्रति आप गम्भीर न हों? कोई ऐसा दुख है जिसके प्रति आप गम्भीर न हों? कोई आपकी समस्या है जिसके प्रति आप गम्भीर न हों?

देखिए, कितनी मज़ेदार बात पकड़ ली। तो अगर उसमें से गम्भीरता हटा दें तो क्या हो जाएगा? क्या हो जाएगा? वो बचेगा ही नहीं। जो चीज़ आप बिलकुल पकड़कर रखे हो?

प्र २: दुख।

आचार्य: बस ख़त्म। हँस दिया करिए उसके ऊपर। अब ये हास्य की वास्तविक परिभाषा हो गयी — दूसरों पर नहीं, खुद पर हँसो। ये हुई असली स्टैंडअप कॉमेडी कि जब भी अहंकार का बोझ आपको बिलकुल दबाये, बैठाये दे रहा हो आप हँसते हुए खड़े हो जाइए; स्टैंडअप कॉमेडी। ‘अरे हटाओ न,’ हँस दीजिए उस पर।

इसलिए आप पाएँगे कि अहंकारी लोग एकदम नाराज़ हो जाते हैं अगर वो कोई आपको बात कह रहे हैं, या हो सकता है अपना दुख-दर्द ही सुना रहे हों और आप हँसना शुरू कर दें; बड़ा अपमान मानेंगे, बड़ा अपमान मानेंगे। उनसे चुटकुले झेले नहीं जाते।

हँस दीजिए (प्रश्नकर्ता से कहते हुए)।

प्र २: सर, एक छोटी सी चीज़ और थी। जैसे शरीर नश्वर है, शरीर का देखभाल भी करना है। दो घंटे सुबह प्राणायाम करता हूँ, साथ में टहलता भी हूँ, ये सब चीज़ें करता हूँ। फिर कभी लगता है यार, उससे अच्छा तो थोड़ा बहुत पढ़ लिया होता, उससे अच्छा तो थोड़ा बहुत यूट्यूब पर कुछ देख लिया होता।

तो जैसे आप करते हैं, आप फिज़िकल एक्सरसाइज भी करते हैं, टेनिस खेलने भी जाते हैं, मुझसे ज़्यादा व्यस्त रहते हैं। तो ये मन को कैसे समझाते हैं कि जो मैं शरीर पर अपना समय इनवेस्ट कर रहा हूँ, डेट इज़ द बेस्ट प्रायोरिटी एट डेट ऑफ़ टाइम और देयर आर डिफरेंट प्रायोरिटी फॉर डेट। (यह समय और साहस की सर्वोत्तम प्राथमिकता है, हमारे पास उसके लिए अलग-अलग प्राथमिकताएँ हैं)?

आचार्य: शुभंकर (वरिष्ठ स्वयंसेवक) हैं यहाँ पर, कहीं पर? वो मेरे साथ जाते हैं अक्सर जिम वगैरह। वो बताएँगे कि — हैं इधर कहीं? नहीं हैं। मैं जब नहीं जाना चाहता हूँ, तो शुभंकर का काम है, मुझे याद दिलाना कि आचार्य जी, ये आपका संस्था के प्रति दायित्व है। मैं तो फिर भी बहुत सपाट शब्दों में बोल रहा हूँ; वो बड़े रंगीन शब्दों में बोलते हैं। बोलते हैं, 'ये अपने लिए नहीं कर रहे हो आप, ये संस्था के लिए कर रहे हो। आप मिस नहीं कर सकते, आपको जाना होगा।'

एक मैं आपको उदाहरण बताता हूँ। सात से आठ अभी हाल में ही मैंने खेलना शुरू करा है टेनिस, आठ से नौ शुभंकर को खेलना होता है। आज इस सत्र के कारण सात से आठ में नहीं खेल पाऊँगा। तो शुभंकर ने अपना स्लॉट मुझे दे दिया है कि आप आठ से नौ खेल लीजिएगा, मैं खेलूँगा ही नहीं।

