घर की रानी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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घर की रानी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं स्टूडेंट हूँ, इस समय मैं लॉ (वकालत)पढ़ रही हूँ। तो मैं एक पेपर के लिए रिसर्च (शोध) कर रही थी। उस रिसर्च के दौरान कुछ आँकड़े मेरे सामने आए। उसमें कुछ ये बात देखने को मिली कि वूमन का जो लेबर पार्टिसिपेशन रेट है इंडिया में वो धीरे-धीरे घटता हुआ—स्टैटिसटिक्स बता रहे हैं कि वो धीरे-धीरे घट रहा है। और उसी के साथ आज जो वूमन का लिट्रसी रेट है इंडिया में, वो बढ़ रहा है, समय के साथ। तो इसमें अंतर देखने को मिलता है।

यही अगर फॉरेन कंट्री से तुलना करते हैं तो वहाँ पर जो लिट्रसी रेट है वूमन का वो उनकी लेबर पार्टिसिपेंट रेट के साथ-साथ ही बढ़ता है। तो रिफ्लेक्ट हो रहा है वहाँ पर प्रोग्रेस । पर इंडिया में वो चीज़ नहीं हो रही। तो भारतीय महिलाएँ जिनको पढ़ाया जा रहा है, जो पढ़ रही हैं, आगे बढ़ रही हैं, वो फिर जा कहाँ रही हैं? अगर वो एंप्लॉयमेंट में नहीं हैं तो।

आचार्य प्रशांत: ये पिछले लगभग सात-आठ साल, दस साल में ज़्यादा हुआ है कि जो आपकी कुल श्रम-शक्ति थी, काम करने वाले लोगों की संख्या, उसमें महिलाओं का अनुपात गिरा है और हर साल गिरता ही जा रहा है। और ये बात, बिल्कुल ठीक कहा, सुनने में बहुत अजीब लगती है कि आज से बीस साल पहले या तीस साल पहले लेबर फोर्स में जितनी महिलाएँ हुआ करती थीं, अनुपात के तौर पर आज उससे कम महिलाएँ हैं।

जबकि महिलाओं में लिट्रेसी (साक्षरता) बढ़ती जा रही है। और हम ये भी कहते हैं कि महिला सशक्तिकरण हो रहा है, ज़्यादा आज़ाद ख्याल की हैं महिलाएँ आज। और आज से बीस-चालीस साल की अपेक्षा आज कई तरह की नीतियाँ हैं, पॉलिसीज़, जो महिलाओं का ज़्यादा समर्थन करती हैं और उन्हें प्रोत्साहित करती हैं कि वो बाहर जाकर के काम करें, स्वावलंबी बनें। लेकिन उसके बाद भी जो फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट है, वो गिरता जा रहा है।

तो यह बात सुनने में विचित्र तो लगती ही है कि ये सब पढ़ी-लिखी महिलाएँ जो आज के दौर की हैं, ये जा कहाँ रही हैं? कई घरों में शायद ऐसी स्थिति है कि उनकी माताएँ काम किया करती थीं—आज से बीस-चालीस साल पहले—और जो उनकी लड़कियाँ हैं वो घर पर बैठी हुई हैं। ये तो ज़ाहिर सी ही बात है कि अगर काम नहीं कर रहे हैं तो घर पर ही बैठे हैं।

क्या वजह है? कई तरह की वजहें हम गिना सकते हैं। जो ऊपर-ऊपर की वजहें हैं वो तो आप जानती ही होंगी अगर इस विषय पर कुछ पढ़कर आ रहे हो तो, कि पिछले दो-तीन साल में कोविड वगैरह रहा तो बहुत सारी महिलाएँ ड्रॉपआउट कर गईं। और ये भी कहते हैं कि भाई काम करने के लिए माहौल उतना सुरक्षित नहीं है तो बहुत सारी महिलाएँ कहती हैं कि हम काम नहीं करेंगे। और ये भी कि बेरोज़गारी बहुत बढ़ रही है।

पिछले एक-दो सालों में पहली बार ऐसा हुआ है कि मैन्युफैक्चरिंग (उत्पादन) और सर्विसेस (सेवाएँ) में जो एंप्लॉयमेंट (रोज़गार) है, महिलाओं और पुरुषों का मिला करके, वो कम हुआ है, और कृषि में, एग्रीकल्चर में बढ़ा है। वो वास्तव में बात वही है कि जो रोज़गार मिलते थे शहरों में वो मिलने बंद हो गए हैं। तो पिछले कई दशकों में पहली दफा लोगों ने, जवान लोगों ने वापस गाँव की ओर रुख़ करा है। और जो कहते हैं कि हम कृषि में रोज़गार कर रहे हैं, वो वास्तव में बेरोज़गारी का दूसरा नाम है।

असल में भारत में ये कहना थोड़ी सी लज्ज़ा की बात होती है कि हम बेरोज़गार हैं। तो फिर कह दिया जाता है कि हम खेती-बाड़ी में लगे हैं घर में। वो वास्तव में बेरोज़गारी है। तो फिर तर्क दिया जाता है कि जब पुरुषों में ही इतनी बेरोज़गारी है तो महिलाओं को रोज़गार कहाँ से मिलेगा।

तो ये सब तर्क हैं और ये सही तर्क हैं, लेकिन ये ऊपरी तर्क हैं। अगर ये कहा जाए कि जो कार्यस्थल हैं, वर्कप्लेसेस, वो सुरक्षित नहीं हैं आज, तो क्या आज से तीस साल पहले ज़्यादा सुरक्षित हुआ करते थे? तब इतनी महिलाएँ अनुपात के तौर पर कैसे काम कर लेती थीं?

