प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं बन्धनों में फँसा हुआ हूँ और मैं जिन लोगों से जुड़ा हुआ हूँ, वो भी कमरे में बन्द ही हैं, फँसे हुए हैं। उन्हें इस बात की कोई ख़बर नहीं और कोई ख़बर लेना भी नहीं चाहता। मेरे साथ-साथ उनके लिए भी इस क़ैद से रिहाई पाना ही महत्वपूर्ण होना चाहिए। मैं स्वयं तो मुक्ति पाने के लिए प्रयासरत हूँ, पर जब मैं उन्हें इस दलदल से निकालने की कोशिश करता हूँ तो उनकी तरफ़ से कड़ा विरोध देखने को मिलता है। मुझे ही उल्टा उनसे बुरा-भला सुनना पड़ता है।
अब ये उनके तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि मैं पाता हूँ कि मेरे आसपास का माहौल मेरे व्यक्तिगत प्रयासों में भी बाधा उत्पन्न करता है जिसकी वजह से मैं भी ऊँचा नहीं उठ पा रहा हूँ। बात इस हद तक पहुँच गयी है कि इस माहौल में मैं तनावग्रस्त रहने लगा हूँ, और उनसे अलग होना ही मुझे एक सम्भव उपाय सूझ रहा है। मुझे लगता है वर्तमान स्थिति में मुक्ति की दिशा में यही एक उचित क़दम होगा। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: तो यही तर्क तो उन सबके पास है न जो बन्द हैं कमरे में, क़ैद में। फिर तुम उनसे भिन्न कैसे हो? पर तुम ये कहने का सुख भी लेना चाहते हो कि वो लोग निचले दर्जे के हैं, मैं उनकी तरह नहीं जीना चाहता, मुझे वो लोग गिरे हुए लगते हैं। ये कहने में अहंकार को सुख मिलता है न कि दूसरे लोग मुझसे नीचे के हैं। ये कहने का तुम सुख भी ले लेना चाहते हो, और आसक्ति में, मोह में जो सुख मिलता है, तुम वो भी लेते रहना चाहते हो।
वो बेचारे जो बाक़ी लोग तुम्हारे साथ बन्द हैं अपनी आदतों और मन के कमरे में, वो तो एक ही तरह का सुख ले रहे हैं बस। कौनसा सुख? पुराने ढर्रों का सुख; पुराने ढर्रों पर चलने में सुरक्षा है, सुरक्षा में सुख लगता है। तुम तो दो-दो तरह के सुख ले रहे हो, कि मैं रहूँगा भी इन्हीं के साथ, जियूँगा भी इन्हीं की तरह, और जो फ़ायदे मिलते हैं इनकी तरह जीकर, वो सारे फ़ायदे लूटूँगा, और साथ-ही-साथ भीतर-ही-भीतर इस बात का गर्व भी रखूँगा कि मैं इन लोगों से ऊपर का हूँ, ये लोग मुझसे नीचे के हैं।
अगर वो लोग वाक़ई तुमसे नीचे के हैं, तो तुम उनके साथ कर क्या रहे हो? और अगर तुम उन्हीं के साथ लगे ही हुए हो, तो क्यों झूठा दावा करते हो कि तुम उनसे ऊपर के हो? तुम कैसे उनसे ऊपर के हुए अगर तुम बिलकुल वैसे ही जी रहे हो जैसे वो जी रहे हैं? और ये बात मैं हर उस आदमी से कहूँगा जो कहता है कि मेरा माहौल ग़लत है। मैं ग़लत माहौल में सही आदमी हूँ। मेरे घर के लोग हैं न, वो नासमझ हैं बहुत, मेरे दफ़्तर में मेरे कलीग्स (सहकर्मी) एकदम ही मटिरियलिस्टिक (भौतिकवादी) हैं, कुछ समझते नहीं।
तुम ऐसे दफ़्तर में कर क्या रहे हो? तुम्हें उस दफ़्तर के मज़े भी लेने हैं, उसी दफ़्तर से पैसे भी उठाने हैं, उसी दफ़्तर से तुमने अपनी पहचान, अपनी आइडेंटिटी बना रखी है, अपनी प्रतिष्ठा का तुम्हें वहाँ से सुख भी लेना है। और साथ-ही-साथ तुम इतने चतुर हो कि तुम्हें ये सुख भी लेना है कि साहब, हाँ, मैं हूँ तो इन्हीं के साथ, काम कर रहा हूँ, पैसे-वैसे मैं इन्हीं से लेता हूँ, लेकिन मैं इनसे ऊपर का हूँ। ये सब गिरे हुए लोग हैं, मैं ज़रा ऊपर के तल का हूँ। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, ‘आप उनसे ऊपर के हैं, उन्हीं के तल के हैं या उनसे भी गिरे हुए हैं?’ बोलो। बोलो।