और मैं शायद आठ से नौ वाले में मैं शायद खेल पाऊँ, देखूँगा। वो मुझसे बोलते हैं, 'यह आपकी ज़िम्मेदारी है। ये अपने लिए नहीं कर रहे हो, यह अपने मिशन के लिए कर रहे हो।' तो शरीर का ख़्याल भी अपने लिए नहीं रखना है, अपने मिशन के लिए रखना होता है।

शरीर नहीं रहेगा, या शरीर साथ नहीं देगा, या कमज़ोर हो जाएगा, या आलसी हो जाएगा तो वो करोगे कैसे जो करना ज़रूरी है? कैसे करोगे? शरीर का ख़्याल इसलिए रखना होता है ताकि वो कर पाओ जो करना ज़रूरी है। व्यायाम अन्त नहीं है, व्यायाम माध्यम है।

व्यायाम इसलिए नहीं करना है कि शरीर खूबसूरत हो जाए — और जो लोग व्यायाम सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि शरीर चमक जाए, या शरीर को इसलिए चमकाते हैं कि शरीर चमकाकर दूसरों को प्रभावित, इम्प्रेस करेंगे, लड़के हैं तो लड़कियों को आकर्षित करेंगे वगैरह-वगैरह। जो इसलिए करते हैं उनका व्यायाम व्यर्थ जाएगा।

शरीर को मज़बूत इसलिए करना है क्योंकि उससे बहुत काम लेना है। और जितना ज़्यादा काम लेना हो, उतना ज़्यादा उसे मज़बूत रखना पड़ेगा। है न?

आम ट्रक देखा है हाइवे पर, कैसा होता है। कैसा होता है? आम ट्रक चलता है, जो कद्दू लेकर जा रहा होता है हाइवे पर। वो कैसा होता है? और मिलिट्री का ट्रक देखा है कभी, वो कैसा होता है? दोनों में क्या अन्तर है? एक को कद्दू ढोने हैं, दूसरे को लड़ाई लड़नी है।

आपको कद्दू ढोने हों तो वही ट्रक जैसे हो जाइए जिस पर — ओके, टाटा बाय-बाय , हॉर्न डीपर प्लीज। (श्रोतागण हँसते हैं) और अगर लड़ाई लड़नी है तो मिलिट्री के ट्रक जैसे हो जाइए। और यह भी मत भूलिए कि मिलिट्री का ट्रक जल्दी रिटायर कर दिया जाता है; भगत सिंह जैसे, जल्दी रिटायर हो गये। लम्बी लड़ाई लड़ी, लम्बी मने बड़ी, महत्वपूर्ण और जल्दी रिटायर भी हो गये; विवेकानन्द जैसे। है न?

कभी देखा धूल में सना हुआ मिलिटरी का ट्रक? नहीं देखा होगा। क्योंकि उसको धूल में सनना ही है, पर कहाँ? युद्ध क्षेत्र में। वहाँ वो धूल ही नहीं धुआँ भी झेलेगा, बम झेलेगा, गोला झेलेगा, सब झेलेगा और इसीलिए उसकी तैयारी पूरी रहती है।

और कद्दू वाला ट्रक? वो वही है — दम है तो रेस कर, ब्लोहॉर्न , शायरी भी होती है उस पर। मिलिट्री के ट्रक पर शायरी देखी है कभी? आध्यात्मिक आदमी को मिलिट्री के ट्रक जैसा ही होना पड़ेगा।

ऋषियों का शरीर कैसा देखा है, या अवतारों का? कैसा शरीर देखा है? वो कद्दू वाले ट्रक जैसा होता है, मिलिट्री के ट्रक जैसा? इसलिए नहीं कि उनको शरीर सौष्ठव बहुत प्रिय था। उन्हें बॉडी बिल्डिंग नहीं करनी थी, उन्हें लेकिन ज़िन्दगी की बहुत बड़ी लड़ाई लड़नी थी। इसलिए उनका शरीर मज़बूत पाओगे। बुद्ध की, महावीर की प्रतिमाएँ देख लीजिए, चाहे राम की, कृष्ण की; गुरुओं के चित्र देखिए। शरीर को वो मज़बूत रखेंगे क्योंकि उन्हें शरीर का इस्तेमाल करना है, दूर तक जाना है।

उन्हें वो स्थिति नहीं आने देनी है कि शरीर ही एक बोझ बन जाए। शरीर ही बोझ बन गया तब तो माया छा गयी, उन्हें माया से हार नहीं खानी है।

जी, अब और लोगों से ले-लें प्रश्न?