इसी तरीके से अगर ये कहा जाए कि कोविड के कारण रोज़गार की संभावनाएँ कम हुई हैं, तो ये जो आप ट्रेंड बता रहे हैं ये पिछले दो साल का नहीं पिछले दस साल का है। कोविड से पहले भी महिलाएँ काम छोड़ के घर पर बैठ गईं थी।

हुआ क्या है? मुख्य कारण सांस्कृतिक है, मुख्य जो कारण है वो कल्चरल है। पिछले आठ-दस साल में भारत में सांस्कृतिक तौर पर एक बड़ा जबरदस्त बदलाव आया है, जिसका एक सीधा परिणाम हमें इस रूप में देखने को मिल रहा है कि महिलाएँ काम को अब प्राथमिकता नहीं दे रही हैं।

देखिए, अगर आप हर तरह के मीडिया के माध्यम से एक लड़की को ये संदेश दोगे कि उसकी पूंजी देह मात्र है और उसके जीवन का उद्देश्य होना चाहिए सुख भोगना, तो वो क्या करेगी? क्योंकि घर से बाहर निकलना, मेहनत करना, अपने पैरों पर खड़ा होना, स्वावलंबी बनाना, ये आसान काम नहीं है, ना लड़की के लिए ना लड़के के लिए। सड़कों की धूल फाँकनी पड़ती है, जगह-जगह धक्के खाने होते हैं, संघर्ष करना होता है, कई साल मेहनत और धैर्य के साथ बिताने पड़ते हैं, तब जाकर के इंसान किसी काम में अपने पाँव जमा पाता है।

लड़की इतनी मेहनत क्यों करे, इतने धक्के क्यों खाए? जब उसको बचपन से ही हर तरफ़ से ये संदेश मिल रहा है, ये सिग्नल मिल रहा है कि तुम एक बहुत आसान, बल्कि विलासिता की, ऐश की ज़िंदगी जी सकती हो, सिर्फ़ अपने शरीर के दम पर; तुम्हारी चेतना का, तुम्हारे ज्ञान का कोई महत्व है ही नहीं और तुम्हारे शरीर का बहुत महत्व है, तो वो क्यों बहुत मेहनत करे, क्यों बहुत जान लगाए?

हुआ ये है कि जो महिलाएँ काम कर भी रही थी वो काम छोड़-छोड़ कर के घर पर बैठ ग‌ई हैं, क्योंकि जो कल्चरल सिग्नल उनको आ रहे हैं, वो कह रहे हैं कि तुम्हारी ज़्यादा कीमत घर की गुड़िया बन जाने में है। सजी-धजी रहो, घर में बैठो और तुम्हें घर में बैठने का भरपूर इनाम मिलेगा। सज-धज कर रहना बस। पुरुष का दिल खुश कर के रखो, उसका तुमको पूरा-पूरा इनाम, मुआवज़ा सब मिलेगा।

अब पुरुष पर आते हैं। अर्थव्यवस्था ने तरक्की करी है तो पुरुष के पास पैसा आ गया है। पुरुष के पास पैसा आ गया है तो आज से तीस साल पहले जो बड़ी ज़रूरत हुआ करती थी कि अगर पति-पत्नी दोनों नहीं कमाएँगे तो घर कैसे चलेगा, बहुत सारे परिवार हैं जिनमें अब वो बंदिश, वो तकलीफ़, वो मज़बूरी हट गई है।

पुरुष ही पर्याप्त कमा रहा है। पुरुष पर्याप्त कमा रहा है और पुरुष अपनी पत्नी से या अपने घर की बेटी से कह रहा है कि ‘मैं ला रहा हूँ न, तुम्हें ज़रूरत क्या है बाहर निकलने की?’ और बेटी को ये शिक्षा किसी ने दी नहीं है कि बाहर निकलना सिर्फ़ पैसे के लिए नहीं होता, बाहर निकलना अपनी चेतना और अपनी मुक्ति के लिए होता है। बेटी को तो लगातार ये शिक्षा दी जा रही है कि तुम्हारी चेतना का नहीं, तुम्हारे गोरे रंग का ज़्यादा महत्व है। घर में रहो। बाहर निकलोगी, धूप लगेगी। कहाँ मेहनत कर रहे हो?

हुआ क्या है पिछले आठ-दस साल में? दो-तीन चीज़ें हुई हैं। एक तो सांस्कृतिक तौर पर भोगवाद को बड़ा बढ़ावा मिला है। सब कुछ भौतिक हो गया है। पूरी राजनीति ही संस्कृति के चारों ओर घूमने लगी है। और जिस संस्कृति को वो आज की राजनीति, जो आज की डोमिनेंट राजनीति है, वो जिस संस्कृति को बढ़ावा दे रही है वो पूरी तरह भोगवादी है। और उस संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है धर्म के नाम पर।

अब धर्म अकेली चीज़ हुआ करता था जो आपकी आँखें खोलता था, जो आपकी चेतना को ऊपर उठाने का काम करता था। अगर धर्म को ही मटीरियलिस्टिक बना दिया तो अब वो जो बच्ची है छ:-आठ साल की, उसको कौन समझाएगा कि भोग से ऊपर, शरीर से ऊपर, सुख और विलासिता से ऊपर है जीवन का कोई दूसरा लक्ष्य। उसे कौन बताएगा?

यह जो कल्चरल नेशनलिज्म (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) है आज का, आप गौर से देखिए न ये क्या है। इसमें क्या ये परिकल्पना की जाती है कि घर की लड़की बाहर काम कर रही है? जो आज का डोमिनेंट सोशियो पॉलीटिकल थॉट (प्रमुख सामाजिक-राजनैतिक विचार) है, उसमें महिला के लिए क्या स्थान है? मैं ये पूछ रहा हूँ। जिसको आप कहते हैं कि ये एक भारतीय नव चेतना का दौर है जिसमें इंडियन रिसर्जंस (भारतीय पुनरूत्थान) हो रही है। और उसमें महिलाएँ बहुत बढ़-चढ़कर उत्सुक रहती हैं। वो कहती हैं, "बड़ा सही हो रहा है! बड़ा सही हो रहा है! देखो धर्म दोबारा वापस आ रहा है।"

मैं पूछ रहा हूँ ये जो कुछ भी आ रहा है, इसमें आपके लिए क्या जगह है? महिलाओं से पूछ रहा हूँ। इसमें आपकी जगह घर पर है। गौर से देखिएगा, वही है ना?

ये जिस प्रकार की संस्कृति को हर तरीके से आज बढ़ावा दिया जा रहा है, हम पिछले आठ-दस साल की बात कर रहे हैं, उसमें महिला का क्या स्थान है? आप महिला को एक ऊपरी सम्मान दे सकते हैं। मान लीजिए आपने राष्ट्रपति पद के लिए मनोनीत कर दिया किसी महिला को, वो ठीक है। वो एक ऊपरी सम्मान की बात है, दे दिया। लेकिन घर की महिला को लेकर के जो आज सांस्कृतिक लहर चल रही है, वो क्या कहती है? उसमें क्या जगह है? बताइए तो!

