यस्यामिमे घण्नरदेव दस्यव: सार्थ विलुम्पन्ति कुनायकं बलातू। गोमायवो यत्न हरन्ति सार्थिकं प्रमत्तमाविश्य यथोरणं बवृका:।।
अर्थ: महाराज, उस जंगल में छ: डाकू हैं। इस वणिक समाज का नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्व में जब यह समाज वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात उसे लूट लेते हैं।
~ परमहंस गीता ( अध्याय ४, श्लोक २ )
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। इस श्लोक में जिन परिस्थितियों का वर्णन किया गया है, वे हम रोज़ अपने जीवन में देखते हैं। हमें यह भी समझ में आता है कि जो धन हम इकट्ठा कर रहे हैं, उस पर हमारे करीबी लोगों की नज़र रहती है — चाहे वे माँ-बाप हों, भाई-बहन हों, पत्नी-बच्चे हों।
लेकिन यह भी सच है कि जीते-जी हम उन्हें अपनी सम्पत्ति देना भी नहीं चाहते। फिर भी हमारा दावा यही रहता है कि हम यह सब अपनों के लिए ही कर रहे हैं। और बार-बार यही तर्क देकर हम अपनी स्थिति बनाये रखते हैं। इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता सुझाएँ। आभार। आचार्य प्रशांत: तो परमहंस गीता ने एक चित्र खींचा है, एक उदाहरण के तौर पर बताया है कि कैसे व्यापारियों का एक समूह जब संसार वन में भ्रमित होकर प्रवेश कर जाता है तो लुटेरे उसको लूटते हैं। छ: लुटेरों की बात की गयी है, षडरिपु — काम, क्रोध, मद, मोह, मात्सर्य, भय इत्यादि।
तो उस उदाहरण से प्रश्नकर्ता ने ये समझा कि बात ये हो रही है कि ये जो व्यापारियों की सम्पत्ति है, इसको कुछ दूसरे लोग हैं जो लूट ले जा रहे हैं। और कह रहे हैं, ‘ये बात बिलकुल सही है, हम सम्पत्ति कमाते हैं। हमारी पत्नी, बच्चे वगैरह-वगैरह उस पर नज़र रखते हैं। और ये सम्पत्ति हम उनको देना भी नहीं चाहते इत्यादि।’
आप ये क्या फ़िल्मी कहानी बता रहे हैं! यहाँ ये नहीं कहा जा रहा है कि वो लुटेरे जो हैं वो आपके परिवार के दूसरे लोग हैं। ये नहीं कहा जा रहा है कि आपके पास बड़ी ज़बरदस्त सम्पत्ति है और उस सम्पत्ति को दूसरे लोग लूट लेना चाहते हैं। ये सब बातें तो फ़िल्मों में होती हैं कि एक आदमी है उसने बड़ी मेहनत से पैसा कमाया है, लेकिन उसके अपने ही उसकी सम्पत्ति पर गन्दी-काली नज़र रखते हैं। ये नहीं कह रहा है श्लोक, गलत मत पढ़िए गीता को।
श्लोक कह रहा है कि आपने जो कमाया है वो सम्पत्ति है ही नहीं। और श्लोक कह रहा है कि जो लोग लूटने के लिए तैयार खड़े हैं वो दूसरे लोग नहीं हैं, वो आपके ही भीतर का मद, मोह, काम, क्रोध और माया, मात्सर्य है। आपने तो पूरी कहानी ही उलट कर रख दी!