(आचार्य प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)

प्र २: सर, बस अन्तिम जिज्ञासा थी इससे सम्बन्धित। अभी लड़ते-लड़ते ज़्यादातर समय एक काँटे की लड़ाई होती है अपने साथ और उसमें एक मज़ा सा भी आता है, ज़्यादातर समय। पहले बहुत कम ही लड़ाई होती थी, पर अभी तो जितने समय करते रहता हूँ, उतने समय होती है। हर आधे घंटे में एकाधी लड़ाई तो हो ही जाती है अपने से।

फ्रस्टेशन भी कभी-कभी होता है, कभी-कभी आनन्द भी आता है, कभी-कभी अपने पर हँसी भी आती है। पहले तो यह लगता था कि जंजाल में फँस गया हूँ। लेकिन अभी लगता है कि नहीं, जो भी लड़ाई चल रही है वो एक मुक़ाम पर पहुँचने के लिए लड़ रही है।

जैसे कल ही मैं एक वीडियो सुन रहा था। तो एक बड़ी इच्छा जो अभी मुक्ति की इच्छा की तरफ़ एक प्रयास चल रहा है। और बीच-बीच में सर, बहुत सारे कंफ्यूजन भी आते हैं। सबसे बड़ा कंफ्यूज़न तो प्रोफेशन (पेशा) को लेकर आता है क्योंकि आठ-दस घंटे उसमें लगते हैं। और टेंशन भी होता है कभी-कभी पर उस टेंशन को मैं झाड़ता भी हूँ, अपने तरीक़े से। फिर ये लगता है कि उतना मैं पढ़ नहीं पाता हूँ, उतना समझदारी नहीं आ पाती है।

तो बहुत स्लो प्रोसेस (धीमी गति) चलता है क्योंकि हंड्रेड परसेंट डेडिकेट (शत प्रतिशत केन्द्रित) नहीं कर पाता हूँ। मेरा अपने पर बस चले तो मैं बारह घंटे भी पढ़ना चाहूँ और उसमें मगन रहना चाहूँ, अपने विचारधारा में, अपने मन को देखते हुए। पर वो हो नहीं पाता है, और उसको छोड़ूँ तो ये लगता है कि यार अभी कुछ बचा ही नहीं है। फिर से वही चीज़ आ जाती है कि वैक्यूम सा एक हो जाता है सर। और वो वैक्यूम काफ़ी प्रायः होता है फिर समझ में नहीं आता है कि क्या करूँ?

आचार्य: आपको और काम चाहिए। आप परेशान हैं क्योंकि आपकी मोटर पर पर्याप्त लोड नहीं पड़ रहा है; आपको लोड चाहिए। इलेक्ट्रिक सिस्टम में कई बार बर्न आउट इसलिए भी होता है क्योंकि उनमें पर्याप्त रजिस्टेंस नहीं होता, रजिस्टेंस माने लोड। है न? सर्किट थ्योरी में ये बात शुरू में ही सिखाते हैं कि अगर पर्याप्त लोड नहीं दिया तो भी उड़ जाएगा। पूरी ग्रिड तक उड़ सकती है अगर पर्याप्त लोड नहीं है अब नयी टेक्नोलॉजीज़ आ गयी होगी। पर अगर जितने भी उपभोक्ता है वो सब-के-सब कंजप्शन (उपभोग) ज़ीरो कर दें तो ये पॉवर प्लांट के लिए अच्छा नहीं होगा, लोड चाहिए। लोड दीजिए, लोड।

बस! बहुत लोग आगे भी हैं।

(आचार्य प्रश्नकर्ता को रोकते हुए)

प्र २: सर, थोड़ा बताएँगे, लोड मींस वॉट (लोड का क्या मतलब होता है)?

