जीडीपी और कार्बन उत्सर्जन का सम्बन्ध

Acharya Prashant

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जीडीपी और कार्बन उत्सर्जन का सम्बन्ध

आचार्य प्रशांत: दो सौ अस्सी पीपीएम से बढ़कर कार्बन डाईऑक्साइड साढ़े चार सौ पीपीएम हो गयी है। ये मटीरियल बात है न बिलकुल? इसकी कोई अकाउंटिंग होती है किसी कंपनी की बैलेंसशीट में या किसी नेशन (राष्ट्र) के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में?

आपने जो तरक़्क़ी करी उस तरक़्क़ी में आपने इतना कार्बन वातावरण में उत्सर्जित कर दिया। पर आप जब अपना जीडीपी बताते हो कि मेरा जीडीपी इतना हो गया है और इतने प्रतिशत की उसमें बढ़ोतरी है, उसमें कहीं बताते हो कि उसकी इनवायरमेंटल कॉस्ट (वातावरणीय लागत) क्या है?

नहीं बताते न?

आप कहते हो, ‘मैंने ये कर लिया।’ बाज़ार में इतनी सारी चीज़ें आ गयी हैं। ये आ गया बाज़ार में (पानी का गिलास दिखाते हुए)। आप जब इसकी क़ीमत देते हो बाज़ार में, उसमें कहीं आपसे पूछा जाता है कि इसको बनाने में जितना आपने दुनिया को बर्बाद करा है उसका भी तो टैक्स (कर) दे दो? जबकि इसकी क़ीमत में दुनिया की बर्बादी शामिल है। या नहीं शामिल है? और मैं दुनिया की इन्टेंजिबल बर्बादी की, आंतरिक बर्बादी की बात नहीं कर रहा, मैं मटीरियल डिप्लीशन (भौतिक ह्रास) की बात कर रहा हूँ। हम क्या उन मटीरियल कॉस्ट्स की भी अकाउंटिंग कर रहे हैं?

तो एक तो ये बात हुई कि आप जो ये पूरी व्यवस्था चला रहे हो, वो नीचे से क्या लेती है? रॉ मटीरियल (कच्चा माल)। रॉ मटीरियल की आप कोई अकाउंटिंग कर ही नहीं रहे। पृथ्वी को आपने पूरा ख़त्म कर दिया; आम आदमी की कामनाओं को पूरा करने के लिए क्या पृथ्वी के पास संसाधन हैं?

प्र२: हाँ।

आचार्य प्रशांत: नहीं हैं। अरे! कहाँ से हैं?

प्र२: माने जो जीने के लिए चाहिए, वो है।

आचार्य प्रशांत: आपके पास हैं, जितने लोग हैं दुनिया में सब आपके ही स्तर पर जीना शुरू कर दें तो दस पृथ्वियाँ चाहिए होंगी। आबादी की भी बात नहीं है। हमारा एक स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग (जीने का स्तर) है, स्टैंडर्ड ऑफ कंज़म्प्शन (उपभोग का स्तर) है जो कि औसत से बहुत ऊपर का है।

हम यहाँ जो चार लोग बैठे हैं, भारत में ही हम औसत से बहुत ऊपर का उपभोग, कंज़म्प्शन करते हैं। भारत की पूरी आबादी सिर्फ़ उतना कंज़म्प्शन शुरू कर दे जितना कि हम लोग करते हैं तो क्या पृथ्वी के पास उतना संसाधन है?

और भारत की आबादी ‘प्रति व्यक्ति’, ’पर कैपिटा’ , उतना कंज़म्प्शन शुरू कर दे जितना औसत एक अमेरिका का व्यक्ति करता है तो सत्रह पृथ्वियाँ चाहिए होंगी। तो आप जो अपनी कंपनी चला रहे हो ’द ह्यूमन कंपनी’ , उसको तो रॉ मटीरियल की सप्लाई (आपूर्ति) ही नहीं हो सकती। क्योंकि एक के बाद दूसरी पृथ्वी तो है नहीं कोई आपके पास, आप रॉ मटीरियल कहाँ से लाओगे अपनी कंपनी चलाने के लिए?

तो पहली बात तो रॉ मटीरियल नहीं है। दूसरी बात, जो आउटपुट निकल रहा है उसमें आपका जो डिज़ायर्ड गोल (अपेक्षित लक्ष्य) था, वो था बेचैनी से मुक्ति, वो तो मिली ही नहीं। (मुस्कुराते हुए) इनपुट के तौर पर आप सब खा गये और आउटपुट आपका कुछ निकला नहीं!

ये जो हमने मशीन बनायी है द ह्यूमन मशीन , द ह्यूमन कंपनी , वो एक ऐसी मशीन है जो सारी मटीरियल चीज़ें खाये जा रही है। सब नष्ट कर दिया — जंगल खा गयी, सारे संसाधन खा गयी, मिनरल्स खा गयी, जानवर खा गयी, सब खा गयी। समुद्रों को खा लिया, पहाड़ों को खा लिया, नदियों को खा लिया। जो कुछ भी मटीरियल था, सब खा लिया हमारी ह्यूमन मशीन ने।

आउटपुट क्या दिया है? और ज़्यादा बेचैनी।

हम कितने स्मार्ट लोग हैं! हम कितने स्मार्ट लोग हैं! इनपुट में क्या करा? पूरी पृथ्वी को खा लिया। यही करा है न हमारी ह्यूमन मशीन ने पिछले दस हज़ार साल में कि सारा रॉ मटीरियल खा लिया और बर्बाद कर दिया सब। कुछ नहीं छोड़ा। रेत तक खा गयी। नदी किनारे की रेत तक हमने खा ली। ठीक?

कुछ नहीं छोड़ा। और आउटपुट में हमें चाहिए क्या था? कि यार थोड़ा चैन मिल जाए; वो भी नहीं मिला। ज़बरदस्त लोग हैं कि नहीं!

प्र२: और बेचैन हो गये। और हम ज़्यादा एम्बिशियस (महत्वाकांक्षी) ही होते जा रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: और हमारी एम्बिशन (महत्वाकांक्षा) को पूरा करने के लिए पृथ्वी के पास संसाधन ही नहीं है। एम्बिशन होगी कहाँ से पूरी! और वो सारे संसाधन आप खा भी लें, मान लीजिए, कर लीजिए इस्तेमाल सारे संसाधनों का, तो भी क्या वो एम्बिशन पूरी हो पाती है?

जिन्होंने सारे संसाधनों का कर डाला उपभोग, उनको कितना चैन मिल गया है? और ऐसा नहीं है कि वो चैन मिल नहीं सकता। एक रिटोरिकल (शब्दाडंबर पूर्ण) बात नहीं है कि चैन तो साहब, ऐसी चीज़ है किसी को मयस्सर नहीं होता। हम शायरी नहीं कर रहे हैं। चैन मिल सकता है। बस, वैसे नहीं मिल सकता जैसे हमने सोचा है कि मिलेगा।

प्र१: जैसे अब तक करते आये हैं।

आचार्य प्रशांत: जैसे अब तक करते आये हैं, बिलकुल। ये तो चुनाव की बात है कि सचमुच चाहिए कि नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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