आपकी कहानी में आप नायक हैं, जिसने खून-पसीना एक करके ईमानदारी से पैसा कमाया है और बहुत सारे खलनायक हैं — और खलनायकों में एक है बीवी, एक है बच्चा, एक है भाई और दोस्त-यार। और ये सब खलनायक लोग इस बेचारे ईमानदार आदमी की ईमानदारी से अर्जित की गयी सम्पत्ति पर गन्दी नज़र रखते हैं, लूट लेना चाहते हैं। ये आपने कहानी बना दी।
ये आपकी कहानी है, गीता ये थोड़े ही बोल रही है। गीता कुछ और बोल रही है। गीता बोल रही है कि ये जो आदमी है जो सम्पत्ति कमाने को उत्सुक है — जो आप हैं — ये आदमी ही पगला है। ये अपनेआप को नहीं जानता। सम्पत्ति के नाम पर ये कचरा इकट्ठा कर रहा है। और, और कचरा इकट्ठा करने के लिए जंगल में घुसा जा रहा है, और गहरा और गहरा। और जितना जंगल में घुसता जा रहा है उतना ही दुख पा रहा है। किससे दुख पा रहा है? कुछ जंगल से, और ज़्यादा अपने भीतर बसे हुए अपने ही लुटेरों से।
आपके पत्नी और बच्चे की बात नहीं हो रही है कि वो आपको लूट ले जाएँगे। आपके भीतर जो अज्ञान और कामना और मद और मोह है, उसकी बात हो रही है। वो चीज़ें लूट रही हैं भाई आपको। आपने तो सारा इल्ज़ाम उठाकर दूसरों पर लगा दिया और आपने अपनी सम्पत्ति को बड़ा मूल्यवान बता दिया।
‘हमारी सम्पत्ति को दूसरे लूट लेना चाहते हैं!’ आपके पास सम्पत्ति है कौनसी? हैं भाई! देखिये ज़रा। ‘हमें समझ में आता है।’ आपको समझ में आता है, शाबाश! ‘हमें समझ में आता है कि जो धन हम इकट्ठा कर रहे हैं उस पर हमारे क़रीबी लोगों की नज़र रहती है — चाहे वो माँ-बाप हों, भाई-बहन हों, पत्नी-बच्चे हों।’ फ़िल्में कम देखा करिए। ‘जो धन हम इकट्ठा कर रहे हैं!’
पूरी गीता यही समझा रही है कि आप जो धन इकट्ठा कर रहे हो, वो निर्धन होने से भी बदतर है। धन की जो पहचान बतायी गयी वो ये कि “कबीरा सो धन संचिए जो आगे को होय। आपका ये धन आगे का है? ये आज का नहीं है, आगे का क्या होगा।
पहली बात तो आपके पास धन है नहीं। और दूसरी बात आपके दुश्मन दायें-बायें, अगल-बगल के लोग नहीं है; न परिवार के, न समाज के। आपका दुश्मन आपके भीतर बैठा हुआ है, भाई। आपका ये धन किसी काम का नहीं है।
आपके आस-पास अगर लोग हैं जो आपके रुपये-पैसे पर निगाह रखे हुए हैं, आप दे दीजिए उनको रुपया-पैसा। यही आपका बदला होगा उनके खिलाफ़। इससे बढ़िया आप उनको प्रतिकार दे नहीं सकते। जो व्यर्थ की चीज़ पर नज़र जमाये बैठा हो, उसका कर्मफल यही है, उसके खिलाफ़ अस्तित्व का प्रतिशोध ही यही है कि उसको वो चीज़ मिल जाए, वो जिसकी ताक में, जिसकी उम्मीद में है।
बड़ा अहंकार है आपमें कि आप धनी हो गये! आपने धन नहीं कमाया है, धन तो वो है जो जीवन को धन्यता दे दे। आप ही बता दीजिएगा ईमानदारी से कि आपके धन ने आपको कितनी धन्यता दे दी है? जिस सीमा तक आपका धन आपको धन्यता दे रहा है, आपका धन आपके काम का है।
पर मैं कह रहा हूँ, ‘निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत आपका धन आपके बोझ की तरह है, धन्यता नहीं देता वो आपको। कोई आपके बोझ पर अगर नज़रें गड़ाये है, कोई आपका बोझ अगर आपसे चुराकर ले जाना चाहता है तो आपको कोई तकलीफ़?
बड़ी सुन्दर कहानियाँ हैं, पढ़ा करिए थोड़ा; फ़िल्में कम देखकर के आध्यात्मिक साहित्य थोड़ा ज्यादा पढ़िए।
तो एक फ़कीर था वो सो रहा था। छोटा सा घर उसका। छत टूटी हुई थी, उसको छेद में से चाँद दिखाई दे रहा है। वो अपना जगा हुआ है, लेटा अपना चाँद देख रहा है। एक चोर घुस आता है। चोर भी बहुत पहुँचा हुआ चोर होगा, फ़कीर के घर चोरी करने घुसा है!