मैं किसी रेस्टोरेंट में जाकर बैठूँ और मैं उसके वेटर को, और मैनेजर (प्रबन्धक) को बोलूँ, ‘तुम्हारा रेस्टोरेंट बहुत ही घटिया है, बहुत ही घटिया है। ये सड़ा हुआ खाना! और मैंने जितनी बार खाया है, मेरा पेट ख़राब हो गया है। ये क्या मेन्यू है! और ये क्या गन्दगी है! सफ़ाई नहीं रखते हो, हाइजीन (स्वछता) बिलकुल नहीं! दो डोसे और लाना।’
मेरा इरादा क्या है? अगर आप किसी को ऐसा करते देखें किसी रेस्टोरेंट में, तो उसका इरादा क्या है, बताओ? अरे! मंझे हुए खिलाड़ी हैं सब। बताइए, क्या इरादा है उसका? उसका इरादा है डिस्काउंट निकलवाने का।
ये होती है हमारी ख़्वाहिश! जिनके साथ हैं, उन्हीं के साथ रहेंगे, और उनको गरियाएँगे भी ताकि डिस्काउंट मिले। अगर वो जगह इतनी ही ख़राब है, तो तुम वहाँ खा क्यों रहे हो, उठकर चले जाओ न। पर तुम वहीं बैठोगे, क्योंकि तुम्हारी नीयत वहीं खाने की है; वहीं खाने की है डिस्काउंट के साथ।
और वो तुम्हें डिस्काउंट दें, इसके लिए ज़रूरी है कि पहले तुम उन्हें ये एहसास कराओ कि तुम्हारी जगह घटिया है, तुम्हारा शेफ़ (बावर्ची) घटिया है, तुम्हारा मेन्टेनेन्स (रख-रखाव) घटिया है, सब घटिया है। तो कहेगा, ‘अरे! अरे! मैं घटिया हूँ, आप ऊँचे हैं। लीजिए, लीजिए, मैं आपको तीस परसेंट डिस्काउंट दे रहा हूँ।’
एक बार तुमने जान लिया कि कोई जगह तुम्हारे योग्य नहीं है, तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी क्या है तुरन्त अपने प्रति? बोलो। बोलो।
प्र: ऐसी जगह को त्याग देना।
आचार्य: और कर क्या रहे हो? इसीलिए तो मैंने पूछा, ‘क्या रोक रहा है तुम्हें?’ कोई-न-कोई लालच होगा या कोई डर। मूल वृत्ति और तो कुछ होती ही नहीं। काहे को टिके हुए हो? इतनी ही बुरी है जगह तो काहे को टिके हो?
या तो ये कह दो कि मुझे हटना है ही नहीं, मुझे टिके रहकर सुधार करना है। चलो, ठीक है, आज़मा लो। क्या पता सफलता मिल ही जाए! या तो हट जाओ या कह दो, ‘नहीं, हटना मुझे है ही नहीं। मैं यहीं रहूँगा और अन्दर से सुधार लाऊँगा।’ वो भी ठीक है, पर ये बिलकुल भी ठीक नहीं है कि जगह ठीक नहीं है, मैं यहाँ फँस गया हूँ, और फँसा ही हुआ हूँ। ये फँसा-फँसी कुछ समझ में नहीं आयी।
क्या बनाया है! कैसी चाय है! बढ़िया नहीं बना सकते थे। (आचार्य जी चाय पीते हुए, व्यंग्य करते हुए)
प्र२: मैं नागपुर, महाराष्ट्र का रहनेवाला हूँ। मेरी हमेशा से यही कामना थी कि जीवन में कुछ ऐसा करना है जिसमें मैं खुश रहूँ और मेरा परिवार भी खुश रहे। पढ़ाई ख़त्म होने के बाद मुझे गोवा में काम करने का अवसर मिला। चूँकि ये मेरी पसन्द की जगह थी, तो मैंने शीघ्र ही नौकरी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तब तो घरवाले मान गये थे, पर अब दो साल बाद घर वापस आने के लिए ज़िद कर रहे हैं। मैं अभी वापस नहीं जाना चाहता, क्योंकि मैं अभी अपने करियर पर ध्यान देना चाहता हूँ और मैं यहाँ खुश हूँ। मुझे अभी ख़ुद को आज़माना है, जो कुछ करने की क्षमता है, उसे परखना है। अभी मेरे लिए बहुत कुछ देखना, सुनना, समझना बाक़ी है।
आचार्य: तुम्हें पसन्द है गोवा?
