गलत संगत कैसे पहचानें? || आचार्य प्रशांत, श्री रामकृष्ण वचनामृत पर (2018)

Acharya Prashant

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गलत संगत कैसे पहचानें? || आचार्य प्रशांत, श्री रामकृष्ण वचनामृत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: कहानी है कि एक बार बकरियों के झुंड पर एक बाघिन झपट पड़ी, बाघिन गाभिन थी और कूदते समय उसे बच्चा पैदा हो गया और वो मर गयी। वो बच्चा बकरियों के साथ पलने लगा, बकरियाँ घास-पत्ते खातीं तो वो भी घास-पत्ते खाता, वो ‘मैं, मैं’ करतीं तो वो भी ‘मैं, मैं’ करता। धीरे-धीरे वो बच्चा काफ़ी बड़ा हो गया। एक दिन उस बकरियों के झुण्ड में और एक बाघ आ पड़ा और वो उस घास चरने वाले बाघ को देख आश्चर्य से दंग हो गया। उसने दौड़ कर उसे पकड़ लिया, वो ’मैं, मैं’ कर चिल्लाने लगा। वो उसे घसीटते हुए जलाशय के पास ले गया और बोला ‘देख जल के भीतर अपना मुँह देख, देख तू ठीक मेरे ही जैसा है और ये ले थोड़ा सा माँस और इसे खा।’ ये कहकर वो उसे ज़बरदस्ती माँस खिलाने लगा, पहले तो वो किसी तरह राज़ी नहीं हो रहा था ‘मैं, मैं’ कर चिल्ला रहा था, पर अन्त में रक्त का स्वाद पाकर खाने लगा। तब नये बाघ ने कहा ‘अब समझा न कि जो मैं हूँ वहीतू भी है, अब आ मेरे साथ वन में चल।’

रामकृष्ण जी कहते हैं, गुरु की कृपा होने पर कोई भय नहीं है, वो तुम्हें बतला देंगे तुम कौन हो और तुम्हारा स्वरूप क्या है।

आचार्य प्रशांत: ठीक है, खेल सारा संगत का है। यही प्रार्थना करो कि जो तुम हो उसी की संगत मिल जाए। आत्मा हो तुम और आत्मा-समान कोई मिल जाए फिर तुम्हें अपने स्वरूप की याद आ जाएगी और जो तुम नहीं हो उसकी संगत करोगे तो ज़बरदस्ती अपनेआप को पता नहीं क्या माने बैठे रहोगे और दुख पाओगे। अब यही भर लिखा है कहानी में कि वो बकरियों के साथ रहता था और ‘मैं मैं’ करता था और घास खाता था। ज़रा उसकी सेहत की सोचो, कैसा हो गया होगा? कैसा दिखता होगा? बकरे के ही जैसे दिखता होगा। जाने दुसरे बाघ ने उसको पहचाना भी कैसे लिया? धारियाँ इत्यादि देखी होंगी उसी से पहचान गया होगा, नहीं तो सेहत तो उसकी बकरी जैसी ही हो गई होगी। यही हाल होता है स्वभाव-विरुद्ध संगति करने में। और बात यहाँ बाघ-बकरी की नहीं है, बात यहाँ आत्मा की है। बाघ होना कि बकरी होना ये तो फिर भी बाहरी और सतही बाते हैं, जैविक बाते हैं, शरीर भर की बाते हैं। ‘तुम शान्त हो, तुम शुद्ध हो, निरामय हो तुम, ये स्वभाव है तुम्हारा। और तुम किसी ऐसे की संगति करोगे जो अशुद्ध हो, अशान्त हो, रुग्ण हो, तो उसकी संगति में तुम्हे दुख मिलेगा, तुम्हारे आनन्द पर धूल पड़ेगी।’ संगति के लिए यही पैमाना रखना, उसी की संगति करना जो आत्मा जैसा हो निष्काम, निर्विकार, निर्विशेष।

प्र: आचार्य जी, ऐसे लोग हर जगह तो सम्भवनहीं है न मिलने।

आचार्य: ऐसे लोग जहाँ नहीं हैं वहाँ तुम क्यों हो?