बेरोज़गारी का ज़माना होगा, पहले भी रहता होगा ऐसा। तो घुसकर वहाँ जो उसे दो-चार बर्तन-भांडा मिला, फटी हुई चप्पल मिली, वो अपना लेकर के वहाँ से निकल लिया। और क्या पाएगा, दो-चार कपड़े-वपड़े रहे होंगे, वो सब लेकर निकल लिया।
वो सोच रहा है कि ये सो ही रहा है फ़कीर। मैं बड़ा होशियार हूँ, मैंने चोरी कर ली। फ़कीर जग रहा था, उसे सब पता था ये घुसा हुआ है, ये ये उठा रहा है, वो उठा रहा है, उठा ले। जब वो निकल गया तो पीछे से मुस्कुराता है, बोलता है, ‘काश! मैं उसे चाँद दे सकता।’
ये चीज़ें जो ले जाना चाहते हैं उन्हें ले जाने दीजिए न; चाँद नहीं ले जा पाएँगे वो। दिक्कत ये है कि आपके जीवन में चाँद है ही नहीं। जिसके जीवन में चाँद होता है वो कहता है, ‘ले जाने दो। बेचारे बड़े गरीब हैं, इन्हे ले जाने दो जो ये ले जाना चाहते हैं। और अफ़सोस मुझे ये है कि इनकी गरीबी जिस चाँद से मिटती है, वो मैं इन्हें दे नहीं सकता। काश! मैं इन्हें चाँद दे सकता। तुम तो जो ले जा रहे हो, ये तो भिखारियों की भीख है, ले जाओ।’
छोड़ दीजिए ये दम्भ कि आप धनी आदमी हैं, छोड़ दीजिए कि आपने बड़ी सम्पत्ति अर्जित कर दी है। वो सम्पत्ति अर्जित करके क्या मिला है आपको? यही तनाव न कि मेरे धन पर मेरी पत्नी की बच्चों की… — ये अर्जित करा है आपने? ये आपके रिश्ते हैं, देख लीजिए न क्या कमाया है? कि पत्नी और बच्चों पर भी सन्देह है कि उनकी आपकी दौलत पर नज़र है।
कैसे सो लेते होंगे, कैसे जग लेते होंगे, कैसे जी लेते होंगे? और आग दोनों तरफ़ बराबर की लगी हुई है। ‘हमारे धन पर हमारे करीबी लोगों की नज़र रहती है’ — ये उधर की आग हुई। अब इधर की आग सुनो, ‘लेकिन ये भी सच है कि जीते-जी हम उन्हें अपनी सम्पत्ति देंगे नहीं!’ गज़ब कहानी है!
ये जो कुछ हो रहा है आप बस इसकी शूटिंग कर लीजिए, दो-चार सौ करोड़ की तो पिक़्चर आपकी चलेगी-ही-चलेगी; धन और बढ़ जाएगा। चार-छः पात्र हैं जो लगे हुए हैं आपके हीरे-ज़वाहरात चुराने में। और दूसरी ओर आप हैं दृढ़ प्रतिज्ञ, अंगद की तरह पाँव जमा दिया है कि बेटा जब तक जी रहे हैं तब तक तो कुछ नहीं उखाड़ पाओगे। अगर आपने यही कह दिया है कि जब तक हम जी रहे हैं तब तक एक ढेला नहीं पाओगे, तो फिर आगे की समझ लीजिए क्या होने वाला है!
घर में अपने लड़के-बच्चों का आपने बोल दिया, ‘जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, कुछ पाओगे नहीं।’ तो अब समझ लो आगे क्या करेंगे वो! अब ये जो है कॉमेडी से हॉरर (डरावना) की तरफ़ जा रही है आपकी पिक़्चर। जब सबको बता ही दोगे कि जब तक दम नहीं तोड़ दूँगा, एक रुपया नहीं पाओगे, तो वहाँ वो तुम्हारा दम-बम सब तोड़ने को तैयार खड़े हो जाएँगे।
अपमान नहीं कर रहा हूँ(हाथ जोड़ते हुए), जब इस तरह की बातें पढ़ता हूँ तो अधैर्य हो जाता है। समझ में नहीं आता कि क्या जवाब दूँ। बड़ा दुख उठता है कि कोई कैसे अपना पूरा जीवन इस तरह के सिद्धान्तों पर चलकर काट आया?