प्र२: हाँ, मुझे तो पसन्द है, क्योंकि मुझे ऐसी जगह चाहिए जहाँ मैं खुश रहूँ।
आचार्य: अभी तो तुम यहाँ इसलिए हो, क्योंकि तुम्हारी नौकरी यहाँ है।
प्र२: हाँ, और मैं घूम भी सक रहा हूँ।
आचार्य: तुम यहाँ घूम सकते हो, यहाँ प्राकृतिक सुन्दरता है। तुम्हें पसन्द है गोवा, तुम्हारी नौकरी यहाँ है, तुम इसलिए यहाँ हो। है न?
प्र२: हाँ, यहाँ खुश हूँ मैं।
आचार्य: तुम्हें पसन्द है गोवा और तुम प्रसन्न हो यहाँ पर। ठीक? तो नौकरी चली भी जाए तो भी यहीं रहना।
प्र२: लेकिन घरवाले बोलते हैं कि आ जा, कब तक रहेगा।
आचार्य: घरवालों को तुम बोल दो, ‘आ जा।’ मिलन तो दोनों दिशाओं में हो सकता है। घरवाले यहाँ क्यों नहीं आ सकते?
प्र२: आ सकते हैं। वो भी आये थे, उन्होंने भी लुत्फ़ उठाया यहाँ पर।
आचार्य: तो फिर?
प्र२: लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं भविष्य में भी आगे कब तक यहाँ पर रहूँगा, कब तक घर से दूर रहूँगा, कब तक ऐसे ही।
आचार्य: घर यहीं बना लो न, क्या दिक्क़त है? जहाँ तुम्हारा आनन्द है, तुम्हारा घर वहाँ नहीं तो कहाँ बनेगा? ये हम जन्तु किस तरह के हैं, हम सब लोग? मैं भी शामिल हूँ इसमें। मैंने भी यही सब ग़लतियाँ की हैं, इसलिए आपसे बात कर पा रहा हूँ। जहाँ तुम्हें आनन्द है और शान्ति है, वहाँ तुम बस एक पर्यटक, टूरिस्ट की तरह आना चाहते हो, वहाँ घर नहीं बनाना चाहते? और मैं सिर्फ़ किसी ज़मीनी, भौगोलिक जगह की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं मानसिक तल पर भी बात कर रहा हूँ। वो कोई जगह भी हो सकती है, वो कोई व्यक्ति भी हो सकता है, वो कोई काम भी हो सकता है। जिसके साथ आनन्द है, उसी के साथ जम क्यों नहीं जाते भाई! या ऐसा करोगे कि प्यार इससे किया है, शादी उससे करोगे? बोलो। तो जहाँ आनन्द है, उसी के साथ जम जाओ। पर हम सब ऐसे ही हैं। दिल कहीं और है, ज़िन्दगी कहीं और है — इसी को तो अहंकार बोलते हैं न — आत्मा कहीं है और मन कहीं है।
आपका जीवन ही जैसे आपकी समझ से मेल न खा रहा हो। जिन चीज़ों के बारे में हम नासमझ हैं, वहाँ तो चलो माफ़ी है। समझ में ही नहीं आयी बात, क्या कर सकते हैं। पर अजीब तब हो जाता है जब हमें बात समझ में आ गयी होती है — जैसे आपको समझ में आ रही है कि यहाँ मस्त हो, आनन्दित हो, शान्त हो — और उसके बाद भी हम कुछ ऐसा करने पर उतारू हो जाते हैं जो हमारे ही आनन्द को तबाह कर देगा। ये हमारे भीतर कैसी आत्मघाती वृत्ति होती है, हम अपने ही ख़िलाफ़ क्यों खड़े हो जाते हैं, जैसे हमारे ही भीतर कोई बैठा हो जिसे हमारा खुश रहना पसन्द ही नहीं?