आचार्य: लोड मींस वॉट? ऐसा तो नहीं हो सकता न कि सबकुछ ठीक है, जीवन में भी और ज़माने में भी? या सब लगता है एकदम मस्त है? नहीं। तो थोड़े विवेक के साथ कुछ ऐसा पकड़ लीजिए जिसको आप ठीक कर देंगे; उठा लीजिए चुनौती, यही लोड है। जूझे बिना तो बात बनेगी नहीं।

प्र २: जी। जूझता हूँ सर, लोड लेता हूँ, अपने ऊपर।

प्र ३: प्रणाम आचार्य जी, अभी एक सज्जन जी ने पूछा था कि जैसे बार-बार विचार आते रहते हैं। उन्हें रोकने के लिए वो क्या करते है, प्रेजेंट मोमेंट (वर्तमान) में रहते है। तो आपने कहा कि चेतना को हर वक़्त रस चाहिए होता है, अगर वो वर्तमान में रहेंगे तो रस नहीं मिलेगा। परन्तु ये प्रश्न था मेरा कि जो नीरस हो जाएँगे तो क्या उससे समभाव नहीं विकसित होने लगेगा? कि मुझे सुख में भी नीरस रहेगा, दुख में भी नीरस रहूँगा मैं।

आचार्य: तुम सुख-दुख दोनों के प्रति समभाव तभी रख सकते हो, जब तुम्हारा पेट भरा हो आनन्द से। यह बिलकुल भी मत सोच लेना कि पेट खाली होगा और तुम एक तरफ़ पिज्ज़ा रखा हो, एक तरफ़ खिचड़ी रखी हो दोनों के प्रति समभाव रख लोगे। यह बड़ी व्यर्थ मान्यता है।

प्र ३: पर फिर आपने कहा था, 'पूरे जीवन की आहुति देनी होगी उसमें अगर कोई रस चाहिए तो।' तो मैं अगर कोई रस ले लूँगा तो फिर मैं अपनी इमेजिनेशन (कल्पना) में भी तो उसी का रस लेता रहूँगा जिसके लिए मैंने आहुति दी थी।

आचार्य: इमैजिनेशन में मिलेगा ही नहीं, वो छोटा रस है। तभी तो इमेजिनेशन और आगे-आगे-आगे बढ़ती रहती है न?

प्र ३: जैसे कि अगर मैंने संगीत को चुन लिया तो जैसे पिछले प्रश्नकर्ता कह रहे थे कि मेट्रो में बैठा हूँ, विचार आ रहे हैं, कही पर भी बैठा हूँ। तो फिर संगीत के थॉट्स (विचार) आते रहेंगे?

आचार्य: थॉट्स नहीं चाहिए, ज़िन्दगी चाहिए बाबा! ज़िन्दगी उसमें डालनी होगी। बैठकर के ख़याली पुलाव, उसमें क्या रस आ जाएगा? कितना आ जाएगा?

प्र ३: मेरे कहने का अर्थ यह था कि जैसे मैंने कोई भी कार्य किया जो कि बहुत अच्छा है। तो उसे उससे मुझे रस मिल रहा है, तो मेरे विचारों में उसी का रस आने लगेगा।

आचार्य: तो वो कर्म करते रहना होगा। अतीत में करा, इससे थोड़ी होगा। ये वो रस है जो ताज़ा ही पीना होता है; ये कैंड जूस नहीं है। आनन्द का रस सिर्फ़ ताज़ा-ताज़ा चलता है। आपने अतीत में कुछ अनुभव करा था, और आप स्मृति में उसका पुनर्चक्रण करते रहे, उससे रस नहीं आएगा — अच्छा हुआ कि पूछ लिया। ताज़ा-ताज़ा चाहिए होता है, एकदम फ़्रेश जूस।

प्र ४: प्रणाम आचार्य जी, मेरा नाम रविन है। मेरा प्रश्न था कि ये जो इंसानों में प्यास है, जो आत्मा की चाहत है क्या वो भी एक तरीक़े की भावना या वृत्ति है? और अगर ऐसा है तो अलग-अलग इंसानों में शायद यह प्यास अलग-अलग तरीक़ों से शान्त होती हो। जैसे- पैसे से, या पॉवर (शक्ति) से, या रिलेशनशिप (सम्बन्ध) से। क्या ऐसा ज़रूरी है कि कोई सच्चा या बड़ा काम करके ही प्यास बुझती है?