वही जो भीतर से पीड़ा उठती है उसकी अभिव्यक्ति फिर कभी ताने के रूप में, कभी क्रोध के रूप में हो जाती है। पर आपकी हालत को देखकर दर्द उठता है, अफ़सोस उठता है कि ये कैसे जी रहे हैं, क्या कर रखा है, क्या हाल बना रखा है।
प्र: इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता सुझाएँ।
आचार्य: चक्रव्यूह बाहर का छोड़िए आप, भीतर का जो चक्रव्यूह है उस पर ध्यान दीजिए। भीतर जो चक्कर चल रहे हैं उस पर ध्यान दीजिए। किस चीज़ को आप अपनी सम्पत्ति बोल रहे हैं, किनको आप अपना बोल रहे हैं, आप हैं कौन — इस पर ध्यान दीजिए। ये सब स्थितियाँ फिर अपनेआप सुलझ जाएँगी बाहरवाली; अन्दर की स्थिति सुलझाइए।
जीवन को लेकर आपने जो कहानी गढ़ रखी है, जीवन वैसा है नहीं। अभी तक भी आपके साथ जो कुछ हुआ, उसको लेकर आपके पास एक कहानी है। और वो कहानी झूठी है। आप जानते हो झूठी है, आपने उसमें बहुत सारी बातें दबा रखी हैं, आपने उसमें बहुत सारी बातें व्यर्थ ही फुला रखी हैं, बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रखी हैं। उस कहानी के यथार्थ की तरफ़ जाइए, बात खुल जाएगी।
अध्यात्म तथ्यों से शुरू होता है भाई। अपने जीवन के तथ्यों से तो परिचित रहो न, अपने जीवन के तथ्यों को तो स्वीकृति दो न। जो हो रहा है तुम उसी को बेईमानी कर-करके दबा दोगे, छुपा दोगे तो काम कैसे चलेगा?
जो हो रहा है तुम उसको कह दोगे, ‘हुआ ही नहीं।’ जो नहीं हुआ, उसको तुम ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला-चिल्लाकर कहोगे, ‘यही हुआ है, ऐसा हुआ, ऐसा हुआ, कल्पना का महल खड़ा कर दोगे, बेकार का आडम्बर, झूठ, तो कैसे चलेगा?
तो पता करिए कि वास्तव में हो क्या रहा है, भीतर क्या चलता है, ये रिश्ते क्या हैं, क्यों बनाने हैं रिश्ते? और उन लोगों के बारे में थोड़ा जानिए-पढ़िए जिन्होंने आपसे बिलकुल भिन्न एक जीवन बिताया। आप जिस भाषा में बात कर रहे हैं न, उससे ऐसा लग रहा है कि आपने मान रखा है कि ऐसा ही होता है। ‘हमारा दावा ऐसा रहता है, ये रहता है।’
एक तो ‘हम’ की भाषा में बात करने का अर्थ होता है कि आप एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। और उस समूह में रहकर आपको ऐसा लगने लग गया है कि ये समूह ही तो संसार है। ये सब इसी तरह से विचार और व्यवहार करते हैं; नहीं, सब ऐसे नहीं होते। आप जैसे हैं उससे बहुत-बहुत भिन्न भी लोग हुए हैं। उनके बारे में जानिए, उनके बारे में पढ़िए।
और वैसे लोग अगर जीवित हों तो उनके सम्पर्क में आइए, तो आपको पता लगेगा कि जैसे आप जी रहे हैं वैसे जीना जरूरी नहीं है बल्कि वैसे जीना मूर्खता है। लोग हैं जो बहुत अलग तरीके से जी रहे हैं और वही हैं जो वास्तव में जी रहे हैं। ठीक है? शुरुआत करिए।
ये प्रश्न भी आप अभी इसलिए कर पाये क्योंकि आज आपने परमहंस गीता का पाठ करा। अब परमहंस गीता को और अन्य गीताओं को छोड़िएगा नहीं। आपको इनकी बहुत-बहुत ज़रूरत है, इनके साथ रहिए। इनके साथ नहीं रहेंगे तो अपने साथ रहेंगे। अपने साथ रहना आपको फलेगा नहीं।