प्र: लेकिन हम जहाँ हैं तो?..

आचार्य: तो वहाँ क्यों हो तुम? जब ऐसे लोग वहाँ नहीं हैं तो तुम वहाँ क्या कर रहे हो? इसका मतलब वहाँ जैसे लोग हैं वो तुम्हे पसन्द आ गये हैं इसीलिए तुम वहाँ टिके हुए हो। प्यासा रेगिस्तान में क्या करने घुसा है? प्यासे को तो नदी, कि समन्दर कि पोखर के पास आना होगा। प्यासे से कहा जाए रेत की संगत मत कर, वो कहे ‘लेकिन रेत ही रेत है चारों ओर’ तो उससे कहा जाएगा ‘तू रेत में कर क्या रहा है? तू अभी तक भागा क्यों नहीं वहाँ से? प्रारब्ध समझ में आता है कि हो सकता है कि तेरा जन्म ही सहरा में हो गया हो, पर बच्चा तो तू अब लगता नहीं, इतने साल का हो गया है, जाने पच्चीस? जाने पैंतीस? अभी भी तू रेत ही खा रहा है? रेत चबाने से प्यास मिटेगी? वहाँ क्यों टिका हुआ है अभी तक? उचित तो ये होता कि तू वहाँ से भागा होता, तूने अपनी प्यास बुझाई होती और फिर पानी लाकर जो तेरे ही जैसे और प्यासे थे, उनकी भी तृष्णा बुझाई होती। पर ये करने की जगह तूने प्यासों का ही कुनबा बना लिया, जिनकी साझी पहचान ही यही है कि तू भी प्यासा और मैं भी प्यासा’ और हम साथ-साथ तभी तक हैं जब हम दोनों रहेंगे प्यासे। और किसी की प्यास मिटनी नहीं चाहिए, नहीं तो वो जाति बाहर कर दिया जाएगा, क्योंकि यहाँ पर हमारी साझी पहचान ही क्या है?

प्र: प्यासा

आचार्य: प्यासा। जिसकी प्यास मिटी वो बहिष्कृत हुआ,’ चलो बाहर चलो’।

‘साधो रे ये प्यासों का गाँव’ तृप्त आदमी की यहाँ कोई जगह नहीं है। देखी हैं न ऐसी दोस्तियाँ जो पनपती ही रोग पर हैं, तू भी नशेड़ी और मैं भी नशेड़ी, तो दोस्ती?

प्र: पक्की|

आचार्य: और जिस दिन तूने पीनी छोड़ी, उस दिन कसम से कह रहा हूँ दोस्ती बचेगी नहीं। दो गालीबाज़ मिल जाएँ और एक गाली देने से तौबा कर दे, तो दूसरा बहुत बुरा मानेगा, अपमान, कहेगा ‘हम क्या इतने नीच आदमी थे कि तू हमें अब गाली भी नहीं देता’ ऐसे हमारे रिश्ते होते हैं, ये हमारी संगत है। अब इसमें भी सूत्र सुन लो, जैसे पहले समझाया था न कि पूछा करो ‘क्या ये?’

प्र: ज़रूरी है।

आचार्य: वैसे यहाँ पर, जिसकी भी संगत कर रहे हो उसको सामने देखना और पूछना ‘अगर मैं और शान्त हो जाऊँ, निष्काम हो जाऊँ, बोधवान हो जाऊँ, तो इस व्यक्ति से मेरा रिश्ता गहराएगा या ये व्यक्ति भाग ही जाएगा?’ आ रही है बात समझ में? जहाँ तुम पाओ कि तुम्हारी गहराई रिश्ते को भी गहरा कर देगी, वहाँ तुम टिक जाना, उस रिश्ते को पूजना। और जहाँ तुम पाओ कि तुममें गहराई आई नहीं कि रिश्ता टूटा, उस रिश्ते को तुम जाने ही देना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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