जिस सांस्कृतिक भारतीय समाज की या परिवार की परिकल्पना की जाती है कि ऐसा होगा हमारा आदर्श हिंदू समाज या आदर्श हिंदू घर, उसमें महिला कहाँ पर है? घर के अंदर है, घर के बाहर है? कहाँ है? घर के अंदर है न। घर के अंदर है और उसे घर की लक्ष्मी बोल कर के घर के अंदर रखा गया है। ये ज़रूर बोल दिया गया है कि वो घर की स्वामिनी है वगैरह-वगैरह। ये लगभग वैसी ही बात है कि उसे राष्ट्रपति बना दो, जिसके पास कोई वास्तविक अधिकार होते नहीं, पर कहने को वो स्वामी है या स्वामिनी है, राष्ट्रपति है। तो वो गृह-पति है, गृह-पति है, भले ही उसके पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं है।

नॉमिनल (नाम का) पद है बिल्कुल। घर की लक्ष्मी बता दो स्त्री को, भले ही एक रुपया उसके हाथ में ना हो। भले ही एक-एक रुपए के लिए उसे पति की ओर देखना पड़ता हो। लेकिन फिर भी ये बोलो घर की लक्ष्मी है। कैसे घर की लक्ष्मी है जो हर समय हाथ फैलाए रहती है कि थोड़ा-सा और दे दो? लक्ष्मी का काम तो देना है, या माँगना? समझ में आ रही है बात?

तो एक तो ये हुआ है कि जो सांस्कृतिक लहर चल रही है, जो कि अब एक जबरदस्त राजनैतिक रूप ले चुकी है, उसमें महिलाओं के लिए घर में ही जगह है। ये बात भले ही वो लोग प्रकट रूप में नहीं बोलेंगे क्योंकि प्रकट रूप में बोले देंगे तो बवाल हो जाएगा। पर आप गौर से देखेंगे तो आपको दिखाई दे जाएगा।

जो दूसरी चीज़ हुई है वो है इंटरनेट एक्सप्लोजन (इन्टरनेट की पहुँच)। ये जो फ्री डेटा या चीप डेटा है इसने क्या करा है कि हर एक के हाथ में ये ताकत दे दी है कि वो अपनी बात हर जगह पर, ऊँची-से-ऊँची जगह पर प्रचारित, प्रसारित कर सकता है, सार्वजनिक कर सकता है। अब ऐसा लगता है सतही तौर पर देखने पर कि ये कुछ अच्छा हुआ है। हम कहते हैं दिस इज डेमोक्रेटाइजेशन ऑफ वॉइस। आज आखिरी आदमी भी, सड़क का आदमी भी कुछ बोल सकता है, ट्विटर पर कुछ लिख सकता है, टिक-टॉक पर कुछ डाल सकता है। कुछ भी कर सकता है।

पहले उसके पास आवाज़ नहीं थी, आज हमने उसको आवाज़ दे दी है। लेकिन आप गौर से देखिए कि इसमें हुआ क्या है। इसमें हुआ ये है कि पहले जो कचरा एकदम कुछ जगहों तक बस सीमित था, आज वो पूरे समाज में फैल गया है। कचरा हमेशा से हुआ करता है, वो तो प्रकृति की बात है। हर तरह के जीव-जंतु प्रकृति में पैदा होते हैं। लेकिन इंसान की वृत्ति ये भी है कि उसे कचरा ज़्यादा पसंद आता है।

गंदगी अपनेआप बहुत तेज़ी से फैल जाती है न! पिछले लगभग एक दशक में हमने गंदगी को फैलने के लिए एक बहुत मज़बूत इंफ्रास्ट्रक्चर दे दिया है—सोशल मीडिया का। ऐसे लोग जो कि समाज के हाशिए पर रहते, ऐसे लोग जिनको कोई पूछने वाला नहीं होता, आज वो समाज के ओपिनियन मेकर्स (राय बनाने वाले) हैं। आज वो सुपरस्टार हैं, वो सेलिब्रिटीज हैं क्योंकि जो गंदगी उनके पास है वो बहुत तेज़ी से फैलती है।

और बिल्कुल इस बात को अच्छे से पकड़ लीजिएगा कि गंदगी ही ज़्यादा तेज़ी से फैलती है। और वो गंदगी किस तरह की है? आप इंस्टाग्राम को देखिएगा या कुछ भी। वो किस तरह की गंदगी है? उस गंदगी में लड़कियों, महिलाओं के लिए एक बड़ा विशिष्ट स्थान है। क्या? ‘तुम देह हो। तुम नाचो! तुम हमें रिझाओ। तुम अपना तन सुडौल रखो। तुम्हारा तन अगर सुडौल है और तुमने अपनी खूबसूरती चमका रखी है, तो तुम रातों-रात प्रसिद्ध भी हो जाओगी और तुमको करोड़ों लोग फॉलो भी करने लगेंगे’।

ये देख करके एक आठ-दस साल की लड़की को क्या संदेश जा रहा है? वो पढ़ाई करे या खूबसूरती चमकाए, बोलिए? एक एकदम जाहिल, मूर्ख, आधे दिमाग की लड़की हो बीस-बाईस साल की, उसने बस इतना करा है कि शरीर को फिट कर लिया है और कपड़े उतारने के लिए तैयार हो गई है। वो मेगास्टार बन जाती है, वो सेलिब्रिटी बन जाती है। सोशल मीडिया से उठ करके वो बॉलीवुड पहुँच जाती है। बॉलीवुड से उठ करके वो पॉलिटिक्स में भी आ जाती है। वो सम्माननीय कहलाने लग जाती है। वो मंचों से भाषण देने लग जाती है।

और उसकी कुल क्वालिफिकेशन क्या? कि उसने अपना रूप-रंग दिखा के बहुत सारे फॉलोवर्स इकट्ठा कर लिए थे। तो अब जो आठ-दस साल की बच्ची है वो तीसरी, चौथी, पाँचवी क्लास में पढ़ती है वो क्या करे? वो पढ़ाई करे या कहे कि ज़्यादा आसान शॉर्टकट तो ये है। ‘पढ़ाई-वढ़ाई करके करना क्या है? कॉरपोरेट में जाऊँगी या कोई नौकरी करूँगी, डॉक्टर, इंजीनियर कुछ बनूँगी, फौज में जाऊँगी—वो तो बड़े संघर्ष का काम है। बड़ी मेहनत लगती है और बड़ा समय लगता है। ये रहा शॉर्टकट!एक मिनट का टिक-टॉक बनाओ, प्रसिद्धि भी और पैसा भी पाओ। काम करके क्या करना है, ज्ञान की क्या कीमत है!’