आचार्य: जहाँ तरीक़ा बीच में आ गया; जहाँ कोई माध्यम, मीडियेटर बीच में आ गया वहाँ प्यास शान्त नहीं होगी, यही तो बात है। प्यास एक ही है और उस प्यास को भड़काने वाले, उस प्यास को भटकाने वाले विषय हज़ार हैं। वो विषय क्या करते हैं? वो विषय वादा करते हैं कि हम प्यास को बुझा देंगे। उसी को तुम कह रहे हो कि सब इंसानों में वो प्यास अलग-अलग तरीक़े से बुझती है। सब इंसानों में वो प्यास अलग-अलग तरीक़े से बुझती नहीं, बढ़ती है।

तुम्हें जो भी चीज़ वादा करके बुला रही है कि मैं प्यास मिटा दूँगी, वो चीज़ वास्तव में उस प्यास को और बढ़ा ही देगी, तुम्हें और बौरा देगी। इसीलिए प्रक्रिया नकार की होनी चाहिए, कि यहाँ नहीं, यहाँ नहीं। पूरी गीता क्या कर रही है? विषयों को नकार रही है, नकार रही है।

प्र ४: क्या मुक्ति भी एक विषय बन सकता है हमारे लिए?

आचार्य: बिलकुल बन सकता है, अगर तुम उसको एक विचार या सिद्धान्त बना लो। इसीलिए मुक्ति की बात कम होनी चाहिए, बन्धनों की बहुत ज़्यादा। सच की बात कम होनी चाहिए, माया की बहुत ज़्यादा। नहीं तो तुम मुक्ति में ही बँध जाओगे। और वो मुक्ति, मुक्ति नहीं होगी।

प्र ४: पर कल आप जैसे कह रहे थे कि आत्मा की ओर बढ़ने के लिए भी अपनेआप को निर्विकल्प करके उससे बाँध लो, उस राह पर चलने के लिए। तो वो भी एक बन्धन हो गया?

आचार्य: वो जो राह होगी वो भी नकार की ही राह होगी। वो राह पहचानोगे कैसे? उस पर बहुत कुछ नकारना होगा, वो राह छोड़ने, की त्यागने की होगी। इसी से उस राह की पहचान होती है। उस राह पर मिल नहीं रहा होगा, छूट रहा होगा इसीलिए डर लगेगा उस राह से।

प्र ५: प्रणाम आचार्य जी, मेरा नाम प्रशांत है। मैं आपकी किताबें पढ़ता हूँ, आपके वीडियोज़ भी देखता हूँ। और उपनिषद् और गीता इत्यादि भी किताबें हैं मेरे पास, जिनको मैं कभी-कभी पढ़ता हूँ। तो लोग देखते हैं, तो उपहास के तौर पर कहते हैं कि कहाँ जवानी बर्बाद कर रहे हो, क्या कर रहे हो, बाबा बन जाओगे । क्या। इस तरह की चीज़ें सुनने को मिलती हैं

आचार्य: अभी बहुत आरम्भिक स्तर पर हो अगर ऐसे लोग आसपास भी हों तो। अभी तो तुम्हें ख़तरा यह है कि ये लोग तुम्हारी किताबें सब छीन ले जाएँगे। ये लोग तुम्हारे आसपास हैं क्यों? ये तो जो बिलकुल पहला कदम ले रहा होता है, उसको बाधा आती है कि आसपास के लोग मज़ाक बनाने लग गये, ऐसा-ऐसा। दूसरे कदम पर ऐसे लोग डरकर भाग जाते हैं। तीसरे, चौथे, पाँचवें, आठवें कदम पर नयी तरीक़े की बाधाएँ खड़ी होती हैं। ये जो तुम पूछ रहे हो ये तो प्रारम्भिक तल की बात है।

प्र ५: और उनका ये भी होता है कि वो एकदम प्यार से पूछेंगे कि अच्छा तुमने क्या सीखा बताओ, ताकि मैं भी अध्यात्म मार्ग पर चलूँ ताकि तुम अगर मुझे प्रभावित कर पाओ तो मैं करूँगा, ये सब चीज़ें। तो मैं जब उन्हें शुरुआत करता हूँ, बताना तो वो मज़ाक बनाते हैं?