और मैं ऊँची खुशी की बात कर रहा हूँ, मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि गोवा में तुम उस खुशी की बात नहीं कर रहे हो जो गांजा मारकर आती है। तुम बात लहरों की कर रहे हो, तुम बात रेत की कर रहे हो, तुम बात सूरज की कर रहे हो और नारियल के पेड़ों की कर रहे हो। ये नहीं है कि गोवा मुझे पसन्द ही इसीलिए है कि गांजा! तो जहाँ तुम्हें ऊँची खुशी मिल रही है — ऊँची खुशी वो जिसके साथ शान्ति चलती है, जिसके साथ आज़ादी का अनुभव होता है — जहाँ तुम्हें ऊँची खुशी मिल रही है, तुम वहाँ बस ही क्यों नहीं जाते? कौनसी मजबूरी है भाई?
अरे! हटाओ, उन्हें यहाँ लेकर आओ। प्यार में आदमी ये करता है कि जो डूब रहा है, उसके साथ डूब जाए या ये करता है कि उसे भी बचाये? ये दो तरह का प्यार होता है; हमें बस ट्रैजिक लव (दुखद प्रेम) ही पता है जिसमें डूबते के साथ हम भी डूब गये। और ये मुझे समझ में नहीं आता।
परिस्तिथियाँ तुम पर हावी हो जाएँ, प्रारब्ध का ही ऐसा तुम पर ज़ोर पड़ जाए कि पूरी कोशिश के बावजूद तुम बचा नहीं पाये और साथ में डूब गये, तो मैं नहीं कहता। भगवान कोई नहीं होता हममें से, हर चीज़ के मालिक हम नहीं हैं। डूबते को बचाने की कोशिश की, इरादा हमारा यही था कि उसको बाहर खींच लाएँगे, लेकिन हम भी डूब गये। चलो, कोई बात नहीं! लेकिन अगर तुमने तय ही कर रखा है कि वो डूब रहा है तो चलो मैं भी डूब जाता हूँ, तो मुझसे बात मत करो फिर। प्यार है तो उसको बाहर खींचकर लाओ न, कम-से-कम कोशिश तो करो।
हममें जैसे एक अपराध भाव भर दिया गया है आनन्द के ख़िलाफ़, गिल्ट। हमारे भीतर से तनाव हटने लगता है, दुख हटने लगता है, तो हममें अपराध भाव उठता है। हम गिल्टी अनुभव करने लगते हैं जैसे हमने कोई पाप कर दिया हो। वजह भी रही है, पारम्परिक रूप से हमने दुखी लोगों को बहुत सम्मान दिया है। जो ही दुखी दिखा, उसी पर ध्यान देने लग जाते हैं, उसी को सम्मान देना शुरू कर देते हैं। ये बात सिर्फ़ समाज में चल रही होती तो फिर भी ठीक था, बड़ी दिक्क़त ये हुई है कि ये चीज़ अध्यात्म में भी आ गयी है।
गम्भीरता एक चीज़ होती है, और उदासी या विषाद बिलकुल दूसरे चीज़ होते हैं न। गम्भीरता का अर्थ तनाव होता है क्या? पर हम ये भेद कर नहीं पाते। गम्भीरता को सम्मान देने के नाम पर हम दुख और तनाव को सम्मान देना शुरू कर देते हैं। और जब दूसरों के दुख को तुम सम्मान दे रहे हो, तो अपनेआप को भी सम्मान फिर कब दे पाते हो सिर्फ़? जब तुम दुखी होते हो। तो जब तक आप दुखी हैं, तब तक आप सम्माननीय हैं अपनी नज़रों में। और अगर मस्त होकर बीच पर दौड़ गये, हँस पड़े, मन हल्का हो गया, तो अपनी नज़रों में गिर जाते हैं। ‘हाय! मैंने पाप कर दिया। हाय! ये मैंने क्या कर दिया, आज मैं दुखी नहीं रहा! अब दूसरों को कैसे बताऊँगा कि मेरा जीवन कितना बर्बाद है!’