तो दो चीज़ें एक साथ मिल ग‌ई हैं ‒ कैपिटलिस्ट कंज्यूमरिज़म और कल्चरल नेशनलिज़म। और इन दोनों ने बहुत स्पष्ट और ताकतवर संदेश दिया है महिलाओं को। घर से बाहर निकलोगी, तुम्हें तमाम तरह की आफतें झेलनी पड़ेगी। घर के भीतर रहो, रानी बनाकर रखेंगे। महिलाएँ भी इंसान ही हैं। किसी भी इंसान को जब एक ज़्यादा आसान विकल्प मिलता है वो उसको चुन लेता है।

अस्सी-नब्बे प्रतिशत पुरुष भी, यदि उन्हें कहा जाए कि तुम्हें आसानी से पैसे दे रहे हैं, तो वो उस विकल्प को स्वीकार कर लेंगे ना? मेहनत का रास्ता कौन चुनना चाहता है? ना पुरुष ना स्त्री। जब स्त्री को आपने एक रास्ता दिखा दिया है कि बिना मेहनत के तेरी मौज हो सकती है, तो वो बिना मेहनत वाला रास्ता चुन रही है। वो क्यों काम करे?

हाँ, काम ना करने के लिए बहाने अब सौ गिनाए जा सकते हैं। और बहाने लगभग यही रहते हैं कि वो वर्कप्लेसेस सेफ नहीं है, जैसे कि पहले ज़्यादा सेफ हुई करती थी। या कि बीच में मैटरनिटी आ जाती है तो फिर कैरियर को दुबारा शुरू करने में दिक्कत आती है। इस तरह की बहुत सारी बातें कही जाती हैं। पर जो मूल बात है वो सांस्कृतिक ही है। और वो जो मूल बात है वो इसीलिए हो पा रही है क्योंकि समाज में अध्यात्म बहुत पीछे, पीछे होता जा रहा है।

देखिए, भोगवाद (कंज्यूमरिजम) तो हमेशा से था लेकिन उसको टक्कर देने के लिए धार्मिक मूल्य खड़े हो जाते थे, ऊँचे मूल्य खड़े हो जाते थे। अब एक नई घटना घटी है। जो आज धर्म प्रचारित किया जा रहा है, वो धर्म भी पूरे तरीके से मटीरियल है। उसमें चेतना और ज्ञान के लिए कोई जगह नहीं है। आप याद करके देखिए, आपके सामने जो लोग आते हैं धर्म के नारे लगाते हुए, वो कभी पूछते हैं तुम में ज्ञान कितना है? चेतना कितनी बढ़ानी है? वहाँ जो सारी बातें हो रही होती है धर्म के नाम पर, वो किस तल की हो रही होती हैं? बहुत निचले तल की हो रही होती है।

तो कंज्यूमरिज़म तो हमेशा से था ही। अब धर्म को भी ऐसा बना दिया कि वो भी कंज्यूमरिज़म का ही साथ दे रहा है। अभी हमसे यही कहा जा रहा है ना कि अपनी गौरवशाली पुरानी संस्कृति वापस लेकर के आओ और भारत की जो पुरानी गौरवशाली हिंदु संस्कृति है वही खरी है, वही सबसे ऊँची है। तो मुझे बताओ पुरानी गौरवशाली संस्कृति में महिलाएँ घर से बाहर निकल कर काम करती थी क्या? नहीं करती थी ना। तो जैसे-जैसे वो पुरानी संस्कृति वापस आएगी, महिलाएँ घरों में दोबारा कैद होती जाएँगी। बात खतम!

महिलाओं को घर से निकालने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ा है इस पुरानी गौरवशाली संस्कृति के खिलाफ़। सन् अट्ठारह सौ से लेकर के अगले डेढ़ सौ साल तक समाज सुधारकों ने बड़ी जान लगाई है। तब जा के महिलाएँ घर से बाहर निकल पाईं हैं। काम करने के लिए तो छोड़ो उन्हें स्कूल तक जाने के लिए घर से निकलने की अनुमति नहीं थी। हाँ, पति मर जाए तो सती होने के लिए घर से निकलने की अनुमति ज़रूर थी। ये थी संस्कृति।

मूल्य अध्यात्म का होना चाहिए, संस्कृति का नहीं। ये अंतर हम समझ ही नहीं पा रहे हैं। संस्कृति बहुत छोटी चीज़ है। संस्कृति तो इंसान बनाता है। संस्कृति तो हमारे विचार की उपज है। और जैसे हमारे विचारों में बहुत सारी ऊँच-नीच रहती है, अच्छाई-बुराई रहती है, खोट भी रहती है वैसे ही संस्कृति में भी रहती है। संस्कृति को तो लगातार सुधारते रहना पड़ता है, पुरानी संस्कृति की ओर वापस नहीं जाना होता। और संस्कृति हमेशा समय के साथ बदलने वाली चीज़ होती है।

आप घड़ी उल्टी थोड़ी ही चला सकते हो। आप ये थोड़ी कह सकते हो सन् अट्ठारह सौ में जो संस्कृति हुआ करती थी हमें वो संस्कृति वापस लेकर के आनी है। और बड़ा मज़ा आता है, महिलाएँ ही ये सब चाह रही होती हैं। तुम्हें पता भी है वो संस्कृति वापस आ गई तो तुम्हारा क्या होगा?