आचार्य: तुम क्यों शुरुआत करते हो बताना?

प्र ५: क्योंकि मुझे लगता है।

आचार्य: तुम शुरुआत मत करो, तू 'शू' करो! आगे बढ़ो मत बहुत ज़्यादा। 'शू' आगे 'रुआत' बोलो मत। बोलो, 'शू’। तुम्हें समझ में नहीं आ रहा वो तुम्हारा मज़ाक बनाने के लिए ही शुरुआत करवाते है तुमसे। ऐसे नहीं होता, ऐसे नहीं होता। फ़ालतू के बिलकुल एकदम निम्न स्तर के दोस्त-यार तुम इकट्ठा भी करे रहो, और ज़िन्दगी में अध्यात्म जैसी ऊँची चीज़ भी ले आओ, ऐसा नहीं होता। सबसे पहले तो इस तरह के चिबिल्लों को इधर-उधर करना पड़ता है। ये भेड़-बकरी साथ रखकर तुम तीर्थाटन नहीं कर पाओगे। बैठो।

प्र ६: नमस्कार आचार्य जी, अभी विचारों को लेकर बात चल रही थी तो कबीर साहब का दोहा मुझे याद आ रहा था कि —

सोता साधु जगाइए, करे नाम का जाप। ये तीनों सोते भले साकट, सिंह और साँप।।

तो यहाँ पर जो साधु को जगाना है। किस नाम की यहाँ कभी साहब बात कर रहे हैं? और जो ये जो तीनों दोषों का नाम लिया है कबीर साहब ने, तो इनका दमन करना क्या ठीक है हमारे जीवन में? कृपया मार्गदर्शन कीजिए।

आचार्य: साधुता की बात हो रही है। आपके मन का एक हिस्सा होता है जो आत्मा मुखी होता है, उसको साधु कह रहे हैं। उसी से वो बात करते हैं हमेशा, उन्हें और किसी से करनी ही नहीं बात। जब वो बात करते हैं तो बोलते है, “सुनो भाई साधु” उन्हें और नहीं बात करनी है।

आपका वो हिस्सा जो आत्मा को पीठ करे हुए है, जो संसार मुखी है उससे वो बात करना नहीं चाहते। तो साधु से अर्थ है — वो मन का हिस्सा कहिए या वो मन का — मन के हज़ार चेहरे होते हैं न? जो आत्मा की ओर देख रहा हो, जिसको उधर प्रेम हो, उसको जगाने को कह रहे हैं। उठो, उसको जगाओ। वो अच्छी बात है

“साकट, सिंह और साँप” दो तो सीधे-ही-सीधे पशु हैं इसमें से। और एक जो आपकी दुष्टता की वृत्ति है, 'साकटता' उसकी बात हो रही है। कह रहे हैं, 'ये सो जाए तो भला है।' सोना माने? कि इनको सक्रिय मत होने दो। जैसे नींद में आदमी निष्क्रिय हो जाता है। होता तो है पर होकर भी कुछ कर नहीं पाता, इनको वैसा रहने दो। भीतर ये मौजूद तो रहेंगे, इनको सुलाए रखो, सुलाए रखो। सोते-सोते तुम इतनी दूर निकल आओ कि फिर इनके जगने की नौबत ही न आये।

प्र ५: और ये जो नाम का कबीर साहब लेते हैं, ये किसकी बात कर रहे हैं?