और जो दुखी होगा, जिसने ठान ही रखी होगी दुखी रहने की, वो आपका हाथ पकड़ेगा भी तो जानते हैं न किसलिए? आपको भी दुख में खींचने के लिए। कि बेटा, हम तो दुखी हैं ही। आओ, तुम भी हमारे लफड़ों, पचड़ों में फँसो और तुम भी दुखी रहो।
साथ ही अगर प्यारा है कि माँ-बाप और बेटा साथ रहें, तो वो साथ यहाँ क्यों नहीं हो सकता? मेरा बहुत मासूम सा सवाल है। बात तो साथ की है न, वो साथ यहाँ क्यों नहीं हो सकता? और मैं फिर कह रहा हूँ, ‘गोवा से मेरा अर्थ कोई जिऑग्रफ़ि (भूगोल) नहीं है।’ मैं भौगोलिक नहीं, मानसिक जगह की बात कर रहा हूँ। दो तरह से गले मिला जा सकता है। दोनों रो रहे हैं, और रो ऐसे नहीं रहे कि प्यार में रो रहे हैं, ऐसे रो रहे हैं जैसे दुख में रोया जाता है। दोनों ही बर्बाद हैं, इसलिए रो रहे हैं। एक ये प्यार होता है। दूसरा ये होता है कि गले मिलें, दोनों हर्षित हैं, प्रफुल्लित हैं। गले तो दोनों तरीक़े से मिला जा सकता है, हमें पहला ही तरीक़ा क्यों पसन्द है?
और फिर हम अध्यात्म में कहते हैं कि जीवन तो आनन्दधर्मा है। सच को हम बोल देते हैं सच्चिदानन्द घन। तो ये आनन्द हटा ही दो न, सच्चिदानन्द में से तुम आनन्द हटा दो। बस सच्चिद कर दो। जब आनन्द को सम्मान ही नहीं देना, तो वहाँ सत् को रहने दो, चित को रहने दो, आनन्द हटा दो। अध्यात्म में तो ऊँचे-से-ऊँचा यही शब्द होता है न, क्या? सच्चिदानन्द। तो आनन्द वहाँ क्यों है फिर, आनन्द की अगर कोई क़ीमत ही नहीं?
कभी सोचा है कि ये जितने सब सन्यासी बनते हैं, क्यों ऐसी परम्परा रही है कि अपने नाम के साथ आनन्द लगाते हैं — देवानन्द, तेजानन्द, कुछ भी नाम ले लो, रोहितानन्द, केशवानन्द? जो भी आपका नाम है, आनन्द हो जाएगा। ये आनन्द इतना महत्वपूर्ण क्यों है कि आपके नाम के साथ जुड़ जाए अगर आप अध्यात्म के पथ पर आयें?। कुछ बात तो होगी न आनन्द में? पर नहीं, अपनी दुर्गति करानी है, जैसे दुर्गति में ही कोई मूल्य हो।
अपनेआप को पकड़िएगा अगर हर्षित होने पर आपके भीतर गिल्ट उठती हो। ये बहुत ख़तरनाक बात है। अगर आप सहज रूप से खुलकर हँस पड़ते हों, और फिर अचानक आपको लगता हो, अरे! ये मैंने कुछ ग़लत कर दिया क्या, तो ये बहुत ग़लत, बहुत ख़तरनाक बात है। और यहाँ दोहराना ज़रूरी है कि हम उस खुशी की बात नहीं कर रहे हैं जो मच्छी मारकर खाने पर मिलती है गोवा में। यहाँ खूब चलता है मांसाहार।
एक खुशी वो भी होती है, हम उस खुशी की बात नहीं कर रहे हैं, हम सहज आनन्द की बात कर रहे हैं। सहज आनन्द के ख़िलाफ़ अगर कोई आपके मन में बैठा है, तो सावधान रहिए। सहज आनन्द कोई दोष नहीं है, कोई पाप नहीं है, बल्कि बड़े-से-बड़ा पुण्य है वो। समझ रहे हो? सहज आनन्द। वही तो स्वभाव है न। पूछते हैं, ‘आत्मा का रूप बताओ’, तो बोलते हैं, ‘आनन्दस्वरूपा है वो, आनन्द।’ कहीं सुना है तनावस्वरूपा है, दुखस्वरूपा है? सुना है? फिर? वास्तव में, मुक्ति और आनन्द बिलकुल एकसाथ हैं। क्यों? क्योंकि दुख से ही तो मुक्ति चाहिए होती है और काहे से। इतना ही नहीं, बोध और आनन्द भी साथ चलते हैं।
आप प्रयोग करके देखिएगा, कुछ बातें ऐसी होती हैं जो आपको तनाव के, दुख के भारी क्षणों में समझ में आएँगी ही नहीं। उसके लिए आपका हल्का होना ज़रूरी है मन से। तो बोध और आनन्द भी साथ चलते हैं। आप यहाँ तनाव में बैठे हों, मैं आपको कुछ समझा सकता हूँ? फिर?