और ये सब सिर्फ़ बातें नहीं हैं, आपने जो बताया है वो एक ज़मीनी आँकड़ा है। पढ़ी-लिखी लड़कियाँ, आधुनिक लड़कियाँ काम-धंधे में कोई रुचि ना लेकर के घर में बैठना ज़्यादा पसंद कर रही हैं। क्योंकि पतिदेव कह रहे हैं, "घर में बैठो ना!" पतिदेव को भी मीडिया ने दिन-रात सेक्शुअली चार्ज्ड कर रखा है। उन्हें भी लगातार घर में अपनी वासना की पूर्ति का इंतज़ाम मौजूद चाहिए। क्योंकि अगर महिला जाएगी बाहर, काम करेगी, थकी-हारी घर वापस लौटेगी तो वो पति के सामने फिर सेक्सी डॉल बनकर कैसे आ पाएगी?

बताइए ना, आ पाएगी क्या? उसकी प्राथमिकताएँ बदलेंगी, उसकी सोच बदलेगी। हो सकता है वो पति से ज़्यादा किसी व्यस्त काम में लग जाए। हो सकता है कि उसको छह महीने के लिए किसी दूसरे शहर में जाना पड़े। वो फिर यही थोड़ी ना कर पाएगी कि पति देव की सेवा करते रहो।

और अर्थव्यवस्था आगे बढ़ी है। पी.पी.पी बेसिस पर आप आज विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। तो पतिदेव के पास पैसा आ गया है। पतिदेव ने उस पैसे से क्या करा है? उन्होंने पत्नी की नौकरी छुड़वा दी है।

उन्होंने कहा, "मैं कमा तो रहा हूँ। तू बिस्तर सजा। कमाने का काम मेरा है। बिस्तर सजाने का काम अब तेरा है।" क्योंकि व्यक्ति की गहरी-से-गहरी चाहत तो वासना की ही होती है। जब पैसा हाथ में आया तो उसने पहली चीज़ क्या खरीदी? उसने पहली चीज़ देह खरीदी है। उसने पत्नी से कहा, "तू घर पर रह।" हाँ, ये बात कभी भी इन शब्दों में नहीं कही जाएगी। जिन शब्दों में मैं कह रहा हूँ, ये बड़े नग्न शब्द हैं। जिन शब्दों में मैं कह रहा हूँ, ये शब्द चुभते हैं। जो लोग मेरी इस बात को सुनेंगे उनमें से बहुत सारे बिफर जाएँगे।

वो कहेंगे, "ये आदमी! ये हर चीज़ को एक ही तरीके से देखता है। देखो हमारे शुद्ध और पावन उद्देश्यों को ये कितने गंदे तरह से देख रहा है।" वो कहेंगे, "हम तो अपनी पत्नी को घर पर इसलिए बैठाना चाहते हैं क्योंकि हमें प्रेम है। कहाँ बेचारी धूप में निकलती है, इधर-उधर जाती है, बॉस बहुत अच्छा नहीं है। डाँटता-फटकारता बहुत है।“

हम कहते हैं ‘तू घर में रह प्यार से, फेशियल किया कर, आँखों पर खीरा रख, गालों पर पपीता रख। और जब हम शाम को वापस आएँ तो हमें खुश कर दे।‘

देवी जी भी खुश हैं, कहती हैं, ‘ये बढ़िया! तो काम नहीं करना है न?’

पति कहते हैं, ‘जानेमन जब तक मैं हूँ तुम्हें बाहर निकलने की ज़रूरत क्या है?’

बोलती है, ‘रिज़ाइन कर दूँ ना?’

बोलते हैं, ‘बिल्कुल कर दो!’

‘बिल्कुल ठीक है। ये बॉस वैसे ही मुझे बहुत डाँटता था’।

अब डाँट तो पड़नी है। बाहर निकलोगे तो डाँट तो पड़ेगी। उसी डाँट में तुम्हारी भलाई है। वही डाँट खाकर के तुम कुछ सीखते हो।

बाहर निकलो तो तकलीफ़ तो होती ही है, लेकिन उन्हीं तकलीफों से फिर आदमी की चेतना और चरित्र बनता है। जिसने आपको उन तकलीफ़ो से बचा दिया उसने आपका बड़ा नुक़सान कर दिया। जब आप अपनी कमाई के दम पर कुछ खरीदने जाते हो, तो वो चीज़ फिर आपके लिए कीमत रखती है। और किसी ने आपके हाथ में मुफ़्त का पैसा थमा दिया और आप चले गए और आपने उसको बाज़ार में उड़ा दिया, आपको कभी पता नहीं चलेगा वो पैसा चीज़ क्या थी।

और जब मैं ये बोल रहा हूँ, मुझे दिख रहा है बड़े तर्क गढ़े जाएँगे। वो कहेंगी, ‘हम कोई मुफ़्त का पैसा थोड़ी ना लेते हैं, हम तो घर का काम करते हैं’। देखिए, घर का काम भी आज से बीस-चालीस साल पहले हुआ करता था। आज एक बहुत बड़ा वर्ग है महिलाओं का जो घर पर तो रहता है पर घर का काम कुछ विशेष बचा नहीं है। इतना कोई नहीं है घर का काम।

और क्षमा करिएगा लेकिन उस घर के काम का क्या मूल्य है ये आप भी जानती हैं। दो हजार, पाँच हजार देकर के कोई घरेलू सहायक, कोई काम वाली दीदी, वो काम कर सकती है। तो उस घर के काम की इतनी ही कीमत है।

'नहीं, बच्चों की खातिर हम घर पर रहते हैं इसलिए हमने नौकरी छोड़ी है।' छोड़ो ना! खुद को ही बेवकूफ़ बनाना है, बच्चों की खातिर घर पर रहते हैं?