आचार्य: कोई भी ऐसा नाम जो आपको दुनिया के और नामों से अलग कर दे। बाक़ी देखिए, जितने नाम होते हैं वो सब इशारा करते हैं किसी भौतिक वस्तु की ओर। किसी ऐसी ओर दिशा करते हैं आपकी जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं। मैं आपसे कहूँ, 'कुर्सी,' तुरन्त क्या चित्र आता है? 'कुर्सी'। मैं तारामंडल का हूँ, तारामंडल। आकाश कह दूँ, आकाश। चश्मा, चश्मा। पत्नी कह दूँ, पत्नी। सब आ गये न?

एक नाम ऐसा होना चाहिए जिसके साथ आप कोई छवि जोड़ न पाएँ। लेकिन उसके साथ भाव ऐसा हो कि बाक़ी सब छवियों को काट दे। छवियों का सारा प्रवाह खट से रुक जाएँ। जैसे इमरजेंसी ब्रेक लग गया हो — वो नाम। इसलिए नाम जप की इतनी महत्ता बतायी गयी है। नामों से तो मन लगातार क्लान्त रहता ही है। एक नाम ऐसा ले आओ जीवन में जो सब नामों को काट दे।

मन का क्या काम है? मन नाम ही जपता रहता है, पर वो सारे नाम जीवन को बर्बाद कर देते हैं। एक-एक नाम ऐसा है जो मन पर बोझ की तरह है। तो फिर एक विशेष नाम की विधि इज़ाद की गयी, जो बाक़ी सब नामों को काट देगी, बाक़ी सब नामों को पीछे छोड़ देगी।

वो नाम कुछ भी हो सकता है — राम कहिए, कृष्ण कहिए। तमाम नाम हैं, शर्त बस एक है — उस नाम के साथ कोई कहानी नहीं जोड़नी है; उस नाम के साथ बस नकार जुड़ा होना चाहिए। उस नाम की पहचान ये होनी चाहिए कि वो नाम स्मृति में आया नहीं कि बाक़ी सारे नाम शिथिल पड़ गये, ये उस नाम की पहचान है। और अगर वो नाम ये काम नहीं कर पा रहा तो फिर आपने वो नाम भी व्यर्थ कर दिया।

प्र ५: इसलिए शायद 'जपुजी साहिब' में बोला, 'गुरु प्रसाद जप।'

आचार्य: इसीलिए 'सिख पंथ' में जी निर्गुण के उपासना है, निर्गुण की भक्ति है। आप कल्पना नहीं कर सकते। जिस तत्व की बात हो रही है, उसके बारे में ज़्यादा बात नहीं की गयी है। उसका कोई चित्र नहीं बताया गया है, बता दिया तो गड़बड़ हो जाएगी। लेकिन फिर भी उसे जपना है निरन्तर। जपते चलो, जपते चलो।

किसको? किसी ऐसे को जो सबसे आगे का है। चूँकि वो सबसे आगे का है इसलिए तुम उसकी कल्पना नहीं कर सकते। उसका काम बस यह कि बाक़ी सबको पीछे छोड़े रखे।

प्र ५ : जी धन्यवाद।

प्र ६: प्रणाम आचार्य जी, मैं लगभग बचपन से ही अध्यात्म में हूँ। स्वामी विवेकनन्द जी को पहले पढ़ा, और कुछ किताबें पढ़ता-सुनता रहा और लगभग तीन साल से आपको सुन रहा हूँ। बचपन में अच्छा विद्यार्थी था, सर और पीएमटी में अंडर हंड्रेड रैंक थी, एमबीबीएस पूरा किया, एमजीएम मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया।

लेकिन उसके बाद कहिए कि संगति ऐसी थी, या हमारे अन्दर की कुछ वृत्तियाँ ऐसी थीं कि हम थोड़ा कमज़ोर पड़ गये। मतलब पैचेज़ मैं पढ़ता-सुनता रहा हूँ, लेकिन जीवन एक सही दिशा में जो प्रगति होना चाहिए वो नहीं है।