तो ये दो तरह की ग़लतियाँ हैं — एक ये कि आनन्द को खुशी समझ लो, वही घटिया तरह की खुशी, गांजे वाली और मच्छी वाली। एक ये ग़लती है। ये ग़लती वो सब करते हैं जो अपनेआप को हीडनिस्ट (सुखवादी) बोलते हैं, जो बोलते हैं कि साहब, हम तो खुशीराम हैं, या हैप्पी सिंह हैं। है न! और वो बहुत खुश-खुश ही नज़र आते हैं, वो होते ही हैं खुशी के पुजारी। पर उनकी सारी खुशी कहाँ से आ रही होती है? अहंकार को फुलाने से, घटिया कामों में लिप्त होने से, दूसरों को दुख देने से, अपनेआप को ही झूठ में, भ्रम में, माया में रखने से।
तो एक ग़लती ये है कि तुम ग़लत तरीक़े से खुशी हासिल करो, और इसी के बराबर बड़ी ग़लती है कि तुम आनन्द को ही अपने जीवन से बाहर कर दो, और कहो कि बताया था न गुरू लोगों ने कि खुशी घटिया चीज़ होती है। तो अगर खुशी घटिया चीज़ होती है, तो फिर अच्छी चीज़ कौनसी होती होगी? दुख। तो हम तो साहब, जीवन दुखी बिताएँगे।
नहीं, खुशी घटिया नहीं होती, घटिया खुशी घटिया होती है। ये अन्तर करना सीखिए। जीवन आपको दुखी रहने के लिए नहीं मिला है, आनन्द आपका अधिकार है और आपका कर्तव्य भी। आनन्दित रहो, आनन्द बाँटो। समझ में आ रही है बात?
लेकिन आनन्द ‘आनन्द’ होना चाहिए। हम आमतौर पर जिसको खुशी , प्रसन्नता कहते हैं, हैप्पीनेस या प्लेज़र कहते हैं, वो बहुत हिंसक और घातक चीज़ होती है; वो आनन्द नहीं है। इसीलिए तो आनन्द और प्रसन्नता दो अलग-अलग शब्द हैं। इसीलिए तो जॉय (आनन्द) हैप्पीनेस (प्रसन्नता) नहीं है। तो एक तरफ़ तो घटिया हैप्पीनेस से बचना है और दूसरी तरफ़ जॉय का आशिक़ रहना है। एक से बचना है, दूसरे के पीछे-पीछे जाना है।
तुम्हारे चेहरे पर अभी भी तनाव है। आपका दोस्त होने के क़ाबिल वही है जो आपको आनन्दित देखकर आनन्दित हो जाता हो। आपकी ज़िन्दगी में, मैं सावधान कर रहा हूँ, ऐसे भी लोग होंगे जो आपको आनन्दित देखते होंगे तो ख़तरे में पड़ जाते होंगे। उनके लिए ये एक ख़तरे का संकेत होता है जब आप आनन्दित हो जाएँ, क्योंकि आनन्दित आदमी जानते हो न, ख़तरनाक हो जाता है। कैसे?
हमने कहा था, ‘आनन्द और मुक्ति साथ-साथ चलते हैं।’ जो आनन्दित हो गया, वो फिर बन्धनों की बहुत परवाह नहीं करता, वो बन्धनों का सम्मान नहीं करता। और अगर किसी का आपसे रिश्ता ही इस वजह से है कि आपने बन्धन पहन रखे हैं, तो वो चौकन्ना हो जाएगा जब आपको आनन्दित देखेगा। आनन्दित हो गये आप तो जल्दी ही बन्धन उतार फेंकेंगे।
आपके जीवन में जो भी ऐसे लोग हों जो आपके आनन्द में सहभागी होते हों, आपके आनन्द का वर्धन करते हों, उन्हें और निकट लायें। और जिनको आपके आनन्द से ख़तरा होता हो, उनसे राम बचाये और उनको भी राम बचाये। समझ में आ रही है बात?