सबको आसान ज़िंदगी चाहिए, पुरुष को भी, महिला को भी। अगर आसान ज़िंदगी मिल रही है तो महिला घर पर रहेगी क्योंकि शरीर से तो हम सब पशु ही होते हैं। स्वेच्छा से कठिनाई का चयन तो व्यक्ति चेतना की खातिर ही कर सकता है। स्वेच्छा से वो कहे कि ‘मुझे शारीरिक सुख नहीं चाहिए, कि मुझे भौतिक मज़े नहीं चाहिए, मैं कठिनाइयाँ चुन रहा हूँ’—ऐसा चुनाव तो व्यक्ति तभी करता है जब उसे अपनी चेतना बढ़ानी होती है, जब उसके पास एक आध्यात्मिक लक्ष्य होता है।

नहीं तो चाहे जानवर हो, चाहे इंसान हो, आदमी हो, औरत हो, उनको दो विकल्प दो, एक आसान एक कठिन, सभी आसान विकल्प चुन लेंगे। महिलाओं ने आसान विकल्प चुन लिया है।

ये बहुत खतरनाक बात है जो हम होती देख रहे हैं। और ऐसा नहीं कि ये विकल्प सिर्फ़ वही महिलाएँ चुन रही हैं जो पुरानी सोच की हैं या देसी सोच की हैं। मुझे बड़ा ताज्जुब होता है। वो जो बड़ी बिंदी वाली फेमिनिस्ट होती हैं वो भी घर पर बैठी हुई हैं। उनसे पूछो ‘ये कौनसा फेमिनिज़म है जिसमें तुम घर पर बैठी हुई हो?’

तो सकपका जाती हैं। बोलती है, "नहीं, फेमिनिज्म तो एक सोच है ना, सोच! उसका काम से क्या ताल्लुक?"

मैंने कहा, ये कौनसी सोच है जो काम में तब्दील नहीं होती, बस सोचती ही रहती हो।

बोल रही हैं, ’फेमिनिज़म इस एन आईडियोलॉजी, इट्स नॉट इन एक्शन(नारीवाद एक विचारधारा है, वो कोई कर्म नहीं है)। एक्शन नहीं है’।

अच्छा, ठीक है। तो ये ज़बरदस्त फेमिनिस्ट हैं जो अपनी रोटी के लिए भी आश्रित पुरुष पर हैं। ये कौनसा फेमिनिज़म है?

दिल्ली विश्वविद्यालय में स्टूडेंट लीडर हैं। मिरांडा हाउस में थीं, वहाँ बहुत नारे लगाए, ये-वो, ऐसा-वैसा। अभी क्या करती हैं? घर पर बैठकर बच्चे पाल रही हैं। और वो बच्चे भी ऐसे जो पलना नहीं चाहते। वो कह रहे हैं, ‘हमारा पिंड छोड़ो।‘

देखिए, ये जो ढंग है ना, ये जंगल का है जिसमें मादा पक्षी घोंसले में रहता है, या गुफा में रहता है और जो नर पशु या पक्षी होता है वो जाकर के खाने का बंदोबस्त करता है, ये जंगल का ढंग है। बड़ी मेहनत लगी इंसानों को इस जंगल से बाहर लाने में। दोबारा उस जंगल में वापस मत चले जाइए। ये घर की रानी, गृहलक्ष्मी वगैरा—ये जितनी बातें हैं, ये आप यदि गौर से देखें तो जंगल की बातें हैं, क्योंकि जंगल में यही होता है, सब मादाएँ वहाँ घर की रानी होती हैं। होती है कि नहीं? इसमें धार्मिकता जैसी कोई बात नहीं है, और अध्यात्म जैसी तो कोई बात बिल्कुल भी नहीं है।

अध्यात्म तो आपको देह की तरह देखता ही नहीं है। अध्यात्म कह ही नहीं रहा है कि आप नारी हैं। अध्यात्म तो कह रहा है कि आप एक चेतना हैं जिसके पास एक नारी देह है। और पुरुष हो चाहे स्त्री, दोनों के जीवन का एक ही लक्ष्य है ‒ मुक्ति।

देह का अंतर है, लक्ष्य का अंतर नहीं है। और जब आप आर्थिक बंधनों में हैं तो आध्यात्मिक मुक्ति कैसे मिल जाएगी? जो व्यक्ति अपनी रोटी के लिए भी किसी दूसरे पर आश्रित है वो आध्यात्मिक तल पर मुक्त कैसे हो जाएगा, मुझे बताओ? या हो जाएगा?

‘आचार्य जी, प्रेम भी तो कोई चीज़ होती है ना। वो हमें बहुत चाहते हैं। आश्रित वगैरह की कोई बात नहीं है। पति-पत्नी तो घर की एक गाड़ी के दो पहिए होते हैं। कभी फ्रंट व्हील ड्राइव होता है, कभी रियर व्हील। आप चाहते हो कि फोर व्हील ड्राइव हो। आप ऑफरोडर हो बिल्कुल।‘ हाँ, मैं फोर व्हील ड्राइव चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता हूँ कि दो पहिए चलें और बाकी दो घिसटते रहें पीछे-पीछे।

फिर अंत में जो तर्क दे दिया जाएगा वो यही है कि 'आपको खुद तो कुछ पता है नहीं। आपको क्या पता हम घर में कितना काम करते हैं?' मुझे, ठीक है, कुछ नहीं पता। मैं अनाड़ी हूँ। मुझे जो बोलना था मैंने बोल दिया, बाकी आपको नहीं सुनना है तो मत सुनिए।

(प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) पढ़ाई-लिखाई कर रहे हो, शादी-ब्याह का मौसम आएगा, ऐसे से जान बचा के भागना जो बोले कि हम इतना प्यार करते हैं तुमसे कि तुम्हें घर से कभी बाहर नहीं निकलने देंगे।

ये जेलर का कथन हो सकता है कैदी को कि इतना प्यार करते हैं तुमसे, तुम्हें बाहर नहीं निकलने देंगे कभी। कोई प्रेमी ये बात नहीं बोल सकता, जेलर बोल सकता है।

घर एक बायोलॉजिकल (जैविक) जगह है। समझ में नहीं आ रही है बात? घोंसला क्यों बनाती है चिड़िया? वो घर, वो नीड़, वो क्या है? वो एक बायोलॉजिकल जगह है जहाँ आपके शरीर को सुरक्षा मिले और जहाँ पर संतानोत्पत्ति करी जा सके। नहीं तो आपको घर की क्या ज़रूरत है? और अगर आप घर को इतना महत्व दे रही हैं तो आप स्वयं भी पूरी तरीके से बायोलॉजिकल अर्थात दैहिक ही बनकर रह जाएँगी न। देह बनकर रह जाएँगी।