और अभी लगातार संघर्ष कर रहा हूँ, उसी चीज़ से। तो कृपया मार्गदर्शन करें। आपको बहुत सुना है, बहुत स्पष्टता आयी है, बहुत जानकारी हो गया है चीज़ों को लेकर के। लेकिन तीन साल से आपको सुन रहा हूँ तो कुछ इस्टैब्लिशमेंट (स्थापना) नहीं दिख पा रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि शायद साल भर बाद मैं फिर से आपसे यही प्रश्न न करूँ।

तो ऐसा क्या किया जाए कि भटकाव नहीं। क्योंकि संसार में आप दिखते हैं कि माया में आदमी कहीं-न-कहीं उलझा ही रहता है।

आचार्य: कुछ किया जाए।

प्र ६: जी, वही मतलब क्या किया जाए? समझ में नहीं आता।

आचार्य: प्रश्न ये नहीं कि क्या किया जाए, प्रश्न ये है कि कुछ किया जाए।

प्र ६: सर, अभी फिलहाल के लिए पढ़़ाई है। तो उसमें उतना मन नहीं लग पाता है, कहीं-कहीं।

आचार्य: तो फिर कुछ करो न। बैठे-बैठे सोचने से नहीं होता। और ऐसा हो नहीं सकता कि तुम जानते नहीं कि क्या है जो करने लायक़ है।

प्र ६: जी, बिलकुल सर।

आचार्य: ‘बिलकुल’ बोलने के बाद मेरे लिए क्या बचा? करो।

प्र ६: पर नहीं कर पाते। कुछ-न-कुछ चीज़ें हैं जो रोक देती हैं।

आचार्य: ये चुनाव है तुम्हारा। इसमें मेरा कोई दख़ल नहीं हो सकता, इसमें मेरे कहने के लिए कोई स्थान नहीं है। अगर जानते हो कि क्या करने योग्य है फिर भी नहीं कर रहे तो ये तुम्हारा स्वतन्त्र चुनाव है, तुम जानो।

प्र ६: मतलब कई बार वीक फील (कमज़ोर महसूस) करते हैं।

आचार्य: ये भी चुनाव है। किसने कहा है कि ऐसा फील करो कि वैसा फील करो?

प्र ६: सर, नहीं कर पाते।

आचार्य: झूठ। कौआ काटेगा!

प्र ६: कोई समाधान नहीं है सर।

आचार्य: झूठ है, झूठ।

(स्वयंसेवक प्रश्नकर्ता को आगे बात करने से रोकते हैं।)

आचार्य: अरे फिर तुमने ― कहने दो न बात (स्वयंसेवक से कहते हुए)।

प्र ६: मतलब मुझे लगता है कि ज़्यादातर लोगों के साथ ऐसी समस्या रहती है। कई बार हम जानते हैं कि सही ये है।

आचार्य: अपनी बात करो। तुम अपने झूठ को बचाने के लिए कह रहे हो, ‘देखिए, अकेला नहीं, बहुमत में हूँ; डरकर रहिए लोकतन्त्र है।’

प्र: नहीं-नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है।

आचार्य: फिर दूसरों की बात क्यों करी अभी?

प्र: मतलब ऐसा देखता हूँ।

आचार्य: अरे, अपनी बात करो न! तुम देखते ही सिर्फ़ उन्हीं को हो जो तुम्हारे जैसे हैं। मैं जिनको देखता हूँ, वो वैसे नहीं हैं। अपनेआप को बचाने के लिए व्यक्ति अपने जैसों का ही सहारा ले लेता है, उन्हीं की संगत कर लेता है। फिर कहता है, ‘सभी तो ऐसे हैं, तो मैं भी ऐसा हूँ।’ ये क्या तर्क है?

कमज़ोरी का कोई तर्क दिया मत करो! कमज़ोर होना चाहें तो सब कमज़ोर हैं। कोई ऐसा नहीं है जो कमज़ोर नहीं है। तुम तय करके देख लो कि तुम्हें कमज़ोर होना है; कमज़ोर ही हो तुम।

अपने चाहने, अपने तय करने, अपने चुनने की बात है; कौन नहीं कमज़ोर है!

प्र ६: धन्यवाद।

YouTube Link: https://youtu.be/COOWhnZWAeI?si=TNbdrVjcQbs4WkVe

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