जो व्यक्ति घर को जितना महत्व दे रहा है वो वास्तव में अपनी देह को उतना महत्व दे रहा है। हाँ या ना? घर का महत्व बराबर देह को महत्व। तो आपने अगर यही तय कर लिया है कि ‘मेरा काम है घर बसाना, सजाना, चलाना तो वास्तव में आप बिल्कुल देह बनकर रह गईं’। वो तो फिर पशु की ज़िंदगी हो गई। पशु होता है पूरी तरह देह।

जानते हो समाज यदि कभी चेतना के तल पर ऊँचा उठ पाया तो ये जो घरों की व्यवस्था है, ये बहुत बदलेगी, लगभग मिटेगी। हम मन में, जीवन में घर को जितनी जगह देते हैं, महत्व देते हैं वो बहुत कम होगा। इंसान कहेगा ‘मैं कहीं भी खा-पी सकता हूँ, कहीं भी सो सकता हूँ’। वो ये तो करेगा ही नहीं कि जीवन भर की जमा पूंजी ला करके—क्या करे? एक घर खड़ा करे! घर क्या है? जैसे जानवर के पास गुफा, जैसे खरगोश के पास उसकी बिल, जैसे लोमड़ी की माँद। और आपने जीवन भर काम करा और उससे जो पैसा जोड़ा उससे आपने एक घर खड़ा करा, तो आप कर क्या रहे हो?

एक जागृत समाज में घर को इतना महत्व नहीं दिया जाएगा। और सब देवियों से भी मैं यही आग्रह करता हूँ जो बार-बार मुझे बोलती हैं घर का काम, घर का काम। अरे, कम करो घर का काम। घर ही छोटा रखो। और घर के काम का मतलब क्या है? फूलदान ऐसे सफ़ाई कर रहे हैं, मेज़ पर धूल का कोई कण न दिख जाए, शू रैक धो रहे हैं। आज तीन घंटे क्या करा? शू रैक धोया।

कम करो ये सब। हो सके तो एकदम मत करो। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि ये भी छोड़ दिया और सोना शुरू कर दिया। कुछ ढंग का करो जीवन में, कुछ ऊँचा करो जीवन में। रसोई में छह घंटे निकल जाते हैं।‌ वो तो कोई भी कर लेगा ना और आपसे अच्छा कर लेगा। रसोई के लिए रसोइया चाहिए, रसोई के लिए गृहिणी नहीं चाहिए। और कितना मूल्य है रसोई के काम का? कितनी पगार दे देते हो रसोइए को, बताओ? उतना ही मूल्य है। तो क्या बार-बार गिनाते रहते हो कि ‘लेकिन खाना भी तो बनाना होता है’?

छह हजार, आठ हजार का काम है वो। यही है आपके जीवन की कीमत? छह हजार, आठ हजार? यही है?

"कपड़े धोने हैं।"

लॉन्ड्री में भेज दो, भाई।

"पैसे ज़्यादा लगते हैं।"

कमाओ ना! यही तो कह रहा हूँ: मूव टुवर्ड्स हायर ऑर्डर वर्क (ऊँचे काम की ओर बढ़ो)। और ये जितना नीचे का काम है इसको आउटसोर्स करो।

‘बहुत व्यस्त हैं, बहुत व्यस्त हैं, बहुत व्यस्त हैं!’ एक देवी जी जानते हैं क्यों नहीं आ पाई हैं? बरसात आने वाली है। तो?

बोलें, "आम पापड़ रखे हैं धूप में। मॉनसून किसी भी दिन आ सकता है। सत्ताईस तारीख को है कि दिल्ली में आ रहा है मानसून। उससे पहले आम पापड़ भी तो सुखाने हैं। हम यहाँ आ गए, उधर बारिश हो गई, तो आमट का क्या होगा?"

तुम्हें कुछ पता भी है जीवन में किस चीज़ की क्या जगह है? हायर ऑर्डर वर्क क्या होता है एकदम समझ में नहीं आता? तुम्हारे लिए आध्यात्म और आम पापड़ एक चीज़ हो गई? लेकिन इस देश की बहुत बड़ी आबादी यही कर रही है। उसकी ज़िंदगी आम पापड़ में जा रही है। कितने दुर्भाग्य की बात है। और मज़ेदार बात यह है कि आम पापड़ की भी आप विशेषज्ञ नहीं हो। वो काम भी कोई स्पेशलिस्ट आपसे बेहतर कर लेगा। ठीक वैसे जैसे आप का दावा भले ही बहुत है कि घर का खाना, घर का खाना, घर का खाना, लेकिन कोई हुनरमंद शेफ (रसोइया) खाना भी आपसे बेहतर बना देगा। हाँ या ना?

तो आपने करा क्या? आप चालीस साल से घर में खाना बना रही हो, वो भी एक ही तरीके का। आलू-गोभी की सब्ज़ी, अरहर की दाल, रोटी, चावल, पापड़—चालीस साल से यही कर रहे हो। और जो ये आप कर रहे हो, वो आपका जो कोर काम है, वो भी कोई शेफ आपसे बहुत बेहतर कर सकता है। तो आपने किया क्या जीवन में? जन्म व्यर्थ गँवा दिया कि नहीं?

शिविरों में हुआ है। थोड़ा सा अगर हमने कह दिया, मान लीजिए, कि सात तक चलेगा, आठ तक चलेगा। वो साढ़े आठ, नौ तक चलने लग जाए तो देवियाँ उठ-उठ के निकलने लगती हैं। ‘वो चिंता कर रहे होंगे, वो आ गए होंगे, वो मेरे ही हाथ की चाय पीते हैं।‘ तुम चाय वाली हो? (श्रोता गण हँसते हुए) यहाँ क्या काम चल रहा है, तुम्हें चाय याद आ रही है?

वो भगी जा रही हैं चाय बनाने को। मर जाओगी तो वो चाय नहीं पिएगा। अमर हो? एक दिन लाश जलेगी, फिर? तन जल जाए उससे पहले मन को कोई ऊँचाई दे दो। ये चायबाज़ी छोड़ दो बिल्कुल।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। आपने जितने भी कारण बताए कि महिलाएँ काम छोड़-छोड़ कर घर में बैठ रही हैं। उसमें क्या ये कारण एक हो सकता है कि बीच में एक दौर आया था कि ज़्यादातर लेडीज़ वर्किंग होने लग गई थीं। उसमें जो मैंने एक ऑब्जर्व किया है कि भोग-विलासिता बढ़ी भी है। जो पहले एक कमाने वाला होता था, दो कमाने वाले हो गए तो जहाँ हम दो कुर्तों में काम चलाते थे अब हम छह खरीद लेते हैं। और साथ में मैंने देखा है ये मेरे साथ भी हुआ था कि अहंकार उससे बढ़ने लगा था।

आचार्य: पुरुष का नहीं बढ़ता, महिला का ही बढ़ता है? अगर बढ़ता है अहंकार तो दोनों का बढ़ता होगा। ऐसा क्यों नहीं होता कि महिला कमाए और पुरुष घर बैठ जाए?

प्र२: पर इसमें महिलाएँ जो है वो शायद अध्यात्म की कमी रही है हम सब में कि….

आचार्य: पुरुष ज़्यादा आध्यात्मिक होते हैं? और अगर पुरुष ज़्यादा अध्यात्मिक होते हैं तब तो और ज़रूरी है ना कि महिलाएँ घर में कैद ना रहें। घर में रह करके तो चेतना का विकास होने से रहा। बाहर निकलोगे, दुनिया देखोगे, कुछ जानोगे। कितनी बार तो बताया है ना, उपनिषद् कहते हैं कि जिसके पास आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वो तो गहरे कुएँ में गिरता ही है; जिसके पास सांसारिक ज्ञान नहीं है वो और गहरे कुएँ में गिरता है।

घर में रहकर के कौनसा निरहंकार आप हुई जा रही हैं। और भोग-विलासिता अगर बढ़ गई थी दो लोगों के कमाने से तो भोग कम करोगे या कमाना ही कम कर दोगे? और इसमें तर्क क्या है कि ज़्यादा पैसा आने लग गया है घर में तो हम ज़्यादा भोगने लग गए हैं। संस्था को दे दिया करो।

हम हर चौथे दिन कहते हैं कि भैया आवश्यकता है और तुम नौकरी छोड़ कर घर बैठ गए। गजब है! ये बिल्कुल पुराना पैट्रिआर्कल (पित्रसत्तात्मक) तर्क है कि औरत घर से बाहर निकलती है, काम करती है तो उसको ज़्यादा पर लग जाते हैं, बहुत उड़ने लगती है, बहुत अहंकारी हो जाती है, सास के पाँव नहीं दबाती, उसके मुँह में ज़बान आ जाती है। तो घर से बाहर भेजना औरत को अच्छी बात नहीं है। बिगड़ जाती है।

कल्चरल नेशनलिजम! स्त्री को आज्ञाकारिणी होना चाहिए। पति ने बोला दाएँ तो दाएँ, बाएँ तो बाएँ। पति ने बोला बिछ जा, तो बिछ भी जाए, तुरंत! ये क्या तर्क है?

सबसे बड़ी समस्या तब होती है ना जब महिलाएँ ही पेट्रिआर्की के तथ्यों को आत्मसात कर लेती हैं—तथ्यों को नहीं, तर्कों को, तथ्य तो कुछ है ही नहीं वहाँ।

पैट्रिआर्कल बारगेन कहते हैं इसको। बारगेन माने सौदा। सौदा माने जिसमें दोनों पक्षों को कुछ ना कुछ मिल रहा हो। महिलाओं को भी इसमें कुछ मिलने लग जाता है ना, कि ‘तुम घर में रहो, तुम्हारी सुरक्षा का, तुम्हारी सुविधा का पूरा प्रबंध करके रखेंगे घर में। तुम घर में रहो बस’।

अब बाहर निकल कर चुनौतियाँ झेलने का प्रशिक्षण महिला को वैसे ही नहीं मिला होता बचपन से। दुकान से कुछ सामान भी ले कर आना होता है तो भाई को भेजा जाता है, बहन को नहीं। तो वैसे ही वो दुनियादारी बहुत जानती नहीं है। तो जब वो पहली दफे काम करने निकलती हैं तो समस्याएँ तो आती ही हैं क्योंकि दुनिया उसने कभी देखी नहीं होती है। अक्सर ना उसको कार चलाना आता है, बहुतों को तो साइकिल चलाना भी नहीं आता, और अब जाना है नौकरी करने, जगह बाईस किलोमीटर दूर है, रोज़ सुबह जाना है, आना है। वो हाँफना शुरू कर देती है, 'कहाँ फँस गए!'

फिर पतिदेव अपनी कुटिल मुस्कुराहट के साथ आते हैं, कहते हैं: ‘देखो, हम हैं ना!’

कहती है, ‘ठीक है, ठीक है! हम छोड़ रहे हैं नौकरी। अभी छोड़ रहे हैं। वैसे ही बड़ी तकलीफ़ हो रही थी।‘ आधी आबादी की चेतना को हमने संकुचित करके रख दिया है। कौनसा अध्यात्म अब?

सबसे बड़ा आदर्श किसको बना दो? माँ को, माँ! सुनने में बुरा लगेगा, माफ़ कर दीजिएगा, अग्रिम माफ़ी। माँ तो सबके पास है, बाप भी सबके पास है तो यहाँ क्यों आए हैं हम?

जो महिलाएँ कहती हैं कि मातृत्व सबसे बड़ा मूल्य है, वैसी महिलाएँ भी यहाँ बैठी हुई हैं। मैं उनसे कह रहा हूँ आप जाकर ये सब बातें अपनी माँ से पूछ लीजिए ना फिर। मेरी क्या ज़रूरत है? माँ अगर इतनी बड़ी चीज़ होती है तो जो मैं बता रहा हूँ वो चीज़ भी माँ ही बता दे। नहीं दिख रहा आपको कि माँ की पूरी बात भी बायोलॉजिकल है, जैविक है?

सब प्रजातियों में, सब पशुओं में मादाएँ माँ बनती हैं। माँ बनने में कौनसी बड़ी बात हो गई कि इतना इतराने लग जाते हो? ‘अब हम माँ हैं, अब हम काम थोड़ी करेंगे, अब तो हम स्पेशल हैं। अब हम घर पर बैठेंगे। हम माँ हैं।‘

पहली बात तो हो क्यों माँ? किसने कहा था? और हो भी गए हो तो घर पर काहे बैठ गए?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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